Wednesday, May 21, 2008

राज-काज की भाषा और जनता की भाषा

(भाषा को लेकर पिछले कुछ दिनों से हमारे ब्लागर साथी एक ऐसी कार्यवाही में जुटे हैं जो मोहल्ले में विवाद नहीं तो चर्चा को तो जन्म दिये हुए ही है। कल यानि 20 मई को बुद्ध पूर्णिमा थी। वर्ष 2001 में बुद्ध पूर्णिमा के ही दिन मैंने और मेरे कथाकार साथी अरुण कुमार असफल ने तेलगू के कवि वरवर राव के साथ उनके अपने रचनाकर्म, समकालीन साहित्य सांस्कृतिक स्थितियों और तेलगू साहित्य पर कुछ बातचीत की थी। वर्ष 2002 में साहित्यिक कथा मासिक कथादेश के मई अंक में जो प्रकाशित हुई है। तेलगू के कवि वरवर राव द्वारा हिन्दी में दिया गया यह प्रथम साक्षात्कार था। हम दोनों ही साथी तेलगू साहित्य से पूरी तरह से अनभिज्ञ ही थे। कुछ छुट-पुट अनुवाद ही, जो कि सीमित ही हैं, हमने पढ़े भर हैं। बल्कि तेलगू ही क्यों अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की पर्याप्त संख्या में अनुपलबधता हमें उस से अपरिचित किये हुए है। जबकि अन्य विदेशी भाषा के साहित्य के अनुवाद भी हमने इनसे कहीं ज्यादा पढ़े होंगे। ये सवाल हमारे भीतर उस वक्त मौजूद था। अपनी बातचीत को हमारे द्वारा इसी बिन्दु से शुरु करते हुए हमारी जिज्ञासा को शांत करने के लिए भाषा पर दिया गया वी वी का वक्तव्य यहां इसी संदर्भ में पुन: प्रस्तुत है।)

वरवर राव -

यह एक भूमिका की बात है। एक ऐसी भूमिका जिसका आधार राजनीतिक और आर्थिक सम्बंधों के कारण खड़ा हुआ है। हम भी हिन्दी कविताएं या हिन्दी साहित्य के बारे में थोड़ा बहुत ही जान पाये, या जान पा रहे हैं। पर अपने पड़ोसी तमिल, मराठी, कन्नड़, ओड़िया और अन्य किसी दूसरी भाषा के बारे में इससे भी कम समझ रखते हैं। हाल ही में मेरी तेलगु कविताओं का मराठी में अनुवाद हुआ। उसकी भूमिका में मैंने लिखा - 'दलित पैंथर' को छोड़कर मराठी साहित्य के बारे में मेरी जानकारी बिल्कुल भी नहीं है। हां, थोड़ा-बहत सुना है तो पहले अमर शेख के बारे में बाद में अनाभाव साठे के बारे में इसका मुख्य कारण, उनका जुड़ाव कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक आंदोलनों से रहा, जिससे कि मैं खुद भी जुड़ा हूं। जबकि पड़ोसी होने पर भी मराठी साहित्य के बारे में तो मैं जानता तक नहीं हूं। पड़ोसी की ही बात नहीं - तेलुगु, मराठी, कन्नड़ भाषा-भाषी बहुत साल तक एक ही राज्य में थे - हैदराबाद में। जहां से मैं आया हूं। यानि जिसमें तेलंगाना है। मैं उस तेलंगाना, मराठवाड़ा के चार जिले, कर्नाटक के तीन जिले (जिसे आज भी हैदराबाद कर्नाटक कहते हैं ) को मिलाकर कुल सोलह जिलों का भौगोलिक क्षेत्र ही हैदराबाद राज्य था। फिर भी हमको एक दूसरे की भाषा नहीं आती। यहां तक कि उनके साहित्य के बारे में भी कुछ नहीं सुना। कारण था कि राज की भाषा उर्दू थी। यानि हमारी भाषाओं ने कभी राज नहीं किया।
भाषा की सदैव दो भूमिका रही है, जबकि होनी चाहिए एक ही। वो एक मात्र भूमिका है, एक दूसरे को समझने की-सम्प्रेषण की। मगर इस देश में भाषा की एक राज करने की भूमिका भी रही है। राज करने वाले की यानि कुलीन वर्ग की भाषा रही है जिसे हम कह सकते हैं ब्राहमणीकल फ्यूडलिज्म। उस समय से लेकर मुगलों तक जनता की भाषा एक थी। राज काज की भाषा दूसरी।
भाषा का एक ऑथोरिटेरियन रोल था। यानि राज काज करने की भूमिका। जो भाषा राज-काज की भाषा रही, वह कभी किसी जनता की भाषा नहीं रही। हमारे देश के लिए यह एक खास बात है और दुर्भाग्यपूर्ण भी, जैसे कहा जाये दो हजार साल पहले जनता की भाषा थी पाली, प्राकृत और अनेक उपभाषाएं, जिन्हें डाइलेक्टस भी कहते हैं। इन सब भाषाओं से पाणिनि ने अष्टाध्यायी लिखा। ग्रामर की रचना और एक प्रमाणिक भाषा का निर्माण किया जिसे संस्कृत कहते हैं। जिसका ब्राहमण शास्त्रों में इस्तेमाल किया गया। वैसे ही एक सत्ता की भाषा बनी जो किसी की भी मातृभाषा थी ही नहीं। बुद्ध ने अपने धम्मपद पाली में लिखकर चेतना से इसका विरोध किया।
अब आधुनिक काल में आयें तो अंग्रेजी सत्ता की भाषा बन गयी। हमारी कोई भी मातृभाषा कभी भी सत्ता की भाषा नहीं रही। अंग्रेजी जो दुनिया के शासकों की भाषा है, दुनिया के साहित्य की गवाक्ष भी बन गयी। जो भी अंग्रेजी से आ रहा है वह हमें प्राप्त हो रहा है।

1 comment:

Dr. Chandra Kumar Jain said...

भाषा की भूमिका और
उसके प्रति व्यवहार के
दोहरेपन को उजागर
करता हुआ चिंतन.
===============
अच्छी प्रस्तुति.
डा.चंद्रकुमार जैन