Friday, August 14, 2009

खबर घटना का एकांगी पाठ है



जिसने ख़ून होते देखा / अरुण कमल

नहीं, मैंने कुछ नहीं देखा
मैं अन्दर थी। बेसन घोल रही थी
नहीं मैंने किसी को...

समीर को बुला देंगी
समीर, मैंने पुकारा
और वह दौड़ता हुआ आया जैसे बीच मेंखेल छोड़
कुछ हाँफता
नहीं, नहीं, मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है

वह बहुत छोटा था अभी
एकदम शहतूत जब सोता
बहुत कोमल शिरीष के फूल-सा
अभी भी उसके मुँह से दूध की गन्ध आतीथी
ओह, मैंने क्यों पुकारा
क्यों मेरे ही मार्फ़त यह मौत, मैं ही क्योंकसाई का ठीहा, नहीं, नहीं, मैं कुछ नहींजानती, मैंने कुछ नहिं देखा
मैंने किसी को...

वे दो थे। एक तो वही... उन्होंने मुझेबहन जी कहा या आंटी
रोशनी भी थी और बहुत अंधेरा भी, बहुतफतिंगे थे बल्ब पर
मैं पीछे मुड़ रही थी
कि अचानक
समीर, मैं दौड़ी, समीर
दूध और ख़ून
ख़ून
नहीं नहीं नहीं कुछ नहीं

मैं सब जानती हूँ
मैं उन सब को जानती हूँ
जो धांगते गए हैं ख़ून
मैं एक-एक जूते का तल्ला पहचानती हूँ
धीरे-धीरे वो बन्दूक घूम रही है मेरी तरफ़

चारों तरफ़


खबर और रचना में क्या फर्क है ? किसी एक घटना को कब खबर और कब रचना कहा जा सकता है ? खबर होती है कि एक जीप उलटने पर हताहतों को अपेक्षित इमदाद न मिलने की वजह से जान से हाथ धोना पड़ा। खबर यह भी होती है कि गुजरात नरसंहार में अपने भाई और पिता की चश्मदीद गवाह ने आरोपियों को पहचानने से इंकार कर दिया। या ऐसी ही दूसरी घटनाएं जो अपराध को दुर्घटना और दुर्घटना को अपराध में बदल रही होती है। सवाल है कि वह क्या है जिसके कारण कोई एक खबर, तथ्यात्मक प्रमाणों के बावजूद भी, उस सत्य को कह पाने में चूक जा रही होती है ? या सत्य होने के बावजूद भी खबर घटना का विवरण भर हो कर रह जा रही होती है।
खबर घटना का एकांगी पाठ होता है। सत्य का ऐसा टुकड़ा जो तात्कालिक होता है। जिसमें यथार्थ सिर्फ घटना की भौगोलिक पृष्ठभूमि के रूप में ही दिख रहा होता है और जिस सत्य का उदघाटन हो रहा होता वह सिर्फ और सिर्फ सूचना होती है। इतिहास और भविष्य से ही नहीं अपने वर्तमान से भी उसकी तटस्थता तमाम दृश्य-श्रृव्य प्रमाणों के बाद भी समाजिक संदर्भों की प्रस्तुति से परहेज के साथ होती है या उससे बच निकलने की एक चालाक कोशिश के रूप में बहुधा व्यवस्था की पोषकता ही उसका उद्देश्य हो रही होती है। रचना का यथार्थ इसीलिए खबर के यथार्थ से भिन्न होता है।


