Wednesday, April 8, 2009

इस शहर मे कभी अवधेश ऒर हरजीत रहते थे(२)

बहुत छोटी जगहों से गुजरती बहुत सी जल धारायें आपको मिल जायेंगी जिनका नाम जानने को आप उत्सुक होते हैं. आस-पास किसी को खोजते हैं: कोई है जो इस वेगवती जल-राशि की संञा से मुझे परिचित करायेगा! अक्सर कोई मिलता नहीं है और जब कोई मिलता है तो प्यास नहीं बुझती!


नवीन नैथानी

मेरी तरह जो तूने अगर देखना हो सब
मेरी तरह ही खुद को बदलने की बात कर

हरजीत का यह शे’र उसके मिजाज को तो बताता ही है बल्कि देहरादून की फ़ितरत को भी बहुत कुछ बयान करता है.दोहराव के लिये मित्रों से क्षमा मांगते हुए कहना पड़ रहा है कि कमबख्त यह शहर ही कुछ ऎसा है , कि इसकी कानाफूसियों में लोगों की कमज़र्फियों , बदकारियों , मक्कारियों ऒर गुनाहों की फुसफुसाहटें जगह नहीं पातीं बल्कि वहां आगत रचनाओं की संभावनायें टटोली जाती हैं.

यहां मैं उन लम्हों को आपके साथ बांटना चाहूंगा जहां अवधेश ऒर हरजीत शहर का अनुसंधान करते थे. कुछ शामों का जिक्र होगा, कुछ उनींदी सुबहों के बयां होंगे,चन्द दुपहरों की तपिश में सुलगते हुए मॊन का निःशब्द पाठ होगा.मित्रों के बीच घटित होती हुई स्वप्न सी किसी दुनिया की रचना-प्रक्रिया का अहेतुक साक्षात्कार होगा, ऒर हां! मानव-मन को जानने समझने कोई व्याकुल छटपटाह्ट होगी.

