Tuesday, May 26, 2009

चकमक को पढते हुए

चकमक के मई अंक पर पवि ने यह समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी और स्वंय ही टाइप की है। पवि कक्षा नौ की छात्रा है। इससे पहले भी पवि ने संवेदना की मासिक गोष्ठी की एक रिपोर्ट तैयार की थी।




चकमक को पढते-पढते मुझे सात आठ साल हो गए है । चकमक का हर अंक एक दिलचस्प किस्सा लेकर आता है । इस बार के मई अंक में भी काफी मजेदार चीजे प्रकाशित हुई है । इस अंक में छपी "अनारको के मन की घड़ी" कहानी मुझे सबसे बेहतरीन कहानी लगी, इस कहानी को सती नाथ षडंगी जी ने लिखा है, उन्होनें कहानी को इतने अच्छे ढंग से लिखा है कि कहानी पढ़ने में बडा मजा आया । इस अंक में और भी कई मजेदार कहानियॉं प्रकाशित हुई हैं, जैसे "एक चूजे की यात्रा" "ये बुजुर्ग" "बॉसुरी नही बजती बजाता है आदमी" "गधे की हजामत"। इस अंक में सिर्फ मजेदार कहानियॉं ही नहीं मसालेदार कविताऍ भी है और सबसे ज्यादा मजेदार कविता तो गुलजार जी की है "एक और अगोडा"। इस अंक के अलावा पिछले कुछ अंको में भी गुलजार जी की कविताऍ छपी हैं । हर बार की तरह इस बार के अंक में भी माथापच्ची और चित्र पहेली है । इस बार के अंक में "बहादुर शाह जफर का खत अपनी बेटी के नाम" और "क्या बताएं कि बेंजामिन फैंकलिन कौन थे" भी है । हर बार की तरह इस बार का अंक भी अच्छा है ।


-पवि

Monday, May 25, 2009

गुरूदीप खुराना की लघु कथा

गुरुदीप खुराना महत्वपूर्ण कथाकार हैं। दिखावे की किसी भी तरह की संस्कृति से उन्हें परहेज है। रचना में ही नहीं सामान्य जीवन में भी उनके मित्र उन्हें इसी तरह पाते हैं। उनकी रचनाओं की खास विशेषता है कि वे ऐसे ही, जैसे कोई बहुत चुपके से, आपके बगल में आकर कुछ कह गया हो और आप उस वक्त किसी दूसरे काम में उलझे होने के कारण उस पर ध्यान दे पाए हों लेकिन वह बात जब दुबारा दोहराई ही जानी हो तो आप उस क्षण में अपने भीतर अटक गए बहुत सारे शब्दों, स्थितियों को दोहराते हुए उस तक पहुंचने को उतावले हो जा रहे हो कि आखिर क्या कहा गया था। उनकी रचनाओं पर आलोचकों की एक खास किस्म की चुप्पी की एक वजह यह भी है। वरना नई आर्थिक औद्योगिक नीति ने किस तरह से नौकरशाहों के चरित्र को आकार दिया है, इसे जानना हो तो उनके उपन्यास बागडोर को पढ़ना जरूरी हो जाता है। उजाले अपने-अपने उनका एक अन्य उपन्यास है जो उस नयी आर्थिक नीति के कारण परेशानियों में उलझी दुनिया को बाबा महात्माओं तक ले जाने वाले कारणों और आए दिन धर्म के बाजार में नई से नई सजती जा रही दुकान के खेल का ताना बाना कैसे खड़ा होता है, इसे रखने में सक्षम है।



भाग्य
-गुरूदीप खुराना



हम तीनों एक दूसरे का हाथ थामें, साथ-साथ टहल रहे थे।
अचानक एक गोली कहीं से आकर। बीच वाले को लगी और वह वही ढेर हो गया।
गोली उसी को क्यों लगी, दोनो में से किसी को क्यों नहीं? मैनें पूछा। दूसरे ने कहा यह भाग्य है और मैं धबराया रहा।
मेरा यह भाग्यवादी साथी, निश्चित था क्यों कि उसकी कुण्डली में अस्सी पार करना लिखा था। वह खूब मस्ती में गुनगुना रहा था-जाको राखे साईया मार सके न कोए।।।
वह दोहा पूरा कर पाता इससे पहले एक और गोली कहीं से आयी और उसके सीने से आर पार हो गई।
वह भी गया। पर वह मेरा तरह घबराया हुआ नहीं रहा। वह अतं तक निश्चिंत बना रहा और मस्त रहा।

Friday, May 22, 2009

यूरो- इंगलिश : "X" WOULD NO LONGER BE PART OF THE ALPHABET

कविता कोश के सम्पादक अनिल जनविजय के द्वारा प्रेषित पत्र यहां सूचनार्थ प्रस्तुत है :-


The European Commission has just announced an agreement whereby English will be the official language of the European Union rather than German, which was the other possibility. As part of the negotiations, the British Government conceded that English spelling had some room for improvement and has accepted a 5-year phase-in plan that would become known as 'Euro-English'.

In the first year, 's' will replace the soft 'c'. Sertainly, this will make the sivil servants jump with joy. The hard 'c' will be dropped in favour of 'k'. This should klear up konfusion, and keyboards kan have one less letter. There will be growing publik enthusiasm in the sekond year when the troublesome 'ph' will be replaced with 'f'. This will make words like fotograf 20% shorter.
In the 3rd year, publik akseptanse of the new spelling kan be expekted to reach the stage where! more komplikated changes are possible.
Governments will enkourage the removal of double letters which have always ben a deterent to akurate speling.
Also, al wil agre that the horibl mes of the silent 'e' in the languag is disgrasful and it should go away.
By the 4th yer people wil be reseptiv to steps such as replasing 'th' with 'z' and 'w' with 'v'.
During ze fifz yer, ze unesesary 'o' kan be dropd from vords kontaining 'ou' and after ziz fifz yer, ve vil hav a reil sensibl riten styl.
Zer vil be no mor trubl or difikultis and evrivun vil find it ezi tu understand ech oza. Ze drem of a united urop vil finali kum tru.
Und efter ze fifz yer, ve vil al be speking German like zey vunted in ze forst plas.
If zis mad you smil, pleas pas on to oza pepl.


