Tuesday, April 1, 2008

देहरादून में रहते थे कवि कुल्हड़



* मदन शर्मा
देहरादून जैन धर्मशाला में, समाज सेवी वीरेन्द्र कुमार जैन की सपुत्री के शुभ विवाह का आयोजन था। काफी चहल पहल का माहौल था। बड़ा हाल अतिथियों से खचाखच भरा था। एक कोने में, आठ-दस प्रशन्स्को से घिरे कवि कुल्हड़, अपनी चिरपरिचित विनोदपूर्ण शैली में बातचीत करने में व्यस्त थे। प्रशन्स्को में से एक ने कह दिया, ""कुल्हड़ जी, कुछ हो जाये।'' ""क्या हो जाये?'' कुल्हड़ जी ने चकित होकर पूछा। ""कोई छोटी-मोटी कविता ही हो जाये।''
कुल्हड़ जी का मूड बदल गया। थोड़ा गम्भीर होकर बोले, ""देखो मित्र, यह छोटी मोटी, लोकल कवि, यहां वहां सुना दिया करते है। हम अखिल भारतीय स्तर के कवि हैं और कविता, कवि सम्मेलन के मंंंंच पर ही सुनाया करते हैं। वो उधर डी। ए। वी। कालेज देहरादून के प्रोफेसर खड़े हैं। वे आप को छोटी मोटी सुना देन्गे। मगर जहां तक हमारी बात है, हम उन में से नहींे, जो मोची से जूता ठीक कराते समय भी, कविता सुनाने लगें।''इसी मेहफिल में, एक सरदार जी, कुल्हड़ जी को बार बार हाथ जोड़े जा रहे थे। कुल्हड़ जी ने उनकी और निहारा और कहा, ""मैंने आपको पहचाना नहीं।'' सरदार जी ने पुन: हाथ जोड़े और कहा, ""मैं तो जी बस आप के जूते साफ करने वाला, एक तुच्छ प्राणी हूं।'' कुल्हड़ जी ने उसकी ओर घूर कर देखा। फिर सस्नेह कहा, ""देखो, यदि जूते साफ करने वाले हो, तो बाहर जाकर बैठ जाओ। यहां सम्मानित अतिथि भोजन करने वाले हैं।'' हास्यरस के वरिष्थ कवि श्री सोमेश्वर दत्त शन्खघर 'कुल्हड़" से मेरी पहली भेंट, आर्य समाज मन्दिर में आयोजित, हिंदी साहित्य समिति की एक बैठक के दौरान हुई। वहीं मौजूद कवि हर्ष पर्वतीय ने उनसे मेरा परिचय कराया। कुल्हड़ जी बड़ी आत्मीयता से मिले और जब हर्ष जी ने उन्हें बताया, कि इन्ही दिनों मेरा उपन्यास प्रकाशित हुआ है, तो वे प्रसन्न होकर बोले, ""किसी दिन मिलिये और अपना उपन्यास भी दिखाइयंए।''

मैंने पूछा, ""आप से कहां भेंट हो सकेगी?'' कुल्हड़ जी ने उत्तर दिया, ""देखो मित्र, मैं अपने निवास पर तो किसी को आमंत्रित नहीं किया करता। एक लोकल कवि मेरे पास आया करता था। वह एक दिन मौका पाकर, मेज़ पर रखे नोट और रेज़गारी लेकर चलता बना।।। आप ऐसा करें, ईस्ट केनाल रोड़ पर हमारा पुरातत्व विभाग कार्यालय है। आजकल वही हमारा ड्राइंगरूम है। आप किसी दिन वहीं आ जायें।''
कुल्हड़ जी से तीन-चार बार मेरी वही भेंट हुई। उसके बाद उन्होंने विधिवत 'पर्मिशन" जारी करते हुए कहा, ""आप शरीफ आदमी जान पड़ते हैं। रेसकोर्स चौराहे के पास, विकास होटल में मेरा निवास है। आप वहीं आ जाया करें।''
कुल्हड़ जी ने मेरा साधारण-सा उपन्यास 'शीत लहर" गम्भीरता से पढ़ा और उस पर पेंसिल से, सभी अशुद्धियों और त्रुटियों पर निशान लगा दिये। भेंट होने पर, उन्होंने विस्तार से बातचीत की और भविषय के लिये कुछ हिदायतें भी दीं। लेखन के बारे में उन्होंने समझाया, ""परिश्रम करो। अच्छा साहित्य पढ़ो और पूरे आत्म विशवास के साथ लिखो। प्रशनसा करने वाले को, शक की निगाह से देखो और अधिक प्रशनसा करने वाले को, तो अपना शत्रु ही जानो। एक बार जम जाने के बाद, जो भी सांप - अजगर मार्ग में नज़र आये, उसे तलवार से काटकर, आगे बढ़ जाओ।''

