Friday, November 28, 2008

यादों के झरोखों से

हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार डॉ कुसुम चतुर्वेदी का लम्बी बीमारी के बाद 26 अक्टूबर 2008 को अखिल भारतीयआयुर्विज्ञान संस्थान में निधन हो गया था। रविवार 2 नवम्बर 2008 को संवेदना की बैठक में देहरादून केरचनाकारों ने अपनी प्रिय लेखिका को याद करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजली दी।
आगामी रविवार 30 नवम्बर 2008 को डॉ कुसुम चतुर्वेदी की पुत्री नीरजा चतुर्वेदी ने अपने निवास पर एक गोष्ठीआयोजित की है जिसमें जुलाई 2008 में प्रकाशित डॉ कुसुम चतुर्वेदी की कहानियों की पुस्तक मेला उठने से पहले पर चर्चा होनी है।
कथाकार जितेन ठाकुर डॉ कुसुम चतुर्वेदी के प्रिय शिष्यों में रहे हैं। डॉ कुसुम चतुर्वेदी पर लिखा गया उनका संस्मरण प्रस्तुत है।




जितेन ठाकुर

श्रीमती कुसुम चतुर्वेदी नहीं रहीं। सुनकर सहसा ही विश्वास नहीं हुआ। बार-बार नियति से जूझने वाली, पराजय स्वीकार न करने वाली। एक अनुशासित शिक्षिका, एक ममतामयी माँ, एक अकेली आशंकित महिला और एक गम्भीर लेखिका। मैडम अब कभी दिखलाई नहीं देंगी- यह सोच पाना मेरे लिए सरल नहीं है। स्व0 श्रीमती चतुर्वेदी देहरादून की उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थीं जब आदमी को आदमी के पास बैठने की फुर्सत होती थी, मिल बैठ कर दुख-दर्द बांटे जाते थे, लिखने-लिखाने पर लम्बी बातचीत और बहस होती थी, सम्बंधों में अपनत्व की सुगंध होती थी और इस द्राहर के लोग एक दूसरे को आहट से पहचान लेते थे।
1981 में मैंने पहली बार मैडम चतुर्वेदी के द्वारा पर दस्तक दी थी। डरा सहमा हुआ मैं दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा था, किवाड़ श्री चतुर्वेदी ने खोले थे। लम्बा कद, गोरा रंग। भव्य व्यक्तिव के स्वामी थे, श्री चतुर्वेदी
"जी! मुझे श्रीमती नारंग ने भेजा है।" मैंने जैस-तैसे थूक निगल कर अपनी बात कही थी। घर का हरियाला परिसर, विशाल भवन और चमचमाते हुए फर्श मेरे भीतर हीन भावना भर रहे थे। प्रयत्न के बाद ही शब्द मेरे कंठ से बाहर आ पाए थे। उन दिनों ऐसे परिसर और भवन, भवनस्वामी की सुरूची और सम्पन्नता के प्रतीक हुआ करते थे।
"ओह! अच्छा तुम पी0एच0डी0 करना चाहते हो।" श्री चतुर्वेदी को शायद मेरे आने की जानकारी थी। मैं सहमा हुआ उनके साथ ड्राईंगरूम में प्रवेश कर गया और झिझकता हुआ सोफों से दूर पड़ी एक सैटी पर बैठ गया। कुछ समय बाद मैडम चतुर्वेदी ने ड्राईंगरूप में प्रवेश किया। उन्होंने एक बेहद सादी धोती पहनी हुई थी। लम्बे-लम्बे डग भरती हुई वे आकर सोफे पर बैठ गई थीं। उनकी बातचीत इतनी सरल और सहज थी कि मेरी कल्पना में भरा हुआ उनकी विद्वता का आतंक जाता रहा।
कुछ ही समय बाद चतुर्वेदी साहब का निधन हो गया था। चतुर्वेदी साहब का निधन उस परिवार को रीत देने के लिए पर्याप्त था। उनके साथ मेरा सानिध्य बहुत ही कम रहा पर मैंने जितना भी उन्हें जाना, वे केवल व्यक्तिव से ही भव्य और विशाल नहीं थे- विचारों से भी अत्यंत उदात और आधुनिक थे। उनका व्यक्तिव भी ऐसा था कि सहसा ही श्रद्धा उत्पन्न होती थी।
विवाह के बाद जब मैं पहली बार पत्नी सहित उस घ्ार में गया था और पत्नी ने चतुर्वेदी जी के चरण स्पर्श किए थे तो उन्होंने जो कहा था वो मुझे आज भी याद है। वे थोड़ा पीछे हटते हुए बोले थे
"बेटी झुको मत! अपने को ऊँचा उठाओ और सिर उठा कर जियो"
पर पास खड़ी हुई मैडम ने हंसते हुए अधिकार भरे स्वर में कहा था "आप पैर छुवाएं या न छुवाएं मैं तो पैर छुवाऊंगी। जितेन की पत्नी है मेरा तो पैर छुवाने का अधिकार बनता है।" ऐसा था वो घर- ऊर्जा और अपनत्व से भरा हुआ।
मैडम ने अपना ये अधिकार कभी छोड़ा भी नहीं। अपनी व्यस्तता अथवा अन्य कारणों से यदि मैं कुछ समय मैडम के यहाँ नहीं जाता तो मैडम, फौरन उलाहना देतीं "अच्छा! अब तुमने भी आना बंद कर दिया है।" और मैं चोरी करते हुए पकड़े गए बच्चे की तरह सफाई पेश करने लगता।
स्व0 चतुर्वेदी के निधन के बाद घर में बहुत उदासी और अकेलापन हो गया था। परंतु मैडम ने ऐसे में भी अपनी बेटी को अमेरिका जाने की स्वीकृति केवल इसलिए दे दी थी क्योंकि यह उनके स्वर्गीय पति की इच्छा थी। बेटी नीरजा के चले जाने के बाद जीवन में आए अकेलेपन और उदासी का उन्होंने अदम्य इच्छा शक्ति के साथ सामना किया था। घर की साफ-सफाई, मरम्मत-पुताई और जीवन की दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी वो किसी पर ज्यादा आश्रित नहीं हुई थीं।
महिला लेखिकाओं में वो समय स्व0 शाशि प्रभा शास्त्री का था। दिल्ली में अपने सम्पर्क और बाद में दिल्ली प्रवास के कारण श्रीमती शास्त्री का वर्चस्व लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं पर था। लगभग उसी समय धर्मयुग में छपी अपनी कहानी 'उपनिवेश' से मैडम चतुर्वेदी ने चौंकाया था। देहरादून के ही एक नामी स्कूल पर लिखी गई यह कहानी अपने पीछे बहुत से प्रश्न छोड़ गई थी।
लेखन का वो दौर जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों को कलात्मक तरीके से पिरोने का दौर था। मैडम की कहानियों में उस दौर की विशेषताओं के साथ ही स्त्रीमन की अतृप्त इच्छाओं ओर आकांक्षाओं की एक सबल अन्तर्धारा भी मिलती है। सारिका में छपी एक लम्बी कहानी और 'तीसरा यात्री' नामक कहानियाँ स्त्रीमन की साहसपूर्ण अभिव्यक्ति है। मैडम ने जितना भी लिखा, स्तरीय लिखा। जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों को आपने सफलतापूर्वक उकेरा। पर अपने अकेलेपन को आपने कभी किसी दूसरे पर नहीं थोपा, न जीवन में- ना साहित्य में।
बढ़ती आयु के साथ गिरते हुए स्वास्थ्य ने उन्हें चिंतित कर दिया था। इस चिंता के पीछे अकेलेपन का एहसास भी प्रभावी था। पर सात समुंदर पार बैठी बेटी को वो अपनी समस्याओं से अछूता रखने का प्रयत्न करतीं। एक बार उन्होंने ही मुझे बताया था कि बेटी के पूछने पर उन्होंन बहुत से नाम गिनवा कर कहा था- 'यह सभी लोग तो मिलने आते रहते हैं, मैं अकेली कहाँ हूँ। यद्यपि वास्तविकता ये थी लोग बहुत-बहुत दिनों के बाद ही मिल पाते थे।
पहली बार उनकी बीमारी की सूचना मिलने पर जब मैं हस्पताल में उन्हें मिलने गया था तो बातचीत में यूं तो वो सामान्य दिख रही थीं पर उनकी स्मृतियों से जैसे कुछ मिट गया था। काफी देर तक बातचीत करती रही थीं फिर बोली थीं
"मुझे तो याद ही नहीं आता कि मैं कैसे इतनी बिमार हो गई"
एक बार जब आँख के किसी डाक्टर ने उन्हें कहा था कि "देखती आँख है- चश्मा नहीं।" तब भी वो चिंतित हुई थीं। एक रात किसी लक्ष्ण से आच्चंकित होकर जब वो कारोनेशन हस्पताल चली गई थीं- तब भी वो चिंतित थी। जब एक डाक्टर ने अपना फोन नम्बर देकर उन्हें कहा था कि आपको सिर्फ फोन करना है बाकी हम देख लेंगे- हमारी एम्बुलेंस फौरन पहुँच जाएगी" तब भी वो चिंतित थीं पर इस अंतिम बिमारी में वो चिंतित नहीं थी क्यों कि उनकी बेटी उनके पास थी।
मैं अक्सर देखता था कि वो एक बहुत बड़े कप में पिया करती थीं। ड्राईंगरूम में रखी हुई स्व0 चतुर्वेदी साहब की तस्वीर पर धूल का एक भी कण बैठने नहीं देती थीं। किसी ने किसी कारण से हमेशा उनके फ्रिज में मिठाई रहती। ये बेसन के लड्डू और लौकी की लाज भी हो सकती थी और नारीयल की बर्फी और मोतीचूर के लड्डू भी। यह सब वो बहुत स्नेह और आग्रह से खिलाती थीं। बहुत सी घटनाएँ जो पिछली बार मिलने के बाद से आज तक हुई थीं- सिलसिलेवार सुनातीं। पर इन सब बातों के बीच वो लिखने और लिखते रहने की बात को अक्सर टाल जातीं।
अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने वहाँ के बहुत से संस्मरण सुनाए थे। मिशिगन के मोहक फोटोग्राफ भी दिखलाए थे। तब मैंने उनसे बार-बार संस्मरण लिखने के लिए कहा था। उन्होंने उत्साह भी दिखलाया पर शायद ही वो पूरे संस्मरण लिख पाई हों।
मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि उनके पास औसत महिलाओं से कहीं अधिक तीक्ष्ण अर्न्तदृष्टि थी, विषयके मर्म को समझने की अद्भुत सामर्थ्य थी और बेहतर लेखकीय समझ थी। पर वो कभी भी इसे प्रकट नहीं करती थीं। उनके जीने की द्रौली बेहद सरल, सहज और एक घरेलू महिला जैसी थी। शिक्षिका होने का न दम्भ न लेखिका होने की दिखावट। सब कुछ स्वभाविक और प्राकृतिक परंतु सजग। उन्होंने मकान की नेम प्लेट हटवाकर वहाँ नया पत्थर केवल इसीलिए लगवाया था क्योंकि उसमें बेटी नीरजा का नाम खुदा हुआ नहीं था।
अपनी दिनचर्या में उन्हें जितनी चिंता मकान के फीके होते रंग-रोगन की सताती थी उतनी ही लान में खिलते और मुरझाते हुए फूलों की भी। उन्हें फर्श पर उभर आया दाग भी चिंतित करता था और बढ़ते हुए घास की कटाई भी। उन्हें अपने घर के रख-रखाव से उतना ही मोह था जितना किसी भी घ्ारेलु महिला को हो सकता है। सात समुंदर पार बैठी अपनी बेटी के एक-एक पल की उतनी ही चिंता थी- जितनी किसी ममतामीय मां को हो सकती है। वो अपने अकेलेपन से उतना ही आतंकित रहतीं- जितना इस आयु में कोई भी अकेली महिला रह सकती हैं। पर उनकी बातचीत में सदा एक संकल्प होता था। परिस्थितियों से जूझने की अद्भुत सामर्थ्य थी उनमें।
मैडम सदा चाहती थीं कि उनके यहाँ साहित्यकारों का जमावड़ा हो। संगोष्ठी हो पर हमेशा संकोच कर जातीं। पता नहीं क्यों आमंत्रित साहित्याकारों की आवभगत को लेकर वो सदा चिंतित रहा करती थीं। यही एक कारण था कि उनके चाहने पर भी उनके यहाँ बैठकें टलतीं रहीं।
आज जब मैडम स्व0 श्रीमती चतुर्वेदी हमारे बीच नहीं है- उन्हें याद करते हुए अंत में मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता और हमारे संस्कारों में एक महिल का जो बिम्ब बनता है- वो ठीक वैसी ही थीं। देहरादून के साहित्य जगत में वो सदा याद की जाएंगी।

