Friday, August 8, 2008

हमें गहरी उम्मीद से देखो

विज्ञान के अध्येता यादवेन्द्र जी का मुख्य काम भू-स्खलन और भूकम्प संबंधी विषय पर है। लेकिन सामाजिक बुनावट के उलझावों पर भी उतनी ही शिद्दत से सोचते हैं और उसे भी परिभाषित करने के लिए बेचैन रहते हैं। विज्ञान विषयों पर पठन-पठन के साथ-साथ सामाजिक बदलाव के साहित्य में उनकी गहरी रुचि है।
इस ब्लाग के माध्यम से हमारा अपने उन सभी साथियों से अनुरोध है जो शुद्ध रुप से साहित्य के छात्र न होते हुए साहित्य कर्म में जुटे है कि वे अपने मूल विषय को केन्द्र में रखकर समकालीन समाज की व्याख्या करते हुए ऐसी रचनाओं के साथ भी प्रस्तुत हों जो कहानी कविता से इतर अन्य विधाओं में भी उन मूल विषयों पर आधारित हो। यानी वे तमाम विषय जिनका मानवीय मूल्यों से, ऊपरी तौर पर, यूं तो कोई सरोकार दिखायी नहीं देता लेकिन जिनके प्रभाव ही समकालीन दुनिया पर बहुत गहरा असर डालते हैं, उन विषयों में कार्यरत रहते हुए हम कितना मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हैं या उसके अपनाने में किस तरह की दितें आती हैं। हिन्दी में ऐसा लेखन बहुत ही सीमित रुप में है। यदि ब्लाग जगत में सक्रिय रचनाकार, जो भिन्न विषयों में दखल रखते हैं, इस जिम्मेदारी को समझते हुए सक्रिय हो तो इससे हिन्दी ब्लाग की एक अलग छाप भी पड़ेगी और विविधता भी बनी रहेगी जो हिन्दी पाठ्कों को आकर्षित भी करेगी।

यादवेन्द्र जी ने हमारी इस तरह की बातचीत पर यकीन दिलाया है कि वे अपने मूल विषय को ध्यान में रखकर जल्द ही कुछ ऐसा लिखेगें। इससे पहले हमारे आग्रह पर
कथाकार नवीन नैथानी, जो भौतिक शास्त्र के अध्येता हैं, ने एक छोटा सा आलेख लिखा था। यादवेन्द्र एक समर्थ रचनाकार है। उनसे ऐसे लेखन की उम्मीद करना जायज भी है। अभी प्रस्तुत है उनके द्वारा अनुदित कविताएं।


1926 में नार्वेजियन मूल के माता पिता से जन्में रॉबर्ट ब्लाई आधुनिक अमेरिकी कविता के शिखर पुरुषों में शुमार किए जाते हैं। दो वर्ष नेवी में काम किया, फिर अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। 40 से ज्यादा काव्य संकलन प्रकाशित, विभिन्न भाषाओं के अनेक प्रसिद्ध कवियों के अंग्रेजी में अनुवाद किए - पेब्लो नेरूदा, रिल्के से लेकर फ़ारसी के कवियों के। हाफिज और रुसी तक और कबीर, मीराबाई से लेकर बंगाल के अनेक आधुनिक कवियों के अनुवाद। अंग्रजी में गजलें लिखते हैं।

1966 में वियतनाम युद्ध का विरोध करने वाले
संगठन अमेरिकन राइटर्स अगेंस्ट वियतनाम वॉर के संस्थापक। 1969 में नेशनल बुक अवार्ड से नवाजे जाने पर सम्पूर्ण पुरस्कार राशि वियतनाम युद्ध के अभियान को दान दे दी। इस अवसर पर उन्होंने कहा : "हम अमेरिकियों के पास सब कुछ है। हम अनुभूतियों भरा जीवन जीने की कामना तो करते हैं पर किसी प्रकार का कष्ट उठाकर नहीं । हम भूरापूरा जीवन।।। निरंतर विजयी होते रहना चाहते हैं। हम अपेरिकियों ने हमेशा ही कष्टों से दूर-दूर बने रहने की काशिशें की हैं।।। और इसी कारण वर्तमान से हमारा नात नजदीक का नहीं बन पाता।" अपने हाल के इंटरव्यू में राबर्ट ब्लाई ने बेबाकी से कहा कि वियतनाम युद्ध के दौरान जो बात सही थी - आज इतने वर्ष बीत जाने के बाद इराक युद्ध के दौरान भी उतनी ही सही है।

