Friday, February 27, 2009

उपन्यास से बाहर जाकर

कबाडखाना में आज नवीन जोशी के उपन्यास दावानल की चर्चा कुछ यू है-

नवीन दा बड़े सहृदय व्यक्ति हैं और उनका एक उपन्यास 'दावानल' सामयिक प्रकाशन से २००६ में छपकर आया था। बीसवीं सदी के सन अस्सी के दशक में छिड़े चिपको आन्दोलन को इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बनाया गया है. बहुत सारे आत्मकथात्मक तत्व भी इस कृति में पिरोये गए हैं. कुमाऊंनी ग्रामीण परिवेश और पलायन को अभिशप्त निर्धन कुमाऊंनी समाज के युवाओं की कई छोटी-बड़ी कहानियां इस उपन्यास की सतह के ऐन नीचे सांस लेती रहती हैं. - अशोक पाण्डे


प्रस्तुत है दावानल पर एक समीक्षात्मक टिप्पणी जो इससे पूर्व शब्दयोग पत्रिका में प्रकाशित हुई है। -




राष्ट्रीयता की पहचान के आंदोलन- उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की मांग की अवश्यम्भाविता के वे कौन से कारण थे जिन्होंने उत्तराखण्ड के जनमानस को सड़को पर उतर आने के लिए मजबूर किया, यदि इस की ठीक-ठीक पहचान की जाये तो जल, जंगल जमीन पर टिकी भू-भाग की अर्थव्यवस्था पर कालान्तर से होते आये आक्रमणों को जानकर ही समझा जा सकता है। 1815 में ब्रिटिश हुकूमत के काबीज हो जाने के बाद साम्राज्यवादी लूट के जिन मंसूबों ने वन अधिनियम को जन्म दिया, उन्हीं के परिणाम स्वरूप पहाड़ों से पलायन का सिलसिला चालू हुआ। ब्रिटिश हुकूमत के जन विरोधि रवैये ने सांस्कृतिक, सामाजिक और भोगोलिक रूप से भिन्न समूहों की पहचान का बलात हरण करने का कुचक्र रचा। पारम्परिक उद्योग, रोजगार और समूह विशेष की जीवन शैली को तहस नहस कर आत्मनिर्भरता को इस हद तक खत्म कर दिया गया कि गुलामी के जाल से मुक्ति का स्वपन बुनने वाले भी निरंकुश तंत्र को ही ताकत पहुचाने के लिए मजबूर हुए। ईमानदारी का तोहफा शरीर पर फौजी वर्दी को लाद कर मिलता रहा- सत्ता की चौकसी के प्रबंध के लिए जिसकी बेहद जरुरत थी।
कथाकार नवीन जोशी का उपन्यास 'दावानल" यूं तो उत्तराखण्ड में हुए चिपको आंदोलन को अपना विषय बनाता है पर पहाड़ी जनमानस के अपनी जमीन से पलायन की कथा को कहते हुए वह जिन स्थितियों का वर्णन करता है उनको पढ़कर उत्तराखण्ड राज्य आदोलन की पृष्ठभूमि को भी समझने में मद्द मिलती है। इतिहास की निर्ममता ने उत्तराखण्ड के पानी और उसकी जवानी को पलायन करने के लिए मजबूर किया है। नवीन जोशी इस तथ्य को खूबसूरत अंदाज में अपने उपन्यास में रखने में सफल हुए हैं। पुष्कर उपन्यास का मुख्य पात्र है। तिवारी जी का पुत्र। तिवारी जी जो जीवन यापन के संघ्ार्ष में लखनऊ पहुंचे हैं और अपनी ही तरह के दूसरे पहाड़ी लोगों की एक बस्ती में रहते है। पुष्कर को वे पढ़ाना चाहते हैं और इसी वास्ते उसे भी अपने साथ लखनऊ ले आये है। नहर दफ्तर के दो आहातों का वह इलाका जहां बाईस र्क्वाटरों में सिर्फ पहाड़ के ही लोग रहते हैं। जैसे-तैसे पहाड़ की पहाड़ सरीखी स्थितियों से भागकर अंग्रेज साहबों के यहां पहुंचकर साहबों-मेमसाहबों की सेवा करते-करते वयस्क होने पर सरकारी सेवाओं की अहर्ता प्राप्त कर सकते हैं। सरकारी सेवा में जाने से पहले जो अपनी इस शर्त से बंधें हैं कि अपने जैसे ही किसी अन्य पहाड़ी-ईमानदार नवयुवक को कोठी की सेवा में रख दें। जो कि उनके लिए मुश्किल भी नहीं होता। बल्कि पहाड़ से भागकर उनके पास पहुंचे हुए किसी नवयुवक को रोजगार पर चिपका देने का एक सुयोग ही होता। नहीं तो परिवार में कितने ही लोग ऐसे होते जिन्हें कठीन चढ़ाईयों भरे जीवन से बाहर निकालकर सरकारी नौकर बना सकने का बेहतरीन मौका हाथ लग रहा होता।