--
anil janvijay


रोमन लिपि में है "X"का भविष्य खतरे में



Saturday, May 16, 2009

नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई

मैं उनके पीछे-पीछे, वे मेरे आगे, दौड़ते रहे। एक को तब पकड़ पाया जब धुंए के बादलों ने उसके भीतर सीलन उतारनी शुरू कर दी और सांसों की धौंकनी उसकी दौड़ने की ताकत को छीनने लगी। दूसरे को पकड़ने का आज कोई मतलब नहीं। आदमखोर समय जिसके भीतर उगते चीड़ के पेड़ से लीसे को निचोड़ता जा रहा है। पत्तियों के पुआल का इस्तेमाल कौन करेगा? मेरी स्मृतियों की दीवार पर जिस तरह 'संध्या छाया' आज भी धुंधला नहीं हुआ दूसरों की स्मृतियों में भी शायद उसी तरह दर्ज होगा 'अन्धा भोज'।
दरअसल दादा की स्मृतियां मेरे जहन में दो रूपों में मौजूद रही हैं। एक थोड़ा ढीला-ढाला चेहरा, समय जिस पर अपनी स्याही पोतते हुए, जिसे बुढापे की ओर धकेल रहा है-राम प्रसाद 'अनुज' और दूसरा, जमाने की चिड़चिड़ाहट जिसके चेहरे पर अपना अक्श छोड़ती गयी, अपनी पैनी आंखों को गोल-गोल घुमाते हुए दूसरे के सीने में छेदकर घुसने वाला- अशोक चक्रवर्ती।
मैंने जब नाटक करना शुरू किया दादा गली-गली, चौराहों-चौराहों और नु्क्कड़ों पर ''नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई'' गाता फिरता था। मंचों पर होने वाले नाटक जिसके उत्साह को निचोड़ने लगे थे और 'वातायन’ नाट्य संस्था, जो देहरादून के नाट्य आंदोलन में एक चमकता किला था, दादा उसकी स्थापना से ही साथ था। पर उस चमकते किले की दीवारें दादा के भीतर घुटन पैदा करने लगी थी। नाटक को जनता तक ले जाने का जोश बन्द थियेटर से गली, सड़क और चौराहों पर भागती दौड़ती जिन्दगी के बीच नाटक करने के लिए उसे बेचैन करने लगा। मैं उस वक्त युगान्तर नाट्य संस्था में नाटक करने लगा था। यह बात 1984-85 के आस-पास की है। युगान्तर मेरा घर है इसे मैंने हमेशा महसूस किया। इसीलिए युगान्तर की कोई भी प्रस्तुति मुझे घर में होने वाले, किसी भी पारम्परिक कार्य में, असहमति के बावजूद, उपस्थित होने को मजबूर करती रही। दादा का व्यक्तित्व किस्से कहानियों के रूप में ही 'नेहरू युवक केन्द्र" की दीवारों और 'फाईव-स्टार’ के फट्टों से सुना था। दादा के साथ नाटक करने की इच्छा मुझे भी 'दृष्टि' तक खींच ले गई। पर दादा उस वक्त दृष्टि छोड़ चुका था। लेकिन दादा रब तक दृष्टि छोड चुका था । दादा के दृष्टि छोड़ने के पीछे क्या कारण रहे, ठीक से नहीं कह सकता। दृष्टि में नाटक करते हुए ही मैं मंचीय नाटक और नुक्कड़ नाटक के भेद को समझ पाया।
मंचीय नाटकों में जहां दर्शकों को जुगाड़ने में ही सारी ऊर्जा खत्म हो जाती है, वहीं नुक्कड नाट्कों में दर्शकों के पास जाकर ही नाटक करने का अनुभव दृष्टि में ही हासिल हुआ। सच कहूं तो जीवन-दृष्टि, चाहे वो जैसी भी बनी, दृष्टि में ही काम करते हुए पाई। इराक-अमेरिकी युद्ध और दुनिया के तत्कालीन बदलते चेहरे की तस्वीर को दृष्टि ने अपने एक नाटक में प्रस्तुत किया था। वह दौर नई आर्थिक और औद्योगिक नीतियों का आरम्भिक दौर था।
दुनिया के पैमाने पर पेरोस्त्रोइका और ग्लास्तनोत के बाद, बेशक छद्म ही सही, समाजवादी रूस का विखण्डन हो चुका था। बदलती हुई सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक दुनिया का चेहरा और दुनिया पर धौंस पट्टी का चालू होने वाला समाज, जैसे विषय को, दृष्टि ने कलात्मक ढंग से नाटक में दिखाया गया था। कला और विचार का ऐसा संयोजन मैंने कभी किसी भी अन्य नाटक में न देखा था। न ही मंचीय नाटकों में और न ही नुक्कड़ नाटकों में। मेरे ही नहीं बल्कि उस नाटक के सैंकड़ों दर्शको के जहन में आज भी उसकी तस्वीर ताजा होगी ही।
अफसोस, दृष्टि अपनी इस आदत से कि नाटकों की स्क्रिप्ट को संभाले कौन? हमेशा ग्रसित रहा और एक महत्वपूर्ण नाटक को सिर्फ स्मृतियों में ही छोड़ गया। दादा उस वक्त दृष्टि में नहीं था। अरूण विक्रम राणा ही सबसे वरिष्ठ साथी थे। दृष्टि का जनपक्षीय स्वरूप और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के नाटकों का असर मुझ पर होने लगा था और उसी के चलते दादा के कहने पर भी मैं 'स्पंदन' में उनके साथ नाटक नहीं कर पाया। उस वक्त दृष्टि के जनपक्षीय नाटकों का असर मुझे भी मंचीय नाटकों से दूर कर रहा था। दादा चाहते थे मैं उनके साथ काम करूं पर वे मंचीय नाटक में व्यस्त थे। उस वक्त दादा के साथ काम न करने के बावजूद उनके साथ काम करने की इच्छा फिर भी बनी रही। 'वातायन' के नाटक 'हत्यारे', जिसका निर्देशन दादा कर रहे थे, में काम करने की इच्छा चमकदार किले की दीवारों को छूने में सहायक हुई। यह अलग वाकया है कि दादा जिस पात्र की भूमिका मुझ से करवाना चाहते रहे उसे करने के लिए किलेदारों के कानून अर्हताओं की मांग करते थे। बेशक उसका पालन उसी भूमिका को करने वाले दूसरे उस साथी जिसे ढूंढ कर लाया गया, पर लागू नहीं हुआ। फिर भी दादा के साथ उस नाटक में काम करने का अवसर नहीं गंवाया हांलाकि उसमें काम करने को कुछ ज्यादा नहीं रह गया था। पर दादा की खौफनाक आंखें कुछ ही देर पहले उन्हीं के द्वारा बताए गए किस्से के कारण उदासी के रंग में डूबने लगी थीं। दादा के साथ काम करने का आकर्षण और बढ़ता गया।
राज्य आंदोलन के दौर में जब पुलिस ज्यादितयों की आक्रमकता चालू थी, सांस्कृतिक मोर्चे का गठन दून रंग कर्मियों की सार्थक कार्रवाई थी। मोर्चे के नेतृत्व के सवाल को दादा का व्यक्तित्व ही हल कर सकता था। शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद दादा ने मोर्चे का नेतृत्व संभाला। एक समय तक अपने दृष्टि के दो एक साथियों के साथ ही गली, चौराहों और नुक्कड़ों पर नाटक करने वाला दादा देहरादून के अधिकांश रंग कर्मियों को सड़कों पर ले जा सकने में कामयाब रहा। प्रभात फेरी में जनगीत और नाटक के लिए दर्शकों को इक्ट्ठा करते रंगकर्मी, दादा के साथ -साथ "नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई" गाने लगे। यह पहला अवसर था जब देहरादून के अधिकांशत: रंगकर्मियों ने जनता से अपने को सीधे जोड़ा। लेकिन आंदोलन की जो चेतना उस वक्त राज्य-आंदोलन को निर्धारित कर रही थी, मोर्चा उसमें पूरी तरह से हस्तक्षेप नहीं कर पाया बल्कि अंततः उसी का शिकार होने लगा। शारीरिक अस्वस्थता ने भले ही दादा के शरीर को कमजोर किया था पर विचार के स्वर पर उसे डिगा नहीं पाया था और दादा ही नहीं अधिकांश लोग मोर्चे से उदासीन होते चले गए। कुछ चुप बैठ गए और कुछ दूसरी तरहों से आंदोलन में सक्रियता बनाए रखते रहे। आंदोलन के उस दौर में पूरे सांस्कृतिक-साहित्यिक माहौल से मेरा भी मोह भंग होने लगा था। एक लम्बे समय तक किसी भी तरह की कोई गतिविधि मुझे आकर्षित न कर पायी। टिप-टॉप जो कभी बैठकों का अड्डा होता था, उससे दूर रहने लगे। कभी-कभार पहुंचना हो जाता तो सिगरेट सूतता दादा मिल जाता। वरना दादा से मिलना होली वाले दिन ही संभव होता। होली के दिन, जो मेरे आत्मीय मित्र थे उनसे मिलना नहीं छोड़ा आज भी। दादा भी मेरे उन आत्मीयों में से था- होली के दिन जिसकी दाढ़ी पर गुलाल मल कर मैं अपने होने को उनके साथ दर्ज कर पाता था।
यूं घटनाओं के तौर पर ऐसा मेरे पास कुछ नहीं है जो दादा की स्मृतियों को रख सकूं। ऐसे ही एक होली का किस्सा है दूसरे मित्रों की तरह दादा भी तहमत बांधकर रंग से पुता होने के बावजूद भी मेरा इंतजार कर रहा था। कथाकार जितेन ठाकुर के घर से निकलता हुआ मैं दादा के पास पहुंचा। रंग खेलकर गले मिलना तो एक औपचारिकता होती, असली मकसद तो मिलना ही रहता। सो औपचारिकता निभाने के बाद गपियाते हुए दादा ने बताया था कि वे 'नान्दनिक' से नाटक कर रहे हैं, "तुम्हें भी उसमें काम करना है।" बिना किसी भूमिका के मुझे आदेश मिला था।
दादा के साथ काम करना वर्षों की साध थी, बस मैंने हामी भर दी। यह भी नहीं पूछा कौन सा नाटक है, किसका लिखा है। वह बंग्ला नाटक का हिन्दी अनुवाद था- नोइशे भोज ( अंधा भोज) इस तरह वर्षों से दबी इच्छा ने मुझे साहित्य और साहित्यकारों से मोहभंग की उस स्थिति से ही बाहर नहीं निकाला, जिसका जिक्र कभी वक्त पड़ने पर करूंगा, बल्कि मैंने दादा के अन्तिम नाटक 'अन्धा भोज' में काम भी किया। उस समय तक दादा गले के कैंसर के ऑपरेशन के बाद दादा शारीरिक रूप से बेहद कमजोर हो चुका था लेकिन रिहर्सल के दौरान भीतर कुलबुलाती सिगरेट की लत फिर भी उसको बेचैन करने लगती थी। जैसे ही दादा सिगरेट सुलगाता भाई प्रदीप घिल्डियाल और हरीश भट्ट की भंगिमाएं तन जाती। कमजोर होते जा रहे दादा की सेहत के लिए सिगरेट पीना ठीक नहीं था। लेकिन जब लत बेचैनी की हदों को पार करने लगती तो इस बात पर छूट मिलती कि एक सिगरेट प्रदीप भाई भी पिएगा। कभी कभार ही सिगरेट पीने वाले प्रदीप घिल्डियाल इस तरह से डिब्बे में रखी सिगरेट की संख्या को जल्द से जल्द कम कर रहे होते। अंधा भोज के तीन प्रदर्शन हुए उसके बाद दादा शारीरिक रूप से इतना कमजोर हो गया कि फिर कोई नाटक करना उसके लिए संभव ही नहीं रहा।

