Monday, November 17, 2008

पीठ का सौदा

टिहरी डूब गयी है। टिहरी का भूगोल, टिहरी का जन-जीवन, बेदखल कर दिया गया टिहरी का समाज और टिहरी के इतिहास को जानना हो तो कौन बताएगा ?
एक मात्र स्रोत अगर कोई है तो कथाकार विद्यासागर नौटियाल का रचना संसार।
टिहरी से लेकर बनारस और बनारस से लेकर यूरोप और अमेरिका तक की यात्राओं को करने और जन-जीवन को जानने समझने वाले विद्यासागर नौटियाल की आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि साहित्य में उन्होंने अपने कदम टिहरी के भूगोल से बाहर नहीं निकलने दिये।
कथाकार
विद्यासागर नौटियाल के मार्फत ही कहूं, जो उन्होंने एक दिन ऐसी जिज्ञासावश पूछे गए सवाल के जवाब में कहा तो यही कि मैं वही लिखूंगा जिसे मैं लिख सकता हूं जिसको लिखने वाला कोई दूसरा नहीं है और शायद हो भी न। यह मुझ पर ऋण है और लिखकर ही मैं उस उससे उऋण होना चाहता हूं।


कथाकार विद्यासागर नौटियाल के रचना संसार पर वरिष्ठ कहानीकार शेखर जोशी की टिप्पणी ज्यादा माकूल है -" टिहरी गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों की छवियां उनके साहित्य में अपनी सम्पूर्ण अंतरंगता के साथ उपस्थित हैं। आकश छूती ऊंचाइयों पर हरे-भरे बुग्यालों में अपने पशुओं के साथ एकाकी जीवन बिताने वाले गूजर हों अथवा घाटी में संघर्षशील जीवन व्यतीत करने वाले ग्रामीण, सभी अपनी विशिष्ट मुद्राओं में हमें अपनी जिजीविषा से चमत्कृत कर देते हैं। उनके जीन प्रसगों में काठिन्य, करुणा, दैन्य के अतिरिक्त प्रेम, माधुर्य और विनोद भी है। ऐसी विडंबनापूर्ण स्थितियां भी हैं जिन्हें पढ़कर किसी संवेदनशील पाठक के होंठों पर मुस्कान उतर आए, आंखें छलछला जाएं"

प्रस्तुत है ७६वे वर्ष में प्रवेश कर चुके कथाकार विद्यासागर नौटियाल की एक महत्वपूर्ण कहानी।


पीठ का सौदा
- विद्यासागर नौटियाल
(अर्नेस्ट हेमिंग्वे को समर्पित : जिनकी धरती पर बैठ कर यह कहानी लिखी गई है।)