Wednesday, November 26, 2008

दम तोड़ती भाषा

यादवेन्द्र जी संवेदनशील और एक सचेत नागरिक हैं। दुनिया जहान की खबरों से अपने को जोड़े रहते हैं और हर उस गतिविधि के साथ अपना जुड़ाव बनाए रखना चाहता हैं जो इस दुनिया की विविधता को तहस नहस करनेवाली ताकतों के खिलाफ हो। ऐसी ही सामाग्री जब उन्हें कहीं भी दिख जाती है तो वे चाहते हैं उससे हिन्दी का पाठक समुदाय भी वाकिफ हो सके। इसके चलते ही वे अक्सर ऐसी सामाग्री को खोज-खोज कर अनुवाद में जुटे रहते हैं। हम उनकी इस कोशिश के साथ अपने को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं- जब उनके अनुवादों को कहीं भी पढते हैं। उनके अनुवादों को इस ब्लाग में प्रकाशित कर हम उनका आभार व्यक्त करना चाहते हैं।

भाषा के सवाल को यादवेन्द्र जी विश्व मानचित्र में व्यक्ति और समुदाय के जनतांत्रिक अधिकार के रूप में देखते हैं। किन्हीं खास षड़यंत्रों के चलते विलुप्त होती भाषाओं को बचाये रखने की कोशिश उन षड़यंत्रों की मुखालफत ही है जो विविधता की बजाय एक जैसे धर्म, एक जैसे समाज, एक जैसी जीवन शैली को आरोपित करने पर आमादा है। "काउंटर पंच" में 26/27 नवम्बर 2005 को प्रकाशित एक आलेख में उल्लेखित कविता को अनुवाद कर यादवेन्द्र जी ने अपने हस्तलेख की फोटो के रूप में भेजा है जिसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।


दम तोड़ती भाषा


जब कोई भाषा दम तोड़ती है
तो दैवी वस्तुएं
तारे, सूर्य और चन्द्रमा- और
मानवीय वस्तुएं
चिंतन और अनुभूति -
सब कुछ ओझल होते होते
बंद हो जाते हैं दिखना
इस दर्पण में।

जब कोई भाषा दम तोड़ती है
तो सब कुछ
जो इस दुनिया में मौजूद है-
महासागर और नदियां
पशु पक्षी और पौधे,
बंद हो जाता है
कहीं भी उसके बारे में सोचना
और कभी भी उनके नाम उचारना---
बस इस धरती से पुंछ जाता है
उनका अस्तित्व ही।

जब कोई भाषा दम तोड़ती है
तो दुनियाभर के लिए
तमाम दरवाजे और खिड़कियां
हो जाते हैं सब बंद---
अब कोई कभी नहीं समझ पाएगा
दैवी और मानवीय वस्तुओं को
पुकारने के इतर ढंग---
इनकी दरकार है बड़ी
इस धरती पर रहते रहने के लिए।

जब कोई भाषा दम तोड़ती है
प्यार के बोल
पीड़ा और स्नेह की भंगिमाएं
पुराने गीत
किस्से, कहानियां, बोलचाल, प्रार्थनाएं-
चाहे तो भी किसी के लिए
दुहरा नहीं पाएगा कोई
इन्हें अब कभी भी ।

जब कोई भाषा दम तोड़ती है
इससे पहले भी लोप हो चुका होगा कईयों का
तथा कई और कगार पर होंगी
दम तोड़ने के
अमूल्य दर्पण खण्डित हो जाएंगे
सदा सदा के लिए
जिनमें संवाद की छवियां
नहीं दिखेंगी अब कभी
मानवता और भी दरिद्र होती जाएगी दिनों दिन
जब तक दम तोड़ती रहेगी कोई भाषा।

Friday, November 21, 2008

चेखव के घर में

अभी कुछ दिन पहले प्रिय मित्र योगेन्द्र आहूजा से बात हो रही थी, जो स्वंय कथाकार होते हुए कविताओं के अच्छे पाठक हैं, तो बातों ही बातों में उन्हें स्पेनि्श के कवि लोर्का की कविता याद गयी। कथाकार विद्यासागर नौटियाल की डायरी को पलटता हूं तो पाता हूं कि सुनी गयी वह कविता मुझे भी, खुद को दोहराने के लिए मजबूर कर रही है-

अलविदा

जब मैं मरूं/ खिड़की खुली छोड़ देना/ एक बच्चा संतरा खाता है
खिड़की से मैं उसे देख सकता हूं/ एक किसान महकाता है फसल
अपनी खिड़की से मैं उसे सुन सकता हूं
जब मैं मरूं
खिड़की खुली छोड़ देना

