Saturday, June 20, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर


अभी हरकीदून से होते हुए बाली पास की यात्रा से लौटे हैं। स्वर्गारोहिणी का चित्र उसी यात्रा के दौरान का है। पिछलेवर्ष लद्दाख के ऎसे ही इलाके जासंकर की यात्रा की थी। प्रस्तुत है जांसकर यात्रा का व्रतांत जो अभी शब्दयोग के यात्रा विशेषांक में प्रकाशित हुआ है यह पहली किश्त है।


जांसकर जा रहे हैं। जांसकर पहले भी जा चुके हैं - 1997 में और 2000 में। उस वक्त भी जांसकर एक बंद डिबिया की तरह ही लगा था। जिसमें प्रवेश करने के यूं तो कई रास्ते हो सकते हैं पर हर रास्ता किसी न किसी दर्रे से होकर ही गुजरता है। 1997 में दारचा से सिंगोला पास को पार करते हुए ही जांसकर में प्रवेश किया था। जांसकर घाटी के लोग मनाली जाने के लिए इसी रास्ते का प्रयोग करते हैं। वर्ष 2000 में लेह रोड़ पर ही आगे बढ़ते हुए बारालाचा को पार कर यूनून नदी के बांयें किनारे से होते हुए खम्बराब दरिया पर पहुंचे थे और खम्बराब को पार कर दक्षिण पश्चिम दिशा को चलते हुए फिरचेन ला की ओर बढ़ गये थे। फिरचेन ला को पार कर जांसकर घाटी के भीतर तांग्जे गांव में उतरे। फिरचेन ला के बेस से यदि दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बढ़ जाते तो सेरीचेन ला को पार कर जांसकर के कारगियाक गांव में पहुंच जाते। यह सारे रास्ते मनाली,-हिमाचल की ओर से रोहतांग दर्रे को पार कर जांसकर में पहुंचते हैं। लेह-कारगिल मोटर रोड़ पर स्थित बौद्ध मठ लामायेरू से भी पैदल जांसकर के भीतर घुसा जा सकता है। इस रास्ते पर अनेकों दर्रे हैं। जांसकर को एक छोर से दूसरे छोर तक नापने वाले ढेरों सैलानी हैं। जो दारचा से लामायेरू या लामायेरू से दारचा तक जांसकर घाटी की यात्रा करते हुए हर साल गुजरते हैं। लेकिन इनमें विदेशी सैलानियों की संख्या ही बहुतायत में होती है।

दारचा की ओर से जांसकर नाले और बर्सी नाले का मिलन स्थल जांसकर सुमदो हिमाचल की आखरी सीमा है। बर्सी नाले को पुल से पार करते ही जम्मू कश्मीर का इलाका शुरु हो जाता है। जांसकर इसी जम्मू कश्मीर के लद्दाख मण्डल का अंदरुनी इलाका है। यदि लद्दाख को एक बड़ा बंद-डिब्बा माने तो जांसकर उस ड़िब्बे के भीतर चुपके से रख दी गयी डिब्बिया। पदुम जांसकर की तहसील है। पदुम से हर दिशा में रास्ते फूटते हैं। चाहे पश्चिम दिशा में बढ़ते हुए दर्रो की श्रृंखला को पार कर लामयेरू निकल जाओ और चाहे पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए सिंगोला दर्रे को पार कर दारचा। पदुम से दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए फिर वैसे ही दर्रे को पार कर कश्मीर के किश्तवार में पहुंच जाओ। ये सभी पैदल रास्ते हो सकते हैं। पदुम जांसकर का हेड क्वार्टर है। जहां से बाहर निकलने के लिए दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर जो मोटर रोड़ है वह भी पेंजिला दर्रे को पार कर कारगिल पहुंचाती है।

22 जून 2008 को देहरादून-मनाली बस में बैठकर मनाली पहुंचे। मनाली से रोहतांग दर्रे को पार कर लाहौल के हेडक्वार्टर केलांग और केलांग से दारचा तक भी बस में ही सवार रहे। सिंगोला दर्रे को पार कर जांसकर में घुसने के लिए दारचा से ही उस रास्ते पर पैदल बढ लिए, जो पहले रारिक तक और इस बार छीका तक बस द्वारा भी तय किया जा सकता था।


सिंगोला दर्रे के पार जांसकर नाम की इस बंद डिबिया के भीतर पूरा धड़कता हुआ जीवन है। नदियों का शोर है। हलचल है। उल्लास है। जीवन के सुख और दुख का जो संसार है उस पर लद्दाख के रूखे पहाड़ो की हवा का असर है। चेहरे मोहरों पर पड़ी सलवटों में उसी रूखी हवा की सरसराहट और बर्फीले विस्तार की चमक बिखेरती नाक और गाल के हिस्से पर कुछ उभर गईं सी पहाड़ियां हैं। आंखें गहरे गर्त बनाकर बहती नदियों के बहुत ऊंचाई से दिखाई देते छोटे छोटे स्याह अंधेरें हैं। इस दुनिया के भीतर झांकने के लिए बर्फीली ऊंचाइयों पर स्थित दर्रों को पांव के जोर से ही खोलना होता है।
स्मृतियों, सपनों और रूखे पहाड़ों से टकराकर आने वाली हवाओं ने जांसकर की दुनिया के चित्र पर बौद्ध मठों, अष्टमंगल चिन्हों के साथ-साथ "ऊं मणि पदमे हूं" की गहरी छाप छोड़ी हुई है। नदियों के किनारे-किनारे उतरती ढालों पर लम्बाई में स्थित गांवों के दोनों छोरों पर छोड़तन और मोने के रूप में की गयी निर्मितियां पहाड़ों के सूनेपन में जीवन के राग रंग की पहचान करा देती है। मंगल कामनाओं के ये चिन्ह धूसर रंग के पहाड़ों के बीच उल्लास की चमक बिखेरते हैं।