कुल्हड़ जी के एक घनिषट मित्र हरिसिंह 'हरीश" भी काफ़ी अक्खड़ और मुहंफट किस्म के साहित्यकार थे। वह किसी सरकारी दफतर में अधिकारी थे। एक बार मिले, तो छूटते ही बोले, ""आप को उपन्यास छपवाने की किस अक्लमन्द ने राय दी थी?'' मैं सहम कर रह गया। वे फिर बोले, मैं पढ़ चुका हूं आप का वह उपन्यास। उस में भाव पक्ष तो है, मगर बुद्धि पक्ष का पूर्णत: अभाव है।'' मैं तब भी चुप रहा, तो समीप बैठे कुल्हड़ जी हँसकर बोले, ""हरीश, एक बार सुन लो। इनका उपन्यास जैसा भी है, मगर तुम्हारे उपन्यास से काफ़ी अच्छा है।''
हरि सिंह हरीश ने अपने उपन्यास की प्रति मुझे देते हुए कहा, ""पढ़ कर बताइये, कैसा है।''

कुल्हड़ जी हँसकर बोले, ""कैसा है, यह मैं अभी बता देता हूं। मदन जी, यह हरिसिंह हरीश नाम का व्यक्ति जितना घटिया है, उससे कहीं घटिया, इसका यह उपन्यास है। इस पुस्तक के पांच पृषठ पढ़ जाना भी, हर किसी के वश की बात नही। आप यदि किसी तरह पूरा उपन्यास पढ़ जायें, तो पिक्चर मेरी ओर से।''
उस समय मेैंने कुल्हड़ जी की बात को उपहास में ले लिया था। किंतु जब वह उपन्यास पढ़ा, तो महसूस किया, कि हास्य के दौरान भी वे अकसर गम्भीर ही हुआ करते थे।
उन्हीं हरीश जी का एक और किस्सा याद आ गया। वे एक दिन, कुल्हड जी के निवास पर, मोटर साइकिल पर घ्ाड़घ्ाड़ाते पहुचें और ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने लगे। कुल्हड़ जी हड़बड़ा कर उठे और दरवाज़ा खोला। हरिसिंह हरीश पर निगाह पड़ते ही, उन्होंने तीन चार भारी भरकम गालियों के साथ स्वागत किया। हरीश जी नाराज़ होकर बोले, ""यार, कभी तो खय़ाल कर लिया करो। मेरी पत्नी साथ है और तुम इस तरह गालियां बके जा रहे हो।''
कुल्हड़ जी ने हाथ जोड़, श्रीमती हरीश को नमस्कार किया और बड़ी विनम्रता से कहा, ""क्षमा कीजिये भाभी जी, दरअसल मैंने आपको देखा नहीं था।'' फिर खिलखिला कर कहने लगे, ""वैसे एक बात तो अच्छी ही हुई। भाभी जी को यह पता चल गया, कि हरिसिंह हरीश की, मित्रों के बीच क्या कद्र है।''
एक दिन, कुल्हड़ जी के दफ़तर के एक सहयोगी ने कहा, ""मैंने आपका इतना नाम सुना है। मगर मैंने आज तक आप की एक भी कविता नहीं सुनी।''
कुल्हड़ जी ने उत्तर दिया, ""आप सौभाग्यशाली हैं। मेरी कविता वो लोग सुनते हैं, जिनकी किस्मत फूट गई होती है।'' फिर वह मेरी ओर मुड़े और पूछा, ""मदन जी, आपने कभी कविता नहीे लिखी।''