देहरादून से मसूरी जाते हुए तब राजपुर से गुजरना ही होता था.प्रसिद्ध शायर दीवान सिंह ’मफ़्तून’ पर लिखे लाजवाब संस्मरण में मदन शर्मा राजपुर का जिक्र इस ब्लोग में पहले भी कर चुके हैं. योगेंद्र आहूजा भी राजपुर की बाल्कनी को यहीं याद कर चुके हैं. अब मसूरी जाते हुए राजपुर जाना जरूरी नहीं रह गया है. पहले ही रास्ता कट जाता है. यह जगह डाइवर्जन कहलाती है. यह नाम मुझे बहुत प्रतीकात्मक लगताहै. इस जगह से लोग बहुत तेजी से गुजर जाते हैं - मसूरी की तरफ. जिनमें तेजी नहीं होती वे राजपुर की तरफ चले जाते हैं. आजकल एक दूसरा शब्द भी प्रचलन में आ गया है-बाईपास. इस शब्द में किसी जगह से कतरा कर निकल जाने का भाव है. डाइवर्जन में आपके पास चुनाव की स्वतंत्रता होती है.
इस डाइवर्जन पर एक बार शेखर जोशी मिल गये थे-अनायास.यह १९८९ या ९० की बात है. मेरे साथ अवधेश ऒर हरजीत थे. हम राजपुर से लॊट रहे थे-पैदल. वे मेरे साहित्याचार के शुरुआती दिन थे-उन दिनों में प्रथम प्रेम की सी मादकता , उल्लास ऒर पागलपन सब एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हुए जाते थे. वह शायद जून या सितंबर की कोई शाम थी.यह देहरादून में ही संभव है कि आप जून ऒर सितंबर की शाम में फ़र्क महसूस नहीं कर सकें. जून में भी अक्सर इस तरह का मॊसम हो जाता कि आप टिप-टोप में बैठे हैं( यह उन दिनों का मशहूर साहित्यिक अड्डा था, इस रेस्त्रां के मालिक श्री प्रदीप गुप्ता बडे़ शान्त भाव से लेखकों को झेलने का माद्दा रखते हैं. अब नये वक्त की मज़बूरियां उस जगह पर नये उत्पाद खपा रही हैं . इस पर कभी विस्तार से बातें होंगी.) तो अचानक बादल चले आये!
"राजपुर का मॊसम हो गया"हरजीत कह जाता ऒर लोग समझ जाते कि अब हम तीन आदमी चुपचाप वहां से खिसक लेंगे. राजेश सकलानी के अन्दर अद्भुत प्रेक्षण -क्षमता है. उन क्षणों के बारे में राजेश ने मुझसे कई बार आंखों के ईशारे के बारे में कहा है. तीन जोडी़ आंखें आपस में ईशारे करती हुईं ; चेहरे पर कोई जुम्बिश नहीं, थोडी़ पलकें झुकीं , जरा पुतलियां हिलीं और कार्य-क्रम तय हो गया.
सितंबर में तो वैसे भी बादल रहते हैं.तो यह ठीक- ठीक याद नहीं पड़ रहा कि वह बादल कौन से थे ? हां, डाइवर्जन पर शेखर जोशी का मिलना याद है. डाइवर्जन के पास एक ठेले पर हम भुट्टा खोज रहे थे-शायद वह सितंबर की ही शाम थी कि सामने से शेखर जोशी हमारे पास चले आये. इससे पूर्व मैं उनसे IIT कानपुर मे मिला था- गिरिराजजी ने वहां एक कार्य-क्रम करवाया था. IIT समवाय और रचनात्मक लेखन केंद्र के बैनर तले. यह संगमन श्रंखला की शुरुआत से पहले की बात है. वहां एक सत्र की अघ्यक्षता शेखर जोशी
और राजेंद्र यादव कर रहे थे और आपका खाबिन्द वहां जोश में बहुत कुछ कह गया था जिसकी ध्वनी कुछ यूं निकलती थी कि संपादकों को साहित्य के प्रवाह में बाधा नहीं डालनी चाहिये. विचार-धारा के नाम पर चल रही बहसों पर भी कुछ सवाल उठाये थे. संदर्भ उन दिनों चल रही बहस "सेक्स और जनवाद" का था. तो डाइवर्जन में हम जब भुट्टा ढूंढ रहे थे अचानक शेखर जोशी सामने दिखायी दिये. मैं उन्हें पहचान नहीं पाया. एक नये लेखक के लिये यह बात कल्पनातीत थी कि इतने बडे़ कथाकार बीच सड़क पर इस आत्मीयता से मिल सकते हैं. हरजीत ऒर अवधेश भी उनसे पहले नहीं मिले थे. शेखर जोशी उन दिनों अक्सर देहरादून आते जाते रहते थे. उस शाम उनसे बहुत देर तक बातें होती रहीं. अवधेश अक्सर इस तरह के अवसरों पर नहीं बोलता था और मेरे लिये तो बस शेखर जोशी के साथ होना ही बहुत था.हरजीत ही ज्यादातर बातें करता रहा. घण्टाघर के पास लोकल बस -स्टैण्ड में हमने जोशी जी को विदा किया.
यहां डाइवर्जन से घण्टाघर तक का सफ़र किस तरह तय किया गया, यह बात महत्वपूर्ण है. हमने शायद बस ली थी फिर आधे रास्ते में उतर लिये थे.बारिश से बचने की कु्छ कोशिशें थीं
और शहर की तारीफ में कहे गये हरजीत के कुछ शे’र थे.यह याद नहीं कि हरजीत ने उस शाम क्या सुनाया था लेकिन राजपुर की ऊंचाईयों से देहरादून का जिक्र वह अक्सर करता था-
नक़्शे सा बिछ गया है, हमारा नगर यहां
आंखें ये ढूंढती हैं, कहीं अपना घर मिले