देहरादून रंगमंच में दादा के बाद छा गए उस शून्य को भरने की कोई सार्थक कोशिश फिर न सफल न हो पाई। विश्व रंगमंच दिवस के अवसरों पर सरकारी अनुदानों से आयेजित होने वाले समारोह भी उसे आज तक न भर पाए। दादा मुझे आज क्यों यादा आया, समझ नहीं पा रहा हूं। यूंही ब्लाग-पोस्ट लिखने को तो मैं हरगिज उन्हें याद नहीं कर रहा हूं। दून रंगमंच में फैलता शून्य टूटे और गति आए, कुछ ऐसा ही भाव मन में है। हां, सत्ताधारियों की बदलती हुई टोपियां उस गति का कारक न हो, बस। वरिष्ठ साथियों के सकारात्मक हस्तक्षेप उसे निर्घारित कर पाएं तो निश्चित ही ऐसा माहौल बनेगा जिसमें हेकड़ीबाजों की हेकड़ी के प्रदर्शन के बजाय जन-पक्षधर संस्कृति का विकास संभव होगा, ऐसी उम्मीद करता हूं।

--विजय गौड

जैसा कि पहले भी जिक्र किया जा चुका है कि इस ब्लाग को एक पत्रिका की तरह निकालना चाहते हैं। एक ऐसी पत्रिका जिसमें साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श जैसा कुछ हो और जो एक सार्थक हस्तक्षेप करने में सहायक हो। देहरादून के साहित्यिक, सांस्कृतिक माहौल को भी इसके माध्यम से पकड़ने और दर्ज करने की कोशिश भी जारी है। पिछले दिनों नवीन नैथानी के एक आलेख पर देहरादून के एक ऐसे साथी की टिप्पणी प्राप्त हुई जोसामाजीक आंदोलनों में लगातार सक्रिय रहे हैं। सुनील कैंथोला । सुनील भाई ने अपनी टिप्पणी के मार्फत देहरादून के कुछ चरित्रों को याद किया था। एक ऐसे ही चरित्र, नाटककार अशोक चक्रवर्ती को यहां याद किया गया है। सुनील कैंथोला की टिप्पणी बाक्स में दर्ज है।



अभी कुछ दिन पहले नवीन से मुलाकात हुई तो उसने अवधेश और हरजीत का जिक्र किया, मेरे पास अवधेश की हस्तलिखित गीत की कॉपी और स्कैच हैं, आरिजनल गजेन्द्र वर्मा के पास हैं। ये गीत उत्तराखण्ड आंदोलन में बहुत लोकप्रिय था और सुरेन्द्र भण्डारी के नाटक में इस्तेमाल हुआ था। कहो तो यहां इस ब्लोग में पोस्ट कर दूं !

मैंने कुछ और लोगों के बारे में भी लिखने का जिक्र किया था, जैसे 'दादा" दीपक भट्टाचार्य। "डिलाइट" के पार हिमालयन आर्म्स के सामने एक पुराना रोड़ रोलर खड़ा है, इसे देहरादून नगरपालिका ने सहारनपुर के कबाड़ियों को 60 हजार में बेच दिया था, दादा नगरपालिका में था। उसको जब पता चला तो हम लोगों को "टिपटाप" से धमकाते हुए एक डेलीगेशन के रूप में नगरपालिका ले गया, नीलामी रुकवाने के लिए, कहता था कि ये वर्ल्ड-वॉर-1 के पीरियड की टैक्नोलॉजी है, कल देहरादून के बच्चों को डेमोस्ट्रेशन करने के काम आएगा! आंदोलन के समय जहां भी दिखता, बोलता- "हां बे ! खण्ड खण्ड उत्तराखण्ड!!" फिर सलाह देता और चाय पेलता ! वो पहला आदमी था जो अपना ब्रीफकेश साइकिल के कैरियर पर बांध कर चलता था, एक बार पूछा कि इसमें रखते क्या हो तो बोला कि स्वरोजगार लोन की अप्लीकेशन हैं जो मैं प्रोसेस करता हूं। कमाल का आदमी था ! घूस खा भी लेता तो कौन सी बड़ी बात हो जाती, पर वो पक्का ईमानदार किस्म का इंसान था। वो शायद होमगार्ड में भी काम कर चुका था। हर चौराहे पर होमगार्ड वालों को धमकाना नहीं भूलता था। अफसोस कि जिस संगठन के लिए उसने दशकों काम किया वो उसके सामने बिखर गया, मेरा आशय ’वातायन’ से है!

और भी बहुत से लोग हैं कि जिनके बारे में लिखा जाना चाहिए। जैसे दूसरे दादा, शायद वो पहले हो, याने अशोक चक्रवर्ती ! एक सज्जन और थे, गुणा नन्द 'पथिक", फिर अपना टिपटाप को फोटोग्राफर अरविन्द शर्मा जो फोटोग्राफी छोड़ अवधेश-हरजीत के मोहपाश में फंस गया था, नवीन की तरह ! एक बार हरजीत ने अरविन्द को मसूरी में कवि सम्मेलन का न्योता दिलवा दिया, इन्वीटेशन (invitation) मिलने के बाद अरविन्द ने फोटोग्राफी कुछ दिन के लिए पॉज मोड (pause mode) में डाल दी, कुछ उधार भी उठा लिया कि मसूरी की पेमेंट के बाद चुका देंगे। वहां, मसूरी में कवि सम्मेलन देर से शुरू हुआ, तब तक अरविन्द भाई काफी लगा चुके थे ओर इंतजार करते-करते रिसेप्शन (reception) में ही सो गए, उधर कवि सम्मेलन शुरू होकर खत्म भी हो गया, पर अरविन्द हैं कि बाहर गढ़वाल मण्डल के रिसेप्शन (reception) के सोफे पर खर्रांटे मार रहे हैं। फिर पेमेंट का टाइम आया तो हरजीत को ध्यान आया कि अरे हमारे साथ तो कविवर अरविन्द भी आए हैं, ढूंढ कर बुलाया, पर पेमेंट देने वालों का कहना था कि जब कवि ने कविता पढ़ी नहीं तो पेमेंट कैसा ? खैर वहीं खड़े-खड़े पेमेंट के वाऊचर पर साइन करते हुए अरविन्द ने कविता सुना डाली। उसने एक उपन्यास भी लिखने की कोशिश की थी जिसे हम फेंटा कह कर बुलाते थे, यानी एक छोटे खुले पन्नों वाला उपन्यास जिसको पढ़ना शुरू करो, अगर फिर भी मजा ना आए तो एक बार फिर---

- सुनील कैंथोला

Sunday, May 10, 2009

जगदेई की कोलिण

कहानी
डा.शोभाराम शर्मा

इस कहानी का संबंध् हमारे इतिहास के उस काल-खंड की एक सच्ची घटना से है जब मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात यह देश अराजकता के उस भंवर में पफंस गया था जिसका लाभ पश्चिम के उन देशों ने उठाने का प्रयासकिया जो औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहे थे। उन्हें उद्योगों के लिए जितने कच्चे माल की जरूरत थी, वह उनकीअपनी जमीन से मिलना मुश्किल था। इसलिए दूसरें मुल्कों की जमीन हड़पने की होड़ मची और इस होड़ में इंग्लैंडका पलड़ा ही भारी सिद्ध् हुआ। औद्योगिक क्रांति की ऊर्जा से शक्ति-संपन्न ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आगे हमारेनवाबों और राजा-महाराजाओं की जंग लगी सामंती तलवारें नहीं टिक पाईं। बंगाल से लेकर पंजाब की सीमा तकऔर लगभग सारे दक्षिण भारत को लीलते देखकर एक दिन काठमांडू के राजमहल में सोए शेष-शायी विष्णु केअवतार नेपाल नरेश की नींद खुल पड़ी। एक विदेशी कंपनी को तराई-भाबर से नीचे सारे देश को हड़पते देखकर नेपाल की सामंती सत्ता के कान खड़े होने ही थे। निश्चय हुआ कि पूरब से पश्चिम तक सारे पहाड़ी राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया जाए। काली पार कर चंद राज्य पहला शिकार हुआ। गढ़वाल पर पहला हमला नाकामयाब रहा मगर दूसरे धावे में गढ़वाल भी फ़तह हो गया। गोरखे हिमाचल की ओर भी बढ़े लेकिन वहां टिक नहीं पाए।पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह के आगे गोरखा-अभियान असफल हो गया।



