Thursday, November 20, 2008

फायर लाइन का पहरेदार

कथाकार विद्यासागर नौटियाल की स्म्रतियों में दर्ज टिहरी के ढेरों चित्र उनके रचना संसार में उपस्थित हो कर पाठक के भीतर कौतुहल जगाने लगते हैं। इतिहास की ढेरों पर्ते खुद ब खुन खुलने लगती है।
प्रस्तुत है उनकी डायरी के प्रष्ठ
विद्यासागर नौटियाल

उन दिनों मेरे पिता टिहरी -गढ़वाल रियासत की राजधानी नरेन्द्रनगर के पास फकोट नामक स्थान पर तैनात थे । वहां एक राजकीय उद्यान था, पिता उसके अधीक्षक थे । उस उद्यान में सिर्फ सब्जियां उगाई जाती थीं । इतनी सब्जियां कि नरेन्द्रनगर राजमहल में रोजाना दो खच्चर सब्जी भेजी जी सके ।
बाद में पिता को फिर वन विभाग में रेंज ऑफीसर बना दिया गया । सन् 1939 ई0 उस वक्त मेरी उम्र सात बरस की थी जब शिमला की राह पर जुब्बल रियासत के पड़ोस में रियासत के अंतिम क्षेत्र में हमारा परिवार बंगाण पट्टी के कसेडी नामक रेंज दफ्तर में जा पहुंचा ।