प्रस्तुत है कथाकर विद्यासागर नौटियाल की डायरी के पृष्ठ-



चेखव के घर में
विद्यासागर नौटियाल

याल्टा,29 जुलाई 1981 : 4 बजे शाम ।

रोसिया सेनिटोरियम से हमारी कारें कुछ ही देर में चेखव -स्मारक में पहुँच गईं । महान साहित्यकार चेखव के घर को एक बार देख लेने की मेरी लालसा आज पूरी हो गई । कारों से उतर कर हम पाँचों साथी आँध्रवासी नरसैय्या, पाकिरप्पा, उड़िया सेठी और आसामी कामिनी मोहन सर्माह दोनों दुभाषिया रूसी लड़कियों इरिना तथा आल्ला के साथ चेखव के बागीचे में आ गए । इरिना मॉस्को विश्वविद्यालय में हिंदी तथा मराठी की प्राध्यापिका ह। यों जानती पंजाबी भी है। लेकिन हमारे बीच कोई पंजाबी नहीं । आल्ला तमिल तथा अंग्रेजी जानती है। हमारे प्रतिनिधिमंडल में कोई तमिल-भाषी भी नहीं ।
वहाँ पहुँचते ही मेरा ध्यान देवदार के दो वृक्षों की ओर गया । एक की ओर इशारा करके मैने इरिना को बताया कि यह पेड़ रूसी नहीं लगता, इसे हमारे यहाँ से मँगवाया गया होगा ।
-इस तरह का देवदार सिर्फ हमारे यहाँ होता है। दूसरा पेड़ जो है वह है तो देवदार पर कहीं और से लाया गया होगा ।
अपनी खोजी नज़रों से किसी अंग्रेजी बोलने वाले गाइड के आने की राह देख रही इरिना ने सवाल किया ।
-आप किस पेड़ को अपना बता रहे हैं नौटियालजी ?
मैने एक देवदार के पेड़ की ओर इशारा करके उसे बता दिया ।
-रूस में इससे मिलती-जुलती प्रजाति शिश्नात की है । उसके यहाँ सोवियत संघ में बहुत खूबसूरत, घने जंगल हैं । लेकिन ये दोनों पेड़ उस प्रजाति से भिन्न हैं । इन्हें हम देवदार कहते हैं ।
कामरेड सेठी ने फिकरा कसा - आते ही पेड़ों की बात करने लगे हैं,कामरेड नौटियाल ।
अंग्रेजी भाषा के गाइड ने हमारे पास आते ही अपना काम शुरू कर दिया । उसने हम लोगों को अपने साथ घुमाना शुरू कर दिया है । और एक-एक चीज़ के बारे में तफसील से बताने लगा है ।
गाइड की बात पूरी होते न होते मैं उसका हिंदी अनुवाद करने का फर्ज निभाने लगा हूँ चूँके हमारे कुछ साथी अंग्रेजी भी नहीं जानते । मेरे सामने समस्या यह है कि मैं उन बातों को अपनी डायरी में दर्ज करूँ कि उसके आगामी वाक्यों को सुनते हुए उनका अनुवाद प्रस्तुत करूँ । वह भी चलते-चलते । और उसके द्वारा बताई जा रही चीज़ों को अपनी आँखों से देखते जाना तो इस मौके की सबसे बड़ी ज़रूरत है । मेरी आँखें उन चीज़ों को देखें कि अपनी डायरी पर ध्यान केंद्रित करें? बहरहाल! मैं अपने भरसक पूरी बातों को यथासंभव सही रूप में हिंदी में कहते जाने की कोशिश कर रहा हूँ ।
इस बाग की उम्र 80 वर्ष की है । 1898 में चेखव ने यह बाग खरीदा । उस समय यह खाली था । यह बागीचा खरीदने के बाद चेखव ने अपने हाथों से यहाँ कई प्रकार के पौधे लगाए,जिनमें कुछ अभी भी जीवित हैं। यहाँ सदाबहार तथा सर्दियों के समय झड़ जाने वाले पेड़ लगे हैं। बर्च वृक्ष इसी जगह लगाया गया था। चेखव के इस बेंच को 'गोर्की का बेंच' कहते थे। इस पर आगन्तुक बैठते थे। चेखव 1904 में मरे । मैक्सिम गोर्की अंत तक यहाँ आते रहते थे। बागीचे से सागर तट तक के रास्तों पर पत्थर बिछे हैं। चेखव यही चाहते थे। चम्पा के पेड़,बाँस का झाड़ उनके अपने हाथ से लगाये है। यह खूबसूरत,कलात्मक पात्र एक मदिरा निर्माता ने चेखव को भेंट किया था। चेखव का घर इस बागीचे के पश्चिम में है। उन्होंने अपने मन के माफिक घर बनाया था। इसके निर्माण में दस महीने लगे। चेखव मूल रूप से याल्टा के निवासी नहीं थे। विभिन्न स्थानों में निवास करने के बाद वे यहाँ आए। टी0बी0 हो जाने पर अपना पिछला घर बेच कर स्थायी तौर पर यहाँ रहने चले आए थे। पहले घर की योजना कुछ और थी। पर वैसा भवन बनाने के लिए पहले वाला घर बेचने पर पैसे नहीं मिल पाए। इसलिए चेखवने पुस्तकें लिखने की सोची। चेखव के मित्र उनसे अधिक काम नकरने को कहते थे । चेखव मजबूरी में भवन निर्माण के खर्चे उठाने के लिए लिखने में जुटे रहते थे। वह सिलसिला अंत तक जारी रहा। ज़ार के युग में इस घर की कीमत 20 हजार रूबल थी। एक देवदार का विशाल वृक्ष इस घर के आँगन में खड़ा है।
हम लोग एक बालकनी में चले आए हैं। इस बालकनी में खड़ा होना चेखव को बहुत प्रिय था। यहीं से,दूरबीन लेकर,वे सागर की ओर देखते थे। चार कमरे पहली मंजिल पर,चार दूसरी मंजिल पर,एक कमरा तीसरी मंजिल पर। तीसरी मंजिल पर बहन रहती थी,जिसे चित्र खींचने का शौक था। बर्च पेड़ चेखव ने स्वयं लगाया था,सुराही का पेड़ बहन ने लगाया । दूसरा 1919 में लगाया,जबकि चेखव की माता की मृत्यु हो गई। तीसरा सुराही का पेड़ 1957 में लगाया था,जब बहन की मृत्यु हो गई। 21 से 57 तक पार्यान्तोनेला इस संग्रहालय की मालिक रही। इस भवन के अन्दर सब चीजें जस की तस मौजूद हैं । जैसी कि चेखव के जीवनकाल में रहती थीं । उनमें किसी भी तरह के परिवर्तन नहीं किए गए हैं।
डाइनिंग रूम में दीवार पर पुश्किन का एक चित्र टँगा है। डाइनिंग मेज,दो सोफे की कुर्सियाँ,चेखव का एक चित्र। बहन का चित्र। युवती थी। दो चित्र चेखव के बनाए हुए। ये बर्तन, चेखव की सम्पत्ति थे। ये क्रिस्टल ग्लासेज़ उनकी पैतृक सम्पत्ति हैं,जो चेखव के माता-पिता के समय प्रयुक्त होते थे। चेखव का चित्र उनकी बहन ने बनाया था, जो एक लेखिका भी थीं । उनके छोटे भाई मिखाइल ने भी चेखव के बारे में एक पुस्तक लिखी । यह सामने का कमरा मेहमानों के लिए था । यहाँ आने पर गोर्की इसीमें रहते थे। शलातिन संगीतज्ञ भी यहीं रहते थे। कुप्रिन ने भी यहीं रह कर कहानियाँ लिखी थीं। गोर्की को यह स्थान बेहद प्रिय लगता था। पेन्टर लेवितान भी इसी कमरे में रहते थे। छोटी मेज पर लैम्प रखा है। यह कमरा उनकी पत्नी का कमरा था,जो छुट्टियों में आकर यहाँ रहती थीं। वह कमरा वैसा ही है(पूर्व की ओर)। वे एक्ट्रेस थीं। उनका मकबरा मॉस्को में चेखव के मकबरे के पास है। पत्नी मॉस्को में रहती थीं। चेखव ने एक पत्र में अपना असंतोष व्यक्त किया था कि मैं लेखक,तुम एक्ट्रेस इसलिए जुदा हैं। बीच के कमरे में सन्दूक है। ये सीढ़ियाँ अब प्रयुक्त नहीं की जातीं चूँके पुरानी पड़ गई हैं।
ऊपर की मंजिल के पश्चिम में सुराही का वृक्ष चेखव का लगाया है ।
पीछे छोटा भवन पहले से बना था। इस भवन के निर्माण की अवधि में चेखव यहीं रहे,बाद में वहाँ रसोई बनी। उसमें दो कमरे थे,एक में रसोइया रहती थी। दूसरे में माली। ऊपर के बाराम्दे के सामने एक छज्जा बाहर निकला है,जो चेखव के कमरे से जुड़ा है। अन्दर आल्मारी में चेखव के कपड़े रखे हैं। चमड़े का कोट प्रसिद्ध है। 1890 में सहालिन द्वीप पर इसे पहने कर रहे। अपनी डायरी में चेखव ने इस कोट का भी जिक्र किया है। सहालिन द्वीप पर वे तीन महीने रहे। वहाँ की जनसंख्या के बारे में जानकारी की। वहाँ शहर से कैदियों के रूप में रहने वाले लोग भी थे। वापिस आकर सहालिन द्वीप के बारे में पुस्तक लिखने लगे। फिर श्रीलंका देखने चले गए । देशों का तुलनात्मक विवाण प्रस्तुत किया। उन्होंने लिखा कि श्रीलंका अपेक्षाकृत स्वर्ग है। श्रीलंका से वे हाथिनों की दो मूर्तियाँ लाए, जो यहाँ रखी हैं। माँ के कमरे में नौ दिन की बनाई माँ की तस्वीर दीवार पर टँगी है । एक मीटर 83 से0मी0 का कद था, जूते भी बड़े थे। चद्गमा मॉस्को के संग्रहालय में है।
लिखने का काम भी ऊपर की मंजिल में । मेज पर कहानियाँ लिखते थे। मेडिकल औजार भी मेज पर रखे हैं। चेखव पहले डाक्टर थे। उन्होंने डाक्टरी का पेश छोड़ दिया था पर लोगों को देख लिया करते थे। एक पुराना फोन दीवार पर टँगा है। एक तख्ती पर 'सिगरेट पीना मना है'
लिखा है,जो एक मित्र ने लगाई थी। गुस्से में। खिड़की के ऊपर लाल और गहरे नीले काँच लगे हैं,जो पेड़ों के छोटा होने के कारण धूप से बचने के लिए लगाए गए थे। 20गुणा12 फिट का कमरा। पीछे एक सोफा भी लगा है। बीच में मिट्टी के तेल का लैम्प लटका है ।
इस कमरे में लोग आराम करने आते थे। यह आल्मारी और पियानो बहुत पुराने हैं। इनका उपयोग उनके संगीतज्ञ मेहमान करते थे । सामने का चित्र उनके दूसरे भाई का बनाया है । इसका शीर्षक गरीबी है। याल्टा में थियेटर बन जाने पर मास्को से कलाकारों ने यहाँ चेखव के दो नाटक प्रदर्शित किए। बाद में वे लोग इस कमरे में आए। उस ओर भी बाराम्दे हैं, उत्तर पूर्व में। चेखव इस घर में पाँच वर्ष रहे। चेखव यहाँ गंभीर रोगी होकर आए थे। उनकी मृत्यु हो गई । तब आयु 43 वर्ष थी । कुछ समय पहर्ले वे अपनी पत्नी से मिलने मॉस्को गए। सर्दी लग गई। वे जानते थे अंत निकट है ।( पूरा भवन पत्थरों का बना है।)
डाक्टरों ने उन्हें दक्षिण जर्मनी में आराम करने की सलाह दी । 1904 मई में वे द0 जर्मनी गए। तब उनकी पत्नी भी साथ थीं। 2 जुलाई को उनकी हालत खराब हो गई । अपनी सेहत की गंभीरता के बारे में उनको खुद ही जानकारी हो गई थी । हड़बड़ी में डाक्टरको बुलाने की तैयारी कर रही अपनी पत्नी को चेखव ने कहा- डाक्टर को मत बुलाओ,उसे बुलाना फिजूल होगा। उसके आने से पहले मैं चला जाऊँगा । बहुत धैर्य के साथ उन्होंने अन्त में शैमपेन का एक गिलास लिया । उसके बाद जर्मन में बोले- ICH STBR (मैं जा रहा हूँ)। उनका शव मॉस्को ले जाया गया। वहीं उनका मकबरा बना है।
उतना वर्णन सुन लेने के बाद मुझे लग रहा है कि चेखव के घर आकर मैने अपनी ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण फर्ज अदा किया है। उसे मैं अपने जीवन की एक महान उपलब्धि मानता रहूँगा। जिस रोग ने चेखव की ज़िन्दगी ले ली,इतने वर्षों के बाद मैं उससे निजात पाने के बाद यहाँ विश्राम करने आया हूँ। उनके जीवन के दौरान क्षयरोग को एक असाध्य रोग माना जाता था। बहुत बाद तक वैसी ही स्थिति कायम रही। डाक्टर अपने को निरूपाय मानने लगते थे। हमारे ज़माने के काफी करीब फ्रैंज काफ्का को भी उसने अपना शिकार बनाया। बीस साल बाद काफ्का की मौत 1924 में 41 वर्ष की उम्र में वियना के एक सेनिटोरियम में हुई। उसकी महत्वपूर्ण रचना ' ट्रायल' 1925 में छपी ।
और अब डाक्टर उसे कोई ऐसा भयंकर रोग नहीं मानते। तबसे अब तक विज्ञान और आयुर्विज्ञान ने बहुत प्रगति कर ली है ।
गाइड ने मुझे इस विषय पर ज़्यादा सोचने का मौका नहीं दिया। अपनी बात जारी रखते हुए वह बताने लगा :-
याल्टावासी चेखव पर अभिमान करते हैं। यहाँ के पुस्तकालय को चेखव ने अनेक पुस्तकें दी थीं। चेखव के नाम से एक सेनिटोरियम और एक मार्ग भी है। 1901 में चेखव सेनिटोरियम का उद्दघाटन हुआ । उसके निर्माण के लिए,अन्य साहित्यकारों के साथ,चेखव ने भी चंदा दिया था। यहाँ का थियेटर भी चेखव के नाम का है। यहाँ हर रोज दर्शक आते हैं ।
1860 में अपने जन्म के बाद 1879 तक चेखव तगानरोफ में ही रहे। वहाँ भी चेखव परिवार का संग्रहालय है। पिता छोटे व्यापारी थे। 1879 में आर्थिक संकट के कारण पिता मॉस्को गए। चेखव अकेले कहीं गाँव में रहते थे । चेखव ट्यूशन करके अपना गुजारा करने लगे। फिर 92 तक चेखव परिवार सहित मॉस्को मे रहे। पिता को नौकरी नहीं मिलती थी । गरीबी में रहते थे। टी0बी0 ने उसी कारण दबोच लिया था । मॉस्को में चेखव विश्वविद्यालय में भर्ती ह। मॉस्को में किराए के मकानों में रहते थे। उन दिनों के बारे में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि हमारे फ्लैट्स से आने-जाने वालों के सिर्फ पाँव दिखाई देते हैं। माँ चाहती थीं चेखव डाक्टर बनें। पढ़ते समय वे कहानियाँ लिखने लगे। उनके पारिश्रमिक की धनराशि से परिवार की कुछ सहायता करने लगे। लेखन जारी रहा । विनोदी कहानियाँ लिखीं । 1892 में पेलेखेवा गाँव में भवन खरीदा। 92 से 99 तक पेलेखेवा गाँव में रहे। यह मॉस्को के पास एक गाँव था,जिसका नाम अब चेखव है। और यह अब मॉस्को का अंग बन गया है। 7 साल तक वहाँ रहे। वहाँ कई साहित्यिक कृतियों की रचना की। डाक्टरी की डिग्री भी ली। हैजा फैला,उसकी रोकथाम की। चेखव के चार भाई एक बहन और थे। इन सात वर्षों में गरीबी का चित्र बनाने वाले भाई तथा पिता की मृत्यु हो गई । पहली बार याल्टा आने पर चेखव को यहाँ अच्छा नहीं लगा था । लिखा मुझे अच्छा नहीं लगा । यह यूरोपियन और रूसी का घालमेल है । पर सागर से परिचय हुआ तो याल्टा भी आया । फिर लिखा याल्टा का सागर एक युवती की तरह है । इसके तट पर हजार साल तक रहने
पर भी बुरा नहीं लगेगा । प्रथम बार यहाँ तीन सप्ताह व्यतीत किए थे। फिर 1894 में आए । इसके पूर्व सखालीन द्वीप के प्रवास पर रहे,जहाँ टी0बी0 बढ़ गई। रोसियन होटल में एक महीना याल्टा में बिताया। यहाँ आए तो खाँसी दूर हो गई। फिर लेखन का काम करने लगे। इलाज बन्द कर दिया। उसके बाद दो-तीन सप्ताह के लिए अक्सर यहाँ आकर मित्रों के घर पर रह लेते थे। 1899 में भावी पत्नी से परिचय हुआ। तब दोनों यहाँ आए । यहाँ आने के बाद चेखव होटल में और ओल्गा अपने मित्रों के घर पर रहने लगे। फिर योरोप, फ्राँस का प्रवास किया। डाक्टरों ने फ्राँस में रहने की सलाह दी । चेखव ने मातृभूमि में रहना अधिक पसन्द किया। पिता की मृत्यु व अपने रोग की गंभीरता के कारण यहाँ रहने लगे । उसके बाद उनका याल्टा का जीवन शुरू हुआ ।
दूसरे महायुद्ध के समय याल्टा पर फासिस्टों ने कब्जा कर लिया था। एक फासिस्ट अधिकारी ने आकर कहा -''यहाँ मैं रहूँगा ।'' उस दौरान यहाँ बहन रहती थी । बहन को सूझा कि वे कहीं उस घर को नष्ट न कर दें। उसने भवन की एक दीवार पर एक जर्मन नाटककार को फोटो लगा दिया । उस फोटो को देखकर हाकिम ने घर को नष्ट नहीं किया। जर्मन हाकिम यहाँ आठ दिन रहा। फिर सेवोस्तोपोल चला गया। जाते समय पीछे के दरवाजे पर उसने 'मेरबाकी'(जर्मन अधिकारी की संपत्ति है ) प्लेट लगा दी । सेवोस्तोपोल से वह वापस नहीं लौटा । वह तख्ती युद्ध के अंत तक यहाँ लगी रही और उसके कारण जर्मन सैनिकों ने इसे ध्वस्त नहीं किया। गोलियाँ भवन को लगी थीं । उसकी मरम्मत हो गई । यह पेड़ केदरगियाल्यस्की(देवदार) हिमालय से आया है । दूसरा देवदार अफ्रीका से आया है ।
मैने इरिना को बताया ।
-यह गंगोत्री के पास हर्षिल से लाया गया देवदार है ।
मैं एक टकनौरी देवदार के नीच आकर खड़ा हो गया तो लगा कि चेखव के बागीचे में आकर मैं हर्षिल ही पहुँच गया हूँ । मेरा ननिहाल । और मैं अकेला नहीं,चेखव भी मेरे साथ हैं ।
उस वक्त मैने देखा मेरे सभी साथी हमारी ओर पीठ फेर कर तेजी से बाहर की ओर लपकते जा रहे थे । उस ओर जहाँ अपनी कारें खड़ी थीं ।