लोक मानस ने जिस नारी को '"जगदेई की कोलिण" के नाम से अपनी स्मृति में संजोए रखा है उसका असली नाम क्या था, कोई नहीं जानता। बात उन दिनों की है जब पूरब की पहाड़ी बस्तियों से लोग पश्चिम की ओर भागते पिफर रहे थे। वे या तो घने जंगलों या ऊंची चोटियों पर शरण लेने को मजबूर थे अथवा तराई-भाबर के जंगलों को पार कर मैदानों की ओर पलायन कर रहे थे। कारण था काली-कुमाऊं के जंगलों से होकर हमलावर गोरखों की एक टुकड़ी का कोसी से रामगंगा की मध्यवर्ती बस्तियों तक आ ध्मकना। तरह-तरह की अतिरंजित अफवाहों का बाजार गरम था। जवान लड़के-लड़कियों को दास-दासियों के रफ में सरेआम बेचे जाने की अफवाह जहां जोरों पर थी, वहीं औरतों की इज्जत से खुलेआम खिलवाड़ करने की बात भी चारों ओर फैल रही थी। और तो और दूध् पीते बच्चों को ऊखल में ठूँसकर मूसल से कुचल देने की अफवाह पर भी लोग आँख मँूदकर विश्वास करने लगे थे। प्रतिरोध् करने पर बस्तियां आग की भेंट चढ़ रही थीं और सिर कलम किए जा रहे थे। लूट-खसोट और जोर-जबरी का ऐसा दौर चला कि नादिरशाही भी फीकी पड़ गई। तराई-भाबर की समीपवर्ती पहाड़ी बस्तियों पर "गोर्ख्याणी" का ऐसा कहर बरपा कि लोग त्राहि-त्राहि कर उठे। हमलावरों को आशंका थी कि अगर उध्र के लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के दलालों से मिल गए तो पहाड़ों पर अधिकार बनाए रखना कठिन होगा। अत: आतंक का ऐसा माहौल बना देना उचित समझा गया कि लोग सिर उठाने की जुर्रत न कर सकें।

दहशत के मारे लोग सुरक्षित स्थानों की खोज में थे। ऐसे में किसी को भी अपनी और अपनों की सुरक्षा की चिंता होनी स्वाभाविक थी। जगदेई की कोलिण को अपनी दूध्-पीती बेटी और बूढ़े मां-बाप की चिंता थी। मां-बाप वर्षों से एक छोटे-से पहाड़ी नाले के समीप घने जंगल में रहकर बुनाई से अपनी जीविका चलाते आए थे। उनके अपने भाई-बंद सामने की पहाड़ी के पीछे संदणा नामक बस्ती में जाकर रहने लगे थे। लेकिन वे अपनी उसी कुटिया में बने रहे। कोलिण का जन्म वहीं हुआ था और बड़ी होने पर सल्टमहादेव के पार जगदेई के कोली परिवार में ब्याह दी गई थी। लेकिन घर-गृहस्थी का सुख उसके भाग्य में कहां बदा था। ब्याह के दूसरे साल उसे एक बेटी को जन्म देने का सौभाग्य तो प्राप्त हुआ लेकिन उसी वर्ष भाग्य रूठ गया और पति बिसूचिका का शिकार हो गया। घरवाले दो साल छोटे देवर का घर बसाने पर जोर देते रहे लेकिन वह अभी तक किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाई थी। बेटी को वह मां-बाप के पास पहुंचा देना चाहती थी क्योंकि पहाड़ी की ओट में घ्ाने जंगल के बीच अपना मायका उसे अधिक सुरक्षित लगा। कोली परिवार का आवास होने से वह "कोल्यूं सारी" कहलाने लगा था। वह बेटी को लेकर जब वहां पहुंची तो यह देखकर दंग रह गई कि उस खाई जैसी तंग घाटी के जंगल में कई और लोग भी शरण ले चुके थे। उनमें से एक डुंगरी नामक बस्ती का वह ब्राह्मण परिवार भी था जिसके मुखिया पंडित रामदेव को कोलिण बहुत पहले से जानती थी। कुछ दिन पहले ही वह उनके डुंगरी के आवास से कंबल बुनने के लिए ऊनी तागों के गोले लेकर गई थी और कंबल अभी अधबुने ही पड़े थे। पंडित रामदेव उसे बेटी कहकर पुकारते थे। उन्होंने बताया कि उनके परिवार के अलावा मंदेरी रावत, नेगी, ध्याड़ा, गोदियाल और डबराल भी वहां शरण ले चुके थे। नीचे नदी के किनारे एक मनराल परिवार भी सैणमानुर से आकर रहने लगा। सौंद नामक एक लुहार परिवार वहां पहले से ही रह रहा था। उसे यह देखकर और भी खुशी हुई कि पंडित रामदेव की अपनी बेटी जो उसी के ससुराल जगदेई में ब्याही थी, वह भी अपने पति के साथ वहां पहले ही पहुंच चुकी थी। पंडित जी ने आग्रह किया कि जितनी जल्दी हो सके वह कंबल वहीं लाकर दे क्योंकि डुंगरी की बजाय वह जगह अध्कि ठंडी थी। पंडित रामदेव उन दिनों सामने की पहाड़ी के दूसरी ओर के कुठेल गांव और संदणा के लोगों की मदद से कालिका नामक एक गोलाकार चोटी पर पत्थरों का ढेर जमा करवाने में जुटे थे ताकि मौका पड़ने पर हमलावरों का प्रतिरोध् किया जा सके।
मां-बाप का कहना था कि वह अपने परिवार के लोगों को भी वहीं लेती आए क्योंकि पहाड़ी की ओर का वह जंगल हमलावरों की नजरों में शायद ही पड़े। मां ने जोर देकर कहा कि वह कब तक अकेली जीवन का भार ढोती रहेगी। दो साल छोटा है तो क्या हुआ, वह देवर को स्वीकार कर ले, नन्हीं बेटी को भी पिता का प्यार मिल जाएगा। इस पर कोलिण कुछ सोचने को मजबूर हो गई और उसका अनिर्णय निर्णय में बदल गया। वह दूसरे ही दिन नीचे नदी के किनारे उतरी और पार के किनारे से होकर सल्ट महादेव की ओर चल पड़ी जहां से उसे ऊपर चढ़कर अपनी ससुराल पहुंचना था। रास्ते भर वह देवर के साथ अपने गार्हस्थ्य जीवन के रंगीन सपने बुनती रही और कब जगदेई पहुंच गई कुछ पता ही नहीं चला। लेकिन यह क्या! बस्ती बिल्कुल वीरान जैसी। बहुत कम लोग ही वहां रह गए थे। अधिकांश लोग अपना आशियाना छोड़ गए थे। पूछने पर पता चला कि लोग भिरणाभौन के देवी-मंदिर की ओर गए हैं। मंदिर एक गोलाकार पहाड़ी के ऊपर था और जगह चारों ओर से इतनी खुली कि हमलावर चाहे जिध्र से आते उन पर नजर रखी जा सकती थी। ऊपर चढ़ते हमलावरों को पत्थरों की मार से भागने पर मजबूर कर देना भी बहुत संभव लगता था। कोलिण रास्ते के ऊपर पहाड़ी के पीछे जखल और जमणी नामक बस्तियों के मिलन बिंदु पर अपनी झोंपड़ी में पहुंची तो अवाक् रह गई। परिवार के सारे लोग न जाने कहां चले गए थे। करघे वैसे ही पड़े थे जिन पर से अधबुने कंबल भी परिवार वाले समेट ले गए थे। निराश कोलिण बाहर निकली। सूरज अभी सिर पर था और हवा न चलने के कारण घुटन का अनुभव हो रहा था। उसने बदनगढ़ पार सल्ट की बस्तियों की ओर देखा तो आसमान की ओर उठता धुंआ देखकर और लोगों की चीख-पुकार सुनकर सन्न रह गई। भय के मारे रोंगटे खड़े हो गए। हमलावर इतने समीप थे कि कुछ ही देर में इध्र की बस्तियां भी उनका शिकार होने वाली थीं। कोलिण से रहा नहीं गया। वह झोंपड़ी के ऊपर एक टीले पर पहुंची और भरपूर गले से चिल्ला उठी-"ग्वर्ख्य आगीं! ग्वर्ख्य आगीं!" (गोरखे आ गए! गोरखे आ गए!) वह लगातार चिल्लाती गई। उसकी भय मिश्रित वह चीख-पुकार धर (पर्वत दंड) के दोनों ओर की दूर-दूर तक बसी बस्तियों तक ही नहीं, सल्ट महादेव से ऊपर देवलगढ़ के पार की बस्तियों तक भी साफ-साफ सुनाई पड़ी।
सुनते ही बस्तियों में तो जैसे भूचाल आ गया। जो साहसी लोग अभी तक बस्तियों में इस विश्वास के साथ टिके थे कि हमलावर उनकी बस्ती तक शायद ही पहुंच पाएं, वे भी जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए। कोलिण की चीख ने उनके साहस और विश्वास के परखच्चे उड़ा दिए। वे ऐसी जगहों की ओर दौड़ पडे जिन पर हमलावरों की निगाह पड़ने की बहुत कम संभावना थी। कोलिण की अपनी बस्ती का एक प्रौढ़ ओड (पत्थरों की छंटाई-चिनाई करने वाला मिस्त्री) कहीं जा छिपने से पहले उसके पास आया और डांटते हुए बोला-"अरी ओ मूर्खा! यह तू क्या कर बैठी। क्यों आ बैल मुझे मार की मूर्खता कर बैठी हो? मैं कहता हूं, अब तो चुप हो जा और कहीं जाकर छिप जा। तेरी यह चीख-पुकार तो साक्षात् मौत को न्यौता दे बैठी है। गोरखे कोई बहरे नहीं, तेरी पुकार की दिशा भांपकर बस पहुंचते ही होंगे।"
इस चेतावनी का कोलिण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह तो बस गला पफाड़-पफाड़कर चिल्लाती रही-"ग्वर्ख्य आगीं! ग्वर्ख्य आगीं!" चेतावनी देने वाला ओड भी घबराकर भाग खड़ा हुआ और कुछ दूरी पर एक पत्थर की आड़ में उन घनी कंटीली झाड़ियों के बीच जा छिपा जहां से चीखती-चिल्लाती कोलिण भी सापफ नजर आ रही थी। कुछ ही पल बीते होंगे कि दो गोरखे सैनिक प्रकट हो गए। वह चढ़ाई चढ़कर आए थे। उनका दम पफूल रहा था और पफटी-पफटी लाल अंगारों जैसी उनकी आँखें इस बात का सुबूत थीं कि दोनों रक्शी (शराब) के नशे में भी चूर थे। गुस्से से पागल एक ने कोलिण को बालों से जा पकड़ा और पफुंपफकारता हुआ बोला-"बदजात औरत चुप कर!" एक झटका देकर उसने कोलिण को नीचे पटक डाला। लेकिन कोलिण थी कि खड़ी होकर और भी जोर से चीखने लगी। इस पर दूसरा सैनिक खुखरी लहराते हुए आगे बढ़कर बोला-"यह ऐसे नहीं मानेगी दाई।" और उसने आव देखा न ताव कोलिण के नाक, कान और स्तन काटकर फैंक दिए। लहूलुहान चीखती-चिल्लाती कोलिण को पिफर एक लात जमाकर राक्षसी हंसी हंसता हुआ वह शैतान बोल उठा-"चिल्ला! और चिल्ला! तेरी तो -----" वह बाल पकड़कर पत्थर पर पटकने की गरज से आगे बढ़ने ही वाला था कि पहले सैनिक के भीतर का इंसान जाग उठा, उसने दूसरे को एक ओर खींचकर टोका-"अरे! तूने यह क्या कर डाला? डरा धमकाकर चुप कराने से मतलब था लेकिन तू तो वहशीपन की हद भी पार कर गया। एक निहत्थी निर्बल नारी के नाक, कान और ऊपर से स्तन भी ---- छि! ---- मातृत्व का ऐसा अपमान! इस महापातक का खामियाजा तो शायद मुझे भी भुगतना होगा। सरदार दूसरे साथियों के साथ पहुंचते ही होंगे। उनकी नजर अगर इस पर पड़ी तो समझ ले खैर नहीं।"
साथी की लताड़ से दूसरे सैनिक का नशा उड़न छू होने लगा, बोला-"तो अब क्या करें भाई? अपराध् तो हो ही गया। न जाने कितनी कठोर सजा मिले।"
"दंड से तो मैं भी नहीं बच पाऊंगा रे! वे तो इस कांड में हमारी मिलीभगत ही समझेंगे। कहेंगे कि मैंने रोका क्यों नहीं।" पहले ने कहा।
दूसरा अब रूआंसा होकर बोला-"जो होना था सो तो हो चुका! हां अगर इसे उनकी निगाह में न पड़ने दें तो?"
"हां, हां। एक यही रास्ता है हमारे बच निकलने का।" पहले ने सुझाव का समर्थन किया।
और दोनों ने कोली परिवार की झोंपड़ी के साथ कोलिण को भी जलाकर खाक कर देने की ठान ली। इस बीच बेतहाशा खून बह जाने से कोलिण जमीन पर लुढ़क गई थी। पिफर भी उसके गले से कहीं दूर से आता एक हल्का-सा स्वर तैरता सुनाई पड़ रहा था। दोनों मृतप्राय कोलिण को खींचकर झोंपड़ी के भीतर ले गए और करघ्ो के नीचे पटककर झोंपड़ी को आग के हवाले कर दिया। दरवाजों, तख्तों और छत के शहतीरों ने जो आग पकड़ी तो झोंपड़ी भरभराकर ढह गई और कोलिण की अपनी झोंपड़ी ही उसकी चिता बन गई।