जांसकर जाना चाहता हूं। उसकी आबो हवा को पहचानना चाहता हूं। पर सोचता हूं- यूं ही गुजरते हुए कितना तो जान पाऊंगा? वो भी किसी एक जगह पर रात्री भर विश्राम ही। साल के बारह महीनों को मात्र बारह-पन्द्रह दिनों में महसूस नहीं किया जा सकता, यह जानता हूं। जो कुछ भी कहूंगा, सुना सुनाया होगा, बस। निश्चित ही वह भी हमारी यात्रा के खास समय विशेष का ही सच हो सकता है। वह भी उतना ही, जितना देख सकने की सामर्थय है। घटता हुआ भी पूरी तरह से न देख पाना तो मेरी ही नहीं, ज्यादातर की सीमा होता है। अपने ही में जकड़े कहां तो देख पाते हैं कि जमाने की तकलीफें किस किस तरह से रूप धर कर दुनिया को जकड़ती जा रही है। पढ़ लिख कर ही जीवन को पूरी तरह से समझा नहीं जा सकता। पुरानी कहावत है, बिना अपने मरे स्वर्ग नहीं। स्वर्ग और नरक नाम की कोई जगह इस ब्रहमाण्ड में हैं, इस पर यकीन नहीं। जो कुछ जीवन है, सिर्फ वही अन्तिम सत्य है - यही मानता हूं। जांसकर के जीवन की हलचल तो सिर्फ आंखों देखी ही होनी है। और उसका बयान करूं तो कह सकता हूं कि मैदानी इलाकों में इस वक्त भीषण गर्मी पड़ रही है। बारिश भी है तेज। जांसकर में तो हाथों को चाकू की धार से काट देने वाला ठंडा पानी है। चोटियों से पिघलता हिम है। तो फिर सर्दियों की जम-जम बर्फ में जीवन का संगीत कैसे गूंजता होगा, क्या उसे जान पाऊंगा ?



-जारी



3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

प्रतिक्षा रहेगी।

अजेय said...

kyon nahi , dekhiye kaise bante hain geet yahan


पूछो सूरज से क्या वह आएगा?

ठिठुरते मौसम की धार
छील छील ले जाती है त्वचाएं
बींधती हुई पेशियाँ
गड़ जाती हिड्डयों मे
छू लेती मज्जा को
स्नायुओं से गुज़रती हई
झनझना दे रही तुम्हें आत्मा तक...................

सूरज से पूछो, कहाँ छिपा बैठा है?

बर्फ हो रही संवेदनाएँ
अकड़ रहे शब्द
कँपकपाते भाव
नदियाँ चुप और पहाड़ हैं स्थिर!
कूदो
अँधेरे कुहासों में
खींच लाओ बाहर
गरमाहट का वह लाल-लाल गोला

पूछो उससे, क्यों छोड़ दिया चमकना?

जम रही हैं सारी ऋचाएँ
जो उसके सम्मान में रची गई
तुम्हारी छाती में
कि टपकेंगी आँखों से
जब पिघलेगी
जब हालात बनेंगे पिघलने के

कहो उससे, तेरी छाती में उतर आए!

छाती में उतर आए
कि लिख सको एक दहकती हुई चीख
कि चटकने लगे सन्नाटों के बर्फ
टूट जाए कड़ाके की नींद
जाग जाए लिहाफों में सिकुड़ते सपने
और मौसम ठिठुरना छोड़
तुम्हारे आस पास बहने लगे
कल-कल
गुनगुना पानी बनकर

पूछो उससे क्या वह आएगा?

ajey1985

अजेय said...

kyon nahi , dekhiye kaise bante hain geet yahan


पूछो सूरज से क्या वह आएगा?

ठिठुरते मौसम की धार
छील छील ले जाती है त्वचाएं
बींधती हुई पेशियाँ
गड़ जाती हिड्डयों मे
छू लेती मज्जा को
स्नायुओं से गुज़रती हई
झनझना दे रही तुम्हें आत्मा तक...................

सूरज से पूछो, कहाँ छिपा बैठा है?

बर्फ हो रही संवेदनाएँ
अकड़ रहे शब्द
कँपकपाते भाव
नदियाँ चुप और पहाड़ हैं स्थिर!
कूदो
अँधेरे कुहासों में
खींच लाओ बाहर
गरमाहट का वह लाल-लाल गोला

पूछो उससे, क्यों छोड़ दिया चमकना?

जम रही हैं सारी ऋचाएँ
जो उसके सम्मान में रची गई
तुम्हारी छाती में
कि टपकेंगी आँखों से
जब पिघलेगी
जब हालात बनेंगे पिघलने के

कहो उससे, तेरी छाती में उतर आए!

छाती में उतर आए
कि लिख सको एक दहकती हुई चीख
कि चटकने लगे सन्नाटों के बर्फ
टूट जाए कड़ाके की नींद
जाग जाए लिहाफों में सिकुड़ते सपने
और मौसम ठिठुरना छोड़
तुम्हारे आस पास बहने लगे
कल-कल
गुनगुना पानी बनकर

पूछो उससे क्या वह आएगा?

ajey1985