जबरू जमीन पर बैठ गया। उसके सामने नदी के दोनों तटों को जोड़ता, रस्सों का बना झूला-पुल था । जमीन पर बैठ कर उसने अपनी पीठ इंजन की पीठ पर टिका दी । इंजन के तल को घेर कर रस्ससों के बाहर से बांधी गई कपड़े की नरम गद्दी को सहेज कर अपने हाथ से माथे पर ले लिया । अपने सर को थोड़ा-सा आगे की ओर खींच कर उस गद्दी को अपने अंदाज से खिसकाते हुए माथे पर संतुलित किया । तब अपने घुटनों को जरा-सा मोड़ा और कपाल और माथे के बीच के हिस्से पर अटकी गद्दी को एक बार फिर से, आखिरी बार, संतुलित किया। उस प्रक्रिया के पूरा हो जाने के बाद उसका दाहिना हाथ जमीन पर टिक गया । उस तामझाम के साथ अपने मुंड को आगे की ओर खींचते हुए, कुछ ज़ोर लगाकर, वह अपने तईं उठ कर खड़ा होने की कोशिश करने लगा। उसकी पीठ के पीछे से तीन मजदूर, अडिग-से लग रहे उस भारी इंजन को, जमीन से उठाने में जुट गए । एक मजदूर उसके एकदम सामने आकर खड़ा हो गया ।
-ला, अपना हाथ दे।
जबरू ने अपना दाहिना हाथ जमीन से उठा कर आगे बढ़ा दिया और मजदूर ने उसके बदन पर शेष रह गया वह अकेला हाथ कस कर पकड़ लिया । वह आगे की तरफ से सहारा देकर उसे उठने में मदद करने लगा। इस वक्त जमीन से उठने के प्रयास में जबरू अपने शरीर की पूरी ताकत, सर से पांव तलक, चौतरफा झोंकने लगा था । उसे सिर्फ अपना बदन नहीं उठाना था,अपने साथ नत्थी कर दिए गए इंजन को भी उठाना था। उसे इंजन को अपने साथ लेकर ऊपर उठना था । जमीन से ऊपर । अपनी ताकत और साथी मजदूरों की सहायता के बल पर आखीर में वह अपने पांवों पर खड़ा हो गया । अब वह अकेला था । उसे सहारा और सहायता देने वाले कुल लोग उसका रास्ता छोड़, उससे छिटक कर अलग हट गए थे। नदी के ऊपर, हिलते-डोलते हुए झूले पर, उसकी यात्रा की सफलता के लिए वे सब, और वहां पर मौजूद बाकी तमाम लोग, अपने-अपने मन में मंगलकामनाएं करने लगे थे। उसकी आगे की राह बिलकुल साफ थी । झूला-पुल की शुरूआत तक । वहां जमीन पर, उसके रास्ते में कोई छोटा-सा कंकर-पत्थर तक नहीं दिखायी दे रहा था । जमीन से ऊपर उठ गए अति-भार को मजबूत रस्सों के बल पीठ पर लिए हुए उसने झूला-पुल की दिशा में अपना कदम आगे बढ़ा दिया । पहला कदम ।
शांत घाटी के निवासियों की ज़िन्दगी के ढब में कई तरह के नए परिवर्तनों का सूचक । एक ऐतिहासिक कदम ।
उसे अपने पास खड़े साथी मजूरों की हमदर्द आवाजें सुनाई दीं ।
-आराम से, आराम से।
संभल कर चलने के लिए दो बार उच्चारित उन गंभीर आवाज़ों के बाद वहां सब कुछ शान्त हो गया । ऐसा लगने लगा कि जैसे जबरू के चलने के अलावा दुनिया के बाकी सभी काम थम गए हों ।
हैरत में डूब गए तमाम लोग अपनी सांसें रोक कर उसे देखने लगे थे । सबकी नज़रें पुल की तरफ बढ़ते जा रहे जबरू पर केंद्रित हो गई थीं । उसका एक-एक कदम गिना जाने लगा था । झूले पर बीच-बीच में कामचलाऊ पांवदान के तौर पर बंधी लकड़ियों पर टिकाए गए पांव को ऊपर उठाना और उसे अपने सामने बिछे अगले पांवदान पर टिका देना । हिलते हुए झूला-पुल पर दाहिने हाथ से अपने पास दिखायी दे रहे जंगले के रस्सों को धैर्यपूर्वक पकड़ता और छोड़ता हुआ,कदम-कदम आगे की ओर सरकता जा रहा जबरू । नदी के दोनों तटों पर फैले, खड़े, खतरनाक ढलानों पर घास काट रही घसियारिनें और उस वन में अपने गोरू के साथ मौजूद ग्वैर छोरे भी काफी पहले अपने-अपने काम-धाम छोड़ कर उस झूले के पास आकर जमा हो गए थे । उन सबकी नज़रें भी जबरू पर केंद्रित हो गई थीं।
एक सवारी गाड़ी के इंजन के भार के नीचे दबे हुए जबरू ने अपना काम शुरू करने से पहले अपने पुरखों का सुमिरन किया था। वे पुरखे जिन में से किसी को उस ने कभी देखा नहीं । उन के बारे में उस ने सिर्फ सुना भर है। पुरखों की गिनती में, उस से सब से नजदीक उस का बाप था। वह भी जबरू के जन्म लेने के साल भर बाद दुनिया से चल बसा था। अपने बाप की जबरू के मन में कोई स्मृति नहीं थी। कई बार उसे इस बात का बहुत अफसोस भी होता था। वह कल्पना करने लगता कि उस का बाप जीवित होता तो कैसा होता । उसका बचपन कैसे बीता होता, जवानी में क्या-क्या करता, उसकी ज़िन्दगी कैसी हो गई होती। बाप जिन्दा रहा होता तो कुछ बरसों तक, मात्र कुछ बरस तक, उसे उसका सहारा मिल गया होता । बस इतना ही होना था । यह बात तो वह अच्छी तरह जानता है कि उसका बाप जिन्दा भी रहा होता तो वह उसे कोई सेठ या ठेकेदार, व्यापारी या पढ़ा-लिखा आदमी नहीं बना सकता था। रहना तो उसे मजदूर बन कर ही होता। करनी मजदूरी ही होती। रोज कमाओ, रोज खाओ। उसे रोटी का सहारा देने वाले सैकड़ों माई-बाप इस दुनिया में चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। उसे कोई काम सौंपने से पहले मालिकों के स्वर में ऐसा दयाभाव भरा रहता है जैसे उसे उस काम पर लगा कर वे उस पर कोई भारी-भारी अहसान कर रहे हों । हर बार काम मिल जाने के बाद उस काम के बोझ से कहीं ज़्यादा वह अपने को उस अहसान के नीचे दबा हुआ महसूस करता आया है ।

