Sunday, March 15, 2009

अभी तो ठीक से याद नहीं

होली बीत चुकी है। यूंही दर्ज कर लिया गया दृश्य आंखों में घूम रहा है। यूं तो बचपन की होली का ध्यान है जब गाने बजाने वालों की टोलियां घर-घर जाकर होली गाती थी। हमारे इलाके में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ढेरों लोग रहते थे जो लगभग महीने भर पहले से ही शाम के वक्त ढोल मजीरा लेकर होली गाते थे। बोल कुछ इस तरह थे -
इकवर खेलै कुंवर कन्हैया, इकवर राधा होरी हो
सदा अन्नदही रहयौ द्वारा, मोहन होरी खेलै हो।
या

कहै के हाथे कनक पिचकारी,, कहै के हाथे गौरी की चुनरी होह्णह्णह्ण


अभी तो ठीक से याद भी नहीं, सुने हुए को भी नहीं तो 28-30 वर्ष हो गए

इधर हमारी परीक्षाओं की तैयारी चल रही होती थी और उधर वे होलियारे हमें अपनी लोकधुन गुन-गुना लेने को उकसा रहे होते थे।
इस बार हू--हू तो नहीं, पर हां वैसा ही, लेकिन बिना साज बाज का नजारा था- कालोनी के तमाम जौनसारी लड़के जिस मस्ती में होली गा रहे थे और नाच रहे थे, देखकर मन मचल उठा। गाने के बोल को तो समझा नहीं जा सका पर उस लय को तो महसूसा ही जा सकता था जो इन आधुनिक पीढ़ी के जौनसारी युवाओं को मस्त किए थी। अपनी भाषा और लोकगीत के प्रति उनका अनुराग घरों के भीतर बैठे लागों को भी पहले बैलकनी से झांकने के लिए और फिर रंग लेकर नीचे उतर आने को उकसा रहा था। बेशक कोई पूर्व तैयारी के बिना यह हुजूम गा रहा था पर उनके गीत और नृत्य में एक खास तरह का उछाल था। लीजिए आप भी देखिए और सुनिए-

4 comments:

राजीव तनेजा said...

बढिया है.... आपको भी होली मुबारक हो

siddheshwar singh said...

अच्छी धूम मचाई दून में !!

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर ...

Ashok Pande said...

बढ़िया!