Thursday, March 20, 2008

फेंटा

कल यानी 19 मार्च 2008 को नवीन भाई (नवीन नैथानी) और मैं साथ थे। शिरीष कुमार मौर्य का ब्लाग देख रहे थे। हरजीत याद आ गया। नवीन भाई कह रहे थे, ''आज हरजीत होता तो ब्लाग पर जुटा होता।'' ऐसे जैसे स्पीक मेके के साथ जुटा रहता था, जैसे समय साक्ष्य के साथ और जैसे बाद में बच्चों के खिलौने बनाने में जुट गया था। कभी कभी एकलव्य के साथ भी। कोई कभी पूरी तरह से कभी नहीं जान पाया वह कहॉं-कहॉं जुटा है इन दिनों। ब्लाग पर भी होता तो सिर्फ अपने ही नहीं ढेरों अपने तरहों के साथ होता। कम्बख्त समय से पहले चला गया। वह हुनरमंद कारीगर था लकड़ी का। गज़ल कहता था। स्केच करता था। फोटोग्राफी करने लगा था। फोटोग्राफी सीखाने वाला हुआ अरविन्द शर्मा। वही अरविन्द जिसका पता ठिकाना था - ''टिप टॉप''। आजकल कहां है, मैं नहीं जानता। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं अहमदाबाद में है। हमारा देहरादूनिया भाई सूरज प्रकाश शायद जानता होगा उसका पता। अहमदाबाद आना जाना अरविन्द का पहले भी होता ही रहता था। अहमदाबाद में उसके परिवार के लोग जो ठहरे। भाई सूरज प्रकाश को वहीं से खोज कर लाया था वह और हम सब जानने लगे फिर सूरज भाई को।
जी हॉं, उसी अरविन्द शर्मा का जिक्र कर रहा हूं मैं जिसकी आंखें बेशक कैमरे की आंख में अपनी आंख गढ़ा ऑब्जेक्ट का सही फोकस न कर पाती हों पर दूरी के अनुमान से खींची गयी उसकी तस्वीरों को देखकर मजाल है किसी की जो उसके होंठ खुद ही न खुल जाएं - वाह। क्या क्लीयरटी है, क्या ऐंगल है।
उसके खींचे हुए पेडों के न्यूड कभी देख लें तो जान जायेगें कि मित्रतावश नहीं कह रहा हूं। हरजीत का या अवधेश का या कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) का जिक्र हो तो कविता फोल्डर निकालने वाले उस अरविन्द शर्मा की याद न आए, ऐसा असंभव है। हो सकता है यह मेरा अरविन्द से खासा लगाव हो। अन्य मित्रों की यादों में उसकी तस्वीर न जाने कब उभर जाती है। यदि हरजीत के शब्दों को उधार लेकर कहूं तो शायद कह पाउं -

जब भी ऑंगन धुयें से भरता हैदिन हवाओं को याद करता है
साफ़ चादर पे इक शिकन की तरह मेरी यादों में तू उभरता है

हरजीत के बहाने वह अरविन्द याद आ रहा है जो अपनी रचनाओं को कभी तरतीब से न रख पाया। न जाने अब भी लिखता है या नहीं।
एक बार टिप-टॉप में अरविन्द ने अपना थैला खोला। वही थैला, जिसमें कैमरा, फिल्म, समय बे समय खींचे गये किसी के भी चित्र जो जब तस्वीर के ऑब्जेक्ट की तलाश कर लेते तो अरविन्द की रोजी रोटी का जुगाड़ हो जाते, रखे रह्ते और उसकी रचनाएं जो पन्नों के रुप में बिखरी पड़ी होतीं, वे भी उसी में। ज्यादातर कविताएं या आलेख जो किसी अखबार के पृष्ठ पर छपने को कसमसा रहे होते। पर उस दिन अरविन्द ने कागजों को जो पुलिंदा निकाला तो वो उपन्यास था।
''मैं आज तुम लोगों को उपन्यास सुनाता हूं।"" उसने कहा और लगा पढ़ने।
पहला पेज पढ़ने के बाद उसे क्रमवार दूसरा पेज ही नहीं मिला उसे। जो पढ़ा वो न जाने कौन से क्रम का था। पहले पढ़े गये पृष्ठ से वह जुड़ ही नहीं पाया। दूसरा पृष्ठ समाप्त तीसरा पढ़ा जाने वाला पृष्ठ संभवत: पच्चीसवां या तीसवॉं ही रहा हो शायद। ऐसे कईयों पृष्ठ पढ़े गये।
जीवन में कभी क्रम से न चल पाने वाला अरविन्द आखिर लिखने में कैसे क्रमवार रहता।
राजेश भाई (राजेश सकलानी) ने पूछा -''उपन्यास का शीर्षक क्या है अरविन्द ?"
जवाब हरजीत ने दिया -"फेंटा।"
और अरविन्द के हाथ से उसने उपन्यास रुपी कागजों का बण्डल झपटकर ताश की गड्डी की तरह उसे फेंटा और जोर-जोर से पढ़ने लगा- फ़ेंटा।

प्रस्तुत हैं हरजीत सिंह की गज़लें और शेर -

सोचकर सहमी हुई खामोश आवाज़ों के नाम
कितने खत लिक्खे हैं मैंने बंद दरवाज़ो के नाम
झील के पानी को छूकर जब हवा लहरायेगी
याद आयेगें मुझे तब कितने ही साज़ों के नाम
पत्थ्रों के बीच ये सरगोशियॉं कैसी भला
कोई साज़िश चल रही है आईनासाज़ो के नाम
कितने दीवारों को काला कर गया इक हादसा
इस बहाने पढ़ लिये लोगों ने लफ्फ़ाजों के नाम
फूल मसले, बाग लूटे, और खुश्बू छीन ली
मुल्क होता जा रहा है कुछ दगाबाज़ों के नाम
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रेत बनकर ही वो हर रोज़ बिखर जाता है
चंद गुस्ताख्ा हवाओं से जो डर जाता है
इन पहाड़ों से उतर कर ही मिलेंगीं बस्ती
राज़ ये जिसको पता है वो उतर जाता है
बादलों ने जो किया बंद सभी रास्तों को
देखना है कि धुऑं उठके किधर जाता है
लोग सदियों से किनारे पे रुके रहते हैं
कोई होता है जो दरिया के उधर जाता है
घर की नींव को भरने में जिसे उम्र लगे
जब वो दीवार उठाता है तो मर जाता है
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इक शख्स मेरे घ्ार में कई साल तक रहा
किस नाम से रहा है मुझे खुद पता नहीं

मेरे अहसास पे उभरा है इस तरह कोई कॉच पर जैसे कि उंगली का निशॉ रहता है

हम किसी और बात पे खुश हैं
तेरा मिलना तो इक बहाना है

कोई चुप हके छुपा लेता है उन बातों को
जिसके कहने से उसे लोग समझ ही सकें

1 comment:

ghughutibasuti said...

रोचक यादें हैं, कुछ और पढ़ूँगी तो अधिक समझ पाऊँगी ।
घुघूती बासूती