Thursday, November 20, 2008

फायर लाइन का पहरेदार

कथाकार विद्यासागर नौटियाल की स्म्रतियों में दर्ज टिहरी के ढेरों चित्र उनके रचना संसार में उपस्थित हो कर पाठक के भीतर कौतुहल जगाने लगते हैं। इतिहास की ढेरों पर्ते खुद ब खुन खुलने लगती है।
प्रस्तुत है उनकी डायरी के प्रष्ठ
विद्यासागर नौटियाल

उन दिनों मेरे पिता टिहरी -गढ़वाल रियासत की राजधानी नरेन्द्रनगर के पास फकोट नामक स्थान पर तैनात थे । वहां एक राजकीय उद्यान था, पिता उसके अधीक्षक थे । उस उद्यान में सिर्फ सब्जियां उगाई जाती थीं । इतनी सब्जियां कि नरेन्द्रनगर राजमहल में रोजाना दो खच्चर सब्जी भेजी जी सके ।
बाद में पिता को फिर वन विभाग में रेंज ऑफीसर बना दिया गया । सन् 1939 ई0 उस वक्त मेरी उम्र सात बरस की थी जब शिमला की राह पर जुब्बल रियासत के पड़ोस में रियासत के अंतिम क्षेत्र में हमारा परिवार बंगाण पट्टी के कसेडी नामक रेंज दफ्तर में जा पहुंचा ।

