Wednesday, September 23, 2009

हिमालय की यात्रायें



रामनाथ पसरीचा (1926-2002) पांच से अधिक दशकों तक हिमालय की यात्रायें करते रहे। अपने पिट्ठू पर कागज, रंग और ब्रश लिये उन्होंने 65 शिखरों के चित्र 10,000 फुट से 20,500 फुट की उंचाई पर बैठ कर बनाये हैं।

पसरीचा जी ने कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया। ललित कला अकादमी द्वारा उन्हें श्रेष्ठ कलाकार का सम्मान दिया गया। भारत सरकार के सांस्कृतिक विभाग ने उन्हें सीनियर फैलोशिप प्रदान की। आज भी उनके बनाये चित्र देश-विदेश के संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं।


रामनाथ पसरीचा ने जितने सुंदर चित्र बनाये उतने ही सीधे और सरल भाषा में अपनी यात्राओं को लिखा भी है। यहां उनकी मसूरी में की गई यात्रा का यात्रा वृतांत दिया जा रहा है। यह यात्रा वृतांत उनकी पुस्तक हिमालय की यात्रायें से लिया गया है।

मसूरी

1947 की बात है। मुझे चित्रकला को अपनाये तीन साल हुए थे। अपने चित्रों के लिये नई प्ररेणा लेने मैं मसूरी गया। हम देहरादून से बस में सवार हुए। बस छोटी और टूटी-फूटी थी, लगता था जैसे पहाड़ी चढ़ाई पर उसका दम फूल रहा हो। अभी हम 6 मील भी नहीं गये होंगे कि हमें बादलों और धुंध ने आ घेरा। ऐसा लगा जैसे बस किसी शून्यता में चढ़ाई चढ़ती जा रही है।



रास्ता केवल 25 मील था मगर उसे पार करने में तीन घंटे लग गये। उस जमाने में मसूरी का बस अड्डा शहर से काफी नीचे की ओर था। बस अड्डे पर बोझा उठाने वाले बीसियों नेपाली ठंड में यात्रियों की प्रतीक्षा में बैठे रहते। वहीं मैंने एक बोझी से सामान उठवाया और लंढौर बाजार के एक छोटे से होटल में कमरा किराये पर ले लिया। खाना खाने के लिये होटल के आसपास कई पंजाबी ढाबे थे जिनमें अच्छा खाना मिल जाता था।


मसूरी के माल पर तब भी भीड़ होती मगर इतनी नहीं जितनी अब होती है। तब भी माल पर नौजवान युवक-युवतियों के जमघट लगे रहते और मौज-मस्ती रहती। मगर प्रकृति के शौकीनों के लिये मसूरी के चारों ओर पगडंडियों जाती, जिन पर घूमने में बहुत आनंद आता। मुझे टिहरी जाने वाली पगडंडी बहुत अच्छी लगी। मैं उस पगडंडी पर हर रोज प्रात:काल निकल जाता और खूब घूमता। पौंधों, जंगलों और पहाड़ों के चित्र बनाता। बारिश में धुलकर पेड़-पौंधों पर निखार आ जाता था। धूप से उनके रंग चटख हो जाते और गीली मिट्टी की सुगंध तथा पक्षियों की चहचहाहट से तबीयत खुश हो जाती। खच्चरों के गलों में बंधी हुई घंटियों की दूर से आती आवाज कानों को मीठी लगती है। धीरे-धीरे वह आवाज पास आ जाती और खच्चरों का काफिला पास से गुजर जाता। लाल टिब्बा अथवा गनहिल की चढ़ाई कठिन है। उस पर चढ़ने से शरीर की अच्छी खासी वर्जिश हो जाती। यहां से बंदरपूंछ, केदारनाथ, श्रीकंठ, चौखंबा और नंदादेवी शिखरों के दर्शन होते तो चढ़ाई चढ़ना सार्थक हो जाता। उन शिखरों पर सूर्योदय की लालिमा ने मुझे मोहित किया, अपनी ओर आकषिZत किया और उनके चित्र बनाने की प्रेरणा दी।