उस दिन सुबह के वक्त किशनसिंह के स्वर में भी वैसा ही दयाभाव भरा था, जब उसने जबरू को अपने घर पर बुलवाया था। गाड़ी मालिक किशनसिंह, ठेकेदार किशनसिंह, नेताजी किशनसिंह । इलाके की जानी-मानी हस्ती, एक बहुत बड़ा आदमी किशनसिंह ।
बे्शक उस दिन कि्शनसिंह ने और दिनों की तरह ऊपर की मंजिल में बनी, आंगन की तरफ खुली हुई अपनी तिवारी में खंभ को पकड़ कर और लकड़ी के डेड़ फुट ऊंचे मजबूत, गहरे हरे रंग में चमक रहे जंगले के ऊपर एक पांव टिका कर, खड़े-खड़े वहीं से अपना फरमान नहीं सुनाया था । आजकी बात कुछ अलग बात थी । जबरू को अपने घर की ओर आता देख, उसके आंगन में पहुंचने और गर्दन झुका कर, जमीन की ओर ताकते हुए नमस्कार करने से भी पेशतर, किशनसिंह खुद ही ऊपर की मंजिल से नीचे आंगन में उतर आया था । आंगन में एक-बराबरी पर खड़े होकर बात करते हुए वह जैसे जबरू को इज्जत बख्श रहा हो । उस वक्त आंगन में सुबह के सूरज की किरणें चमकने लगी थीं । जबरू से बात ्शुरू करने से पहले किशनसिंह ने ऊपर की मंजिल में रसोई के भीतरी कमरे में मौजूद अपनी घरवाली को बाहर से ही आवाज़ दे दी थी।
-यह जबरू आया है, जरा चाय बना दो इसके लिए। अपने गांव से, उतनी दूर से चल कर सुबह-सुबह यहां पहुंच गया है बेचारा। वहां तो उस वक्त रात भी नहीं खुली होगी ।
किशनसिंह के अपनी घरवाली को कहे गए वे बोल जबरू को भारी अहसान के नीचे दबाने लगे थे ।
-जबरू ! मैने तुझे एक खास मतलब से बुलाया है ।
-मालिक ।
किशना यह तय नहीं कर पा रहा था कि अपने मन में बहुत लंबे अरसे से वह जिन सुनहरे सपनों के जाल बुनता आ रहा है, उसे जबरू के कानों के अंदर किस हिसाब से, किस तरतीब से डाला जाय । पिछले कई दिनों से वह सिर्फ सपने देखता आया है। असंभव सपने ।
-मैं तुझे ठेकेदार बनाने की सोच रहा हूं ।
-इतनी बड़ी बात क्यों बोल रहे हैं मालिक, जो न कभी हुई है न हो सकती है ?
-नहीं जबरू ! मैने तय कर लिया है कि तुझे एक ऐसा काम सौंप दूं जिसे पूरा कर लेने पर तेरी किस्मत चमक उठेगी ।
जबरू चुप हो गया । उसने कोई जवाब नहीं दिया ।
-ऐसा करते हैं, पहले चाय पी लेते हैं ।
चाय पीते हुए किशनसिंह मन ही मन फिर से अपने सुहावने सपनों में खो गया । पिछले दस वर्षों से वह नैना-सेंतुलीखाल मोटर मार्ग के निर्माण में अपनी भूमिका निभाता आ रहा था । दस साल पहले इलाके के आठ मान्यवर, खास-खास लोगों का प्रतिनिधिमंडल लेकर वह मुख्य मंत्रीजी और निर्माण मंत्रीजी के पास लखनऊ गया था। स्थानीय विधायक के अलावा पर्वतीय क्षेत्र के दस अन्य विधायकों को भी उसने अपने प्रतिनिधिमंडल में साथ कर लिया था । उसने ऐसा जोर लगवा दिया कि नैना-सेंतुलीखाल मोटर मार्ग विधान सभा में पेद्गा किए गए उसी साल के बजट में शामिल कर लिया गया था। रोड पर कि्श्तों में एक तरफ से काम शुरू हो गया। उस पर दस बरसों में काम के सबसे ज़्यादा ठेके किशनसिंह को ही मिलते रहे। अब खुदाई, कटान के बाद रोड पूरी तरह तैयार हो गई थी । सिर्फ संपर्क पुल का बनना बाकी रह गया था । इस साल के बजट में शासन ने उस पुल की भी स्वीकृति दे दी । और अब किशनसिंह उस पूरी तरह तैयार हो गई रोड पर, पुल के बनने से पहले, किसी तरह अपनी गाड़ी चलाने के सपने देखने लगा था । जबरू से मुंह खोल कर, मतलब की बात करने से पहले, उसने बहुत जल्दी में एक बार पूरी योजना पर सरसरी तौर पर पुनर्विचार किया । अपने मन के अंदर आखिरी बार वह अपना सबक दुहराने लगा था ।