टिहरी शहर से सौ मील की दूरी पर कसेडी रेंज दफ्तर बंगाण पट्टी में एक बेहद सुनसान जगह पर स्थित था । वहां से गांव बहुत दूरी पर थे । घाटी में सामने की ओर दूसरे पहाड़ पर जौनसार -बाबर का इलाका दिखायी देता था । वहां राजा का नहीं,अंग्रेज का राज था।
वन विभाग के कर्मचारियों के लिए एक ज़रूरी काम जंगलों को आग से संभावित नुकसान से बचाना होता था । घने जंगल में मामूली आग दावानल का रूप धारण कर सकती है। रियासत में वनों की आग से रक्षा करने के नियम बहुत कठोर थे। राह चलते आदमी के लिए अनिवार्य होता था कि वह आग दिखायी देने पर उसे बुझाने के काम में लग जाय । गांव के निवासियों को भी अपने आस-पास के किसी वन में धुंआ दिखायी देने पर अपने काम-धंधे छोड़ कर जंगल की ओर दौड़ जाना कानूनी तौर पर लाजमी होता था । गर्मियों का मौसम जंगलातियों के लिए विपदा का मौसम माना जाता था । जब तक बरसात शुरू नहीं हो जाती थी जंगलात के किसी भी अधिकारी-कर्मचारी को छुट्टी मंजूर नहीं हो सकती थी । आग से वनों की रक्षा करने के लिहाज से गर्मियों के शुरू होने से पेश्तर एतिहायत के तौर पर हर साल फ़ायर लाइन काटी जाती थी । रक्षित वनों के चारों ओर उसकी चौहद्दी में फैली हुई घास को एक निश्चित चौड़ाई में काट कर इस बात की व्यवस्था कर ली जाती थी कि उससे बाहर के क्षेत्र में फैलने वाली आग की लपटें उस जंगल के अन्दर प्रवेश न कर सकें । फ़ायर लाइन काटने का एक दूसरा उपाय यह भी होता था कि रक्षित वन की चौहद्दी में उगी हुई घास पर खुद ही आग लगा कर उसे वन की दिशा में बुझाते चलें । इस काम में कई लोगों को एक साथ मिल कर जुटना पड़ता है । आग को वन के अन्दर और वन के बाहर दोनों दिशाओं में बुझाते हुए आगे बढ़ते रहते हैं । उस लाइन के उस तरह काट दिए जाने से भी बाहर की आग के वन के भीतर प्रवेश कर सकने की संभावना खत्म हो जाती थी । हमारे रेंज दफ्तर से नीचे के इलाके में आम रास्ते के बराबरी पर पिछले कुछ दिनों से आग लगा कर लाइन काटी जा रही थी । उस काम को वन विभाग के कर्मचारियों के अलावा कुछ दिहाड़ी मजूर भी शामिल रहते थे। आग लाइन के काम के शुरू होते ही मैं भी उस जगह पहुंच जाता था । उनके साथ आग जलाते-बुझाते हुए आगे बढ़ते रहने में मुझे बहुत मज़ा आता था । मेरे मन में यह भाव भरने लगता था कि इस वक्त मैं भी एक बेहद जुम्मेदारी का काम निभा रहा हूं। उस काम में शरीक होने के लिए मुझे कोई बुलाने भी नहीं आता था,वहाँ से हट जाने को भी नहीं कहता था । रेंजर साहब के बेटे को कोई कुछ कह भी कैसे सकता था ?
उस काम की योजना के बारे में पिता को जब भी फुरसत में पाता मैं विस्तार से जानकारी लेता रहता था । रेंज क्वार्टर से नीचे के क्षेत्र में चल रहे काम के पूरा हो जाने के फौरन बाद उससे ऊपर की ओर के ढलानों पर काम किया जाना था । पहाड़ की चोटी तक । बड़े पाजूधार की तरफ घने जंगल थे । उन जंगलों के नक्शे मेरे दिमाग में दर्ज रहते थे । पाजूधार बंगले तक रोज जाते आते मुझे अच्छी तरह याद हो गया था कहां क्या है ्र क्या नहीं है ।
उस दिन जन्माष्ठमी के व्रत के कारण रेंज दफ्तर में छुट्टी थी । उस छुट्टी के कारण पिता दौरे पर नहीं थे, घर पर मौजूद थे । परिवार में हंसी-खुशी का माहौल था । बच्चों में भाईजी तो काफी लंबे समय से घर पर रहते नहीं थे । वे पढ़ाई करने के लिए देहरादून में रहने लगे थे। सिर्फ गर्मियों की छुट्टियों में हमारे पास आ पाते थे । दूसरे नम्बर पर दीदी थीं । उनके जीवन को पिछले काफी समय से नानीजी के निर्र्देशों के मुताबिक ढाला जाने लगा था, जिसमें उम्रदार लड़कियों का व्रत लेना एक मुख्य ज़रूरत होती थी । दीदी ने पिछले साल भी व्रत लिया था । साल में दो बड़े व्रत आते थे-शिवरात्रि और जन्माष्ठमी । उन दोनों व्रतों के दिन घर पर होने वाली कुल घटनाओं के विवरण मुझे यों भी पूरी तरह याद रहते थे । उस दिन सुबह की चाय पी लेने के फौरन बाद मेरा मांजी से झगड़ा होने लगा था । मुझे व्रत लेने के लिए मना किया जा रहा था । मेरा कहना था कि मेरी बहनें कमला और उर्मिला अभी छोटी हैं, इसलिए वे व्रत न रखें तो कोई बात नहीं। पर मैं तो अब खूब बड़ा हो गया हूं और मैं तो व्रत लूंगा ही लूंगा ।
-तू अभी छोटा है बेटा ।
-हां मांजी, मैं अभी छोटा हूं । पर यह बात तुम तब तो नहीं कहते जब मैं फायर लाइन बुझाने जाता हूं । तब नहीं होता मैं छोटा ।
-अच्छा विद्यासागर,जो तू बड़ा हो गया है तो पहले मेरे दूध के पैसे दे दे ।
दूध के पैसे । रोज़-रोज ताने देती रहती हैं -तुझे मैने दूध पिलाया है। उस दिन मैं पूरा हिसाब चुकता करने पर उतारू हो गया। मेरे पैसे भी मांजी के ही पास रहते थे। लकड़ी के संदूक के अन्दर, एक कोने पर । मेरे पास पैसे कहां से आते हैं ? जब कभी कोई मेहमान या रिश्तेदार हमारे घर आते हैं तो उनमें से कुछ लोग जाते वक्त मुझे कुछ पैसा दे देते हैं - ले विद्यासागर, तू अपने लिए किताब ले लेना । उस तरह की मेरी कुल जमा पूंजी कुल कितनी है, कितना पैसा किसने दिया था इस बात की मुझे बखूबी जानकारी रहती थी । और उनकी याद भी रहती थी । उस वक्त मांजी के संदूक में मेरे कुल पांच रूपए जमा थे ।
-ज्यादा से ज्यादा पांच रूपए का तो पिया होगा मैने तुम्हारा दूध। तुम ही रख लेना मेरे वे सब रूपए, जो तुम्हारे पास हैं ।
कमला और उर्मिला बहुत उत्सुक होकर देखने लगी थीं कि आज व्रत के दिन दूध के उस हिसाब के चुकता हो जाने के बाद अब मेरे व्रत लेने न लेने के बारे में मांजी क्या निर्णय देती हैं । इस मौके पर वे दोनों कामना करने लगी थीं कि मांजी की जुबान से किसी तरह फिसल कर, एक बार 'नहीं मानता तो रहले भूखा " निकल आए । मुझे इजाजत मिल जाने पर उनके लिए भी व्रत लेने की राहें खुल सकती थीं । तब उनकी भी व्रत रखने का अपना दावा पेश कर देने की बारी आ सकती थी । उसके लिए चाहे जितनी भी आरजू मिन्नत करनी पड़े । थोड़ा रोना, थोड़ा रूठना, थोड़ा हल्ला मचाना। पर पहले रास्ता रोक रही यह मुख्य बाधा तो दूर हो ।
मैं अपने को बाकायदा एक जुम्मेदार व्यक्ति मानने लगा था और मैने करीब करीब तय कर लिया था कि दिन के मौके पर, रात हो जाने से पहले, दीदी की तरह मैं भी खाना नहीं खाऊंगा और व्रत रखूंगा। पिछले साल की तरह अब मैं किसी के झांसे में नहीं आने वाला, जब मुझे दोपहर के वक्त, आकाश में सूरज के मौजूद रहते यह झूठ-झूठ कह कर खाना खिला दिया गया था कि बच्चों के आधा दिन के बाद खाना खा लेने पर भगवानजी नाराज नहीं होते और ऐसे बच्चों का खा लेने के बाद चर्त नहीं होता । (चर्त गढ़वाली में व्रत के उल्टे को कहा जाता है।)
बादल-विहीन आकाश में जब सूरज कुछ ऊपर चढ़ आया तो मैं अपने नि्श्चय को मन ही मन अटल मानता हुआ अपनी जेब में एक माचिस लेकर चुपचाप घर से निकल पड़ा । छुट्टी के फौरन बाद रेंज दफ्तर से ऊपर की ओर की फायर लाइन काटी ( लगाई-बुझाई)जानी थी । यह बात मुझे पहले से मालूम थी । अपने पिता के विभाग के कल के काम को कुछ हलका करने के लिहाज से मैं थोड़ा बहुत काम आज ही निपटा लेना चाहता था। रेंज दफ्तर की सीमा से बाहर जंगल में पहुंचते ही मैने पेड़ों की दो-तीन छोटी शाखाओं को उठा कर उनको जमीन पर एक साथ रखा । उनका इस्तेमाल आग बुझाने के लिए किया जाना था । तब धीरे से माचिस की एक तीली झाड़ी और बेतहाशा उगी हुई घास पर एक जगह पर आग छुआ दी । उस आग को इस हिसाब से बुझाते रहना था कि वह जंगल की ओर न बढ़ सके,रेंज दफ्तर की ओर ही आती रहे, जिधर उसके ज़्यादा फैलने की कोई संभावना नहीं हो सकती थी। उधर पहले ही फायर लाइन काटी जा चुकी थी। आग जो लगी तो लग ही गई । वह बेतहाशा फैलने लगी । मैने काफी को्शिश की कि आग को ऊपर की ओर बढ़ने से रोक लिया जाय । लेकिन वह सूखी घास की खूराक पाकर ऊपर की ओर ही लपकती जा रही थी । मेरे देखते-देखते उसका घेरा इतना बढ़ गया कि नीचे रेंज दफ्तर से आकाश की ओर उठता हुआ धुआं साफ-साफ नज़र आने लगा ।
जन्माष्ठमी का त्यौहार। कृष्ण के जन्म के मौके पर यमुना में बाढ़ आ गई थी। यहां यमुना हमसे काफी दूर है। और आकाश में,लगता है, धुंए के अलावा और कुछ है ही नहीं। त्यौहार मनाने में व्यस्त जंगलाती अचानक लग गई उस आग को देख भयभीत हो गए थे। किसका व्रत ? किसका त्यौहार ? अपने घर पर जो जैसी हालत में था वैसा ही वन की ओर दौड़ता चला आ रहा था ।
पता नहीं उस सुनसान जगह पर, जहां दो या तीन परिवारों के अलावा मीलों तक कोई इन्सानी आबादी नहीं थी, उतने सारे लोग उस वक्त कहां से आ लगे । लेकिन आग थी कि वह किसी के वश में नहीं आ रही थी।
ऐसे संकट के समय मुझे मौके पर पिता के हाथों कितनी मार पड रही है, उसका मैं कोई हिसाब कैसे रख सकता था । मुझे दिखायी दे रहा था कि आग की लपटें सुरक्षित वन के एकदम पास पहुंचने लगीं हैं। अचानक एक आश्चर्य घटित हुआ । आकाश में जाने कहां से बादल घिर आए और पानी बरसने लगा । ऐसी तेज बरखा कि कुछ ही देर बाद सुरक्षित जंगल की ओर बढ़ती आग की लपटों का कहीं पता ही नहीं चला । व्रतधारी विद्यासागर की भी जान में जान आ गई । मुझे याद नहीं कि उस मशक्कत के बाद घर लौट आने पर मेरे व्रत का चर्त करवा दिया गया था या नहीं ।

Wednesday, November 19, 2008

'ल्यूमिनस पीक्स" का लोकार्पण और काशीनाथ सिंह का कहानी पाठ

उदयपुर।
हमारी दृष्टि जरूर वैज्ञानिक हुई है लेकिन कल्पना की दुनिया अब सिमटती जा रही है। कहानी के समक्ष यह चुनौती है इसलिए कहानी में सुनाने का भाव आना जरूरी हो गया है। शीर्षस्थ हिन्दी कथाकार प्रो. काशीनाथ सिंह ने उक्त विचार सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के नेहरू अध्ययन केन्द्र द्वारा आयोजित 'लेखक से मिलिए" कार्यक्रम में व्यक्त किए। प्रो. सिंह ने कहा कि कहना कहानी के जिंस में है और कहानी कहे जाने के लिए ही लिखी जाती है। उन्होंने इस आयोजन में चर्चित उपन्यास 'काशी का अस्सी" से एक अंश का पाठ भी किया।
आयोजन में डॉ. आशुतोष मोहन द्वारा अनुवादित कविताओं के संग्रह 'ल्यूमिनस पीक्स" का विमोचन प्रो. काशीनाथ सिंह ने किया। डॉ. मोहन ने वरिष्ठ कवि नंद चतुर्वेदी की प्रतिनिधि कविताओं का अनुवाद इस संग्रह में किया है। प्रो। शरद श्रीवास्तव ने इस अनुवाद को चुनौतीपूर्ण कर्म की संज्ञा देते हुए कहा कि भारतीय साहित्य की वैश्विक छवि के लिए ऐसे अनुवाद जरूरी है। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में साहित्य और चित्रकला का अभिनव संगम है। अनुवादित कविताओं के साथ समकालीन चित्रकारों की रेखाकृतियां इसे भिन्न आस्वाद देती हैं। अनुवादक डॉ। आशुतोष मोहन ने कहा कि अनुवाद रचना कर्म जैसा ही बैचेन करने वाला अनुभव है। लोकार्पण की रस्म चित्रकार अब्बास बाटलीवाला, अंग्रेजी आलोचक निखिलेश यादव और ''बनास"" के संपादक पल्लव ने प्रो. सिंह और नंद चतुर्वेदी को हाथों करवाई। आभार ज्ञापित करते हुए नंद बाबू ने कहा कि अपनी कविता की प्रशंसा सुनना एक कठिन काम है। उन्होंने इस दौर को निर्मम समय बताते हुए कहा कि यहां हम अनचाहे आ गए हैं जहां एक उत्सव भी है।
इस अवसर पर 'काशी का अस्सी" और अब्बास बाटलीवाला के कैनवास पर एक प्रायोगिक डाक्यूड्रामा ''कौन ठगवा!"" के संगीत की सी.डी. का लोकार्पण भी हुआ। यह फिल्म परम प्रोडक्शन के बैनर में बनाई जा रही है जिसके निर्देशक डॉ. आशुतोष मोहन हैं। कार्यक्रम का संयोजन शोधार्थी श्रुति शर्मा ने किया। अंत में नेहरू अध्ययन केन्द्र के निदेशक डॉ। संजय लोढ़ा ने आभार व्यक्त किया। आयोजन में डॉ। राजकुमार वर्मा (नई दिल्ली), डॉ. सदाशिव श्रोत्रिय (नाथद्वारा), सी.एस. मेहता, प्रो. नवल किशोर, प्रो. एस.एन. जोशी, प्रो. आर.एन. व्यास, डॉ. विजय पारीक सहित अनेक साहित्यप्रेमी, पत्रकार व विद्यार्थी उपस्थित थे।

पूनम अरोड़ा,
द्वारा : पल्लव
उदयपुर

Tuesday, November 18, 2008

चित्तौड़गढ़ में काशीनाथ सिंह का कहानी पाठ

हम उदयपुर के युवा रचनाकार पल्लव जी के आभारी हैं जिनके मार्फ़त हमें यह रिपोर्ट प्राप्त हुई।