स्पष्ट है कि सत्य कोई देखे और सुने को रख देने से ही प्रकट नहीं हो सकता। सत्य के प्रति पक्षधरता ही सत्य का बयान हो सकती है। खबर प्राफेशन (व्यवसाय) का हिस्सा है। प्रोफेशन का मतलब प्रोफेशन। एक किस्म की तटस्तथता। तटस्थता वाकई हो तो वह भी कोई बुरी बात नहीं। क्योंकि वहां प्रोफेशनलिज्म वाली तटस्थता तथ्यों के साथ छेड़-छाड़ नहीं करेगी। घटना या दुर्घटना के विवरण दुर्घटना को दुर्घटना और अपराध को अपराध रहने दे सकते हैं। पर शब्दों में तटस्थता और प्रकटीकरण में एक पक्षधरता की कलाबाजी खबरों का जो संसार रच रही है वह किसी से छुपा नहीं है। एक रचना का सच ऐसे ही गैरजनतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के प्रतिरोध का सच होता है। उसकी तीव्रता रचनाकार के समुचित सरोकारों से बन रही होती है। वे सरोकार जो कानून के जामे में जकड़ी और भाषाई चालाकी के बावजूद जनतांत्रिक न रह जा रही शासन-प्रशासन की उस व्यवस्था को अलोकतांत्रिक होने से बचाने के लिए बेचैन होते हैं। घटनाओं की तथ्यात्मकता, उसके होने और उस होने से नाइतफाकी रखती स्थितियों की झलक न सिर्फ एक रचना को खबर से अलग कर रही होती है बल्कि प्रतिरोध की संभावना को भी आधार देती है। कवि अरुण कमल की कविता "जिसने खून होते देखा" एक ऐसी ही रचना है जो किसी घटित हत्या के विरोध की सूचना भी है और काव्य तत्वों की संरचना में ऐसी किसी भी स्थिति के प्रतिरोध की संभावनाओं का सच भी है।
खबर घटना का एकांगी पाठ होता है। सत्य का ऐसा टुकड़ा जो तात्कालिक होता है। जिसमें यथार्थ सिर्फ घटना की भौगोलिक पृष्ठभूमि के रूप में ही दिख रहा होता है और जिस सत्य का उदघाटन हो रहा होता वह सिर्फ और सिर्फ सूचना होती है। इतिहास और भविष्य से ही नहीं अपने वर्तमान से भी उसकी तटस्थता तमाम दृश्य-श्रृव्य प्रमाणों के बाद भी समाजिक संदर्भों की प्रस्तुति से परहेज के साथ होती है या उससे बच निकलने की एक चालाक कोशिश के रूप में बहुधा व्यवस्था की पोषकता ही उसका उद्देश्य हो रही होती है। रचना का यथार्थ इसीलिए खबर के यथार्थ से भिन्न होता है। अपने काल से मुठभेड़ और इतिहास से सबक एवं भविष्य की उज्जवल कामनाओं के लिए बेचैनी उसका ऐसा सच होता है कि लााख पुरातनपंथी मान्यताओं के पक्षधर और व्यवस्था के अमानवीयता के पर्दाफाश करने की प्रक्रिया से बचकर चलने के पक्षधर भी रचनाओं में वही नहीं दिख रहे होते और न ही लिख पा रहे होते हैं। उनकी रचनाओं का पाठ भी एक प्रगतिशील चेतना के मूल्य का, बेशक सीमित ही, सर्जन कर रहा होता है। नाजीवाद के समर्थक कामिलो खोसे सेला की कृति "पास्कलदुआरते का परिवार" हो चाहे धार्मिक मान्यताओं के पक्षधर बाल्जाक की रचनाएं- एक बड़े और व्यापक स्तर पर वे अपने समय का आइना हो जाती है।
अन्य अर्थों में रचना को यदि खबरों पर लिखी टिकाएं कहें तो एक हद तक उन्हें ज्यादा करीब से परिभाषित किया जा सकता है। वरिष्ठ कवि अरुण कमल की कविता "जिसने खून होते देखा" एक मासूम की निर्मम हत्या के ऐसे सच का बयान है जिसमें अपराधी को पहचान लिए जाने लेकिन उसके प्रकटिकरण पर खुद को एक वैसे ही खतरे में घिरा देखने की वे मनोवैज्ञानिक स्थितियां है कि उसकी पृष्ठभूमि में जो यथार्थ उभरता है वह वैसे ही दूसरी अनेकों खबरों को भी परिभाषित करने लगता है। ऐसी बहुत सी खबरों की ढेरों खबरे होती है जो लोक में व्याप्त होती है पर जो एक बड़े दायरे की खबर से वंचित होती है उसमें देख सकते हैं कल का अपराधी आज का सफेदपोश नजर आता है। उसके अपराधों की फेहरिस्त बेशक जितनी लम्बी हो चाहे पर किसी भी सम्मानीय जगह पर कोई सबमें सम्मानीय हो तो तमाम कोशिशों से जड़ी गई कोमल मुस्कान में उसका ही चेहरा दमकता है। कविता बेशक अपराध जगत के इस आयाम को नहीं छूती पर उसकी परास इतनी है कि अपराध जगत के ऐसे ढेरों कोने जो पूंजीवादी समाज व्यवस्था का जरूरी हिस्सा होते जा रहे हैं कविता को पढ़ लेने के बाद पाठक को बेचैन करने लगते हैं। प्रतिरोध की वे स्थितियां जो लाख चाहने के बाद भी यदि सीधे तौर पर दिखाई नहीं दे रही होती हैं तो क्यों ? कविता जिसने खून होते देखा उन कारणों की ओर ही इशारा करती है। तमाम खतरों के बावजूद प्रतिरोध की संभावनाओं को कविता में जिस खूबसूरती से रखा गया है वह काबिलेगौर है-

