Wednesday, May 7, 2008

मछलियां पकडने वाला तिब्बती खरगोश

(ल्वोचू खरगोश की कथा श्रंृखंला की यह अंतिम कड़ी है)


ल्वोचू खरगोश की कथा - चार

जाड़े का मोसम शुरु हो चुका था। चोटियों पर बर्फ पूरी तरह से जम चुकी थी और नदी का पानी जमने लगा था। सर्दी से बचने के लिए जानवर अपनी मांद में दुबककर बैठ गये थे। भूख से तड़फती नीले रंग की वो मादा भेड़िया, जिसके दो साथी खरगोश की योजनाओं के शिकार हो चुके थे, जो भी छोटा मोटा जीव दिख जाता उसे दौड़ भागकर धर दबोचती।
एक दिन ल्वोचू खरगोश बर्फ जमी नदी पर अपनी पूंछ को बर्फ पर पटकने का खेल खेल रहा था। लगातार खेलते हुए वह थक गया तो आराम करने लगा।
तभी उस नर भेडिये की छोटी बहन उस नीली मादा भेडिया ने दौड़कर उसके पास आयी और बोली, "ओ तू ही है वो हरामी जिसने मेरे भाई को चट्टान के नीचे फेंका और मेरी भाभी को नदी की तेज धारा में डुबोया। तुझे तो मैं आज छोडूंगी ही नहीं। वैसे भी मुझे जोर की भूख लगी है।" और वह खरगोश पर झपटी।
बर्फ में लुढ़कने के बाद जब खरगोश खड़ा हुआ तो उसने बड़े ही कोमल ढंग से मादा भेड़िया को प्रणाम किया, "हे भेड़िया कुमारी, आप क्यों ऐसा दोष मुझ पर मड़ रही हैं। मैंने सुना है कि धूप सेंकने वाले खरगोश ने आपके भाई को अंधा बनाया और स्वर्ग के वृक्ष पर सवार होने वाले खरगोश ने आपकी भाभी की हत्या की। मैं तो मछली पकड़ने वाला खरगोश हूं, किसी की हत्या करने के बारे में तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता।"
मादा भेड़िया पर कोई असर न हुआ, "लेकिन फिर भी मैं तुझे छोडूंगी नहीं, चाहे तू हत्यारा है या नहीं।" और उसने अपने नुकीले पंजे खरगोश की ओर बढ़ा दिये।
खरगोश थोड़ा हड़बड़ा गया, "भेड़िया कुमारी, आप देखें तो सही मैं कितना दुबला पतला हूं। मुझमें तो एक चूहे के बराबर भी मांस नहीं। मुझे खाकर भी आपकी भूख शांत न होगी। यदि आप सच में भूखी हैं तो मैं आपके लिए मछलियां पकड़ देता हूं।"
मादा भेड़िया सचेत थी। उसने खरगोश के कान उमेठे, "तू कितना दुष्ट है, मैं अच्छे से जानती हूं। तेरे मुंह में पड़ी दरार बता रही है कि तू तो तू तेरे पूर्वज भी ऐसे ही दुष्ट रहे होगें। तुम खरगोश ही मेरे भाई और भाभी के हत्यारे हो। मुझे जल्दी बता कि तू मछलियां कैसे पकड़ता है ?"
खरगोश उसे उस स्थान पर ले गया जहां कुछ ही देर पहले उसने अपनी पूंछ को पटकने का खेल खेला था और बोला, "कुमारी भेड़िया, बर्फ में छेद बना मैं पूंछ को छेद में डाल देता हूं तो भूखी मछलियां मेरी पूंछ पर चिपट जाती हैं। तब मैं झटके से अपनी पूंछ को ऊपर खींचकर पूंछ पर चिपटी मछलियों को पकड़ लेता हूं।"
मादा भेड़िया की आंखें फटी की फटी रह गयी। "यह तो तूने खूब बताया।" बस फिर तो वह खरगोश के साथ पूंछ से बर्फ पर थपेड़े मारने लगी।
इस तरह से जब बर्फ में छेद हो गया तो खरगोश ने मादा भेड़िया से पूछा, "कुमारी जी, आपको छोटी मछली खाना पसंद है या बड़ी?"
"मुझे तो बड़ी मछलियां ही पसंद है।" मादा भेड़िया ने कहा।
खरगोश तुरंत बोला, "मेरी पूंछ तो छोटी है, इसलिए छोटी मछलियां ही पकड़ पाता हूं। आपकी पूंछ तो बहुत लम्बी है, बड़ी मछलियों को आप आसानी से पकड़ पायेगीं। क्यों न आप ही पहले पकड़े।"
खरगोश की चापलूसी भरी बातों से मादा भेड़िया खुश हुई। अपनी लम्बी पूंछ को उसने झट छेद में डाल दिया।
पास ही खड़ा खरगोश लयात्मक स्वर में गाते हुए छेद में पानी उड़ेलने लगा,
"काली मछली आआ
सफेद मछली आओ
छोटी मछली आओ
बड़ी मछली आओ
दौड-दौडकर आओ
सारी मछलियां आओ।"
थोड़ी ही देर में मादा भेड़िया की पूंछ सर्दी के कारण जमती हुई बर्फ से चिपक गयी। वह सोचने लगी कि मछलियों ने उसकी पूंछ को जकड़ा हुआ है, बस मन ही मन खुश होती रही।
खरगोश वहां से एक ओर को हट गया और शरीर तान खड़ा होते हुए मादा भेड़िया को लल्कारते हुए बोला, "ऐ, इस जंगल के पशुओं की शत्रु बता जब मैं घास पर धूप सेंक रहा था तो तेरा भाई मुझ पर क्यों झपटा ? मैंने ही उसकी आंखों पर सरेस चढ़ाया और उसे गहरी खायी में गिरने को उकसाया। जब मैं पेड़ पर खेल रहा था तो तेरी भाभी ने मुझे क्यों धमकाया ? उसे स्वग की यात्रा मैंने ही करायी। अभी अभी मैं बर्फ पर खेल रहा था तो तूने भी मुझे क्यों धमकाया ? अब तो तेरी भी मृत्यू तेरा इंतजार कर रही है। तुझे जो भी कहना अब जल्द से बोल ले। आज मैं अपने सभी साथियों का बदला तुझसे भी ले रहा हूं।" और नाचने लगा।
खरगोश को खुशी से नाचता देख मादा भेड़िया जोर से गुर्रायी। अपने शरीर की पूरी ताकत लगाकर उसने जैसे ही खरगोश पर झपटना चाहा, बर्फ में फंसी पूंछ के कारण उसकी पूंछ और कूल्हा एक साथ टूट गये। कुछ देर तक वह छटपटाती रही फिर उसने दम तोड़ दिया।
खुशी की खबर लिये, ल्वाचू खरगोश विजय गीत गाते हुए अपने दोस्तों को मिलने निकल पड़ा।