चित्तौड़गढ़। नरभक्षी राजा चाहे कितना भयानक हो दुर्वध्य नहीं है, उसका वध संभव है। चर्चित उपन्यास `काशी का अस्सी` के एक अं को सुनाते हुए शीर्षस्थ हिन्दी कथाकार काशीनाथ सिंह ने यह कहा कि हमारे समय में भले ही संस्कृति-समाज में निरंतर आ रहे ह्रास का सामना लोगों को करना पड़ रहा है लेकिन इससे निरा नहीं हो जाना चाहिए। प्रोफेसर काशीनाथ सिंह ने चित्तौड़गढ़ में साहित्य-संस्कृति के संस्थान संभावना और साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कथा सन्धि में अपनी रचनाओं का पाठ किया। प्रो. सिंह ने अपनी चर्चित कहानी `बांस` का भी पाठ किया, जिसमें जीवन और वैचारिक जड़ता के द्वन्द्व को लोककथात्मक शैली में अभिव्यक्त किया गया है। काशीनाथ सिंह ने चित्तौड़गढ़ में अपने कहानी पाठ को सौभाग्य मानते हुए कहा कि चित्तौड़ मेरा सपना था और यह हर उस आदमी का सपना है जो प्रतिरोध की चेतना अपने भीतर जिंदा रखना चाहता है। उन्होंने कहा कि कहानियां सुनने और सुनाने के लिए ही होती हैं। कहानी वह झूठ है जो समाज के सच को उजागर करती है। रचना पाठ के पश्चात हुई चर्चा में सुशीला लड्ढा, आर.सी. तुंगारिया, बी.एस.त्यागी और गोविन्दराम र्मा ने भागीदारी की। चर्चा में भाग लेते हुए संभावना के अध्यक्ष डॉ. के. सी. र्मा ने कहा कि काशीनाथ सिंह की रचनाओं में हमारा समय और समाज अपने पूरे रंगो-खुबुओं में दिखाई पड़ता है। वरिष्ठ लेखक और काशीनाथ सिंह के सहपाठी रहे श्रीवल्लभ शुक्ला ने पचास बरस बाद काशीजी से हुई भेंट को अपने जीवन का अपूर्व संस्मरण बताया। चर्चा में श्रोताओं के उत्तर देते हुए काशीनाथ सिंह ने बांस की रचना प्रक्रिया पर विस्तार से टिप्पणी की। बनास के संपादक पल्लव ने कहा कि काशी का अस्सी भूमण्डलीकरण का भारतीय प्रतिकार है जो अपने नयी शैली के कारण भी महत्वपूर्ण हो गया है। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ समालोचक प्रो. नवलकिशोर ने काशीनाथ सिंह के कथाकर्म को नये रूप बन्धन, नवीन उद्भावना और प्रातिभ चमत्कार का अपूर्व संयोग बताया। उन्होंने कहा कि `काशी का अस्सी` भाषा को भी नयी सम्पन्नता देने वाला उपन्यास है। समारोह में संभावना द्वारा प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका `बनास` के दूसरे अंक के मुखपृष्ठ का अनावरण अतिथियों द्वारा किया गया। संभावना के वरिष्ठ सदस्य व लेखक लक्ष्मण व्यास का स्थानान्तरण हो जाने पर समारोह में प्रो. सिंह ने माल्यार्पण कर विदाई दी। इससे पूर्व लेखक परिचय साहित्यकार डॉ. सत्यनारायण व्यास ने दिया। संचालन डॉ. कनक जैन ने किया। आयोजन स्थल पर लगाई गई लघुपत्रिका प्रदर्शनी को पाठकों ने भरपूर सराहा। आकावाणी के केन्द्र निदेक सुधीर राखेचा, एडवोकेट भंवरलाल सिसोदिया, कवि मुन्नालाल डाकोत, जगदी पंचोली, संतोष र्मा, माणिक सोनी सहित अनेक पाठक आयोजन में उपस्थित थे। अलख स्टडी के संचालक जयप्रका भटनागर ने आभार प्रदर्षित किया।

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विवरण: डॉ. कनक जैन, चित्तौड़गढ़

Monday, November 17, 2008

पीठ का सौदा

टिहरी डूब गयी है। टिहरी का भूगोल, टिहरी का जन-जीवन, बेदखल कर दिया गया टिहरी का समाज और टिहरी के इतिहास को जानना हो तो कौन बताएगा ?
एक मात्र स्रोत अगर कोई है तो कथाकार विद्यासागर नौटियाल का रचना संसार।
टिहरी से लेकर बनारस और बनारस से लेकर यूरोप और अमेरिका तक की यात्राओं को करने और जन-जीवन को जानने समझने वाले विद्यासागर नौटियाल की आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि साहित्य में उन्होंने अपने कदम टिहरी के भूगोल से बाहर नहीं निकलने दिये।
कथाकार
विद्यासागर नौटियाल के मार्फत ही कहूं, जो उन्होंने एक दिन ऐसी जिज्ञासावश पूछे गए सवाल के जवाब में कहा तो यही कि मैं वही लिखूंगा जिसे मैं लिख सकता हूं जिसको लिखने वाला कोई दूसरा नहीं है और शायद हो भी न। यह मुझ पर ऋण है और लिखकर ही मैं उस उससे उऋण होना चाहता हूं।


कथाकार विद्यासागर नौटियाल के रचना संसार पर वरिष्ठ कहानीकार शेखर जोशी की टिप्पणी ज्यादा माकूल है -" टिहरी गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों की छवियां उनके साहित्य में अपनी सम्पूर्ण अंतरंगता के साथ उपस्थित हैं। आकश छूती ऊंचाइयों पर हरे-भरे बुग्यालों में अपने पशुओं के साथ एकाकी जीवन बिताने वाले गूजर हों अथवा घाटी में संघर्षशील जीवन व्यतीत करने वाले ग्रामीण, सभी अपनी विशिष्ट मुद्राओं में हमें अपनी जिजीविषा से चमत्कृत कर देते हैं। उनके जीन प्रसगों में काठिन्य, करुणा, दैन्य के अतिरिक्त प्रेम, माधुर्य और विनोद भी है। ऐसी विडंबनापूर्ण स्थितियां भी हैं जिन्हें पढ़कर किसी संवेदनशील पाठक के होंठों पर मुस्कान उतर आए, आंखें छलछला जाएं"

प्रस्तुत है ७६वे वर्ष में प्रवेश कर चुके कथाकार विद्यासागर नौटियाल की एक महत्वपूर्ण कहानी।


पीठ का सौदा
- विद्यासागर नौटियाल
(अर्नेस्ट हेमिंग्वे को समर्पित : जिनकी धरती पर बैठ कर यह कहानी लिखी गई है।)

जबरू जमीन पर बैठ गया। उसके सामने नदी के दोनों तटों को जोड़ता, रस्सों का बना झूला-पुल था । जमीन पर बैठ कर उसने अपनी पीठ इंजन की पीठ पर टिका दी । इंजन के तल को घेर कर रस्ससों के बाहर से बांधी गई कपड़े की नरम गद्दी को सहेज कर अपने हाथ से माथे पर ले लिया । अपने सर को थोड़ा-सा आगे की ओर खींच कर उस गद्दी को अपने अंदाज से खिसकाते हुए माथे पर संतुलित किया । तब अपने घुटनों को जरा-सा मोड़ा और कपाल और माथे के बीच के हिस्से पर अटकी गद्दी को एक बार फिर से, आखिरी बार, संतुलित किया। उस प्रक्रिया के पूरा हो जाने के बाद उसका दाहिना हाथ जमीन पर टिक गया । उस तामझाम के साथ अपने मुंड को आगे की ओर खींचते हुए, कुछ ज़ोर लगाकर, वह अपने तईं उठ कर खड़ा होने की कोशिश करने लगा। उसकी पीठ के पीछे से तीन मजदूर, अडिग-से लग रहे उस भारी इंजन को, जमीन से उठाने में जुट गए । एक मजदूर उसके एकदम सामने आकर खड़ा हो गया ।
-ला, अपना हाथ दे।
जबरू ने अपना दाहिना हाथ जमीन से उठा कर आगे बढ़ा दिया और मजदूर ने उसके बदन पर शेष रह गया वह अकेला हाथ कस कर पकड़ लिया । वह आगे की तरफ से सहारा देकर उसे उठने में मदद करने लगा। इस वक्त जमीन से उठने के प्रयास में जबरू अपने शरीर की पूरी ताकत, सर से पांव तलक, चौतरफा झोंकने लगा था । उसे सिर्फ अपना बदन नहीं उठाना था,अपने साथ नत्थी कर दिए गए इंजन को भी उठाना था। उसे इंजन को अपने साथ लेकर ऊपर उठना था । जमीन से ऊपर । अपनी ताकत और साथी मजदूरों की सहायता के बल पर आखीर में वह अपने पांवों पर खड़ा हो गया । अब वह अकेला था । उसे सहारा और सहायता देने वाले कुल लोग उसका रास्ता छोड़, उससे छिटक कर अलग हट गए थे। नदी के ऊपर, हिलते-डोलते हुए झूले पर, उसकी यात्रा की सफलता के लिए वे सब, और वहां पर मौजूद बाकी तमाम लोग, अपने-अपने मन में मंगलकामनाएं करने लगे थे। उसकी आगे की राह बिलकुल साफ थी । झूला-पुल की शुरूआत तक । वहां जमीन पर, उसके रास्ते में कोई छोटा-सा कंकर-पत्थर तक नहीं दिखायी दे रहा था । जमीन से ऊपर उठ गए अति-भार को मजबूत रस्सों के बल पीठ पर लिए हुए उसने झूला-पुल की दिशा में अपना कदम आगे बढ़ा दिया । पहला कदम ।
शांत घाटी के निवासियों की ज़िन्दगी के ढब में कई तरह के नए परिवर्तनों का सूचक । एक ऐतिहासिक कदम ।
उसे अपने पास खड़े साथी मजूरों की हमदर्द आवाजें सुनाई दीं ।
-आराम से, आराम से।
संभल कर चलने के लिए दो बार उच्चारित उन गंभीर आवाज़ों के बाद वहां सब कुछ शान्त हो गया । ऐसा लगने लगा कि जैसे जबरू के चलने के अलावा दुनिया के बाकी सभी काम थम गए हों ।
हैरत में डूब गए तमाम लोग अपनी सांसें रोक कर उसे देखने लगे थे । सबकी नज़रें पुल की तरफ बढ़ते जा रहे जबरू पर केंद्रित हो गई थीं । उसका एक-एक कदम गिना जाने लगा था । झूले पर बीच-बीच में कामचलाऊ पांवदान के तौर पर बंधी लकड़ियों पर टिकाए गए पांव को ऊपर उठाना और उसे अपने सामने बिछे अगले पांवदान पर टिका देना । हिलते हुए झूला-पुल पर दाहिने हाथ से अपने पास दिखायी दे रहे जंगले के रस्सों को धैर्यपूर्वक पकड़ता और छोड़ता हुआ,कदम-कदम आगे की ओर सरकता जा रहा जबरू । नदी के दोनों तटों पर फैले, खड़े, खतरनाक ढलानों पर घास काट रही घसियारिनें और उस वन में अपने गोरू के साथ मौजूद ग्वैर छोरे भी काफी पहले अपने-अपने काम-धाम छोड़ कर उस झूले के पास आकर जमा हो गए थे । उन सबकी नज़रें भी जबरू पर केंद्रित हो गई थीं।
एक सवारी गाड़ी के इंजन के भार के नीचे दबे हुए जबरू ने अपना काम शुरू करने से पहले अपने पुरखों का सुमिरन किया था। वे पुरखे जिन में से किसी को उस ने कभी देखा नहीं । उन के बारे में उस ने सिर्फ सुना भर है। पुरखों की गिनती में, उस से सब से नजदीक उस का बाप था। वह भी जबरू के जन्म लेने के साल भर बाद दुनिया से चल बसा था। अपने बाप की जबरू के मन में कोई स्मृति नहीं थी। कई बार उसे इस बात का बहुत अफसोस भी होता था। वह कल्पना करने लगता कि उस का बाप जीवित होता तो कैसा होता । उसका बचपन कैसे बीता होता, जवानी में क्या-क्या करता, उसकी ज़िन्दगी कैसी हो गई होती। बाप जिन्दा रहा होता तो कुछ बरसों तक, मात्र कुछ बरस तक, उसे उसका सहारा मिल गया होता । बस इतना ही होना था । यह बात तो वह अच्छी तरह जानता है कि उसका बाप जिन्दा भी रहा होता तो वह उसे कोई सेठ या ठेकेदार, व्यापारी या पढ़ा-लिखा आदमी नहीं बना सकता था। रहना तो उसे मजदूर बन कर ही होता। करनी मजदूरी ही होती। रोज कमाओ, रोज खाओ। उसे रोटी का सहारा देने वाले सैकड़ों माई-बाप इस दुनिया में चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। उसे कोई काम सौंपने से पहले मालिकों के स्वर में ऐसा दयाभाव भरा रहता है जैसे उसे उस काम पर लगा कर वे उस पर कोई भारी-भारी अहसान कर रहे हों । हर बार काम मिल जाने के बाद उस काम के बोझ से कहीं ज़्यादा वह अपने को उस अहसान के नीचे दबा हुआ महसूस करता आया है ।