इस भयानक कांड का चश्मदीद गवाह वही ओड था जो पत्थर की आड़ में झाड़ियों के बीच छिपकर सब कुछ देख रहा था। नाक, कान और स्तन-विहीन लहुलुहान कोलिण की उस करुणाजनक आकृति ने उसकी आत्मा को इतना झकझोर डाला कि वह चाहकर भी उसे अनदेखा नहीं कर पाया। धूं-धूं कर जलती झोंपड़ी से ऊपर उठते धुंए के बीच उसे वही दिखाई देती रही। घबराकर उसने आँखें मूंद लीं और जब खोलीं तो उसे धुंए के साथ ऊपर आसमान में तैरती एक ऐसी श्वेताभ निष्कलंक पवित्रा आत्मा का आभास हुआ जो लगातार चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को आसन्न खतरे से सावधन कर रही थी। दीबागढ़ी से नीचे दक्षिण की ओर बदनगढ़, देवलगढ़ और टांडयूंगाड़ के दोनों ओर जहां तक कोलिण की आवाज पहुंची थी, वहां से और आगे की बस्तियों को भी चेतावनी मिलने लगी। कोलिण का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा था। उसकी वह निष्कलंक श्वेताभ आत्मा आसमान से होकर उड़ते-उड़ते अंतत: ऊंचे शिखर पर स्थित देवी-मूर्ति में समाहित हो गई। मूर्ति में समाहित उस आत्मा ने दीबा डांडे की दूसरी ओर बसी बस्तियों के लोगों को भी लगातार चेतावनी देकर हमलावरों का मनसूबा विपफल कर दिया था।
हमलावरों का टोली नायक जब दूसरे सैनिकों और लूट के माल के बोझ तले दबे, पकड़े गए दास-दासियों के साथ पहुंचा तब तक झोंपड़ी के साथ कोलिण का अस्तित्व भी राख में बदल चुका था। नायक ने आते ही पूछा-"वह औरत कहां है जो यहां के नामुरादों को चेतावनी दे रही थी? इधर तो कुछ भी हाथ नहीं लगा। लोग अपने मालमत्ते के साथ न जाने कहां गायब हो गए।"
पहले सैनिक ने कुछ सोचकर जवाब दिया-"क्या बताएं हुजूर! हमें देखते ही बदजात अपनी झोंपड़ी में जा छिपी। हमने उसे जिंदा पकड़ने का भरपूर प्रयास किया लेकिन उसने दरवाजा नहीं खोला तो नहीं खोला। दरवाजा तोड़कर जब तक हम भीतर पहुंचते उसने खुद झोंपड़ी को आग लगा दी और खुद भी उसी में जल मरी।"
उधर लूट का माल हाथ न आने से हमलावरों का दस्ता पकड़े गए दास-दासियों के साथ देवलगढ़ नदी की ओर उतर गया। वह ओड जिसने सारा कांड अपनी आँखों से देखा था, पत्थर की आड़ से बाहर निकला और राख के ढेर को कुरेद-कुरेदकर कुछ ढूंढने लगा। लेकिन वहां बचा ही क्या था। सुलगते शोलों के बीच कोलिण की हडि्डयां तक भी साबुत नहीं बची थीं। इसी बीच आस-पास छिपे कुछ और लोग भी आ गए। सभी की जुबान पर यही था कि कोलिण तो सचमुच जगदेई ;जगत-देवीद्ध निकली। दूसरों की जान बचाने के लिए जिसने अपनी जान तक दे डाली। पत्थरों का पारखी वह ओड एक हल्के नीले पत्थर पर कोलिण की नाक, कान और स्तन-विहीन आकृति को उभारने लगा ताकि भावी पीढ़ियां उसकी कुर्बानी को भुला न पाएं।
(लेखक ने 1950 के आस-पास नाक, कान और स्तन-विहीन वह छोटी-सी नारी मूर्ति जगदेई गांव के ऊपर खुद अपनी आँखों से देखी थी। आज एक छोटे-से मंदिर में कोलिण की वह नाक-कान-स्तन विहीन मूर्ति उसी स्थान पर स्थापित है।)