राजपुर के ऊपर -शहन शाही आश्रम नाम की जगह है. उस जगह तक पहुंचने से पहले मुझे उसका नाम आकर्षित करता था. इस नाम में एक जादू है. शुरू -शुरू में मुझे शहन शाही की शाही धज नहीं दिखायी पड़ती थी बल्कि एक शहनाई मैं वहां सुना करता था. तो जब पहली बार शहनशाही आश्रम देखा तो अच्छा नहीं लगा. मुझे वह एक वीरान जगह दिखायी पडी़ थी. वह हरजीत और अवधेश से मुलाकात से कुछ वर्ष पूर्व की बात है. तब मैं लोकल बस में बैठ जाता था और आखिरी पडा़व का टिकट लेकर कुछ नयी जगहों के बीच से गुजर जाता था. उन दिनों लोकल बस बहुत कम जगहों के लिये जाती थीं और बहुत कम संख्या में. लिहाजा , उसी बस से वापस लौटना मेरी मजबूरी होती थी.यह वक्त काटने का शगल तो नहीं था पर अनदेखी जगहों को जानने की भूख जरूर थी.इस जानने की शुरूआत जगहों के नाम से ही होती थी.
उन जगहों के नामों मे अद्भुत आकर्षण होता है. देखने या जानने - बूझने से पहले ही एक छवि बस जाती है.
(कुछ नाम जो इस वक्त याद आ रहे हैं,लगे हाथ उन्हें भी दर्ज करता चलूं; हर्षिल-गंगोत्री
और उत्तरकाशी के बीच एक जगह. मंडल-गोपेश्वर से आगे चौपता जाते हुए एक प्यारी सी ठांव. अल्मोडा से कौसानी जाते हुए एक जगह आती है: रन-मन . बहुत छोटी जगहों से गुजरती बहुत सी जल धारायें आपको मिल जायेंगी जिनका नाम जानने को आप उत्सुक होते हैं. आस-पास किसी को खोजते हैं: कोई है जो इस वेगवती जल-राशि की संञा से मुझे परिचित करायेगा! अक्सर कोई मिलता नहीं है और जब कोई मिलता है तो प्यास नहीं बुझती! यह तो अनाम है. जाति-बोधक संञा से काम चला लिया गया है.
"अरे! यह गधेरा है"
"कौन सा गधेरा ?"
"मच्छी-ताल का गधेरा."
"मच्छी-ताल कहां है?"
"आप जहां खडे़ हैं,जरा बांई बाजू की तरफ देखिये. एक रास्ता ऊपर चढ रहा है. वहीं है मच्छी - ताल"
गधेरे का अपना नाम नहीं है.अपनी पहचान नहीं है. प्यास बुझती नहीं. ऐसे में मिल जाता है कोई रेडा़ खाला. एक बरसाती कुनदिका! जब भरकर आती है तो बडी़ चट्टानें टूट - टूट जाती हैं, वहां पिसे हुए पत्थरों का पाट है- रेडा़ फ़कत. रेडा़ खाला.
कभी- कभी कोई खूबसूरत नाम भी मिल जाता है. गंगा की सहायक नदियों में मिलने वाली बहुत सी जलधाराओं के नाम जानने की बडी़ ईच्छा हरजीत के मन में थी. जब मैं ग्वालदम के पास तलवाडी़ रहा तो पिण्डर का सौन्दर्य मुझे बहुत आकर्षित करता रहा. वहां थराली के पास प्राणमति नाम की एक नदी पिंडर में जा मिलती है.)
हम तो शहनशाही की बात कर रहे थे! हरजीत के साथ मैंने शहनशाही आश्रम के आस-पास साल के वृक्षों का जादू जाना.
"यह जीवन जादू हुआ जाता है!"