मैं सब जानती हूं
मैं उन सब को जानती हूं
जो धांगते गए हैं खून
मैं एक-एक जूते का तल्ला पहचानती हूं
धीरे-धीरे वो बन्दूक घूम रही है मेरी तरफ;

चारों तरफ।


कविता की ये अन्तिम पंक्तियां जिन खतरों की इशारा करती है, जान के जिस जोखिम को ताक पर रखते हुए भी हत्यारों की निशानदेही को जिस तरह रखने का साहस करती है, वह उल्लेखनीय है। डरते-डरते हुए भी सब कुछ कह जाने की वे स्थितियां जिस मनोविज्ञान को रख रही होती हैं और जिस समाज व्यवस्था का पर्दाफाश करती है उसमें कहन की युक्ति को देखना तो दिलचस्प है ही बल्कि उससे भी इतर समाज के भीतर दबी-छुपी, लेकिन फूट पड़ने का आतुर, प्रतिरोध की संभावनाएं उम्मीद जगाती है।

समीर को बुला देंगी
समीर, मैंने पुकारा
और वह दौड़ता हुआ आया जैसे बीच खेल छोड़ ;
कुछ हांफता
नहीं, नहीं मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है

जिस स्पष्टता और जिस बेबाकी और जिस निडरता की जरूरत ऐसे स्थितियों के प्रतिरोध के लिए जरूरी होनी चाहिए यानी उसको जिस तरह से मुक्कमल स्वर दिया सकता है, अरुण कमल की यह कविता उसे अच्छे से साधती है। कविता की अन्य पंक्तियों में भी उसे देखा जा सकता है-

वह बहुत छोटा था अभी
एकदम शहतूत जब सोता
बहुत कोमल शिरीष के फूल-सा
अभी भी उसके मुंह से दूध की गंध आती थी
ओह, मैंने क्यों पुकारा
क्यों मेरे ही मार्फत यह मौत,
मैं ही क्यों कसाई का ठीहा,
नहीं, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती,
मैंने कुछ नहीं देखा
मैंने किसी को---


अपराध के शिकार मासूम के प्रति एक स्त्री की संवेदनाएं तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी बार बार उसके एकालाप में उन खतरों को उठाती है जो अपराधी को चिहि्नत कर लेने को बेचैन है।

।।।।

नहीं, नहीं मैं चुप रहूंगी, ।।।।।
मैं कुछ नहीं जानती
मैंने कुछ नहीं देखा
।।।
नहीं, नहीं, मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है
।।।।


अपने अन्तर्विरोधों से उबरने की कोशिश कोई नाट्कीय प्रभाव नहीं बल्कि एक ईमानदार प्रयास है जो पाठक को लगातार उस मनौवैज्ञानिक स्थिति तक पहुंचाता है जहां खतरों और आशंकाओं की उपस्थिति भी उसे डिगा नहीं पाती। भय और अपराध के वे सारे दृश्य जो आए दिन की खबरों को जानते समझते हुए किसी भी पाठक के अनुभव का हिस्सा होते हैं, उनके प्रतिकार की प्रस्तुति को देखना कविता को महत्वपूर्ण बना दे रहे हैं।






विजय गौड़


12 comments:

Priyankar said...