'नदी के ऊपर मोटर-पुल के बनते-बनाते साल, दो साल का समय तो बहुत आसानी से लग जाएगा । पुल के दोनों तरफ के अबटमेंट(दीवार) की चिनाई का काम पूरा होने में ही सात-आठ महीने से कम वक्त नहीं लग सकता । पुल का काम है । कोई दिल्लगी नहीं । ऐसा नहीं हो सकता कि जैसी चाहो कच्ची-पक्की, हल्की-ढीली चिनाई कर बाहर से पलस्तर लगा दो,और जैसा चाहो मटीरियल लगा दो : ओवरसियर अपने खिलाफ नहीं होना चाहिए,जिसने काम का मेजरमेंट (पैमाइश) करना है। वह खुद ही सब कुछ निपटा लेगा। जी नहीं ! पुल का अबटमेंट बनाया जा रहा है तो ओवरसियर को मौके पर लगातार मौजूद रहना है । वह कहीं हिल नहीं सकता । और चिनाई की पुख्तई के किसी भी मामले में ओवरसियर कोई खास मदद नहीं कर सकता । उसके ऊपर एक से एक अफसर बैठे हैं । सिविल में पुल के अबटमेंट का काम सबसे मुश्किल काम होता है। काम पर मामूली डिफेक्ट नज़र आया तो सीधे नौकरी पर आंच आ सकती है । छोटे साहब(ए 0 ई0, असिस्टेंट इंजीनियर ) के भी लगातार चर लगते रहते हैं और बड़े साहब( ई 0 ई0,इक्जीक्यूटिव इंजीनियर) भी जब देखो तब पुल पर हाजिर । काम पूरे जोर पर चालू है लेकिन बाजार के दुकानदारों के उधार, लेबर की रोजाना की खलाई, बीड़ी-सिगरेट, किसी-किसी लेबर के आकस्मिक बहुत जरूरी खर्चों के भुगतान और रोजाना के दीगर मुतफरकात खर्चों के बोझ तले दबे हुए ठेकेदार के रनिंग पेमेंट के मामले ओवरसियर से लेकर बड़े साहब के आफिस तक कभी-कभी इस तरह घपले में पड़ जाते हैं कि ठेकेदार साइट से रातों-रात काम छोड़ कर भाग खड़ा होने को मजबूर हो जाता है। फिर ठेकेदार के खिलाफ नीचे से ऊपर तक,बड़े साहब से भी आगे सुपरिंटेंडेंट इंजीनियर तक, कागजी कार्यवाही। तब एक दिन डिपार्टमेंट की ओर से ठेकेदार के बौंड में दिए गए स्थायी पते पर रजिस्टर्ड नोटिस भेजा जा रहा है । नोटिस भेजे जाने के बाद फिर कागजों की नीचे से ऊपर तक के दफ्तरों में दौड़। तब आखीर में बाकी बचे काम के दुबारा टेंडर करने, उसके स्वीकार होने और नया वर्क आर्डर जारी होने तक में पता नहीं कितना लंबा समय लग जाता है। अबटमेंट के तैयार हो जाने के बाद पुल के लोहे के रस्सों और दूसरे मटीरियल के साइट तक पहुंचने और उसे जोड़ कर पुल खड़ा करने का काम भी कोई महीने दो महीने में पूरा नहीं हो सकता । कितनी ही तेज रफ्तार से काम चले, दो साल तो आसानी से बीत जाएंगे । वह भी तब अगर सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। और कोई ठेकेदार अध-बीच में काम छोड़ कर भाग गया या उसकी अर्जी पर किसी सिविल कोर्ट का समन या स्टे या वसूली का वारंट आ गया