Wednesday, April 9, 2008

दिनेश चंद्र जोशी की कविता

डांगरी

जब तक साफ सुथरी चमकती रहती है डांगरी
तब तक नहीं लगती असली खानदानी डांगरी,
असली लगती है तभी, जब हो जाती है मैली
चमकते हैं उस पर ग्रीस तेल कालिख के
दागआता है डांगरी के व्यक्तित्व में निखार,
जब मशीन की मरम्मत करता हुआ कारीगर
निकलता हे डांगरी पहना हुआ,
छैल-छबीला, गबरू जवान या चश्मा पहना हुआ
हुआ कोई अनुभवी मिस्त्री ही सही, अचानक प्रकट होता हुआ
मशीन या ट्रक के गर्भ से बाहर
मैली कुचैली धब्बेदार डांगरी पहने हुए
सने हों हाथ ग्रीस या कालिख से और आंखों में
चमक हो, साथ में बत्तीसी निकली हो श्रम के संतोष से, तो
समझ लो सार्थक हो गया डांगरी का व्यक्तित्व।

साफ सुथरी बिना दाग धब्बे की डांगरी
पहनते हैं कई उच्च अधिकारी, प्रबंधक, महाप्रबंधक जब दौरा होता है
कारखाने में किसी विशिष्ट अतिथि मंत्री या प्रधानमंत्री का।
ख्याल आता है, इन सब भद्रजनों को अगर पहना दी जाय
कालिख सनी डांगरी और कर दिया जाय किसी बूढ़े मैकेनिक की
कक्षा में भर्ती, तो कैसा होगा परिदृश्य।
वैसे पहनते रहनी चाहिए डांगरी हर इंसान को जीवन में
एक नहीं कई बार, छूट नहीं मिलनी चाहिए इसकी कवियों,
लेखकों, कलाकारों, मशीहाओं और पंडे पुजारियों बाबाओं को भी।

(दिनेश चंद्र जोशी की इस कविता का पाठ 'संवेदना" की मासिक गोष्ठी में हुआ था। संवेदना, देहरादून के रचनाकारोंे एवं पाठकों का अनौपचारिक मंच है। महीने के पहले रविवार को संवेदना की मासिक गोष्ठियां पिछले 20 वर्षों से अनवरत जारी हैं। 6 अप्रैल 2008 की गोष्ठी में, इस कविता का प्रथम पाठ हुआ। गोष्ठी में पढ़ी गयी अन्य रचनाओं में मदन शर्मा का एक आलेख भी था, जिसमें उन्होंने अपनी पसन्दिदा सौ पुस्ताकों का जिक्र किया। राम भरत पासी ने भी अपनी नयी कविताओं का पाठ किया। सुभाष पंत, डॉ। जितेन्द्र भारती, गुरुदीप खुराना, एस पी सेमवाल, प्रेम साहिल आदि गोष्ठी में उपस्थित थे। )

2 comments:

Anonymous said...

very nice blog !!

अमिताभ said...

very nice blog !!