Friday, October 31, 2008

मिलो दोस्त, जल्दी मिलो

"यदि मुझसे पूछा जाए कि आज की कविता में क्या देखा जाना चाहिए तो मैं कहूंगा कि आदमी के अस्तित्व और उसके सामने खड़े सारे संकटों को लेकर चिंता और प्रतिबद्धता, मानव होने के रोमांचक मामले में गहरी दिलचस्पी, जीवन और रिश्तों के अनंत वैविध्य के प्रति उत्सुकता और इस सब को अपनी भाषा और शैली में कह पाने की क्षमता। अवधेश कुमार की ये कविताएं इन सारी शर्तों को पूरा-पूरा निभाती हों यह तो जरुरी है और संभव- किन्तु इसमें संदेह नहीं कि इन कविताओं में इन शर्तों का पूरा-पूरा अहसास है"


1980 में प्रकाशित अवधेश कुमार के कविता संग्रह जिप्सी लड़की की भूमिका में कवि एवं अलोचक विष्णु खरे ने अवधेश कुमार की कविताओं में भविष्य की जो संभावना देखी थी वे अकारण नहीं थी। लेकिन दुर्भाग्य है कि अपने आगे के दौर में लिखे गये को अवधेश सुरक्षित न रख पाए और असमय ही हमारे बीच से विदा हो गए। विभिन्न अंतरालों में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी रचनाओं को खोजना कोई आसान काम भी नहीं। फिर उन पत्रिकाओं की उपलब्धता कहां-कहां संभव हो सकती है, इस बारे में भी कोई ठोस सूचना उपलब्ध नहीं।
कविता-कोश के अनिल जन विजय जी का लम्बे समय से आग्रह रहा कि कवि अवधेश कुमार की कविताओं को खोजकर उपलब्ध करा पांऊ। लिहाजा अवधे्श कुमार की कविता पुस्तक जिप्सी लड़की से कुछ कविताएं यहां प्रस्तुत है। इन कविताओं का चयन हमारे साथी राजेश सकलानी ने किया।


अवधेश कुमार


मिलो दोस्त, जल्दी मिलो



सुबह--एक हल्की-सी चीख की तरह
बहुत पीली और उदास धरती की करवट में
पूरब की तरफ एक जमुहाई की तरह
मनहूस दिन की शुरुआत में खिल पड़ी ।


मैं गरीब, मेरी जेब गरीब पर इरादे गरम
लू के थपेड़ों से झुलसती हुई आंखों में
दावानल की तरह सुलगती उम्मीद ।


गुमशुदा होकर इस शहर की भीड़ को
ठेंगा दिखाते हुए न जाने कितने नौजवान
क्ब कहां चढ़े बसों में ओर कहां उतरे
जाकर : यह कोई नहीं जानता ।


कल मेरे पास कुछ पैसे होंगे
बसों में भीड़ कम होगी
संसद की छुट्टी रहेगी
सप्ताह भर के हादसों का निपटारा
हो चुकेगा सुबह-सुबह
अखबारों की भगोड़ी पीठ पर लिखा हुआ ।


सड़कें खाली होने की हद तक बहुत कम
भरी होंगी : पूरी तरह भरी होगी दोपहर
जलाती हुई इस शहर का कलेजा ।


और किस-किस का कलेजा नहीं जलाती हुई ।
यह दोपहर आदमी को नाकामयाब करने की
हद तक डराती हुई उसके शरीर के चारों तरफ ।

मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
मैं गरीब, तुम गरीब
पर हमारे इरादे गरम ।




फोन




नौमंजिला इमारत चढ़ने में लगता है समय
जितना कि नौमंजिला कविता लिखने में नहीं लगता ।

नौ मंजिल चढ़कर मिला मैं जिस आदमी से
उससे मिला था मैं जमीन पर अपने बच्चपन में ।
वहीं पर उससे दोस्ती हुई थी।

इतनी दूर-
और नौ मंजिल ऊपर
नहीं मिल पाता जब मैं उस दोस्त से : वह मुझे
जब बहुत दिनों बाद मिलता है
तो पूछता है कि
क्यों नहीं कर लिया मैंने उसको फोन ?



बच्चा


बच्चा अपने आपसे कम से कम क्या मांग सकता है ?

एक चांद
एक शेर
किसी परीकथा में अपनी हिस्सेदारी
या आपका जूता !


आप उसे ज्यादा से ज्यादा क्या दे सकते हैं ?


आप उसे दे सकते हैं केवल एक चीज -
अपना जूता : बाकी तीन
चीजें आप किताब के हवाले कर देते हैं ।


कि फर वह बच्चा जिन्दगी भर सोचता रह जाता है
कि अपना पैर किस्में डाले
उस किताब में या आपके जूते में !

5 comments:

डॉ .अनुराग said...

पहली कविता जितनी असरदार है दूसरी ओर तीसरी उतना असर नही छोड़ती ...बच्चे वाली कविता में कवि क्या कहना चाहता है उसका आशय अस्पष्ट सा दिखता है ...पहली कविता पसंद आयी

सुशील छौक्कर said...

अजी सर काहे कविता का कोई फ्रेम बनाते हो। वैसे ये सारी रचनाएं अच्छी लगी, पढ़वाने के लिए शुक्रिया।
मैं गरीब, मेरी जेब गरीब पर इरादे गरम
लू के थपेड़ों से झुलसती हुई आंखों में
दावानल की तरह सुलगती उम्मीद ।
बहुत खूब।

batkahi said...

aj ke dusht samay me kisi dost se is garmjoshi ke saath milne li jijivisha...bahut khub.jo kam ham kai baar apni majbooroyon me karna chahate hue bhi kar nahi pate...kavita me kavi bakhubi kar leta hai

नीरज गोस्वामी said...

विजय जी अवधेश जी की बेजोड़ कवितायें पढ़वाने का धन्यवाद....
नीरज

अजेय said...

मैं गरीब, मेरी जेब गरीब पर इरादे गरम
aisi koi pankti padhe arsa ho gaya tha.....thanks, apko aur kavi ko bhi!
aaj ek kavita likhee jayegi....