तो फिर पुल के निर्माण की योजना को हवा में लटका समझो । उतने लंबे समय तक बीस मील लंबी पूरी लाइन पर सिर्फ एक गाड़ी। वही सवारी बस, वही माल गाड़ी। अपनी किस्मत कि इस साल अपने क्षेत्र के चहेते विधायक को शासन ने आर0 टी0 ए0(क्षेत्रीय परिवहन अथॉरिटी) का सदस्य नामजद कर लिया । अपने घर के मेम्बर, अपनी राजनीतिक पहुंच और आर 0टी0 ओ0 दफ्तर में अपने खुले, मधुर और रोबीले संबंधों के चालू रहते कोई दूसरा गाड़ी मालिक उस लाइन पर अपनी गाड़ी के लिए परमिट की अर्जी तक पेश करने की बात सोच भी नहीं सोच सकता । आर 0 टी 0 ओ0 जानता है मैं कौन हूं । जरा सा इधर-उधर करे तो उसकी झंडी करवा सकता हूं । लखनऊ के लिए एक फोन भर करने की जरूरत है । आर 0 टी 0 ओ 0 रातोंरात देहरादून से झांसी । या फिर बलिया । बीच से्शन में मेरा ट्रांसफर किया जा रहा है, मेरे बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा साब ? मंत्रीजी ने अपने पद की कसम लेने के साथ तुम्हारे बच्चों की पढ़ाई का ठेका भी ले लिया था भाई? लेकिन आर 0 टी 0 ओ 0 मेरे मामलों में क्यों उलझने लगा? देहरादून जैसा शहर उसे और कहां मिल सकता है ? उसके चपरासी तक को पता है मैं कौन हूं । मेरे पहुंचते ही साहब के दर्शन को इच्छुक दूसरे गाड़ी मालिकान की तरह मेरे नाम की चिट नहीं मांगता, फर्शी सलाम ठोंकता है और चिक को इतना ऊपर उठा देता है कि मैं बगैर सिर झुकाए कमरे के अंदर प्रवेश कर सकूं । उसके चार बेटे हैं । चारों देहरादून के टॉप अंगे्रजी स्कूलों में पढाई कर रहे हैं। कोई प्रिंसिपल उसके बच्चों को दाखिला देने से इन्कार कर उससे क्यों उलझने लगेगा? अपना और अपनी गाड़ियों का रास्ता सब साफ रखना चाहते हैं । बीस मील लंबी सड़क पर अपनी गाड़ी का एकछत्र राज । साल । दो साल । तीन साल । कोई दूसरा प्रतिद्वंदी नहीं। मैदान एकदम खाली। पुलिस आफिस में वाजिब दस्तूरी पहुंचाते रहो । सवारी गाड़ी पर माल कैसे ढोया जा रहा है साहब ? किस नियम, किस कानून के तहत ? इस पहाड़ी जिले के अंदर इस तरह का बेहूदा सवाल पूछने की किस बेटे की हिम्मत है? इस नवनिर्मित रोड पर गाड़ी चलाने के लिए टेम्परेरी परमिट तो मिल ही गया है । अब बात सिर्फ इतनी-सी रह गई है कि एक बार किसी तरह गाड़ी का इंजन खोल कर उसे इस ओर पहुंचाया जा सके।"
जबरू ने पीतल के गिलास में चाय खत्म करने के बाद गिलास को धोने के लिए थोड़ा ऊंची आवाज़ में घर के एक बच्चे से पानी की मांग की । धुले हुए गिलास को सूखने के लिए उसने बहुत कायदे से एक सीढी के एक पत्थर पर उल्टा करके रख दिया । फिर किशनसिंह के पास आ गया ।