मैंने बताया, कि कभी नहीं लिखी।

""क्यों नहीं लिखी? कोशिश तो की ही होगी?'' मैंने कहा, ""कोशिश भी नहीं की।।। मेरे अंदर यह प्रतिभा ही नहीें है।''
कुल्हड़ जी हँसकर कहने लगे, ""आप क्या समझते हैं, इतने लोग, जो कविता लिख रहे हैं, सभी प्रतिभा संपन्न हैं? हमारे इसी देहरादून में, पांच सौ कवि तो होंगे ही। किसी को भी भाषा का ज्ञान नहीं। छंद अलंकार को तो गोली मारो, यही पता नहीं चलता, ये क्या कहना चाहते हैं। रोते हैं या हंसते, यह भी आभास नहीं होता। उर्दू शब्दों का ऐसे प्रयोग करते हैं, जैसे सब के सब मुन्शीफ़ाजिल हों। इनमें ऐसे भी है, जो हिंदी गोषठी में गज़ल पढ़ कर सुनाते हैं और उर्दू की नशिस्त में हिंदी के बिरह गीत प्रस्तुत करते हैं!''

वे थोड़ा रूककर फिर कहने लगे ""कविता के मामले में, एक बड़ी सुविधा यह है कि आप किसी प्रकार चार कविताएं लिख डालिये और सिर्फ़ उन्ही चार कविताओं को, देश के कोने-कोने में आयोजित कवि सम्मेलनों के मंच पर, सस्वर या बेसुरे, लगातार आठ वर्ष तक पढ़ते चले जाइये। मैं इसी शहर के एक ऐसे महाकवि को जानता हू, जिसने गत् चालीस वर्ष में, केवल एक कविता लिखी है और उसी बीस शब्दीय महाकाव्य की रचना कर, उसने अमरत्व प्राप्त कर लिया है। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को तो अमर होने के लिये, तीन अदद कहानियां लिखनी पड़ी थी। किंतु हमारे इस महाकवि ने केवल बीस शब्दों की रचना से ही, हिंदी साहित्य जगत में तहलका मचा दिया। एक आप हैं, जो दो ढ़ाई वर्ष बर्बाद करने के बाद, एक उपन्यास पूरा कर पाते है। फिर किताब के छपने का झंझट और पाठक उस उपन्यास को तीन चार घ्अनटे में निबटा कर, एक और पटक देता है और इतने उपन्यास लिखने के बाद भी, आप अमर नही हो पाये। मेरी मानिये, तो आप भी हमारे महाकवि जैसी दो चार उल्टी सीधी कविताएं लिख मारिये।''
मगर मैंने तब भी कविता लिखने की कोशिश नहीं की। और कुल्हड़ जी ने इस बात पर संतोष ही व्यक्त किया। उन्होंने कितने ही लोगों के पास प्रशनसा करते कहा, ""मदन शर्मा समझदार है, उसने कविता लिखने की एक बार भी हिमाकत नही की।''
किसी गोषठी में, एक कवि काफी देर से, किसी अन्य कवि की आलोचना किये जा रहे थे। गोषठी में कवि वीर कुमार 'अधीर" भी मौजूद थे। कुल्हड़ जी बोले, ""अधीर तुम्हें याद है, किसी काव्य संग्रह में इन्हीं श्री मान जी ने अपनी एक कविता में लिखा है।।।।। मैं यदि सुबह उठकर पेशाब करने न जाऊं, तो मेरा कोई क्या कर लेगा। इनसे पूछो, वहां इनकी कविता का क्या स्तर रहा था।''
लेखक नवीन नौटियाल के 'इंडियन आर्ट स्टूडियो" में 'संवेदना" की मासिक गोषठी चल रही थी। वहां 'जंजीर" साप्ताहिक के संपादक स्वचन्द्र प्रकाश मेरे बराबर बैठे थे। वे वहां मुझ से मिलने ही आये थे। गोषठी सम्पन्न हो जाने पर, सभी बाहर निकले, तो कुल्हड़ जी पर नज़र पड़ी। चन्द्र प्रकाश उनसे कहने लगे, ""आप अंदर क्यों नहीं आ गये?''
कुल्हड़ जी बोले, ""मैं यहां मदन जी से मिलने चला आया। मगर चन्द्र प्रकाश, आप यहां कैसे? संवेदना की गोषठी में तो सिर्फ पढ़े-लिखे लोग भाग लेते है।''
चन्द्र प्रकाश कुल्हड़ जी से काफी दिन तक नाराज़ रहे। बहुत से लोगों को" यह मुगालता रहा, कि कुल्हड़ जी सीमा से भी बढ़ कर मुहफट हैं और वे किसी का भी अपमान कर सकते हैं। मगर ऐसा नही था। वे स्पषटवादी होने के साथ साथ, सिद्धांतवादी भी थे। बनावट उन्हें बिल्कुल पसन्द नही थी। कोई उनके सामने डींगंे हाकें, यह सहन कर पाना उनके लिये सहज न था। वे बहुत ही सहज और विनम्र थे और परिस्थिति देखकर ही बात किया करते थे। मुझे उन से सदा ही आदर और स्नेह मिलता रहा।