यह अवधेश की एक कविता की पंक्ति है. इस जादू को हमने जिया. शुरुआत टिप-टाप से हुई थी. वह एक बादल भरी दुपहरी थी.बादल अचानक चले आये थे-ठेठ देहरादूनी मिजाज की तरह! हरजीत की आंखें चमक उठीं.
"राजपुर का मौसम बन गया है" हम तीनों चुपके से सरक लिये. सिटी-बस में बैठे
और राजपुर पहुंच कर सामान हासिल किया. उस दिन हरजीत का झोला साथ नहीं था! (यह होता नहीं था. कोई आठ वर्ष मैंने हरजीत के साथ गुजारे हैं, इतने बरसों में कोई दो या तीन मौके आये होंगे जब वह बिना थैले के निकला होगा. उस थैले में क्या नहीं होता था!)
अब गिलास की समस्या आयी. हम साल - वन में थे ऒर बादल बरस रहे थे.
मित्रों! अवधेश ऒर हरजीत के साथ उस दुपहरी को शाम में तब्दील किया साल के पत्तों ने. हमने पत्तों का दोना बनाया, थोडा़ आबे-हयात मिलाया ऒर साल वृक्षों की छतनार शाखों से टपकती बूंदों की अंजुरियां दोने में छलका दीं. इस मामले में हरजीत पूरा उस्ताद था. अब किस्से को जरा आराम कर लेने दीजिए.तब तक हरजीत का यह शे’र साथ लिये जायें
ये शामे-मैकशी भी शामों में शाम है इक
नासेह,शेख,वाहिद,जाहिद हैं हम-प्याला

8 comments:

Vineeta Yashsavi said...

नक़्शे सा बिछ गया है, हमारा नगर यहां
आंखें ये ढूंढती हैं, कहीं अपना घर मिले

Aapke Sansmaran achhe lege...

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर संस्‍मरण है ...

शिरीष कुमार मौर्य said...

नवीन भाई !

ये संस्मरण धीरे धीरे किताब की शक्ल लेंगे !

एक दिन वह किताब छपेगी!

एक दिन हम उसे हाथों के पकडेंगे और पढेंगे!

एक दिन हम इस बारे में फोन पर आपसे बात करेंगे !

naveen kumar naithani said...

एक दिन नहीं!शिरीष भाई, मैंने अभी आपको फोन लगाया, फिर काट दिया. आपकी टिप्पणी मैंने रात १२ बजे पढी़.ध्यान आ गया, यह गैर - वक्त है.अब इस शहर में हरजीत ऒर अवधेश नहीं रहते.

काश! जिन्दगी एक किताब होती-हम अपनी फ़ुर्सत के हिसाब से उसे उलट-पलट लेते.
बहुत-बहुत शुक्रिया.








































धी

दीपा पाठक said...

एक आत्मीय सी याद जैसी आपकी पोस्ट। मेरा बचपन देहरादून में ही बीता है सो ये पढना और भी अच्छा लगा।

अविनाश वाचस्पति said...

बार बार पढ़ कर

ढूंढता हूं इसमें

स्‍वयं को

चाहता हूं मैं

इसमें होता

पर होता है
वही

जो राम रचि राखा।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बहुत अच्छा लगा आपका सँस्मरण
- लावण्या

कथाकार said...

आज तबीयत ठीक नहीं और मन देहरादून देहरादून हो रहा है। विजय ने आग में घी का काम किया और मेरी पोस्‍ट लगा दी। और जोड़ दिया देहरादून से। ऊपर से तुम्‍हारा ये संस्‍मरण। मुझे भी याद आ रहे हैं ऐसे ढेरों मौके जो अवधेश,हरजीत और तुम्‍हारी संगत में राजपुर में दिन दहाड़े एक कम पानी वाली नदी के किनारे गुजारे थे।
येृ किस्‍सा मुंबई का है। हरजीत मेरे सांताक्रूज वाले घर में तब आया था, स्‍टेशन से पैदल घर आते समय वह घर का रास्‍ता न भूल जाये,इसलिए मैं उसके साथ पैदल चलते हुए बता रहा था कि पहले मोड़ पर फलां और दूसरे मोड़ पर एक शिव मंदिर,फिर सीधे आना है। हरजीत ने कांटे की बात
सूरज प्रकाश
ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर चालीस बरस
टोका, शिव मंदिर वाला रास्‍ता लम्‍बा है, स्‍टार वाइन शाप के साथ वाली गली वाला रास्‍ता छोटा है।
तुमने पुराने दिन याद दिला दिये
मजे करो
सूरज