नहर कालोनी की सरहद ने पुष्कर को सहारा दिया। जहां रहते हुए ही उसने जीवन का ककहरा सीखा है और दुनिया की रंगीनी को जानने के लिए पिता की साईकिल के कैरियर पर फंसी रहने वाली रंगीन पन्नों की मैगजीन में आंखें गढ़ायी। पहाड़ी जीवन पर पड़ने वाली मुसीबतों की बर्फ जिनमें उल्लास बिखेर रही होती- बस यहीं से दरकने लगता है वह पहाड़ जो पुष्कर के भीतर बैठा है और वह इस छद्म को उधाड़ देना चाहता है। पहाड़ की वास्तविकता से पुष्कर का नाता- लकड़ी, घास और पानी का भारी बोझ उठाने वाली मां, बहनों और चाची बुआओं के संसार के साथ है। पत्रिकाओं में छपने वाली तस्वीरें उसको आन्नदित नहीं, बेचैन करती हैं। अपने भीतर दबी-बैठी तस्वीरों और पत्रिकाओं की तस्वीरों में साम्य नहीं दिखता। अपने आस-पास की तस्वीरों में भी उसे ढाबों में बर्तन मांजने वाले पहाड़ी छोकरों से ही साक्षात्कार करना होता है। पहाड़ में रह रही मां के पास, स्कूल की छुटि्टयों में या यदा-कदा परेशानियों से घिरे होने पर प्राप्त होने वाले बुलावों पर, उसे पहाड़ पहुंचना ही होता। पिता चाहते हुए भी जा नहीं सकते। काम का हरजा जीवन की गाड़ी के पहियों को खींचने में रुकावट डाल देता।
पढ़ लिख जाने के कारण चेतना के विकास में संवेदनाओं का संसार और ज्यादा घनेपन के साथ उसे जिस ओर को ले जाता है वह अखबारों की दुनिया है। वह लेख लिखता है- इस नैतिक ईमानदारी के साथ कि पत्रिकाओं में छप रही पहाड़ों कर रंगीन तस्वीरों के छद्म को तोड़ सके।
कहा जा सकता है कि मानसिक बुनावट में ठहरा पहाड़ीपन पुष्कर को उन तस्वीरों को साफ कर देने के लिए प्रेरित करने लगता है और उत्तराखण्ड के पहाड़ों के भीतर घट रही घटनाओं से वहां के वातारण में फैल रही हलचलों को वह समाचारों के रुप में दर्ज करना चाहता है। इस पहल के साथ ही उत्तराखण्ड में जारी 'चिपको आंदोलन" में वह हिस्सेदारी करने लगता है। आंदोलन के कार्यकर्ताओं से सम्पर्क और पहाड़ के बुद्धिजीवियों की निकटता में पूरे उत्तराखण्ड के जनजीवन से उसका सम्पर्क बनने लगता है। हर दस वर्ष के अंतराल पर होने वाला यात्रा अभियान- अस्कोट आराकोट यात्रा जिसकी शुरुआत 1974 में हुई, दिनमान पत्रिका मे उसकी रिपोर्ट पड़कर वह उस यात्रा में भी हिस्सेदारी करने लगता है और उसके माध्यम से पहाड़ो को पैदल नापते हुए जनजीवन को जानना शुरु करता है। उस समय के आंदेलनकारी संगठन "संघर्ष वाहिनी" के साथियों के साथ जीवन के खुशहाली के सपनों को सकार करने के लिए जुट जाता है। उपन्यास का यह मुख्य हिस्सा ही दावानल की मूल कथा है।
उपन्यास में संघर्ष वाहिनी के आंदोलन में शिरकत करने वाले उत्तराखण्ड के रचनात्मक जगत की उम्मीदों भरी तस्वीरें स्पष्ट तौर पर रखता है। कुछ नाम जो उभरकर आते हैं उनमें घनश्याम सैलानी, गिर्दा, शेरदा अनपढ़ की रचनाओं का विश्वसनीय पाठ भी कथा को विस्तार देता है। हुड़के और ढोल-दमाऊ के स्वर सुनायी देते हैं। जिनके बीच पुष्कर अपनी व्यक्तिगत परेशानियों से उबरकर समष्टिगत भावना के साथ आगे बढ़ने लगता है। संसाधनों पर कब्जा करने वाली ताकतों की मुखालफत करना उसका ध्येय हो जाता है। 'आज हिमालय जागेगा, क्रूर कुल्हाड़ा भागेगा।, जंगल निलाम नहीं होंगे, पेड़ नही हम कटेंगे।' जैसे नारे उसे उत्तेजित करते हैं। लेकिन सत्ता का षड़यंत्र जीवन को बचानें की मुहिम में जंगलों के नृशंस कत्लेआम की मुखालफत के स्वर को पर्यावरण को बचाने के आंदोलन में बदल देता है। यह स्थितियां पुष्कर को बेचैन करने लगती हैं। ऐसे में पिता की मौत भी उसे भीतर से तोड़ देती है। आंदोलन का बिखर जाना या भटक जाना ही पुष्कर की त्रासदी है। जिससे वह क्षुब्ध हो जाता है। लेकिन एक मासूम किस्म की भावुकता है जो पुष्कर के चरित्र में एक दृढ़ राजनितिक कार्यकर्ता की छवी को स्थापित नहीं होने देती। यही इस रचना की कमजोरी भी मुझे दिखायी दे रही है। उपन्यास आंदोलन के बिखराव के कारणों पर बहुत ही सतही ढंग से टिप्पणी करता है और पूरे प्रकरण के लिए मात्र कुछ एक दो लोगों को ही चिन्हित करता है जो पर्यावरण की उस अवधारणा जो विश्व पूंजी के हितों में ठीक बैठती है, के साथ साम्य बैठाते हुए लगातार ख्याति प्राप्त करने चले जाते हैं। यहां यह सवाल उठता है कि यदि ऐसा कुछ घट रहा था तो आंदोलन की वह धारा जो इस तरह के प्रपंच के खिलाफ थी वह उस दौर में प्रकट क्यों नहीं होती और ऐसे लोगों पर उसी दौर में चोट क्यों नहीं करतीं ?
उपन्यास से बाहर जाकर उस दौर के इतिहास पर यदि टिप्पणी की जाये तो सवाल उठता है कि क्या कहीं ऐसा तो नहीं कि आंदोलन की धारा के अन्दर ही तो वह एनजीओ किस्म की मानसिकता नहीं थी जिसके कारण जनता के सवालों पर उठा चिपको आंदोलन पर्यावरण के आंदोलन में तब्दील हो गया ? इस सवाल पर बिना भावुक हुए गम्भिरता से विचार होना चाहिए था। उपन्यास के पात्र सलीम के माध्यम से एक छोटी कोशिश हुई तो दिखती है, पर मासूम किस्म की भावुकता, जिसकी जकड़ में रचनाकार भी नजर आता है, उपन्यास को उस ओर बढ़ने से रोकती है। और सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष पर ही चोट करती दिखायी देती है। बाबा जीवनलाल और रामप्रसाद उपन्यास के ऐसे ही पात्र है जो अंताराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करते हैं। आखिर ये पात्र कौन है ? वे पात्र जिनके प्रति रचनाकार सकारत्मक दृष्टिकोण रखता है, अपनी वास्तविक पहचान के साथ उपन्यास में मौजूद है जबकि उपन्यास में अपनी नकारात्मक उपस्थिति के साथ मौजूद पात्रों की पहचान को उतने ही स्पष्ट रूप्ा में रखने का परहेज रचनाकार के सीमित दृष्टिकोण को ही दिखाता है और उपन्यास के पात्र पुष्कर की तरह के कमजोर व्यक्तित्व को ही गढ़ता है। यही वजह है कि एक राजनीतिक आंदोलन के उभार और उसके विफल होने या कार्यपद्धतियों में आते गये भटकाव के कारणों पर लिखने के लिए जिस सचेत दृष्टि की जरुरत होनी चाहिए, 'दावालन" में उसका अभाव खटकता है। एक आंदोलन के बिखराव को चंद लोगों के मत्थे मढ़कर न तो किसी आंदोलन का सही विश्लेषण संभव है और न ही किसी बढ़ी रचना को रचा जाना। यदि उपन्यास का उद्देश्य इतना ही सीमित है तो यह उपन्यास के महत्व को कम ही करता है। मुझे लगता है इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए था।
चिपको आंदोलन और संघ्ार्ष वाहिनी के उभार और एक समय के बाद उसमें आये बिखराव के कारणों की पड़ताल मासूम किस्म की भावुकता से संभव ही नहीं। एनजीओ किस्म की वह मानसिकता जिसकी चपेट में संघ्ार्ष वाहिनी का आंदोलन प्ार्यावरण को बचाये के लिए स्वाहा होता गया, उसकी पड़ताल के लिए भावुक किस्म की मानसिकता से बचा जाना चाहिए और निर्मम तरह से उसकी चीर फाड़ की जानी चाहिए। आंदोलन के सामान्तर फैलती गयी मानसिकता एक ऐतिहासिक सच है जिस पर सार्थक चोट की जरुरत है, उपन्यास उससे परहेज करता दिखायी देता है। वरना कुछ लोगों का कैरिकेचर बनाकर कथा को न बुना गया होता। यह सवाल इस लिए भी उठता है, क्योंकि जहां उपन्यास में गिर्दा, घनश्याम सैलानी, गुणानंद पथिक आदि पात्र अपनी वास्तविक पहचान के साथ दिखायी देते हैं वहीं बाबा जीवन लाल और रामप्रसाद के बारे में कयास लगाने के लिए संकेत छोड़ दिये गये हैं। यहां उन कल्पित पात्रों की राजनीति से सहमति नहीं बल्कि इसलिए यह बात कही जा रही है कि उपन्यास का उद्देश्य इसी कारण बहुत सीमित हो गया है जबकि उत्तराखण्ड के राजनैतिक आंदोलन के एक ऐतिहससिक दौर को पकड़ने की जो कोशिश इसमें हुई है उस आधर पर यह एक महत्वपूर्ण कृति है।
-विजय गौड़

1 comment:

Ashok Pande said...

धन्यवाद विजय भाई! उत्तम आलेख लगाया आपने.