Wednesday, March 18, 2009

बोलना सही समय पर सही बात का

पिछले दिनों कवि लालटू की कविता पड़ी थी- कहां ?
याद नहीं। पंक्तियां याद हैं-

मैं हाजिर जवाब नहीं हूं
इसीलिए नहीं कह पाया किसी महानायक को
सही सही, सही वक्त पर कि उसकी महानता में
कहीं से अंधेरे की बू आती है
मैं ताजिन्दगी सोचता रहा
कि बहुत जरुरी थी
सही वक्त पर सही बात कहनी।

यह कविता मुझे शिरीष के हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह प्रथ्वी पर एक जगह में बोलना शीर्षक से शामिल कविता को पढ़ते हुए याद रही हैं। दोनों ही कविताओं के बारे में ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहता सिर्फ इतना ही कि हिन्दी कविता के दो अलग-अलग पीढ़ियों के कवियों की बेचैनी क्या मात्र उनके मनोगत कारण हैं ? या दौर ही ऐसा है जों बार-बार खुद को ही सचेत रहने को मजबूर कर रहा है।


शिरीष कुमार मौर्य
बोलना



अपने समय के सबसे चुप्पा लोगों से
बोल रहा हूं मैं

मेरी आवाज़ मेरी रही-सही ताकत है
मेरा बचा-खुचा साहस है
मेरा बोलना

और अपनी इस ताकत और साहस के साथ मैं बोल रहा हूं
सुनाई दे रही है मेरी आवाज़

सुन लें वे जिन्हें सुनाई देता है
समझ आता है जिन्हें वे समझ लें अच्छी तरह
कि बोलना
और बोलना सही समय पर सही बात का
बेहद ज़रूरी है

ऐसे में चुप रहेंगे सिर्फ वे जो बिल्कुल ही आत्महीन हैं
या फिर जिनकी
कोई अमूर्त-सी मज़बूरी है।

4 comments:

naveen kumar naithani said...

समय के सबसे चुप्पा लोगों से बोलने का साहस जरूरी है.सुनना ऒर न सुनने का बहाना करने वाले भी मॊजूद रहते है

Anonymous said...

और जो सुन तो रहे हैं

पर कर रहे हैं न सुनने का बहाना

उनके लिए चार या फिर आठ आना

पर रुपया उनको ही मिलेगा
जो बेडर होकर बोलेगा

सच बोलेगा खांटी

किसी के डांटने से नहीं रूकेगा

जरूरत है उन्‍हीं की

और वे ही बोल कह सकते हैं

सही समय पर सही करारी बात

जिससे दी जा सकती है

हर जोर जुल्‍म को मात

नहीं तो कहते रहेंगे सभी

तेरह दूनी सात

यह भी हुई भला कोई बात।

ghughutibasuti said...

दोनों ही कविताएँ बहुत पसन्द आईं।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari said...

कवि लाल्टू और शिरीष भाई की कविताऐं जरा हट के हैं, बहुत बेहतरीन!!