मसूरी में मौसी फौल के नाम से एक प्रसिद्ध झरना है। वहां जाने का रास्ता किसी की निजी जमीन से होकर जाता था। जमीन का मालिक अपना पुरान हैट पहने अपने मकान की खिड़की में बैठा रहता और एक अठन्नी लिये बिना किसी को वहां से निकलने न देता। झरने के आसपास शांति थी, मैं कई बार वहां, लेकिन हर बार जोंके शरीर पर चिपट जाती और जी भरकर खून चूसती। रात को किसी बैंच पर बैठकर शहर की बत्तियों को आसमान में खिले सितारों में घुलते-मिलते देखना अच्छा लगता। मैं यह दृश्य उस समय तक देखता रहता जब तक ठंड बढ़ नहीं जाती।


देहरादून से मसूरी जाने वाली पुरानी सड़क राजपुर से होकर निकलती। राजपुर से मसूरी तक एक पगडंडी भी जाती है। लगभग चार घंटे का पैदल रास्ता है। राजपुर से थोड़ा ऊपर जाने पर दून घाटी दिखाई देती है। दूर क्षितिज में गंगा और यमुना नदियों के भी दर्शन हो जाते हैं। आधे रास्ते में कुछ पुराने में कुछ पुराने समय से चली आ रही चाय की दुकानें हैं। पहाड़ी लोग वहां सुस्ताने बैठ जाते हैं और चाय पीते हैं। यहां रुककर चाय पीने में बड़ा मजा आता है। यहां से आगे पहले फार्म हाउस, फिर सड़क के दोनों ओर ऊँची-ऊँची इमारतें और फिर मसूरी दिखाई देने लगती है।


अब तो मसूरी एक बड़ा शहर हो गया है। जहां होटलों की भरमार है, जहां शनिवार और रविवार को मौज मस्ती के लिये लोगों की भीड़ देहरादून और दिल्ली से पहुंच जाती है। गनहिल पर भी चाट पकौड़ी वालों ने दुकानें बना ली हैं। अब वहां लोगों की भीड़ `केबल कार´ में बैठकर पहुंचती है। लोग चाट पकौड़ी खाते हैं, तरह-तरह के ड्रेस पहनकर फोटो खिंचवाते हैं और मस्ती करते हैं। इन दुकानों में हिमालय के वास्तविक सौंदर्य को ढक लिया है। पर्यटक नजर उठाकर उन्हें देखने का प्रयास भी नहीं करते। लेकिन `कैमल बैक वयू´ वाले रास्ते पर अभी भी शांति है। वहां ईसाइयों का पुराना कब्रिस्तान है और रास्ता बलूत और देवदार के पुराने जंगलों में से होकर निकलता है। लंढौर बाजार भी ज्यादा नहीं बदला है। उस बाजार के साथ पुराने लोगों की कुछ यादें अभी भी जुड़ी हैं।


लेखक द्वारा बनाया गया मसूरी का एक स्कैच

4 comments:

अजेय said...

लाजवाब. और स्केच दें.

निर्मला कपिला said...

पसरीचा जी से परिचय करवाने और उनकी रचना को पढवाने के लिये धन्यवाद उनकी कर्म निष्ठा को सलाम स्केच बहुत बडिया है धन्यवाद

P.N. Subramanian said...

पसरीचा जी से परिचित कराने के लिए आभार. ६० वर्ष पूर्व के स्थितियों के बारे में जानने का रोमांच ही कुछ और है. पुनः आभार

lina niaj said...

पसरीचा जी के बारे में सुना बहुत था लेकिन उनका लिखा कुछ पढ़ा नहीं था। इसलिए इस छोटे से लेख के लिए आभार। क्या ही अच्छा होता, यदि आप उनके रेखांकनों के साथ उनकी तस्वीर भी लगाते। उनके कुछ और रेखांकन प्रस्तुत करें।