’खबर घटना का एकांगी पाठ है’

पूरी सहमति है .खबर को रचना बनाने की एल्केमी लेखक/रचनाकार के पास होती है पत्रकार के पास नहीं . पत्रकार के पास उतना समय ही कहां होता है. वह तो तात्कालिकता के दायरे में घटनाएं प्रतिवेदित करता है जिसमें अभ्यंतरीकरण की गुंजाइश कम होती है . जबकि रचना को अवकाश चाहिए होता है . तभी अपनी तमाम अर्थछवियों के साथ घटना का बहुलतावादी पाठ रचना में उतरता है . अरुण कमल की कविता इसे सत्यापित करती है .

मुनीश ( munish ) said...

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
...but i think this news about Chinese fantasy of breaking India is true and it needs to be condemned !

अनूप शुक्ल said...

अच्छा विवेचन! अनुरोध है कि ब्लागजगत की रचनायें लेकर भी उन पर लिखें!

Arvind Mishra said...

विस्तृत मंथन -बहुत आनंद आया ! कहीं खबर और रचना में जो फर्क है वही रपट और रिपोर्ताज में तो नहीं ?

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

आप की बात एकदम सही है....विचारोत्तेजक और सोचने को मजबूर करता बहुत अच्छा लेख....आप ने अरुण कमल जी की इस रचना की विस्तृत विवेचना की है।इस रचना और विवेचना दोनों के लिये आप को बहुत बहुत बधाई....

Vineeta Yashsavi said...

ye aalekh kafi kuchh sochne ko majbur to karta hi hai...

संदीप said...

विजय भाई,
...जो धांगते गए हैं ख़ून

इसमें धांगते हैं का अर्थ नहीं समझ आया...

विजय गौड़ said...

संदीप भाई यहां धांगने की आव्रति बेधडक (बेखौफ़) की जाने वाली ह्त्याओं से हैं। शब्द किस भाषा का है और सही सही अर्थ क्या है यह शब्दकोश देखकर ही बताउंगा। हो सकता है एक नया शब्द भी इस तरह जन्म ले रहा हो। बहुधा अभिव्यक्ति के लिए माकूल शब्द की अनुपस्थिति में भी नए शब्द जन्म लेते ही हैं। शब्द अपने अर्थ तो प्रयोग के बाद ही ग्रहण कर पाते हैं न!रचना में तो किसी भी शब्द को नितांत उसके शाब्दिक अर्थों में देखने की बजाय उसके अर्थ विस्तार तक पहुंचने के लिए उस आव्रति में ही झांकने से ही पहुंचा जा सकता है।

संदीप said...

बिल्‍कुल शब्‍द प्रयोग में ही अर्थ ग्रहण करते हैं, कविता संप्रेषित हो गई है,लेकिन इस शब्‍द का अर्थ जानने की भी इच्‍छा हुई...

विजय गौड़ said...

मैंने अभी अरविन्द जी का थिसारस देखा, वहां शब्द तो है "धांग" पर उसका कोई अर्थ नहीं दिया है। उस हिसाब से यह शब्द प्रचलन में तो है पर हो सकता है कोई आंचलिक शब्द हो।
आपकी उत्सुकता अब मेरी भी उत्सुकता है। आभार मुझे उस तक दौडाने के लिए।

अनुनाद सिंह said...

बहुत खूब! शीर्षक देखकर ही मन खुश हो गया। समय मिलने पपढ़ेंगे भी।

अजेय said...

ऐसी कितनी ही नदियां हम चूक जाते हैं हर रोज़.

यह कविता इस व्याख्या के बिना बह्त अधूरी लग रही थी. अनुप शुक्ल ने सही कहा. नेट वाली कविताओं को भी इस तरह से सम्झाएं. अरुण कमल जी की कविताए तो नाम्वर जी हर कही समझाते फिर्ते हैं.