उस दिन सुबह के वक्त किशनसिंह के स्वर में भी वैसा ही दयाभाव भरा था, जब उसने जबरू को अपने घर पर बुलवाया था। गाड़ी मालिक किशनसिंह, ठेकेदार किशनसिंह, नेताजी किशनसिंह । इलाके की जानी-मानी हस्ती, एक बहुत बड़ा आदमी किशनसिंह ।
बे्शक उस दिन कि्शनसिंह ने और दिनों की तरह ऊपर की मंजिल में बनी, आंगन की तरफ खुली हुई अपनी तिवारी में खंभ को पकड़ कर और लकड़ी के डेड़ फुट ऊंचे मजबूत, गहरे हरे रंग में चमक रहे जंगले के ऊपर एक पांव टिका कर, खड़े-खड़े वहीं से अपना फरमान नहीं सुनाया था । आजकी बात कुछ अलग बात थी । जबरू को अपने घर की ओर आता देख, उसके आंगन में पहुंचने और गर्दन झुका कर, जमीन की ओर ताकते हुए नमस्कार करने से भी पेशतर, किशनसिंह खुद ही ऊपर की मंजिल से नीचे आंगन में उतर आया था । आंगन में एक-बराबरी पर खड़े होकर बात करते हुए वह जैसे जबरू को इज्जत बख्श रहा हो । उस वक्त आंगन में सुबह के सूरज की किरणें चमकने लगी थीं । जबरू से बात ्शुरू करने से पहले किशनसिंह ने ऊपर की मंजिल में रसोई के भीतरी कमरे में मौजूद अपनी घरवाली को बाहर से ही आवाज़ दे दी थी।
-यह जबरू आया है, जरा चाय बना दो इसके लिए। अपने गांव से, उतनी दूर से चल कर सुबह-सुबह यहां पहुंच गया है बेचारा। वहां तो उस वक्त रात भी नहीं खुली होगी ।
किशनसिंह के अपनी घरवाली को कहे गए वे बोल जबरू को भारी अहसान के नीचे दबाने लगे थे ।
-जबरू ! मैने तुझे एक खास मतलब से बुलाया है ।
-मालिक ।
किशना यह तय नहीं कर पा रहा था कि अपने मन में बहुत लंबे अरसे से वह जिन सुनहरे सपनों के जाल बुनता आ रहा है, उसे जबरू के कानों के अंदर किस हिसाब से, किस तरतीब से डाला जाय । पिछले कई दिनों से वह सिर्फ सपने देखता आया है। असंभव सपने ।
-मैं तुझे ठेकेदार बनाने की सोच रहा हूं ।
-इतनी बड़ी बात क्यों बोल रहे हैं मालिक, जो न कभी हुई है न हो सकती है ?
-नहीं जबरू ! मैने तय कर लिया है कि तुझे एक ऐसा काम सौंप दूं जिसे पूरा कर लेने पर तेरी किस्मत चमक उठेगी ।
जबरू चुप हो गया । उसने कोई जवाब नहीं दिया ।
-ऐसा करते हैं, पहले चाय पी लेते हैं ।
चाय पीते हुए किशनसिंह मन ही मन फिर से अपने सुहावने सपनों में खो गया । पिछले दस वर्षों से वह नैना-सेंतुलीखाल मोटर मार्ग के निर्माण में अपनी भूमिका निभाता आ रहा था । दस साल पहले इलाके के आठ मान्यवर, खास-खास लोगों का प्रतिनिधिमंडल लेकर वह मुख्य मंत्रीजी और निर्माण मंत्रीजी के पास लखनऊ गया था। स्थानीय विधायक के अलावा पर्वतीय क्षेत्र के दस अन्य विधायकों को भी उसने अपने प्रतिनिधिमंडल में साथ कर लिया था । उसने ऐसा जोर लगवा दिया कि नैना-सेंतुलीखाल मोटर मार्ग विधान सभा में पेद्गा किए गए उसी साल के बजट में शामिल कर लिया गया था। रोड पर कि्श्तों में एक तरफ से काम शुरू हो गया। उस पर दस बरसों में काम के सबसे ज़्यादा ठेके किशनसिंह को ही मिलते रहे। अब खुदाई, कटान के बाद रोड पूरी तरह तैयार हो गई थी । सिर्फ संपर्क पुल का बनना बाकी रह गया था । इस साल के बजट में शासन ने उस पुल की भी स्वीकृति दे दी । और अब किशनसिंह उस पूरी तरह तैयार हो गई रोड पर, पुल के बनने से पहले, किसी तरह अपनी गाड़ी चलाने के सपने देखने लगा था । जबरू से मुंह खोल कर, मतलब की बात करने से पहले, उसने बहुत जल्दी में एक बार पूरी योजना पर सरसरी तौर पर पुनर्विचार किया । अपने मन के अंदर आखिरी बार वह अपना सबक दुहराने लगा था ।

'नदी के ऊपर मोटर-पुल के बनते-बनाते साल, दो साल का समय तो बहुत आसानी से लग जाएगा । पुल के दोनों तरफ के अबटमेंट(दीवार) की चिनाई का काम पूरा होने में ही सात-आठ महीने से कम वक्त नहीं लग सकता । पुल का काम है । कोई दिल्लगी नहीं । ऐसा नहीं हो सकता कि जैसी चाहो कच्ची-पक्की, हल्की-ढीली चिनाई कर बाहर से पलस्तर लगा दो,और जैसा चाहो मटीरियल लगा दो : ओवरसियर अपने खिलाफ नहीं होना चाहिए,जिसने काम का मेजरमेंट (पैमाइश) करना है। वह खुद ही सब कुछ निपटा लेगा। जी नहीं ! पुल का अबटमेंट बनाया जा रहा है तो ओवरसियर को मौके पर लगातार मौजूद रहना है । वह कहीं हिल नहीं सकता । और चिनाई की पुख्तई के किसी भी मामले में ओवरसियर कोई खास मदद नहीं कर सकता । उसके ऊपर एक से एक अफसर बैठे हैं । सिविल में पुल के अबटमेंट का काम सबसे मुश्किल काम होता है। काम पर मामूली डिफेक्ट नज़र आया तो सीधे नौकरी पर आंच आ सकती है । छोटे साहब(ए 0 ई0, असिस्टेंट इंजीनियर ) के भी लगातार चर लगते रहते हैं और बड़े साहब( ई 0 ई0,इक्जीक्यूटिव इंजीनियर) भी जब देखो तब पुल पर हाजिर । काम पूरे जोर पर चालू है लेकिन बाजार के दुकानदारों के उधार, लेबर की रोजाना की खलाई, बीड़ी-सिगरेट, किसी-किसी लेबर के आकस्मिक बहुत जरूरी खर्चों के भुगतान और रोजाना के दीगर मुतफरकात खर्चों के बोझ तले दबे हुए ठेकेदार के रनिंग पेमेंट के मामले ओवरसियर से लेकर बड़े साहब के आफिस तक कभी-कभी इस तरह घपले में पड़ जाते हैं कि ठेकेदार साइट से रातों-रात काम छोड़ कर भाग खड़ा होने को मजबूर हो जाता है। फिर ठेकेदार के खिलाफ नीचे से ऊपर तक,बड़े साहब से भी आगे सुपरिंटेंडेंट इंजीनियर तक, कागजी कार्यवाही। तब एक दिन डिपार्टमेंट की ओर से ठेकेदार के बौंड में दिए गए स्थायी पते पर रजिस्टर्ड नोटिस भेजा जा रहा है । नोटिस भेजे जाने के बाद फिर कागजों की नीचे से ऊपर तक के दफ्तरों में दौड़। तब आखीर में बाकी बचे काम के दुबारा टेंडर करने, उसके स्वीकार होने और नया वर्क आर्डर जारी होने तक में पता नहीं कितना लंबा समय लग जाता है। अबटमेंट के तैयार हो जाने के बाद पुल के लोहे के रस्सों और दूसरे मटीरियल के साइट तक पहुंचने और उसे जोड़ कर पुल खड़ा करने का काम भी कोई महीने दो महीने में पूरा नहीं हो सकता । कितनी ही तेज रफ्तार से काम चले, दो साल तो आसानी से बीत जाएंगे । वह भी तब अगर सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। और कोई ठेकेदार अध-बीच में काम छोड़ कर भाग गया या उसकी अर्जी पर किसी सिविल कोर्ट का समन या स्टे या वसूली का वारंट आ गया तो फिर पुल के निर्माण की योजना को हवा में लटका समझो । उतने लंबे समय तक बीस मील लंबी पूरी लाइन पर सिर्फ एक गाड़ी। वही सवारी बस, वही माल गाड़ी। अपनी किस्मत कि इस साल अपने क्षेत्र के चहेते विधायक को शासन ने आर0 टी0 ए0(क्षेत्रीय परिवहन अथॉरिटी) का सदस्य नामजद कर लिया । अपने घर के मेम्बर, अपनी राजनीतिक पहुंच और आर 0टी0 ओ0 दफ्तर में अपने खुले, मधुर और रोबीले संबंधों के चालू रहते कोई दूसरा गाड़ी मालिक उस लाइन पर अपनी गाड़ी के लिए परमिट की अर्जी तक पेश करने की बात सोच भी नहीं सोच सकता । आर 0 टी 0 ओ0 जानता है मैं कौन हूं । जरा सा इधर-उधर करे तो उसकी झंडी करवा सकता हूं । लखनऊ के लिए एक फोन भर करने की जरूरत है । आर 0 टी 0 ओ 0 रातोंरात देहरादून से झांसी । या फिर बलिया । बीच से्शन में मेरा ट्रांसफर किया जा रहा है, मेरे बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा साब ? मंत्रीजी ने अपने पद की कसम लेने के साथ तुम्हारे बच्चों की पढ़ाई का ठेका भी ले लिया था भाई? लेकिन आर 0 टी 0 ओ 0 मेरे मामलों में क्यों उलझने लगा? देहरादून जैसा शहर उसे और कहां मिल सकता है ? उसके चपरासी तक को पता है मैं कौन हूं । मेरे पहुंचते ही साहब के दर्शन को इच्छुक दूसरे गाड़ी मालिकान की तरह मेरे नाम की चिट नहीं मांगता, फर्शी सलाम ठोंकता है और चिक को इतना ऊपर उठा देता है कि मैं बगैर सिर झुकाए कमरे के अंदर प्रवेश कर सकूं । उसके चार बेटे हैं । चारों देहरादून के टॉप अंगे्रजी स्कूलों में पढाई कर रहे हैं। कोई प्रिंसिपल उसके बच्चों को दाखिला देने से इन्कार कर उससे क्यों उलझने लगेगा? अपना और अपनी गाड़ियों का रास्ता सब साफ रखना चाहते हैं । बीस मील लंबी सड़क पर अपनी गाड़ी का एकछत्र राज । साल । दो साल । तीन साल । कोई दूसरा प्रतिद्वंदी नहीं। मैदान एकदम खाली। पुलिस आफिस में वाजिब दस्तूरी पहुंचाते रहो । सवारी गाड़ी पर माल कैसे ढोया जा रहा है साहब ? किस नियम, किस कानून के तहत ? इस पहाड़ी जिले के अंदर इस तरह का बेहूदा सवाल पूछने की किस बेटे की हिम्मत है? इस नवनिर्मित रोड पर गाड़ी चलाने के लिए टेम्परेरी परमिट तो मिल ही गया है । अब बात सिर्फ इतनी-सी रह गई है कि एक बार किसी तरह गाड़ी का इंजन खोल कर उसे इस ओर पहुंचाया जा सके।"
जबरू ने पीतल के गिलास में चाय खत्म करने के बाद गिलास को धोने के लिए थोड़ा ऊंची आवाज़ में घर के एक बच्चे से पानी की मांग की । धुले हुए गिलास को सूखने के लिए उसने बहुत कायदे से एक सीढी के एक पत्थर पर उल्टा करके रख दिया । फिर किशनसिंह के पास आ गया ।