कहानी में अरविन्द शेखर के रेखांकनों का इस्तेमाल किया गया है
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लेखक परिचय
डॉ शोभाराम शर्मा
जन्म: 6 जुलाई 1933, पतगांव मल्ला, पौड़ी गढ़वाल
शिक्षा: आगरा विश्वविद्यालय से एमए (हिंदी) व पीएचडी। अंग्रेजी दैनिक 'द स्टेटसमैन" में कार्य, 1958 से विभिन्न राजकीय संस्थानों में अध्यापन, 1992 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से विभागाध्यक्ष ;हिंदीद्ध के पद से सेवानिवृत।
रचनाएं: 50 के दशक में पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु", क्रांतिदूत चे ग्वेरा (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी), सामान्य हिंदी, वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश, वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), पूर्वी कुमाउफं तथा पश्चिमी नेपाल के राजियों ;वन रावतोंद्ध की बोली का अनुशीलन ;अप्रकाशित शोध्प्रबंध्द्ध, जब ह्वेल पलायन करते हैं (साइबेरिया की चुकची जनजाति के पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू के उपन्यास का अनुवाद- प्रकाशनाधीन) विभिन्न पत्रा-पत्रिकाओं में कहानियां व लेख प्रकाशित। विभिन्न पत्रिकाओं का संपादन।
पता: डी-21, ज्योति विहार, पोऑ- नेहरू ग्राम, देहरादून-248001, उत्तराखंड, फोन: 0135-2671476

Monday, May 4, 2009

जिस पर न कोई गीत लिखा गया, न कोई अफसाना गढ़ा गया

मई २००९ के आउटलुक में प्रकाशित कथाकार जितेन ठाकुर की महत्वपूर्ण कहानी कोट लाहौर वालाकथाकार नवीन नैथानी और कवि राजेश सकलानी की टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत है।





नवीन नैथानी
एक कहानी को कैसा होना चाहिये? इस सवाल के बहुत सारे जवाब हैं.पाठकों की रुचि, संस्कार,सरोकार ओर विशिष्ट आग्रह विभिन्न जवाबों को जन्म देते हैं जिनसे कहानी के अलग-अलग स्कूल निकलते हैं.प्रायः एकतरह की कहानी पढ़ने वाला पाठक दूसरी तरह की कहानी को पसन्द नहीं कर पाता. लेकिन कुछ कहानियां स्कूलों की जकड़बन्दी से बाहर निकल कर सभी पाठकों को समान रूप से रिझा ले जाती हैं. इन कहानियों का कथ्य इतना जबर्दस्त होता है कि वे आपको अपने तूफान में बहा ले जाती हैं. एक विदेशी कहानी का अनुवाद पढ़ाथा जिसका शीर्षक याद नहीं रहा है - अभी योगेंद्र आहूजा की स्मृति का सहारा लिया है. उसका शीर्षक हैयानकोवाच का अन्त’. कहानी एक बढ़ई की जिन्दगी के बारे में है-यान कोवाच दैहिक अन्त के बाद लोगों की स्मृतियों से धीरे- धीरे गायब हो जाता है.उसकी बनायी चीजें क्षरण के स्वाभाविक चक्र से गुजर कर फ़ना होजाती हैं.सबसे अन्त में उसकी बनायी मेज का नामो-निशान दुनिया से मिटता है और यान कोवाच की मृत्यु के सौ वर्ष बाद वह दुनिया से पूरी तरह गायब हो जाता है. यह मौत के बाद बची रह गयी स्मृतियों के मरते चले जानेकी मार्मिक कहानी है.
जितेन की कहानी पढ़ने के बाद मुझे सहसा यान कोवाच की याद गयी.इस तरह की याद जब आती है तो मुझे समझ में जाता है कि अभी - अभी एक विलक्षण पाठकीय अनुभव से होकर गुजर आया हूं, कि जो अभी - अभी पढा़ ऐसा पढे़ हुए बहुत दिन हुए.यह स्मृति को जिन्दा रखे रहने वाली कहानी है-यह एक कोट की कहानी है जिसकी
बदनसीबी ये थी कि ये कोट यूरोप के किसी देश में नहीं सिला गया था। इसीलिए इस कोट पर कोई गीत लिखा गया, कोई अफसाना घड़ा गया।
यह लाहौर में सिला गया था.
(मुझे याद है कि मेरी मां बडे़ गर्व से कहा करती कि उसकी शादी के कपडे़ लाहौर से सिलकर आये थे.)
लाहौर में सिले गये इस कोट की कहानी कहते हुए जितेन जिस सहजता के साथ इतिहास में प्रवेश करने जाते हैंवह देखने लायक तो है ही उससे भी अधिक चमत्कारी लगता है विशुद्ध स्मृतियों की कथा को समकालीन बाजारकी मानसिकता उजागर करने के लिये इस्तेमाल कर ले जाने का लेखकीय कौशल !
जितेन मूलतः कथाकारों की उस नस्ल से आते हैं जो कहानी की तलाश में हर वक़्त जीवन - अनुभवों के बीहड़ मेंभटकते हैं.वे हमेशा अपने कान और आंख खुले रखते हैं. एक कुशल आखेटक के गुण उनमें होते हैं-पर कहानी भीवो चीज है जो हर वक़्त दिखायी भी देती है और सुनायी भी पड़ती है,पर कमबख़्त हाथ ही नहीं आती.जितेन जैसे शिकारी नस्ल के कथाकार जब पकड़ ले जाते हैं तो नायाब चीज पेश करते हैं.इस कहानी में जितेन अपनी वृत्ति सेअलग हटकर स्मृतियों की जो दुनिया ढूंढकर लाये हैं वह मुझ जैसे पाठक के लिये सुखद आश्चर्य है. उम्मीद है यहकहानी जितेन के लेखन में एक नये दौर के आगमन का संकेत है.
कोट लाहौर वाला एक और वजह से ध्यान खींचती है.औपन्यासिक समय को समेटे हुए कम ही कहानियां हैं जहांकथाकार विवरणों की स्फीति से बचा हो.इस कहानी में विवरणों के सटीक चयन और वर्णन में बरती गयीसांकेतिकता ने जो सहज असर पैदा किया है उसे साधना जितेन जैसे कुशल कथा - शिल्पी के ही बूते की बात है.
कहानी लिखना वैसे भी कोई आसान काम नहीं है और एक सहज कहानी लिख ले जाना तो विरल कथाकारों से हीसध पाता है.


राजेश सकलानी
हिन्दी कथा की दुनिया में कई पीढ़ियां एक साथ सक्रिय हैं। नए रचनाकार नई भाषा और प्रयोगशीलता के साथ परिदृश्य को रोचक और गतिशील बनाते हैं। लेकिन कुछ के अनुरूप नहीं बन पाती। कुछ अटपटापन बचा रह जाता है। आधुनिक होने की कोशिश के चलते जीवन की बारिकियों तक पहुंचने के बावजूद कथानक में पात्र अजनबी से लगने लगते हैं। कहानी अपनी स्थानिकता और जातीय पहचान से छिटक जाती है। शायद यही कारण सामान्य पाठक की जगह सीमित विशेषज्ञ पाठक ने ले ली है। उत्कृष्ट और लोकप्रिय कहानी की जगह अनूठी कहानी ने ले ली है। यह सारी बातें जितेन ठाकुर की कोट लाहौर वाला (आउट लुक, मई 2009 ) पढ़कर दिमाग में आती रही। लगा कि जैसे अपने समाज की कहानी मिल गई। सचमुच एक उतकृष्ट कहानी जो बिना आरोपण के अपनी भारतीय उप महाद्वीप की सांस्कृतिक निरन्तरता को सहजता के साथ प्रकट करती है। इसमें कथा समय काफी विस्तृत है। रियासत के दिनों को जिक्र है। इसे आजादी से पहले किसी समय से शुरू हुआ मान सकते हैं। आखिरी पंक्ति बिल्कुल आज के समय पर टिप्पणी करती है- 'क्यों अब इस मुल्क में लाहौर की चीजें बेची जाती हैं, खरीदी जाती हैं" यह एक बड़ा वक्तव्य है। यह पिछले इतिहास को कोमल तरह से देखने परखने की विनम्र गुजारिश भी है और अपनी जातीय स्मृतियों में छिपी सांस्कृतिक रचना पर फिर से गुजरने की मार्मिक अपील भी है। यह बेहूदा और आततायी वैश्वीकरण की जगह सदभावनापूर्ण विस्तरण (expainsion)कीशुरूआत भी करती है। इस सारे उपक्रम के लिए जितेन ने बहुत सरल और लगभग विस्मृत कर दी गई देशज भाषा का सहज प्रयोग किया है। लगता है अपने घर परिवार के बड़े बूढ़ों के माध्यम से चली रही भाषा औरकथा का नया रूप दे दिया है। यह कथा सांप्रदायिकता और वैमनस्यता को निश्छलता पूर्वक अस्वीकार कर देती है। यह भी याद नहीं रहता कि लाहौर पाकिस्तान में है और जिसे लेकर तमाम अखबार और दृश्य माध्यम गैर जिम्मेदार तरीके से और तमाम खतरों को उभारते हुए नकारात्मक तरीके से प्रस्तुत कर रहे है।


कोट लाहौर वाला
जितेन ठाकुर
09410925219


वो एक शानदार कोट था। चमकदार रोएं वाले ट्वीड के कपड़े का बेहतरीन कोट। इस कोट को शानदार बनाने में इसकी कसाव भरी सिलाई का भी हाथ था। कोट कहाँ सिला गया- यही दर्शाने के लिए दर्जी ने कोट की अंदरूनी जेब पर एक "टैग" सिल दिया था। टैग इतनी सफाई से सिला गया था कि उसके सिले जाने पर ही द्राक होता था। पहली नजर में तो ये टैग चस्पां किया हुआ ही दिखलाई देता। इस टैग पर लाहौर के किसी बाजार की एक दुकान का पता दर्ज था। कोट जितनी सफाई और नफासत से सिला गया था, अस्तर का कपड़ा भी उतना ही मुलायम और चमकदार था। कोट की सारी जेबों को ढ़कते हुए तिरछे कटे हुए कान बेमिसाल कारीगिरी की जुबान थे। सिर्फ एक पतली जेब, जिसे यकीनन फांउटेन पैन रखने के लिए ही बनाया गया था, खुली हुई थी और उसे ढ़कने के लिए किसी भी कोण से जामा नहीं बिठाया गया था।
कोट पर टांके गए बटन भी चमड़े की कारीगिरी का एक बेहतरीन नमूना थे। बराबर लम्बाई में काटी गई चमड़े की चकोर कतरनों को एक दूसरे के ऊपर से निकाल कर कुछ ऐसा सिलसिला बनाया गया था कि उन्होंने गोल मुलायम बटन की द्राक्ल इख्तियार कर ली थी। जितनी चमक कोट के कपड़े और अस्तर में थी उतनी ही चमक चमड़े के इन बटनों में भी थी। कहा जा सकता है कि ये कोट हर तरह से कारीगिरी का एक बेहतरीन नमूना था।
बदनसीबी ये थी कि ये कोट यूरोप के किसी देश में नहीं सिला गया था। इसीलिए इस कोट पर न कोई गीत लिखा गया, न कोई अफसाना घड़ा गया। अलबत्ता, लाहौर, के पास एक छोटी सी पहाड़ी रियासत के लोग इस कोट को देख कर जरूर ललचाते थे। कफ और कालर पर चमकदार काली मखमल लगी रियासत के दूसरे अहोदेदारों की बेशकीमती अचकनों के बीच भी ये कोट अपनी अलग आब रखता। यूँ कहें कि ये कोट रियासत में एक मिसाल था, तो गलत नहीं होगा। पर इस पहाड़ी रियासत के अनपढ़-गरीब मेहनतकशों के पास दो जून की रोटी के सिवा जिंदगी के और किसी भी सपने के लिए गीत गाने की ललक नहीं थी। बस सिर्फ एक बार, जब इस रियासत का राजा लाहौर से कार लेकर आया था, तब गूजरों की भीड़ कार के पीछे-पीछे भागती हुई सम्वेत स्वर में गा रही थी- 'राजो आयो, लारी को बच्चों लायो"- और समूहगान का यह दिन, रियासत की स्मृतियों में, किसी धरोहर की तरह सहेज लिया गया था।
ठीक उसी दिन राजा की अगवानी के लिए जुटी बीसीयों अहोदेदारों, टहलकारों और रियासत के सैंकड़ों बाशिंदों की भीड़ में, कसी हुई बिरजिस पर यही कोट पहने हुए और कमर पर किरिच लटकाए हुए कुमेदान ने फख्र से अपने चारों ओर देखा था और तन गया था। लोगों ने देखा कि कार के पायदान पर पैर टिका कर उतरते हुए राजा के जिस्म पर भी ठीक ऐसा ही कोट कसा हुआ है। ---और तब अहोदेदारों की बीसियों चमकदार अचकनों की चमक अचानक फीकी पड़ गई थी।
दरअसल, यह कोट सिला ही रियासत के राजा के लिए गया था। पर उसी बीच एक ऐसा हादसा गुजरा कि द्राहर तौबा-तौबा कर उठा। ये हादसा हुआ था राजा के शिकारी काफिले के साथ। चीते को गोली लग चुकी थी और चीता झाड़ियों में बेदम पड़ा था। पता नहीं ये चूक चीते पर नजर रखने वालों से हुई थी या फिर चीता ही सिरे का फरेबी था। पर करीब घंटा भर से मुर्दा पड़े चीते को जैसे ही कुमेदान ने बंदूक से ठेला, दर्द भरी भयानक गुर्राहट के साथ चीते ने कुमेदान पर हमला कर दिया। कुमेदान की एक पूरी बांह चीते के मुँह में समा गई। हा-हा कार करती हुई भीड़ भाग निकली। दर्द से छट-पटाते कुमेदान ने एक-एक को नाम लेकर पुकारा, पर कोई लौट कर नहीं आया। अंत में, कुमेदान ने ही एक हाथ से बंदूक भरी, कांछ के नीचे दबाई, नली को गुर्राते और बांह चबाते हुए चीते की दोनों आंखों के बीच में टिकाया और ट्रिगर दबा दिया। धमाके की भयानक आवाज के साथ उछलकर एक तरफ चीता गिरा था और दूसरी तरफ कुमेदान।
करीब डेढ़ साल बाद जब ठीक होकर कुमेदान पहली बार दरबार में आया तो बहादुरी की इस मिसाल के लिए दूसरे बहुत से तोहफों के साथ राजा ने अपना ये कोट भी कुमेदान को दिया था।
अब रियासत में ऐसे दो कोट थे। एक राजा के पास और दूसरा कुमेदान के पास। कुमेदान जब ये कोट पहन कर घोडे पर निकलता तो राहगीर फुस-फुसा कर एक-दूसरे को बताते ''देखो! कोट, लाहौर वाला''। पर कुमेदान ये कोट पहन कर हर घोड़े की सवारी नहीं करता था। पाँच घ्ाोड़ों में से एक काला घोड़ा, जिसके माथे पर नेजे के फल जैसा सफैद बालों का टीका था, उसी की सवारी के दिन कुमेदान ये कोट पहनता। या यूँ कहें कि कुमेदान जिस दिन ये कोट पहनता उस दिन उसी खास घोड़े की सवारी करता। पर एक दिन साईस की गलती से वही काला घोड़ा लंगड़ा हो गया और घोड़े को गोली मार दी गई।
कुमेदान के लिए साईस की ये गलती नासूर बन गई। उसने घोडे की मौत को बरदाच्च्त करने की कोशिश की- पर नहीं कर पाया। साईस को कोड़े मारने की सजा सुनाई गई। कोड़ों की मार के शुरूआती दौर में साईस चीख-चीख कर अपनी बेगुनाही बयान करता रहा और रहम की भीख मांगता रहा। पर जब उसे यकीन हो गया कि उसकी आवाज का किसी पर कोई असर नहीं होगा तो उसने कुमेदान को कोसना और बद्दुआएँ देना शुरू कर दिया। गालियों के साथ कोड़े की मार बढ़ती गई और साईस की सांसें घटती गईं। अब इसे साईस की बद्दुओं का असर कहें या फिर कुदरत का खेल कि अगले साल ठीक उसी दिन कुमेदान भी चल बसा जिस दिन घोड़े को गोली मारी गई थी। कुमेदान की याद में सहेज कर रखी गई बहुत सी चीजों में खाल के लबादे का और लाहौर वाले कोट का अपना एक अलग मुकाम था।

फिर बंटवारें के दिन आए। इस पहाड़ी रियासत को चारों ओर से कबायली हमलावरों ने घेर लिया। बेताड़ नाले के उस पार से चलाई जा रही कबायलियों की गोलियों से घरों की दीवारें छलनी होने लगीं। द्राहर छोड़ने के सभी रास्ते कबायलियों के कब्जे में चले गए और ये रियासत, दुनिया से कटा हुआ एक टापू बनकर रह गई। तभी एक दिन ऐलान हुआ कि रसद लेकर आने वाले फौजी-जहाज में जो यहाँ से निकलना चाहते हैं- तैयार हो जाएँ। पर माली जहाज में इतनी जगह नहीं थी कि आदमियों के साथ असबाब भी जा सके। इसलिए छोटी-छोटी गठड़ियां उठाए हुए लोगों ने जब इस द्राहर को अलविदा कहा तो ऐसी ही एक गठरी में लिपटा हुआ 'कोट लाहौर वाला" भी अपनी उम्र के सुनहरे वर्क को फाड़ कर रियासत से विदा हो गया।