देहरादून, कुल्हड़ जी का 'अपना शहर" था। उनकी पत्नी, दिल्ली में किसी कालेज की प्राचार्य थी और वे स्वयं देहरादून में पुरातत्व विभाग में, उच्च पद पर नियुक्त थे। अत: उन्हें इधर अकसर अकेले ही रहना पड़ता था। इसके बावजूद मैं जब भी उनसे मिलने गया, उन्होने अपने हाथ से चाय बना कर पिलाई।
लेखन के बारे में उन्होंने बहुत कुछ समझाया। अच्छी अच्छी किताबें पढ़ने के लिये दी, ताकि उन्हें पढ़कर मैं बेहतर लिखने का प्रयास करूं।
अन्य लोगों को उनसे मिलने के लिये, समय लेना अनिवार्य था। मगर मेरे लिये कोइ बंदिश नही थी। वैसे उनका नियम था, कि सुबह ग्यारह बजे से पूर्व, वे अपने कमरे का दरवाजा नही खोलते थे। उससे पूर्व वे कई घ्ंटे पूजापाठ में लगाते थे।
कुल्हड़ जी पक्के शाकाहारी थे। मिठाई के बहुत शौकीन। कहा करते, ""ब्राहमण का यह भी धर्म है, मीठा खाना और कड़वा बोलना।'' कवि सम्मलेन के लिये जाते समय, वे हमेशा साफ़ पानी से भरी बोतल, साथ लेकर चलते थे ।कवि सम्मलेन में कविता पाठ का निमंत्रण मिलने पर वे अन्य कवियों की तरह, कभी मोल भाव नहीं करते थे। मगर मान सम्मान का पूरा ध्यान रखते। एक बार, किसी संस्था की और से, एक कार्यकर्ता इन्हें कवि सम्मेलन के लिये आमंत्रित करने आया, तो गलती से पूछ बैठा, ""कवि सम्मेलन में आने का आप क्या लेंगे?'' कुल्हड़ जी ताव खाकर बोले, ""क्या तुम्हें मैं शक्ल से भीखमंगा नज़र आ रहा हूं?''
मित्रों के लिये, वे कई बार, बिना धनराशि लिये भी, कविता-पाठ के लिये गये। वहां भी उन्होंने वैसे ही जमकर कविताएं पढ़ी, जैसे अन्य कवि सम्मलेनों में पढ़ते थे और कवि सम्मलेन हमें पूरी तरह छा जाते थे।
उन्होंने बहुत अधिक कविताएं नहीं लिखी। किंतु उनकी अदायगी इतनी उम्दा थी, कि बार-बार सुनने के बावजूद, वे कविताएं नई और ताज़ा मालूम पड़ती थी। उन्हंे स्वयं अपने लेखन के बारे में कभी गलतफहमी नही हुई। वे स्वयं ही कहा करते, ""देखो हमारी कविता दो कौडी की भी नहीं: मगर हनुमान बाबा की कृपा से, हमारा आत्मविशवास सदैव कार्य करता है। आज तक हम कभी हूट नही हुए। वरना बड़े-बड़े धुरन्दर मंच पर जाकर, अपनी हीन भावना के कारण, हूट हो जाते हैं।''
एक बार कुल्हड़ जी, मेरे साथ सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" से मिलने राजपुर गये। वहां हम दो ढ़ाई घ्ंटे रहे। मफ्तून साहब अपने दिल्ली और 'रियासत" अखबार वाले संस्मरण सुनाते रहे और हम चुपचाप सुनते रहे। कुल्हड़ जी इस दौरान, कुछ भी नही बोले। लौटते समय मैंने उनकी इस चुप्पी का कारण जानना चाहा। वे बोले, ""मफ्तून साहब विद्धवान व्यक्ति है। उनके पास अनुभवों का भंडार है। उनकी भाषा शैली उच्च स्तर की है। उनको सुना जाना जरूरी है। वरना हमारा क्या है, हम तो बकते ही रहत हैं! ''
उर्दू शायर ज़िया नेहटौरी, उनके पक्के दोस्त थे। दोनों आपस में जी भर कर बहस करते और एक दूजे को बेहद चाहते थे। दूसरों से भी कहते, ""यह मुल्ला है और मैं ब्राहमण। हम दोनों, हिंदु-मुसलिम एकता का प्रतीक है। यह अलग बात है, कि हमें इस एकता के लिये, कोई राषट्रीय पुरस्कार नही मिला।''
एक दिन बारिश हो रही थी। वैसे भी बरसात का मौसम था। लगभग डेढ़ घ्ंटे से कुल्हड़ जी से, उनके निवास पर बातचीत चल रही थी। मैं घ्ाड़ी देख उठ खड़ा हुआ। कोने में रखी अपनी छतरी उठाई और चलने लगा। कुल्हड़ जी बोले, ""चल रहे हैं, अच्छी बात। छतरी है न आप के पास! ठीक है, समझदार आदमी वही है, जो बरसात के मौसम में, बिना बारिश के भी, छतरी साथ लेकर चले।