कि्शनसिंह ने अपने सपनों को अपने मन की गहराइयों में दबाते हुए असली, मतलब की बात बहुत संक्षिप्त तरीके से जबरू को समझाई । -गाड़ी के इंजन को झूला-पुल के रास्ते नदी के इस ओर ले आना है । जबरू ! मैने इस मामले में बहुत दिमाग दौड़ाया । इलाके के तमाम मजबूत से मजबूत बीर-बहादुरों की ताकत का अंदाज लगाता रहा। लेकिन मुझे तेरे अलावा कोई दूसरा द्यद्गाख्स नजर नहीं आता, जो इस काम को निभा सके । तू ऐसा समझ ले कि मेरे दफ्तर में तेरा सिंगल टेंडर जमा हुआ है। वह पास हो गया है और मैं तुझे इंजन को इस ओर ले आने का ठेका दे रहा हूं । तेरी किस्मत चमकने वाली है ।
-मेरी किस्मत अब नहीं चमक सकती साब । मैने बहुतों की किस्मतें चमका दी हैं । रही ठेका लेने की बात । ठेका मैं कैसे ले सकता हूं ? मैं तो सिर्फ मजूरी लेना जानता हूं ।
-जबरू, तू ऐसा समझ ले मैं कुछ देर के लिए तेरी पीठ भाड़े पर ले रहा हूं । बोल, थोड़ी देर के लिए अपनी पीठ का क्या भाड़ा मांगता है ?
-मालिक खुश होकर जो इनाम देंगे उसे जेब के अंदर रख लूंगा ।