धीरे-धीरे रियासत से विदा हुए काफिलों की पीढ़ियाँ बीत गईं। बच्चे जवान हुए, जवान-बूढे और बूढ़े विदा हो गए। पर उस कोट का खोया हुआ सम्मान फिर नहीं लौटा। कभी रियासत की रौनक कहालने वाला यह कोट अब महज सर्दी से बचने की चीज बनकर रह गया था। रोज-रोज बदलती जिंदगी की जंग में अतीत की चिंदियों का वजूद और हो भी क्या सकता था। पर हद तो ये थी कि इस भरपूर उपेक्षा के बावजूद कोट के रेच्चों में पहले जैसी ही चमक बरकरार थी। चमडे के नर्म बटन पहले ही कि तरह नर्म और मुलायम थे और अंदरूनी जेब पर टांका गया लाहौर के बाजार का टैग पहले ही की तरह साफ-सुथरा और चस्पां किया हुआ दिखलाई देता था। न तो जेबें ही लटकी थीं और न ही अस्तर ने अपनी, आब खोई थी। हैरानी तो इस बात की थी कि उम्र की एक सदी जी लेने के बाद भी अभी इस कोट में जीने की ललक बरकरार थी। पर एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि कोट ही चोरी हो गया।
पंतग और मांझा खरीदने के लिए घर के ही किसी नादान की नादानी से हुई इस चोरी की एक अलग कहानी है, पर कुनबे के लिए चोरी का सदमा गहरा था। जब तक कोट था, गुजरे हुए कल का सुनहरा वर्क फड़-फड़ाता था, जिसके सहारे ये कुनबा बार-बार चीथड़ा होते रौच्चनी के दायरों को सहेजने में कामयाब हो जाता था। पर आज इन्हें लगा जैसे माथे पर नेजे के फल वाला, काला घोड़ा, फिर लंगड़ा हो गया है और अब उसे गोली मारने के सिवा और कोई चारा नहीं बचा है।


लम्बी गुमशुदगी के बाद, एक सुबह पुराने कपड़ो से भरी एक ठेली पर वो कोट दोबारा दिखलाई दिया। मैल और चिकनाहट ने उसके रेशों की चमक को दबाने की भरपूर कोशिश की थी, पर किसी जिद्दी बच्चे की किलकारी की तरह उस कोट में चमक का लिश्कारा अब भी बाकी था। यह बात और है कि फांउटेन पैन रखने के लिए शौक से बनाई गई कोट की जेब अब सलामत नहीं थी। दूसरी जेबों को ढ़कने और उनकी हिफाजत करने वाले तिरछे कटे हुए कान-अब चिकनाई वाले हाथ पौंछने से चीकट हो चुके थे। कोट की किसी भी जेब से तम्बाकू के साथ मसले हुए भांग के सूखे पत्तों का चूरा बरामद किया जा सकता था और अस्तर भी छिछरा चुका था। ताज्जुब नहीं अगर किसी ने इसे नया बर्तन खरीदने के एवज में अपने पुराने कपड़ों के साथ बेच दिया हो।
पर ये तय था कि सौदागन ने बेचने के लिए ठेली पर रखने से पहले इस कोट को किसी घटिया साबुन से धोया था और बेतरतीबी से प्रैस भी किया था। इसीलिए इसके रेच्चों में अब भी चिकनाई और सलवटों में झुर्रियाँ मौजूद थीं। पर हैरानी तो ये कि लाहौर के बाजार की दुकान वाला वो टैग अब कोट की अंदरूनी जेब पर चस्पां नहीं था। वहाँ लंदन की किसी दुकान का पता करीने से छपा और चिपका हुआ था।
--- क्योंकि अब इस मुल्क में लाहौर की चीजें न बेची जाती हैं - न खरीदी जाती हैं।

Friday, May 1, 2009

प्रतिशोध में डूबा हुआ

यादवेन्द्र जी के इस अनुवाद के साथ यह उल्लेखित करना जरूरी लग रहा है कि हमें जो सहयोग उनका मिल रहा है, वह शब्दों में व्यक्त किया नहीं जा सकता। उनके मार्फत ही हम ताहा मुहम्मद अली से पहली बार हिन्दी में परिचितहो पाएं हैं और हिन्दी में अनुदित ताहा की कवितांपहली बार लिखो यहां वहां पर प्रस्तुत करने का अवसर यादवेन्द्र जी ने अपने अनुवादों को मुहैय्या कराकर दिया है।
ताहा की कविताओं में जीवन का जो ठोसपन है उसकी ज्यामिति प्रेम के अथाह समंदर में उठती हिलौरे के बीचआकार ग्रहण करती है।

फिलिस्तिनी कविता
ताहा मुहम्मद अली


प्रतिशोध

कभी कभी --- मन में आता है
भिड़ जाऊं उससे---गुत्थमगुत्था करूं
जिसने मार डाला मेरे पिता को
जमींदोज कर दिया मेरा घर
और मुझे बेदखल कर दिया
एक तंग से देश में भटकने को।

मार डालेगा यदि मुझे वह
गुम-सुम दबा पड़ा रहूंगा धरती के नीचे
यदि मेरी हैसीयत हुई उठान पर
तो बदला लूंगा ही उससे।

कोई कहे मुझसे
कि मेरे प्रतिद्वंद्वी की
मां जिंदा है घर में
और देख रही है बेटे की राह
या उसके पिता
पंद्रह मिनट की देर होने पर भी
छटपटा उठते हैं उसकी सलामती के वास्ते
और करते हैं उसके सीने पर अपना दाहिना हाथ रखकर
लौटने पर उसका गर्मजोशी से स्वागत
तब मैं उसे हरगिज नहीं मारूंगा -
मार सकता हुआ
तब भी बिल्कुल नहीं।

ऐसे ही --- मैं
उसका कत्ल उस हाल में भी नहीं करूंगा
जब यह पता चल जाए मुझे
कि भाइयों बहनों को वह खूब करता है प्यार
और उनसे मिलने को रहता है आतुर
या प्रतीक्षारत बैठी है उसकी पत्नी
और बाल-बच्चे
पल-पल उसकी बाट जोहते
कि वह लौटेगा तो लाएगा हाथ में
उन सब के लिए कुछ न कुछ जरूर।

या फिर उसके दोस्त मित्र हों ढेर सारे
जानने वाले पडोसी हों
जेल या अस्पताल में साथ रहे हुए साथी हों
या स्कूल में साथ- साथ
पढ़ने वाले सहपाठी हों-
और सब रहते हों उत्सुक हरदम
जानने को उसकी कुशल क्षेम।

पर यदि नहीं हुआ यदि ऐसा कुछ भी
वह अलग ही तरह का आदमी निकला
जैसे काट दी गयी हो कोई टहनी विशाल वृक्ष से
मां या पिता के बगैर
भाई या बहन के बगैर
पत्नी और बच्चों के बगैर
दोस्तों और रि्श्तेदारों या साथियों के बगैर
तब भी मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा
कि उसके एकाकीपन के जख्म में
जुड़ जाए कोई आघात
मृत्यु की यातना और बढ़ जाए
बिछुड़ने की व्यथा और बढ़ जाए।

बल्कि मैं तसल्ली कर लूंगा
सामने से निकलते हुए भी उसकी ओर से मुँह फेर
सड़क पर चलते-चलते-
क्योंकि इसका अहसास बड़ी शिद्दत से है मुझे
कि उसको देख कर भी न देखना
किसी गहरे प्रतिशोध से।
कमतर नहीं होगा जरा भी


चाय और नींद
इस दुनिया का
यदि कोई मालिक है
और संचालित होता है जिसके हाथों
देना और वापस ले लेना
जिसकी मर्जी से बोए जाते हैं बीज
और जिसके चाहने से पकती हैं फसलें-
मैं उस मालिक के सामने
सजदे में नवाऊंगा अपना सिर
और करूंगा बिनती
कि मुकर्रर कर दे वह मेरी मृत्यु की घडी
पूरा होने पर मेरा जीवन
तब मैं बैठूं इत्मीनान से, और
चुस्की लूं कम मीठे की हल्की चाय की
अपने पसंद के गिलास में भरकर
गर्मियों के मौसम में
दोपहर बाद निरंतर लम्बी होती जाती छाया में।

यदि दोपहर के बाद की चाय न बन पड़े
तो मेरे मालिक
यह घड़ी देना
पौ फटने के बाद आती प्यारी नींद का।

मेरा मेहनताना ऐसा ही देना प्रभु-
यदि कह सकूं इसे मेहनताना मैं-
कि अपने पूरे जीवन में
मैंने एक चींटी को भी नहीं कुचला
न ही किसी अनाथ को दान करने में की कोई कोताही
तेल की नाप तौल में भी कभी गड़बड़ नहीं की
न ही किसी नकाब के भीतर
तांक झांक करने की कोशिश की
हर जुमे की शाम
बिलानागा
इबादत गाहों पर जलाता रहा दिए
दोस्त हों पड़सी हों
या मामूली जान पहचान वाले लोग हों
खेल-खेल में भी उन पर कभी हाथ नहीं उठाया
मैंने कभी किसी का अनाज
या आहार नहीं चुराया-
आपसे इस बावत यही बिनती करूंगा
कि महीने में कम से कम एक बार
या हर दूसरे महीने
दीदार कर लेने देना उसका
जिससे निगाहें मिलाने की इजाज़त छीन ली गई मुझसे
जवानी के शुरूआती दिनों से ही
बिछुड़ने को अभिशप्त हो गए हम दोनों।

दुनिया के तमाम सुख मिल जाएंगें मुझे मेरे प्रभु
गर कबूल कर लें आप मेरी दुआ छोटी- सी
भोर की नींद की
और
चाय की चुस्की की।


अनुवाद- यादवेन्द्र