ब्लाग पर आप

(हमारी कोशिश है कि इस ब्लाग को एक पत्रिका की तरह चलाते हुए अप्रकाशित रचनाओं को यहॉं प्रकाशित करें। वैसे पहले कहीं प्रकाशित हो चुकी रचना के पुन: प्रकाशन से हमारा परहेज़ नहीं। हॉं, उस स्थिति में होगा यही कि अपनी पहुच की सीमा के भीतर ही हम रचनाओं को ढूंढ कर पाठकों तक पहुॅचा पायेगें। लेकिन यदि कोई अप्रकाशित रचना हमें प्राप्त होती है तो उसका स्वागत किया जायेगा।
वरिष्ठ कथाकार मदन शर्मा ने देहरादून के हास्य कवि कुल्हड़ पर अपना संस्मरण हम तक पहुॅचाया। उनके इस सहयोग के लिए आभार व्यक्त करते हुए हमें खुशी हो रही है कि हमारे साथी रचनाकारों का सहयोग हमें मिल रहा है।
लेखक मित्रों से विनम्र आग्रह है कि रचना सीधे पोस्ट से भी हमारे पास भेज सकते हैं या ई मेल के ज़रिये भी। हां, एक निवेदन अवश्य कि रचना यदि ज्यादा लम्बी न हो तो उसे प्रकाशित करने में सुविधा रहेगी। )
हमसे सम्पर्क के लिए :
डाक पता विजय गौड़ सी-24/9 आयुध निर्माणी ऐस्टेट, रायपुर, देहरादून - 248008
ई मेल: vggaurvijay@gmail.com
नेपथ्य: 09411580467

2 comments:

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छा संस्मरण पढ़वाया। शुक्रिया।

Udan Tashtari said...

बेहतरीन संस्मरण!! आभार पढ़वाने का!