टिहरी शहर से सौ मील की दूरी पर कसेडी रेंज दफ्तर बंगाण पट्टी में एक बेहद सुनसान जगह पर स्थित था । वहां से गांव बहुत दूरी पर थे । घाटी में सामने की ओर दूसरे पहाड़ पर जौनसार -बाबर का इलाका दिखायी देता था । वहां राजा का नहीं,अंग्रेज का राज था।
वन विभाग के कर्मचारियों के लिए एक ज़रूरी काम जंगलों को आग से संभावित नुकसान से बचाना होता था । घने जंगल में मामूली आग दावानल का रूप धारण कर सकती है। रियासत में वनों की आग से रक्षा करने के नियम बहुत कठोर थे। राह चलते आदमी के लिए अनिवार्य होता था कि वह आग दिखायी देने पर उसे बुझाने के काम में लग जाय । गांव के निवासियों को भी अपने आस-पास के किसी वन में धुंआ दिखायी देने पर अपने काम-धंधे छोड़ कर जंगल की ओर दौड़ जाना कानूनी तौर पर लाजमी होता था । गर्मियों का मौसम जंगलातियों के लिए विपदा का मौसम माना जाता था । जब तक बरसात शुरू नहीं हो जाती थी जंगलात के किसी भी अधिकारी-कर्मचारी को छुट्टी मंजूर नहीं हो सकती थी । आग से वनों की रक्षा करने के लिहाज से गर्मियों के शुरू होने से पेश्तर एतिहायत के तौर पर हर साल फ़ायर लाइन काटी जाती थी । रक्षित वनों के चारों ओर उसकी चौहद्दी में फैली हुई घास को एक निश्चित चौड़ाई में काट कर इस बात की व्यवस्था कर ली जाती थी कि उससे बाहर के क्षेत्र में फैलने वाली आग की लपटें उस जंगल के अन्दर प्रवेश न कर सकें । फ़ायर लाइन काटने का एक दूसरा उपाय यह भी होता था कि रक्षित वन की चौहद्दी में उगी हुई घास पर खुद ही आग लगा कर उसे वन की दिशा में बुझाते चलें । इस काम में कई लोगों को एक साथ मिल कर जुटना पड़ता है । आग को वन के अन्दर और वन के बाहर दोनों दिशाओं में बुझाते हुए आगे बढ़ते रहते हैं । उस लाइन के उस तरह काट दिए जाने से भी बाहर की आग के वन के भीतर प्रवेश कर सकने की संभावना खत्म हो जाती थी । हमारे रेंज दफ्तर से नीचे के इलाके में आम रास्ते के बराबरी पर पिछले कुछ दिनों से आग लगा कर लाइन काटी जा रही थी । उस काम को वन विभाग के कर्मचारियों के अलावा कुछ दिहाड़ी मजूर भी शामिल रहते थे। आग लाइन के काम के शुरू होते ही मैं भी उस जगह पहुंच जाता था । उनके साथ आग जलाते-बुझाते हुए आगे बढ़ते रहने में मुझे बहुत मज़ा आता था । मेरे मन में यह भाव भरने लगता था कि इस वक्त मैं भी एक बेहद जुम्मेदारी का काम निभा रहा हूं। उस काम में शरीक होने के लिए मुझे कोई बुलाने भी नहीं आता था,वहाँ से हट जाने को भी नहीं कहता था । रेंजर साहब के बेटे को कोई कुछ कह भी कैसे सकता था ?
उस काम की योजना के बारे में पिता को जब भी फुरसत में पाता मैं विस्तार से जानकारी लेता रहता था । रेंज क्वार्टर से नीचे के क्षेत्र में चल रहे काम के पूरा हो जाने के फौरन बाद उससे ऊपर की ओर के ढलानों पर काम किया जाना था । पहाड़ की चोटी तक । बड़े पाजूधार की तरफ घने जंगल थे । उन जंगलों के नक्शे मेरे दिमाग में दर्ज रहते थे । पाजूधार बंगले तक रोज जाते आते मुझे अच्छी तरह याद हो गया था कहां क्या है ्र क्या नहीं है ।
उस दिन जन्माष्ठमी के व्रत के कारण रेंज दफ्तर में छुट्टी थी । उस छुट्टी के कारण पिता दौरे पर नहीं थे, घर पर मौजूद थे । परिवार में हंसी-खुशी का माहौल था । बच्चों में भाईजी तो काफी लंबे समय से घर पर रहते नहीं थे । वे पढ़ाई करने के लिए देहरादून में रहने लगे थे। सिर्फ गर्मियों की छुट्टियों में हमारे पास आ पाते थे । दूसरे नम्बर पर दीदी थीं । उनके जीवन को पिछले काफी समय से नानीजी के निर्र्देशों के मुताबिक ढाला जाने लगा था, जिसमें उम्रदार लड़कियों का व्रत लेना एक मुख्य ज़रूरत होती थी । दीदी ने पिछले साल भी व्रत लिया था । साल में दो बड़े व्रत आते थे-शिवरात्रि और जन्माष्ठमी । उन दोनों व्रतों के दिन घर पर होने वाली कुल घटनाओं के विवरण मुझे यों भी पूरी तरह याद रहते थे । उस दिन सुबह की चाय पी लेने के फौरन बाद मेरा मांजी से झगड़ा होने लगा था । मुझे व्रत लेने के लिए मना किया जा रहा था । मेरा कहना था कि मेरी बहनें कमला और उर्मिला अभी छोटी हैं, इसलिए वे व्रत न रखें तो कोई बात नहीं। पर मैं तो अब खूब बड़ा हो गया हूं और मैं तो व्रत लूंगा ही लूंगा ।
-तू अभी छोटा है बेटा ।
-हां मांजी, मैं अभी छोटा हूं । पर यह बात तुम तब तो नहीं कहते जब मैं फायर लाइन बुझाने जाता हूं । तब नहीं होता मैं छोटा ।
-अच्छा विद्यासागर,जो तू बड़ा हो गया है तो पहले मेरे दूध के पैसे दे दे ।
दूध के पैसे । रोज़-रोज ताने देती रहती हैं -तुझे मैने दूध पिलाया है। उस दिन मैं पूरा हिसाब चुकता करने पर उतारू हो गया। मेरे पैसे भी मांजी के ही पास रहते थे। लकड़ी के संदूक के अन्दर, एक कोने पर । मेरे पास पैसे कहां से आते हैं ? जब कभी कोई मेहमान या रिश्तेदार हमारे घर आते हैं तो उनमें से कुछ लोग जाते वक्त मुझे कुछ पैसा दे देते हैं - ले विद्यासागर, तू अपने लिए किताब ले लेना । उस तरह की मेरी कुल जमा पूंजी कुल कितनी है, कितना पैसा किसने दिया था इस बात की मुझे बखूबी जानकारी रहती थी । और उनकी याद भी रहती थी । उस वक्त मांजी के संदूक में मेरे कुल पांच रूपए जमा थे ।
-ज्यादा से ज्यादा पांच रूपए का तो पिया होगा मैने तुम्हारा दूध। तुम ही रख लेना मेरे वे सब रूपए, जो तुम्हारे पास हैं ।
कमला और उर्मिला बहुत उत्सुक होकर देखने लगी थीं कि आज व्रत के दिन दूध के उस हिसाब के चुकता हो जाने के बाद अब मेरे व्रत लेने न लेने के बारे में मांजी क्या निर्णय देती हैं । इस मौके पर वे दोनों कामना करने लगी थीं कि मांजी की जुबान से किसी तरह फिसल कर, एक बार 'नहीं मानता तो रहले भूखा " निकल आए । मुझे इजाजत मिल जाने पर उनके लिए भी व्रत लेने की राहें खुल सकती थीं । तब उनकी भी व्रत रखने का अपना दावा पेश कर देने की बारी आ सकती थी । उसके लिए चाहे जितनी भी आरजू मिन्नत करनी पड़े । थोड़ा रोना, थोड़ा रूठना, थोड़ा हल्ला मचाना। पर पहले रास्ता रोक रही यह मुख्य बाधा तो दूर हो ।
मैं अपने को बाकायदा एक जुम्मेदार व्यक्ति मानने लगा था और मैने करीब करीब तय कर लिया था कि दिन के मौके पर, रात हो जाने से पहले, दीदी की तरह मैं भी खाना नहीं खाऊंगा और व्रत रखूंगा। पिछले साल की तरह अब मैं किसी के झांसे में नहीं आने वाला, जब मुझे दोपहर के वक्त, आकाश में सूरज के मौजूद रहते यह झूठ-झूठ कह कर खाना खिला दिया गया था कि बच्चों के आधा दिन के बाद खाना खा लेने पर भगवानजी नाराज नहीं होते और ऐसे बच्चों का खा लेने के बाद चर्त नहीं होता । (चर्त गढ़वाली में व्रत के उल्टे को कहा जाता है।)
बादल-विहीन आकाश में जब सूरज कुछ ऊपर चढ़ आया तो मैं अपने नि्श्चय को मन ही मन अटल मानता हुआ अपनी जेब में एक माचिस लेकर चुपचाप घर से निकल पड़ा । छुट्टी के फौरन बाद रेंज दफ्तर से ऊपर की ओर की फायर लाइन काटी ( लगाई-बुझाई)जानी थी । यह बात मुझे पहले से मालूम थी । अपने पिता के विभाग के कल के काम को कुछ हलका करने के लिहाज से मैं थोड़ा बहुत काम आज ही निपटा लेना चाहता था। रेंज दफ्तर की सीमा से बाहर जंगल में पहुंचते ही मैने पेड़ों की दो-तीन छोटी शाखाओं को उठा कर उनको जमीन पर एक साथ रखा । उनका इस्तेमाल आग बुझाने के लिए किया जाना था । तब धीरे से माचिस की एक तीली झाड़ी और बेतहाशा उगी हुई घास पर एक जगह पर आग छुआ दी । उस आग को इस हिसाब से बुझाते रहना था कि वह जंगल की ओर न बढ़ सके,रेंज दफ्तर की ओर ही आती रहे, जिधर उसके ज़्यादा फैलने की कोई संभावना नहीं हो सकती थी। उधर पहले ही फायर लाइन काटी जा चुकी थी। आग जो लगी तो लग ही गई । वह बेतहाशा फैलने लगी । मैने काफी को्शिश की कि आग को ऊपर की ओर बढ़ने से रोक लिया जाय । लेकिन वह सूखी घास की खूराक पाकर ऊपर की ओर ही लपकती जा रही थी । मेरे देखते-देखते उसका घेरा इतना बढ़ गया कि नीचे रेंज दफ्तर से आकाश की ओर उठता हुआ धुआं साफ-साफ नज़र आने लगा ।
जन्माष्ठमी का त्यौहार। कृष्ण के जन्म के मौके पर यमुना में बाढ़ आ गई थी। यहां यमुना हमसे काफी दूर है। और आकाश में,लगता है, धुंए के अलावा और कुछ है ही नहीं। त्यौहार मनाने में व्यस्त जंगलाती अचानक लग गई उस आग को देख भयभीत हो गए थे। किसका व्रत ? किसका त्यौहार ? अपने घर पर जो जैसी हालत में था वैसा ही वन की ओर दौड़ता चला आ रहा था ।
पता नहीं उस सुनसान जगह पर, जहां दो या तीन परिवारों के अलावा मीलों तक कोई इन्सानी आबादी नहीं थी, उतने सारे लोग उस वक्त कहां से आ लगे । लेकिन आग थी कि वह किसी के वश में नहीं आ रही थी।
ऐसे संकट के समय मुझे मौके पर पिता के हाथों कितनी मार पड रही है, उसका मैं कोई हिसाब कैसे रख सकता था । मुझे दिखायी दे रहा था कि आग की लपटें सुरक्षित वन के एकदम पास पहुंचने लगीं हैं। अचानक एक आश्चर्य घटित हुआ । आकाश में जाने कहां से बादल घिर आए और पानी बरसने लगा । ऐसी तेज बरखा कि कुछ ही देर बाद सुरक्षित जंगल की ओर बढ़ती आग की लपटों का कहीं पता ही नहीं चला । व्रतधारी विद्यासागर की भी जान में जान आ गई । मुझे याद नहीं कि उस मशक्कत के बाद घर लौट आने पर मेरे व्रत का चर्त करवा दिया गया था या नहीं ।

2 comments:

कुन्नू सिंह said...

आप बहूत घूमते थे। और जीम्मेवारी वाला काम भी करते थे। बहुत बढीया लगा।

आपका ब्लाग ईसलीये देर से खूलता है क्यो की बहुत सारे पोस्ट मेन पेज पर दीखते हैं और जावा स्क्रीप्ट का भी प्रयोग करने से और देर से खूलता है।

अगर Display post को 1 पर सेट कर दें या 2, 3 पर तब पेज ज्लदी खूलेगा।

सृजनगाथा said...

CAN I REPUBLISH IT?