Saturday, April 5, 2008

गरम कपड़ो की गठरी खोल लो

सावन के महीने सा अंधियारा और शरद माह की सी ठंड है आज देहरादून में
यदि आप देहरादून में है - स्वेटर, मॉफलर, जेकेट या कोई भी गरम वस्त्र आपके पास होना ही चाहिए।
होली को बीते एक पखवाड़ा हो चुका है। गालों पर लगा गुलाल, यदि वह सचुमच प्रेम का रहा हो तो उसकी चमक बरकरार रहनी ही है, वरना बनावटी रंगों का पक्कापन तो ठटठा ही बन गया होगा।
इस बार होली पर मौसम था ही बहुत शानदार। धूप खिली हुई थी। बाल्टियों भर पानी से भिगों देने के बाद भी मात्र कुछ मिनटों में ही होलीयारों के भीग चुके वस्त्र सूख जा रहे थे।
होलीयारे भी मस्त कि सूखे रंग से नहीं, भई कुछ गीला हो जाये। देखो तो कैसी धूप खिली है इस बार।
रंगों की थकान मिटाने के लिए गरम पानी की जरुरत शायद ही किसी होलीयारे को पड़ी हो इस बार। घूप से तप रहे पाईपों के भीतर दौड़ रहा पानी भी ठंडी चसक को खो चुका था।
देहरादूनिये कहने लगे थे, इस बार तो लगता है गर्मी जम कर पड़ेगी। जब अभी मार्च ही नहीं बीता और पंखे चलने लगे हैं तो अप्रैल, मई, जून में न जाने क्या होगा।
आशंका कहे या अनुमान। धरे रह गये - आज दोपहर में। जब तह लगाकर, लोहे के बड़े बक्सों के भीतर रख दिये गये गरम वस्त्रों को दुबारा निकालना पड़ गया।
जी हां, यह देहरादून का मौसम है।
होली के अगले दिन जयपुर से कथाकार अरुण कुमार असफल का फोन आया था, 24 मार्च को देहरादून पहुच रहा हॅ। मौसम कैसा है ? ठंड तो नहीं ?
जब छ: सात वर्ष देहरादून में बिताने वाले योगन्द्र आहूजा देहारादूनिये हो गये तो फिर, पिछले लगभग 12 वर्ष देहरादून के साहित्यिक, समाजाजिक माहौल में पूरी तरह से रमा अरुण कैसे देहरादूनिया न होता। अरुण ने अपना नाम असफल न रख होता तो इस वक्त मैं उसे अरुण कुमार देहरादूनिया कहता। देहरादून के मौसम के अचानक से बदलते मिज़ाज़ को उसने नज़दीक से देखा है। उसके ज़ेहन में सवाल यूंही नहीं आया होगा। वरना सूचना तंत्र के विस्तार के बाद किसी भी भूभाग के वर्तमान तापमान को तो कोई भी जान सकता है।
उसके सवाल पर क्या कहता !
चले आओ यार, मस्त है मौसम। दिन तो बहुत ही गरम होने लगे हैं।
ये तो बात दस-एक दिन पहले की है। आज ही सुबह जब फुरसतिया, अनूप शुक्ला जी से बात हो रही थी, लगभग 7.45 पर, तब भी कहां था ऐसा अनुमान कि दिन में गरम कपड़ों की दरकार ही नहीं होगी बल्कि स्कूल जा चुकी बच्ची को ठंड न लग जाये, इस बात की चिन्ता से ग्रसित मां जब स्वेटर निकाल बच्ची के पिता को दौड़ा रही होगी कि जाओ स्वेटर भी ले जाओ और बरसाती भी, नहीं तो बच्ची भीग ही जायेगी और ठंड भी बढ़ रही है। उस वक्त तो आप्टो इलैक्ट्रानिक्स फैक्ट्री, देहरादून में पिछली ही रात सम्पन्न हुए, निर्माणी के स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित उस कवि सम्मेलन की चर्चा होती रही जिसमें देश भर की निर्माणियों से आये कवियों ने ही हिस्सेदारी की। कुछ इधर-उधर की भी बातें हुई। मौसम का तो जिक्र आया ही नहीं। आता भी क्यों ! जब सब कुछ अपनी सामान्य गति से ही हो, तो।
कल शाम यानि 4 अप्रैल को कुछ ठंडक तो थी वातारण में। हल्की बूंदा-बांदी जो हुई थी। पर सुबह मौसम वैसा ठंडा नहीं था और बादल भी वैसे नहीं, जैसे कि दिन खुलने के बाद होते चले गये। लगभग 11 बजे के बाद मौसम ने करवट बदलनी शुरु कर दी थी।
तेज बारिस होने लगी और ठंड लगातार बढ़ती गयी। दोपहर आते आते तो आधी बांहों की कमीज़ पहनना शुरु कर चुके देहरादूनिये भी स्वेटर, जेकेट पहने नज़र आने लगे।
बादलों की गड़गड़ाहट और दमकती बिजली के साथ घिरता जा रहा अंधेरा ठंड को और ज्यादा बढ़ाने लगा। सावन के महीने का सा अंधियारा और शरद रितु की सी ठंड, अप्रैल की धूप पर हावी होने लगा। ऊपर पहाड़ों में कहीं बर्फ भी गिर ही होगी शायद।
तो ऎसा है आज देहरादून का मौसमा
अपनी ही एक छोटी सी कविता, जो वैसे तो किसी और संदर्भ में लिखी गयी पर इस वक्त गुन-गुनाने का मन है:-
बारिस
सब कह रहे हैं
बारिस बंद हो चुकी है
मैं भी देख रहा हूं
बाहर नहीं पड़ रहा पानी
पर घर के भीतर तो पानी का तल
अब भी ज्यों का त्यों है
आगन में भी है पानी
घर के पिछवाड़े भी है पानी
सड़क पर भी है पानी
फिर मैं कैसे मान लूं
बारिस बंद हो चुकी है।

3 comments:

Udan Tashtari said...

सुन्दर गद्य और सुन्दर पद्य. बधाई.

विजय गौड़ said...

aabhar. aap blog tak aaye or apni ray bhi di.

अविनाश वाचस्पति said...

गर्म कपड़ों की गठरी
खोलने मात्र से ठंड
जाएगी भाग क्‍या ?

पहनना भी जरूरी
होना आवश्‍यक है.