Friday, March 14, 2008

भगवत रावत की कविता

यह महज संयोग है

अभी पृथी इतनी छोटी नहीं हुई की गेंद की तरह
उनकी मुट्ठी में आ सके
और समुन्द्र इतने उथले नहीं हुए कि उनके लिए
टेनिस का कोर्ट बन सके
और यह महज संयोग है
हमारी किसी बचाव की तैयारी के तहत नहीं कि अभी
बहुत सारी चीजें
कुछ लोगों की पकड़ के बाहर हैं
वैसे उनके नक्शों पर
पृथ्वी और आकाश के बीच जो भी जघह खाली है
उसके प्लाट्स काटे जा चुके हैं और उन पर
ताले डाले जा चुके हैं
और हम आदिवासियों की तरह आज भी
खुले आकाश के नीचे
अपनी दारुण अकिंचनता में
रोते हैं, गाते हैं
गाते हैं, रोते हैं
सूरज हमारा है, चन्द्रमा हमारा है
हमारा है आकाश, वायु, जल
और धरती हमारी है .

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