अब किराए की पीठ पर एक सवारी गाड़ी का इंजन लादे वह भागीरथी नदी के आर-पार बने रस्सों के हवा में डोलते हुए झूले पर बहुत संभल-संभल कर पाँव रखते हुए आगे बढ़ता जा रहा था । उसके पाँवों के नीचे नदी बहती दिखायी दे रही थी । पेशे के हिसाब से दिहाड़ी मजदूर, जाति के हिसाब से हरिजन । नाटे कद का, एक अकेले हाथ का आदमी जबरू। उसका बायां हाथ बहुत पहले डाक्टर ने काट कर फेंक दिया था । डाक्टर ने नहीं,हाथ को तो विस्फोट के कारण पहाड़ से छिटक गई किसी धारदार शिला ने एक झटके में काट फेंका था । डाक्टर ने उसका इलाज कर उसे मरने नहीं दिया । उसकी जान बचा दी थी । किसी पहाड़ को काट कर उसके सीने पर मोटर सड़क बनाने के लिए खुदाई का काम चल रहा था । उस खुदाई के दौरान एक ऐसा मुकाम आया जब कठोर शिलाओं ने काम के आगे बढ़ने में बाधा पैदा कर दी । ठेकेदार को गैंतियों, सब्बलों के बल पर खोदा जा रहा काम रोक देना पड़ा । कठोर शिलाओं को तोड़ने, चकनाचूर करने के लिए उस जगह पर डाइनामाइट लगाकर विस्फोट करने की जरूरत पैदा हो गई । तब सब्बलों और घन और छेणी के बल पर पहाड़ के सीने पर तीन गहरे सूराख बनाए गए । उन सूराखों के अन्दर विस्फोटक रख कर एक काफी लंबा, डोरीनुमा तार लेकर जबरू और उसके साथी मजदूर उस स्थान से कुछ दूरी पर चले आए । बाकी मजदूर वहां से पहले ही निकल चुके थे । घाटी में मजूरों की बेहद ऊँची आवाजें गूंजने लगी थीं - कोई आगे मत बढ़ना, सुरंग लगाई है, सुरंग लगाई है, सुरंग लगाई है । उस तार के आखिरी सिरे पर माचिस झाड़ कर जबरू ने आग छुआई और उस जगह से दूर निकल जाने की कोशिश में वहां से भागने लगा। झरझराती आग डाइनामाइट की तरफ लपकने लगी और जबरू उससे विपरीत दि्शा की ओर लपकता चला गया ।
उस खतरे का उसे भली भांति अहसास था, जैसा कि हमेशा रहता आता है । मोटर सड़क बनाने के लिए जो पहाड़ को काटते हैं उन्हें हरदम अपने शरीर के हिस्सों को कटवाने को,अपनी जान तक न्यौछावर करने को भी तैयार रहना पड़ता है। पहाड़ कोई मुर्दा चीज नहीं, एक ज़िन्दा जीव होता है । जब पहाड़ टूटता है तो उसके साथ और भी बहुत कुछ टूटने लगता है । कुछ पहाड़ टूटेगा, कुछ पशु-पक्षियों के नीड़ टूटेंगे, कुछ आदमी का बदन टूटेगा। बहुत सारे जीवों का, बहुत सारे लोगों का खून-पसीना बहता है, तब बन पाती है उस पर चलने लायक एक मोटर सड़क । उस वक्त जबरू पूरी तेजी से दौड़ रहा था फिर भी उस मोड़ को पार नहीं कर पाया । उसके मोड़ पार करने से पहले उसकी भेजी हुई आग छेदों की गहराई में दबाए गए डाइनामाइटों की गुल्लियों तक की दूरी को लपकती हुई पार गई । घंटे भर से जिस कठोर शिला पर सब्बलों और छेणियों से प्रहार करते जा रहे थे उस जगह पर भयानक विस्फोट हो गया । अपनी मूल शिला से छिटक कर तीव्र गति से हवा में उड़ते जा रहे एक पतले, धारदार पत्थर ने जमीन पर गिरने से पेद्गतर जबरू के बदन पर तलवार का जैसा वार किया और उसके एक हाथ को काट कर जमीन पर गिरा दिया था। टिहरी के सरकारी अस्पताल में एक डाक्टर मिश्रा थे । डा0 मिश्रा ने उसे मरने से बचा लिया । अस्पताल से घर लौट आने के बाद जबरू फिर मजदूरी के काम करने लगा । तबसे वह अपना पेट पालने के लिए बाकी बचे एक हाथ से ही सबके, सभी तरह के काम निभाता आया है ।
- जबरू, यह और किसी के बस का नहीं लगता । यह काम तो तुझे ही करना पड़ेगा ।
नदी के दोनों तटों पर जमा हो गए तमाम लोग अकेले हाथ से रस्से को पकड़ते-छोड़ते, अपने सामने बिछी लकड़ियों के पांवदानों पर आहिस्ता-आहिस्ता, झूले को पार करते हुए जबरू के एक-एक कदम की ओर देखते जा रहे थे । उस वक्त टकटकी लगा कर उस पर देखते रहने के अलावा वे और कोई बात, उसके दूसरी ओर पहुंच जाने के बाद की किसी अन्य बात के बारे में सोच ही नहीं सकते थे । सच्चे दिल से सिर्फ उसकी सलामती की ख्वाहिद्गा करते हुए वे सबके सब मूक दर्द्गाक बने खड़े थे ।
सिर्फ ठेकेदार किशनसिंह था, जो उस भारी भीड़ के बीच जबरू के हर धीमे, सधे कदम के साथ बहुत-बहुत आगे की, विभिन्न प्रकार की,योजनाओं-समस्याओं पर बेहद तेज रफ्तार से विचार करते रहने में उलझने लगा था ।
अतीव प्रसन्नता के उन क्षणों में वह चाहते हुए भी अपने चल-विचल हो रहे दिमाग को किसी एक बिंदु पर स्थिर नहीं रख पा रहा था ।
जबरू के हर सधे हुए, बढ़ते कदम के साथ किद्गाना के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं ।

2 comments:

siddheshwar singh said...

अपने पसंदीदा लेखक को ब्लाग पर देखना -पढ़ना अच्छा लगा.

johnsmike said...

Nice ..
very nice...