इसी फरवरी में उन्हें अमेरिका के मिनिसोटा स्टेट का पोएट नियुक्त किया गया हे। यहां प्रस्तुत है राबर्ट ब्लाई की दो कविताएं जिनमें से पहली (सवाल और जवाब) इराक युद्ध के दोरान लिखी गई युद्ध विरोधी कविताओं में अग्रणी मानी जाती है। - यादवेन्द्र।




रॉबर्ट ब्लाई


सवाल और जवाब


बताओ तो कि आजकल हम
आसपास होती घटनाओं पर चीखते क्यों नहीं
आवाज क्यों नहीं उठाते
तुमने देखा कि
इराक के बारे में योजनाएं बनाई जा रही हैं
और बर्फ की चादर पिघलने लगी है



अपने आपसे पूछता हूं: जाओ, जोर से चीखो!
यह क्या बात हुई कि जवान शरीर हो
और इसकी कोई आवाज न हो ?
बुलंद आवाज से चीखो!
देखो जवाब कौन देता है
सवाल करो और जवाब हासिल करो।

खासतौर पर हमें अपनी आवाज में दम लगाना पड़ेगा
जिससे ये फरिश्तों तक पहुंच सकें -
इन दिनों वे ऊंचा सुनने लगे हैं।
हमारे युद्धों के दौरान
खामोशी से भर दिये गए पात्रों में
गोता लगाकर गुम हो गए हैं वे।

क्या इतने सारे युद्धों के लिए अपने आपको तैयार कर चुके हैं हम
कि अब खामोशी की आदत-सी हो गई है ?
यदि हम अब भी अपनी आवाज बुलंद नहीं करेंगे
तो काई न कोई (हमारा अपना ही) हमारा घर लूट ले जाएगा।

ऐसा हो गया कि
नेरूदा, अख्मातोवा, फ्रेडरिक डगलस जैसे
महान उदघोषकों की आवाज सुनकर भी
अब हम गौरैयों जैसे झाड़ियों में दुबक कर
अपनी अपनी जान की खैर मना रहे हैं ?

कुछ विद्धानों ने हमारा जीवन महज सात दिनों का बताया है।
एक हफ्ते में हम कहां तक पहुंचते हैं ?
क्या आज भी गुरुवार ही है ?
फुर्ती दिखाओ, अपनी आवाज बुलंद करो।
रविवार देखते-देखते आ जाएगा।


ठिगनी लाशों की गिनती


आओ एक बार फिर से लाशों की गिनती करें।
यदि हम इन लाशों को छोटा कर पाते-
खोपड़ी के आकार जैसा
तो इन्हें इक्टठा करके
श्वेत धवल एक चिकना चबूतरा निर्मित कर लेते
चांदनी रातों में।
यदि हम इन लाशों को छोटा और छोटा कर पाते -
तो साल भर में किए गए शिकार को
बड़ी आसानी से सजाकर रख देते
अपने सामने पड़ी छोटी-सी मेज पर।
यदि हम इन लाशों को छोटा कर पाते -
तो नग की तरह गढ़वा लेते एक अदद शिकार
यादगार के वास्ते सदा सदा के लिए
अपनी अंगूठी में ।




अंग्रेजी से अनुवाद - यादवेन्द्र

हमें गहरी उम्मीद से देखो - कवि राजेश सकलानी की कविता की पंक्ति

1 comment:

बालकिशन said...

आभार इसे प्रस्तुत करने का.