यदि इस कथा को सिलसिलेवार रुप से पढ्ना चाहते है तो एक एक कर क्रमवार पढें :

एक

दो

तीन

3 comments:

Udan Tashtari said...

आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.

एक नया हिन्दी चिट्ठा भी शुरु करवायें तो मुझ पर और अनेकों पर आपका अहसान कहलायेगा.

इन्तजार करता हूँ कि कौन सा शुरु करवाया. उसे एग्रीगेटर पर लाना मेरी जिम्मेदारी मान लें यदि वह सामाजिक एवं एग्रीगेटर के मापदण्ड पर खरा उतरता है.

यह वाली टिप्पणी भी एक अभियान है. इस टिप्पणी को आगे बढ़ा कर इस अभियान में शामिल हों. शुभकामनाऐं.

डॉ .अनुराग said...

समीर जी बातो से पूर्णतया सहमत हूँ.....ओर आपकी पिछली पोस्ट ने मेरी अपेक्षाए बढ़ा दी थी.....वैसे मैंने पूरी कहानी पढ़ डाली है........बधाई.....

रूपसिंह चन्देल said...

Priya bhai,

Tibbat ki lok kathayen padhakar apne vo din yaad aa gaye jab mai bhi lokkathayen aur bachcho ki kahaniya likha karata thaa. Achha laga. Jaari rakhe.

Chandel