कि्शनसिंह ने अपने सपनों को अपने मन की गहराइयों में दबाते हुए असली, मतलब की बात बहुत संक्षिप्त तरीके से जबरू को समझाई । -गाड़ी के इंजन को झूला-पुल के रास्ते नदी के इस ओर ले आना है । जबरू ! मैने इस मामले में बहुत दिमाग दौड़ाया । इलाके के तमाम मजबूत से मजबूत बीर-बहादुरों की ताकत का अंदाज लगाता रहा। लेकिन मुझे तेरे अलावा कोई दूसरा द्यद्गाख्स नजर नहीं आता, जो इस काम को निभा सके । तू ऐसा समझ ले कि मेरे दफ्तर में तेरा सिंगल टेंडर जमा हुआ है। वह पास हो गया है और मैं तुझे इंजन को इस ओर ले आने का ठेका दे रहा हूं । तेरी किस्मत चमकने वाली है ।
-मेरी किस्मत अब नहीं चमक सकती साब । मैने बहुतों की किस्मतें चमका दी हैं । रही ठेका लेने की बात । ठेका मैं कैसे ले सकता हूं ? मैं तो सिर्फ मजूरी लेना जानता हूं ।
-जबरू, तू ऐसा समझ ले मैं कुछ देर के लिए तेरी पीठ भाड़े पर ले रहा हूं । बोल, थोड़ी देर के लिए अपनी पीठ का क्या भाड़ा मांगता है ?
-मालिक खुश होकर जो इनाम देंगे उसे जेब के अंदर रख लूंगा ।

अब किराए की पीठ पर एक सवारी गाड़ी का इंजन लादे वह भागीरथी नदी के आर-पार बने रस्सों के हवा में डोलते हुए झूले पर बहुत संभल-संभल कर पाँव रखते हुए आगे बढ़ता जा रहा था । उसके पाँवों के नीचे नदी बहती दिखायी दे रही थी । पेशे के हिसाब से दिहाड़ी मजदूर, जाति के हिसाब से हरिजन । नाटे कद का, एक अकेले हाथ का आदमी जबरू। उसका बायां हाथ बहुत पहले डाक्टर ने काट कर फेंक दिया था । डाक्टर ने नहीं,हाथ को तो विस्फोट के कारण पहाड़ से छिटक गई किसी धारदार शिला ने एक झटके में काट फेंका था । डाक्टर ने उसका इलाज कर उसे मरने नहीं दिया । उसकी जान बचा दी थी । किसी पहाड़ को काट कर उसके सीने पर मोटर सड़क बनाने के लिए खुदाई का काम चल रहा था । उस खुदाई के दौरान एक ऐसा मुकाम आया जब कठोर शिलाओं ने काम के आगे बढ़ने में बाधा पैदा कर दी । ठेकेदार को गैंतियों, सब्बलों के बल पर खोदा जा रहा काम रोक देना पड़ा । कठोर शिलाओं को तोड़ने, चकनाचूर करने के लिए उस जगह पर डाइनामाइट लगाकर विस्फोट करने की जरूरत पैदा हो गई । तब सब्बलों और घन और छेणी के बल पर पहाड़ के सीने पर तीन गहरे सूराख बनाए गए । उन सूराखों के अन्दर विस्फोटक रख कर एक काफी लंबा, डोरीनुमा तार लेकर जबरू और उसके साथी मजदूर उस स्थान से कुछ दूरी पर चले आए । बाकी मजदूर वहां से पहले ही निकल चुके थे । घाटी में मजूरों की बेहद ऊँची आवाजें गूंजने लगी थीं - कोई आगे मत बढ़ना, सुरंग लगाई है, सुरंग लगाई है, सुरंग लगाई है । उस तार के आखिरी सिरे पर माचिस झाड़ कर जबरू ने आग छुआई और उस जगह से दूर निकल जाने की कोशिश में वहां से भागने लगा। झरझराती आग डाइनामाइट की तरफ लपकने लगी और जबरू उससे विपरीत दि्शा की ओर लपकता चला गया ।
उस खतरे का उसे भली भांति अहसास था, जैसा कि हमेशा रहता आता है । मोटर सड़क बनाने के लिए जो पहाड़ को काटते हैं उन्हें हरदम अपने शरीर के हिस्सों को कटवाने को,अपनी जान तक न्यौछावर करने को भी तैयार रहना पड़ता है। पहाड़ कोई मुर्दा चीज नहीं, एक ज़िन्दा जीव होता है । जब पहाड़ टूटता है तो उसके साथ और भी बहुत कुछ टूटने लगता है । कुछ पहाड़ टूटेगा, कुछ पशु-पक्षियों के नीड़ टूटेंगे, कुछ आदमी का बदन टूटेगा। बहुत सारे जीवों का, बहुत सारे लोगों का खून-पसीना बहता है, तब बन पाती है उस पर चलने लायक एक मोटर सड़क । उस वक्त जबरू पूरी तेजी से दौड़ रहा था फिर भी उस मोड़ को पार नहीं कर पाया । उसके मोड़ पार करने से पहले उसकी भेजी हुई आग छेदों की गहराई में दबाए गए डाइनामाइटों की गुल्लियों तक की दूरी को लपकती हुई पार गई । घंटे भर से जिस कठोर शिला पर सब्बलों और छेणियों से प्रहार करते जा रहे थे उस जगह पर भयानक विस्फोट हो गया । अपनी मूल शिला से छिटक कर तीव्र गति से हवा में उड़ते जा रहे एक पतले, धारदार पत्थर ने जमीन पर गिरने से पेद्गतर जबरू के बदन पर तलवार का जैसा वार किया और उसके एक हाथ को काट कर जमीन पर गिरा दिया था। टिहरी के सरकारी अस्पताल में एक डाक्टर मिश्रा थे । डा0 मिश्रा ने उसे मरने से बचा लिया । अस्पताल से घर लौट आने के बाद जबरू फिर मजदूरी के काम करने लगा । तबसे वह अपना पेट पालने के लिए बाकी बचे एक हाथ से ही सबके, सभी तरह के काम निभाता आया है ।
- जबरू, यह और किसी के बस का नहीं लगता । यह काम तो तुझे ही करना पड़ेगा ।
नदी के दोनों तटों पर जमा हो गए तमाम लोग अकेले हाथ से रस्से को पकड़ते-छोड़ते, अपने सामने बिछी लकड़ियों के पांवदानों पर आहिस्ता-आहिस्ता, झूले को पार करते हुए जबरू के एक-एक कदम की ओर देखते जा रहे थे । उस वक्त टकटकी लगा कर उस पर देखते रहने के अलावा वे और कोई बात, उसके दूसरी ओर पहुंच जाने के बाद की किसी अन्य बात के बारे में सोच ही नहीं सकते थे । सच्चे दिल से सिर्फ उसकी सलामती की ख्वाहिद्गा करते हुए वे सबके सब मूक दर्द्गाक बने खड़े थे ।
सिर्फ ठेकेदार किशनसिंह था, जो उस भारी भीड़ के बीच जबरू के हर धीमे, सधे कदम के साथ बहुत-बहुत आगे की, विभिन्न प्रकार की,योजनाओं-समस्याओं पर बेहद तेज रफ्तार से विचार करते रहने में उलझने लगा था ।
अतीव प्रसन्नता के उन क्षणों में वह चाहते हुए भी अपने चल-विचल हो रहे दिमाग को किसी एक बिंदु पर स्थिर नहीं रख पा रहा था ।
जबरू के हर सधे हुए, बढ़ते कदम के साथ किद्गाना के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं ।