Thursday, October 29, 2009

नेपाली क्रांति की अवश्यमभाविता


पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) डॉ. शोभाराम शर्मा का एक महत्वपूर्ण काम है। उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल के पतगांव में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा। शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं।
पिछलों दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इससे पूर्व 'क्रांतिदूत चे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) का हिन्दी अनुवाद, लेखन के प्रति डा.शोभाराम शर्मा की प्रतिबद्धता को व्यापक हिन्दी समाज के बीच रखने में उल्लेखनीय रहा है। इसके साथ-साथ डॉ. शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिनमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामंतवाद के विरोध् की परंपरा पर लिखी उनकी कहानियां पाठकों में लोकप्रिय हैं।
वनरावतों पर लिखा उनका उपन्यास "काली वार-काली पार" जो प्रकाशनाधीन है, नेपाल के बदले हुए हालात और सामंतवाद के विरूद्ध संघर्ष की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। प्रस्तुत है नेपाल के सीमांत में रहने वाली राजी जन जाति पर लिखे गए उनके इसी उपन्यास 'काली वार-काली पार" का एक छोटा सा अंश :


उपन्यास अंश

काली वार-काली पार

डॉ.शोभाराम शर्मा


उस साल चौमास (चातुर्मास) कुछ पहले ही बीत गया। आषाढ़-सावन में तो बारिश कुछ ठीक हुई, लेकिन भादो लगते ही न जाने क्यों रूठ गई। बादल आते, कुछ देर आंख-मिचौली खेलते और पिफर अंगूठा दिखाकर न जाने कहां गायब हो जाते। परिणाम यह हुआ कि हरी-भरी पफसल मुरझाने लगी। लगता था कि जैसे पफसल को पीलिया हो गया हो, धान, झंगोरा (सवां), मंडुवा में बालियां तो आ गई थीं, लेकिन ऐन मौके पर वर्षा बन्द हो गई। पुष्ट दानों का तो अब सवाल ही नहीं रहा। अदसार (अर्द्धसार) फसल हाथ लग जाए, बस वही बहुत था। नदी-घाटियों में जहां सिंचाई सुलभ थी, वहां तो अधिक नुकसान की सम्भावना कम ही थी। फ़िर भी आसमानी वर्षा की तो बात ही कुछ और है। उसके अभाव में वहां भी भरपूर फसल की आशा नहीं रही। ऊपर बसे गांवों का तो बहुत बुरा हाल था। मक्के में ठीक से दाने कहां से पड़ते जबकि पानी के अभाव में पौधे ही पीले पड़ने लगे थे। हर नई फसल के हाथ आने से पहले वैसे भी प्राय: हाथ तंग होता ही है। लेकिन जब अगली फसल के मारे जाने का दृश्य आंखों के सामने हो तो लोग कहां और किस ओर देखें। वनवासी राजियों की तो जैसे कमर ही टूट गई थी। रोपाई, गुड़ाई और निराई के काम से जो थोड़ा बहुत अनाज मिला था वह भी समाप्ति पर था। जंगलों के बीच खील काटकर फसल बोई तो थी, लेकिन बालियां आने से पहले ही सूखने लगी थीं। गींठी (बाराही कन्द), तरुड़ आदि के कन्द अभी तैयार नहीं हुए थे। लाचारी में खोदकर लाते भी तो बेस्वाद खाए नहीं जाते थे।
चिफलतरा के गमेर को अपनी और अपने लोगों की चिन्ता खाए जा रही थी। मुखिया था लेकिन कोई राह नहीं सूझ पा रही थी। अपनी छानी के आगे सांदण के एक कुन्दे को बसूले से छील रहा था कि सामने फत्ते के खेत पर नजर पड़ी। फत्ते के गाय-बछड़े अनाज के पौधों को चट करने में लगे थे। गमेर ने फत्ते को आवाज दी -
फत्ते! अरे वा फत्ते!! गाय खुल गई है रे! बाहर तो आ।
फत्ते छानी से बाहर निकला और गाय-बछड़े हांकने के बजाय झंगोरे के दो-तीन अधमरे पौधे उखाड़कर गमेर के पास आकर बोला-
दाज्यू, गाय खुली नहीं, मैंने ही चरने छोड़ दी है। देखो, फसल तो पूरी चौपट हो चुकी है। सोचा, गाय-बछड़े ही अपना पेट भर लें
गमेर ने पौधे छूकर कहा-
ठीक कहते हो भाऊ, फसल तो सचमुच बर्बाद है, डंगरों के मतलब की ही रह गई है। सोचता हूं यहां से बाहर निकल जाते, लेकिन अभी तो कम-से-कम एक महीना बाकी है।
लेकिन तब तक जिन्दा भी रह पाएंगे दाज्यू? घास-पात खाकर कब तक निभेगी। शिकार-मछली का जुगाड़ भी ठीक से नहीं बैठता तो क्या करें?
फत्ते ने निराश होकर कहा।
कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। काठ के बर्तन और खेती के जो उपकरण हमने इधर बनाए हैं, वे कब काम आएंगे? उनके बदले अनाज का जुगाड़ तो कर लें। महीने भर का गुजारा तो किसी-न-किसी तरह हो ही जाएगा। कल सुबह अंधेरे में पास के गांव तक हो आएंगे। चुन्या से भी तैयार रहने को कह देना। वैसे गांव वालों की हालत भी पतली है। फ़िर भी कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा,
गमेर से यह सुनने पर फत्ते अपनी छानी की ओर चला गया और गमेर अपने बनाये बर्तनों और उपकरणों को संभालने में लग गया।
अभी पौ नहीं फटी थी। गमेर, चुन्या और पफत्ते तीनों अंधेरे में ही जंगल से होकर चल पड़े - सिर पर काठ के बर्तन और खेती के उपकरण लादे। पाला इतना पड़ा कि पेड़ों से जैसे पानी बरस रहा था। नंगे बदन वे तीनों राजी बुरी तरह भीग गए। ठण्ड से कांपते-सिकुड़ते और जमीन पर केंचुओं को कुचलते हुए वे आगे बढ़ते रहे। न जाने कितनी जोंकें उनके पैरों की उंगलियों के बीच चिपक गई थीं। खुजली का आभास हो रहा था। पूरब की पहाड़ियों पर लाली क्या फूटी कि वे तीनों एक गांव के निकट थे। पनघट सामने था। वहीं बिछे पत्थरों पर बर्तन आदि रख दिए। फ़िर तीनों एक ऐसी घनी झाड़ी में जाकर छिप गए, जहां से पनघट का सारा दृश्य साफ-साफ दिखाई देता था। चुन्या ने कुछ कहना चाहा तो गमेर ने मुंह पर उंगली रखकर चुप रहने का संकेत कर दिया। आवाज करने से उनकी उपस्थिति का पता जो चल जाता। बेचारे इशारों में ही बतियाते रहे और पैरों से चिपकी जोंकों से पल्ला छुड़ाते रहे।
कुछ और उजास हुआ। गांव की दो औरतें पानी लेने आ पहुंची। राजियों के बर्तनों पर नजर पड़ी। गगरियां भरीं और एक-एक ठेकी भी साथ में लेती गईं। यही क्रम चलता रहा। कुछ ही देर में सारे बर्तन और उपकरण उठ गए थे। मुश्किल से दो-चार लोग ही अनाज लेकर आए। झाड़ी में बैठे राजी निराश होकर वह सब देखते रहे। नजरें बचाकर किसी तरह पत्थरों पर रखा अनाज उठाया, अपनी जाफ़ियों (रेशों से बने थैले) में भरा और छिप-छिपाकर अपने रौत्यूड़ा (रावतों अर्थात् राजियों की जंगली बस्ती) की ओर चल पड़े। रास्ते में फत्ते ने गमेर से कहा-
दाज्यू, यह तो कुछ भी नहीं हुआ।
चुन्या भी बोल उठा-
हम तो लुट गए दाज्यू। दो-तीन महीनों की मेहनत और इतना-सा अनाज!
गमेर ने कहा-
हां,इतने कम की आशा तो मुझे भी नहीं थी। लगता है कुछ लोग बर्तन तो ले गए, पर अनाज लेकर लौटे ही नहीं। इतना तो मैं भी मानकर चला था कि लोगों के हाथ तंग हैं, अनाज कम ही मिलेगा। लेकिन लोग बर्तन उठा ले जाएं और बदले में दो दाने भी न दें, इसकी आशा नहीं थी। ऐसी बात पहले कभी नहीं हुई, इसी का दु:ख है।

-तो क्या हम इसी तरह लुटते रहेंगे?, चुन्या ने आवेश में आकर पूछा।
कर भी क्या सकते हैं चुन्या? हम हैं ही कितने? वे अगर अपनी पर उतर आएं तो ---? हां, एक ही उपाय है, रजवार अगर चाहें तो बात बन सकती है। उनका आदेश कोई टाल नहीं सकेगा। जब भी मौका मिलेगा अस्कोट जाकर बात करेंगे। इसके अलावा हमारे पास कोई और चारा भी तो नहीं।
गमेर ने समझाया।

चुन्या और फत्ते पहले तो गमेर से सहमत नहीं हुए। मरने-मारने की बात ही बढ़-चढ़कर करते रहे। लेकिन गमेर ने जब उन्हें बताया कि रजवार तो रिश्ते में "भाऊ" (छोटे भाई) लगते हैं, वे कुछ न कुछ जरूर करेंगे। फ़िर हम हैं कितने जो दीगर लोगों का मुकाबला कर सकें? इस पर उनका जोश ठण्डा पड़ गया और वे भी अस्कोट के रजवार के पास जाने की बात मान गए। अदला-बदली के लिए वे दूसरे गांवों में भी गए, लेकिन वही ढाक के तीन पात। बहुत कम अनाज मिल पाया। किसी तरह दिन काटते रहे कि कब जाड़ा शुरू हो और बाहर निकलने का अवसर आए। घर-गृहस्थी के झंझट में वे रजवार से मिलने की बात तो जैसे भूल ही गए। एक दिन फत्ते को याद आई और वे तीनों गमेर की अगुवाई में अस्कोट के लिए चल पड़े।
जाड़े के मौसम की शुरूआत। तीन-चार दिनों से आसमान पर हल्के बादल छाए हुए थे। दिगतड़ के उफपर सीराकोट-द्योधुरा, गोरी-रौंतिस के बीच यमस्यारी घणधुरा तथा पूर्वोत्तर में गोरी-पार घानधुरा-पक्षयां पौड़ी और छिपलाकोट की ऊंचाइयों पर सफेद कुहरे की चादर मौसम के और बिगड़ने की सूचना दे रही थी। मौसम की परख आदमी से कहीं अधिक पशु-पक्षियों को होती है। चिफलतरा का गमेर बणरौत अपने दो साथियों - चुन्या और फत्ते के साथ अस्कोट के रजवार से भेंट करने निकला था। तीनों लगभग नंगे थे। केवल अपने गुप्तांग ही किसी तरह ढके हुए। मालू की बेल के रेशे से बने कमरबन्द और उसी के चौड़े पत्तों का उपयोग इस कुशलता से किया गया था कि हरे रंग के मुतके (लंगोट) का आभास होता था।
रौंतिस गाड (नदी) तक आते-आते उन पत्राधारी वनरौतों को अचानक एक काखड़ नीचे की ओर भागता नजर आया। वे समझ गए कि बर्फबारी के डर से जानवर नीचे गरम घाटियों की ओर आ रहे हैं। उनकी बांछें खिल गईं। यदि कोई जानवर हाथ लग गया तो रजवार से खाली हाथ भेंट करने की बेअदबी से तो बच ही जाएंगे। गमेर ने अपने तीर-कमान संभाले और दोनों साथियों को सतर्क नजरों से टोह लेने का इशारा किया। वे एक खेत के किनारे क्वेराल (कचनार) के पेड़ के नीचे खड़े थे। फत्ते ने नीचे की ओर नजर दौड़ाई तो मवा की एक शाखा के नीचे काखड़ को खड़ा पाया और गमेर को इशारा किया। काखड़ की नजर दूसरी ओर थी और गमेर ने जो तीर मारा तो काखड़ नीचे रौंतिस के पानी में जा गिरा। गमेर और फत्ते नीचे भागे ताकि काखड़ को कब्जे में कर सकें। लेकिन चुन्या की नजर तो खेत के किनारे गींठी (बाराही कन्द) खोदते एक साही पर टिकी थी। उसने दोनों हाथों से एक भारी सा पत्थर उठाया और दबे पांव पास जाकर साही पर दे मारा। बेचारे साही को अपने तीरों का उपयोग करने का अवसर ही नहीं मिला। साही भी हाथ लगा और गींठी भी उसने अपनी जापफी (रेशों से बुनी झोली) के हवाले की। पिफर वह भी गमेर और पफत्ते के पास चला आया। गमेर और फत्ते काखड़ को मालू की बेल से एक लट्ठे पर बांध चुके थे। चुन्या और पफत्ते ने काखड़ अपने कन्धों पर उठाया। गमेर ने चुन्या की जापफी भी अपने कन्धे से लटकाई और वे तीनों रौंतिस-पार अस्कोट के लिए चढ़ाई चढ़ने लगे।
वे छिप-छिपकर चल रहे थे। डर था कि कहीं पड़ोस के बसेड़ा, कन्याल या धामी लोगों में से किसी ने देख लिया तो कहीं काखड़ से हाथ न धोना पड़े। रह-रहकर ठण्डी पछुवा के झोंके चलने लगे थे। उफपर आसमान पर बादल भी गहराने लगे और बरसने-बरसने को हो आए थे। वे अभी उबड़-खाबड़ रौंतिस के किनारे से अधिक दूर नहीं जा पाए थे। अचानक पानी बरसने लगा। तीनों रौंतिस के किनारे एक ओडार (गुफा) की शरण लेने पर बाध्य हो गए। ऊंचाइयों पर सम्भवत: बर्फ पड़ने लगी थी। उधर से आते हवा के ठण्डे झोंके कंप-कंपी पैदा कर रहे थे। सौभाग्य से गुफा में कुछ सूखी लकड़ियां और झाडियां पड़ी मिल गईं। गुफा राजी बण-रौतों की यदा-कदा रात बिताने का आश्रय जो थी। मालू की एक बेल भी अपने चौड़े-चौड़े पत्तों के साथ गुफा के आधे खुले भाग को ढके हुए थी। पानी बरसना नहीं रुका तो अब रात उसी गुफा में काटनी थी। चुन्या ने मालू के पत्तों के बीच से बाहर झांका और बोला -
थिप्पे पौवा,(शाम हो गई है)।
ओअं, दे अस्कोट हं पियरे हूँर (हां, आज तो अस्कोट नहीं पहुंच पाएंगे), गमेर ने कहा।
उन्होंने काखड़ का शव गुफा की पिछली दीवार के सहारे एक पत्थर पर रख दिया था। गमेर ने अपनी जापफी से अगेला (आग पैदा करने वाला लोहे का टुकड़ा), डांसी (चकमक और कसबुलु ;एक वन्य पौधा जिसके पत्तों की सफेद परत को रेशों के रूप में उतार लिया जाता है, पुराना होने पर वह रेशा शीघ्रता से आग पकड़ लेता है) निकाले। डांसी से चिनगारियां निकली और कसबुलु ने आग पकड़ ली। सूखी पत्तियों, झाड़ियों और लकड़ियों के बीच रखकर हवा दी तो आग भड़क उठी और तीनों बैठकर आग सेंकने लगे। ठण्ड इतनी अधिक थी कि एक ओर जहां ताप का अनुभव होता, वहीं शरीर का दूसरा भाग सुन्न पड़ता महसूस होता। वे बारी-बारी से आग की ओर कभी मुंह करते तो कभी पीठ और इस तरह ठण्ड से बचने का प्रयास करते रहे। अंधेरा और गहराने पर गमेर ने दांत किट-किटाते चुन्या और फत्ते से कहा -
दे हं चुजावरे हूँर?(आज खाने का क्या होगा?)
चुन्या ने जवाब में अपनी जापफी से साही निकाला। उसके तीर जैसे कांटे उखाड़े और पत्थर के आघात से दो-तीन टुकड़े कर दिए। फत्ते तब तक मालू के साबुत पत्ते चुन चुका था। साही के टुकड़े मालू के पत्तों में लपेटकर धधकती आग में भूनने रख दिए गए और गीठी भी गरम राख में दबा दी गई। कुछ देर में मांस और गींठी दोनों पक गए। कुछ ठण्डे होने पर बिना नमक के ही वे तीनों मांस और गींठी का स्वाद लेने लगे। खाना समाप्त होते ही तीखी ठण्डी हवा फ़िर से सताने लगी। फत्ते ने आग को और धधकाने का प्रयास किया। किन्तु अब लकड़ियां समाप्त होने को थीं, केवल शोले भर रहे गए थे और उनसे तपन उस मात्रा में नहीं मिल पा रही थी, जितनी पहले लपटों से मिल रही थी। तीनों सटकर इस तरह बैठ गए कि एक-दूसरे के शरीर की गर्मी से ठण्ड का प्रकोप शान्त कर सकें। गमेर ने ठुड्डी पर हाथ रखते हुए गम्भीर होकर कहा-
बाप रे! यह हाल तो हमारा है, बेचारे गरीब-गुरबों का क्या होगा?

Monday, October 26, 2009

विश्वावा शिम्बोर्सका की कविता

विश्वावा शिम्बोर्सका पोलेंड में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली कवयित्री हैं। 1996 में उन्हें नोबेले पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उनकी कविताओं को कई भाषाओं में अनुवादित किया जा चुका है।
यहां प्रस्तुत है उनकी एक कविता -

अंत और आरंभ

हर युद्ध के बाद
किसी-न-किसी को सब कुछ ठीक करना पड़ता है
आखिर चीजें अपने आप तो ठिकाने नहीं लग जायेंगी।

किसी को सड़क से मलबा हटाना पड़ता है
ताकि लाशों से भरी गाड़िया गुज़र सकें।

कोई भारी कदमों से चला जाता है
कीचड़ और राख़ से होते हुए,
सोफों के स्प्रिंग कांच के टुकड़ों
और खून सने कपड़ों से बचते हुए

किसी को घसीट कर लाना होता है एक खंभा
गिरती दिवारों से टिकाने के लिये,
किसी को खिड़कियों में कांच लगाने होते हैं,
चौखट में दरवाजा लगाना होता है...

कोई फोटोग्राफर मुस्कुराने के लिये
नहीं कहता बरसों तक।
सभी कैमरे किसी और मोर्चे पर चले गये हैं।
फिर से बनाने हैं पुल और रेलवे-स्टेशन
इसके लिये चीथड़े-चीथड़े हुए कमीजों की आस्तीनें चढ़ानी होंगी।

कोई हाथ में झाड़ू लिये याद करता है
कैसे हुआ यह सब
और कोई सुनता है हिलाते हुए अपना सिर
जो किसी तरह साबुत रह गया है।
लेकिन बाकी सब दौड़-धूप में लगे हैं
किसी कदर बोरियत से भरे हुए।

कभी-कभार ही सही
कोई अब भी गड़े मुर्दों की तरह
उखाड़ लाता है झाड़ियों के पीछे से
एक जंग खाई बहस और कचरे के ढेर में डाल जाता है।

वे जो ये सब जानते थे
उन्हें रास्ता छोड़ देना होगा
उनके लिये जो बहुत कम जानते हैं या उससे भी कम
यहां तक कि कुछ भी नहीं जानते।

और उस घास पर
जो सारे कारणों और परिणामों को
दबा लेती है अपने नीचे
दांतों में तिनका दबाये कोई होगा लेटा
अनमना सा देखते हुए
बादलों का बिखर जाना।

अनुवाद - विजय अहलुवालिया

Saturday, October 17, 2009

एक रचनात्मक खबर



जिस तरह अरविन्द शर्मा के लिए पिछले लगभग 16-17 सालों का देहरादून का घटनाक्रम एक खबर हो सकता है, ठीक वैसे ही देहरादूनियों के लिए अरविन्द की खोज एक खबर से कम नहीं। इस खबर को संभव बनाया है एक ऐसे ही देहरादूनिये ने जिनसे मेरा पहला परिचय अरविन्द भाई ने ही करवाया था- कथाकार सूरज प्रकाश। ब्लाग पर जब भी अरविन्द भाई का जिक्र किया तो ब्लाग पोस्टों को पढ़ने के बाद हमेशा खामोश रह जाने वाले सूरज भाई उस समय खामोश न रह पाए - अरविन्द ने कल अचानक मुझे पिछले बीस वर्षों बाद फोन किया, न जाने कहां-कहां से मेरा फोन नम्बर हासिल करने के बाद। यह सूचना भाई सूरज प्रकाश ने ही मेल की थी। भला ऐसा कैसे होता कि उस गुम हो गए अरविन्द को खोज लिए जाने की खबर देहरादून के बाशिंदों को क्यों न चौंकाती। फोन नम्बर सूरज भाई से मिल गया था। अरविन्द भाई से सम्पर्क हुआ तो चौंक गए। मालूम हुआ कि वे अहमदाबाद में ही हैं और लगातार रचनारत हैं।
अवधेश, हरजीत ( दोनों ही अब इस दुनिया में नहीं हैं) और अरविन्द ये तीन ही शख्स रहे देहरादून के, जो कई सारे चित्रों को आड़ा तिरछा काट-चिपका कर कोलाज बनाया करते थे। स्कैच भी बनाते थे। स्कैच बनाने वाला तो एक और शख्स रहा रतिनाथ योगेश्वर। वही रति जिसने दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि के पहले कविता संग्रह - सदियों का संताप का, जो फिलहाल प्रकाशन, देहरादून से छपा था, कवर पेज स्कैच किया था। आजकल वह भी न जाने कहां है। दो वर्श पूर्व इलाहाबाद में मुलाकात हुई थी। बाद में मालूम हुआ शायद मध्य प्रदेश के किसी इलाके में स्थानानतरित हो गया है वह।
प्रस्तुत है अरविन्द शर्मा के कोलाज।

Tuesday, October 13, 2009

किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात




देहरादून
जेम्सवाट की केतली- यह ऐसा शीर्षक है जो ने सिर्फ एक कहानी को रिपरजेंट करता है बल्कि कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में शामिल सभी कहानियों को बहुत अच्छे से परिभाषित करता है। संवेदना, देहरादून की विशेष चर्चा गोष्ठी में, जो सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई कथाकार कुसुम संग्रह की कहानियों की पुस्तक पर आयोजित थी, कथाकार सुभाष पंत का यह वक्तव्य उन सवालों का जवाब था जिनमें कुसुम भट्ट की कहानियों पर यह सवाल ज्यादातर उठ रहा था कि उनकी कहानियों के शीर्षक उनकी कहानियों के कथ्य से मेल खाते हुए नहीं हैं। फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा का तो कहना था कि जेम्स वॉट की केतली जैसा शीर्षक तो स्त्रियों की अन्तर्निहित शक्तिय को पूरे तौर पर परिभाषित करता है। कुसुम भट्ट की कहानी हिसंर को एक महत्वपूर्ण कहानी मानते हुए कथाकार सुभाष पंत ने कहानी के प्रति अपने दृष्टिकोण को सांझा करते हुए कहा कि प्रकृति चित्रण, साहित्य की जुमले बाजी है जिसमें मूल संवेदना से दूर जाना है। उन्होंने आगे कहा कि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम है। कथ्य पर भाषा हावी नहीं होनी चाहिए। भाषा का सौन्दर्य कथ्य के साथ है।
कहानी पुस्तक पर चर्चा से पहले गोष्ठी में संग्रह में शामिल कहानी वह डर का पाट किया गया। कवयित्री और सहृदय पाठिका कृष्णा खुराना ने कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में सम्मिलित कहानियों की विस्तार से चर्चा अपने लिखित पर्चे को पढ़कर की। जिसका सार तत्व था कि पहाड़ी अंचल और स्त्रीमन को कुसुम भट्ट ने अच्छे से पकड़ा है। दूसरा पर्चा वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्य लेखक मदन शर्मा ने पढ़ा। कुसुम भट्ट की कथा भाषा को महत्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने कहानियों के शिल्प की भी चर्चा की।

एक अधेड़ स्त्री मन के भीतर से बार बार किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात में आकार लेता एक स्त्री का व्यक्तित्व उनके ज्यादातर पात्रों के मानस के रूप में दिखाई देता है। संग्रह में शामिल वह डर, गांव में बाजार: सपने में जंगल, हिंसर, डरा हुआ बच्चा आदि कहानियों को सभी पर सभी ने खूब बात की। चर्चा में अन्य लोगों में प्रेम साहिल, राजेश सकलानी, गुरूदीप खुराना, डॉ जितेन्द्र भारती, चन्द्र बहादुर, जितेन्द्र शर्मा, राजेन्द्र गुप्ता आदि ने भी शिरक्त की।

Friday, October 9, 2009

मशहूर चित्रकार रोरिख का जन्मदिवस है आज



मशहूर चित्रकार निकोलाई रोरिख का जन्म 9 अक्टूबर 1874 को रूस के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। रोरिख बचपन से ही चित्रकार बनना चाहते थे पर उनके पिता जो कि वकील एवं नोटरी थे, उनको ये पसंद नहीं था इसलिये रोरिख ने वकालत और चित्रकारी की शिक्षा साथ-साथ ली।


अपने जीवन काल में रोरिख ने लगभग 7000 पेंटिंग्स बनाई। जिनमें विभिन्न तरह की पेंटिंग्स शामिल हैं। पर रोरिख की पहचान ज्यादा उनकी लैंडस्केप पेंटिंग्स के कारण ही है। पेंटिंग के अलावा रोरिख ने कई विषयों में किताबें भी लिखी जिनमें प्रमुख है फिलोसफी, धर्म, इतिहास, आर्कियोलॉजी साथ ही रोरिख ने कुछ कवितायें और कहानियां आदि भी लिखे। पूरे विश्व में शांति के प्रचार प्रसार के लिये रोरिख ने कई म्यूजियम एवं शैक्षणिक संस्थान आदि की भी स्थापना की।


रूस में 1917 की क्रांति के बाद से रोरिख ने ज्यादा समय रुस के बाहर ही बिताया। इस दौरान उन्होंने विभिन्न देशों अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीडन आदि की यात्रा की। न्यूयॉर्क में इन्होंने रोरिख म्यूजियम की स्थापना भी की। इनके अलावा रोरिख ने ऐशियन देशों की यात्रायें भी की और हिन्दुस्तान से तो उन्हें विशेष लगाव रहा। यहां के हिमालयी स्थानों में उन्होंने अच्छा समय बिताया और यहां की संस्कृति आदि से वे बेहद प्रभावित रहे। 13 दिसम्बर 1947 को कुल्लू में रोरिख का देहांत हुआ।


अपने जीवनकाल में रोरिख को कई पुरस्कारों द्वारा नवाजा गया जिनमें प्रमुख हैं रसियन ऑर्डर ऑफ सेंट स्टेिन्सलॉ, सेंट ऐने एंड सेंट व्लादिमीर, यूगोस्लावियन ऑर्डर ऑफ सेंट साबास, नेशनल ऑर्डर ऑफ लिजीयन ऑफ ऑनर तथा किंस स्वीडन ऑर्डर ऑफ नॉर्दन स्टार। इसके अलावा उन्हें 1929 में नोबोल पुरस्कार के लिये भी नामांकित किया गया।

यहां हम उनके द्वारा बनाये गई कुछ पेंटिंग्स लगा रहे हैं


Guests from Overseas


The messenger 


The Vernicle and Saint Princes


Last Angel, 1912.


Song of Shambhala






MosesThe Leader




Chintamani 1936 

Tuesday, October 6, 2009

हिमालय की यात्रायें - २

रामनाथ पसरीचा जी के बारे में पिछली पोस्ट में बताया जा चुका है और उनका मसूरी का एक यात्रा संस्मरण भी दिया गया था।


इस पोस्ट में प्रस्तुत है उनके कुछ पेंटिंग्स और स्कैच जो उन्होंने अपनी यात्राओं के दौरान बनाये हैं।


हिमालय में रात



स्वर्गारोहणी


श्रीनगर का एक पुल


अस्तन गांव 


नचार का लालपुर


एक किन्नर


स्पीति की एक महिला

 
माठी देवी का मंदिर

Sunday, October 4, 2009

शार्ट लिस्टिंग की युक्ति का एक नाम आलोचना हो गया है




स्मृतियों की सघनता में दबे छुपे समय को पकड़ने की कोशिश संवेदनाओं के जिस धरातल पर पहुंचाती है, वहां एक ऎसे दिन की याद है जो  सूरज की कोख से जन्म लेती धूप और चन्दा की कोख में पनपती चांदनी के खूबसूरत बिम्ब की संरचना करती है। बिना किसी दावे के , सिर्फ़ सहज अनुभूतियों का घना विस्तार कविता को सिर्फ़ एक मित्र के जन्मदिन की स्मृतियों तक ही सीमित नहीं रहने देता। सहजता का एक और द्रश्य विश्वास में भी दिखाई देता है। भाई प्रदीप कांत से मेरा परिचय मात्र उनके लिखे के कारण  है। उन्हें उनके ब्लाग तत्सम पर पहले पहले पढ़ने का अवसर मिला। इससे ज्यादा मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता। उनकी कविताओं और इधर दो एक बार उनसे फ़ोन पर हुई बातचीत से जो तस्वीर मेरे भीतर बनती है उसमें एक सादगी पसंद सहज और प्रेमी व्यक्ति आकर लेता है। बिना हो-हल्ले के चुपचाप अपने काम में जुटा मनुष्य। बाद में उनके बारे में और जुटाई जानकारियां चौंकाने वाली थी कि वे लगातार लिखते और महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं (कथादेश, इन्द्रपस्थ भारती, साक्षात्कार, सम्यक, सहचर , अक्षर पर्व  आदि-आदि) में छपते रहने वाले रचनाकार होते हुए भी मेरे लिए अनजाने ही थे। यूं मैं इसे अपनी व्यक्तिगत कमजोरी स्वीकार करता हूं कि ब्लाग से पहले मैं कभी उन्हें एक कवि के रूप में क्यों न जान पाया ! पर जब इसकी पड़ताल करता हूं तो पाता हूं साहित्य कि दुनिया के प्रति मेरे आग्रह अनायास नहीं हुए। दरअसल साहित्य की गिरोहगर्द स्थितियों ने आलोचना के नाम पर जिस तरह से शार्ट लिस्टिंग की है उसके चलते बहुत सा प्रकाशित भी बिना पढ़े छूट जा रहा है। ऎसे ही न जाने कितने रचनाकार है जिनकी रचनाएं समकालीन रचनाजगत के बीच महत्वपूर्ण होते हुए भी या तो अप्रकाशित रह जाने को अभिशप्त है या हल्ला-मचाऊ आलोचनात्मक टिप्पणीयों के चलते पाठकों तक पहुंचने से वंचित रह जा रही है।
प्रस्तुत है कवि प्रदीप कांत की दो कविताएं। 

 वि.गौ.



 

प्रदीप कांत
विश्वास


स्कूल जाते
बच्चे के बस्ते में

चुपके से डाल देता हूं
कुछ अधूरी कविताएँ

इस विश्वास के साथ
कि वह
पूरी करेगा इन्हें
एक दिन 


मित्र के जन्म दिन पर

                                                     
दीवार पर टंगी है
मुस्कुराती हुई स्मृति
जो स्पर्श कर रही है
तुम्हारे और मेरे बीच
कुछ न कुछ
स्थापित होने की प्रक्रिया को

पता नहीं
सूरज की कोख से
कब जन्मी धूप

चन्दा की कोख में
कब पनपी चांदनी

लेकिन अब भी अंकित है
मन के किसी कोने में
आंचल में बन्धे
एक स्वप्न के
साकार होने की तिथि

आज भी वही दिन है

और मैं देख रहा हूं
ढेर सारी मोमबित्तयों की
थरथराती लौ



अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।

Saturday, October 3, 2009

सभ्य लोग कोई नाम याद नहीं रखते

हालांकि सभ्य लोग, भले लोगए अच्छे लोगों की परिभाषा गढ़ती हिन्दी की कई कविताएं गिनाई जा सकती हैं लेकिन अरविन्द शर्मा की कविता में व्यंग्य का अनूठापन उसे अन्यों से भिन्न कर देता है। सभ्य लोगों की तस्वीर अरविन्द के भीतर उस कैमरे की आंख से जन्म लेती है जिसके जरिये वह जब वह किसी पेड़ को खास कोण से कैद करता था तो तैयार तस्वीर को देखता हुआ दर्शक चौंकता था एकबारगी। वह पेड़ों के न्यूड चित्र होते। चेहरे पर जबरदस्ती चिपकाई हुई मुस्कानों की तस्वीर उतारने की बजाय वह सड़कों, गलियों के हुजूम या किसी सामान्य से दिखते आब्जेक्ट को अपने कैमरे में कैछ करता रहा। बहुत मुश्किलों से मिन्नतें करते मित्रों के भी फोटो खींचने में वह ऐसा सतर्क रहता कि एक दिन अचानक से सामने तस्वीर होती और देखने वाला चौंकता और याद करने की कोशिश करता किस दिन खींचा है कम्बख्त ने- एक-एक भाव चेहरे पर उभर रहा है। वह काली-सफेद तस्वीर होती। "टिप-टॉप" की की कुर्सी पर बैठा एक अकेला व्यक्ति होता जबकि जब तस्वीर खींची गई होती वहां टंटों की भरमार मौजूद होती। देहरादून के रचनाकारों के अड्डे "टिप-टॉप" को आबाद करने वाला वह अकेला होलटाइमर था। कविता फोल्डर "संकेत" निकाला करता था, जिसका सम्पर्क पता "टिप-टॉप", चकराता रोड़, देहरादून ही दर्ज रहता। कहने वाले कह सकते हैं "टिप-टॉप" शहर की बदलती आबो-हवा के कारण उजड़ा लेकिन यह असलियत है कि दिन के 14 घंटे "टिप-टॉप" में बिताने वाले अरविन्द के अहमदाबाद चले जाने के बाद खाली वक्तों के सूनेपन ने "टिप-टॉप" के मालिक प्रदीप गुप्ता को उदासी से भर दिया।
प्रस्तुत है अरविन्द शर्मा की कविता जो कविता फ़ोल्डर फ़िलहाल ५ के प्रष्ठों से साभार है।
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                        सभ्य लोग
                                                   अरविन्द शर्मा

                                               सभ्य लोग देर तक
                                               कोई नाम याद नहीं रखते
                                               बिना गरज बात नहीं करते ।

                                               घर का पता
                                               फोन नम्बर
                                               डायरी के इतने पृष्ठ रंग देते हैं कि
                                               स्मृतियों के चिह्न दर्ज करने के लिए
                                               कुछ बचता ही नहीं ।

                                               सभ्य लोग कागज के फूलों से
                                               बेहद लगाव रखते हैं
                                               जो न कभी खिलते हैं और
                                               न कभी मुरझाते हैं।

 अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।

Thursday, October 1, 2009

रचना (creation) और संरचना (construction) का फर्क

बात आगे बढ़ गई। थोड़ी भटक भी गई।
साहित्य में आलोचना इतनी वेग क्यों है ? क्यों एक ही तरह की रचना पर पुरस्कार और उसी तरह की दूसरी रचना को तिरस्कार ? यह महत्वपूर्ण सवाल पिछली पोस्ट में उठा। क्या रचना की कोई निधारित कसौटी हो सकती है ? भाई नवीन नैथानी ने तो किसी भी रचना की कसौटी के लिए एक सहृदय पाठक के भीतर मौजूद जो  मानदण्ड गिनाए हैं, उसमें बहुत साफ शब्दों में कहा है कि वह नितांत व्यक्तिगत होने के साथ ही विशिष्ट साहित्यिक पर्यावरण वातावरण भी है। यहां मेरा इससे पूरा इत्तेफाक नहीं।
मैं यहीं से अपनी बात कहूं तो स्पष्टत कहना चाहूंगा कि यह जिसे नितांत व्यक्तिगत माना जा रहा है, वह उस विशिष्ट साहित्यिक पर्यावरण में ही आकार लेता है। यानी वह व्यक्तिगत भी पूरा-पूरा तो नहीं ही होता है। कुछ अन्य वाह्य कारण भी होते हैं, जो बहुधा किन्हीं गैर पर्यावरणीय स्थिति के प्रभाव में भी पनपते हैं।
सामने दिखाई देती स्थितियों से पार तक देखना और उसे भाषा में व्यक्त करना, कविता का वह गुण है जिससे कविता का सहृदय पाठक अपने प्रिय कवि के उस मंतव्य को पकड़ पा रहा होता जो उसके भीतर न जाने कितनी बार हलचल मचा चुका होता है। या उसका प्रथम दर्शन भी उसे समृद्ध करने वाला होता है। उसकी विचार शक्ति को और उसकी दृष्टि को भी। अपने प्रिय कवि की कविता को वह, जिसे वह उसका वक्तव्य भी माने तो गलत नहीं, भाषा में रचे जा रहे स्पेश के साथ ही देख पाने में सक्षम होता है। आलोचना का काम रचना के उस पार को दिखाना ही होना चाहिए। ऐसी कोशिश ही किसी सहृदय पाठक को आलोचक बनाती है। एक आलोचक की दृष्टि जो कई बार अपने सीमित अनुभवों से उसकी पूरी परास को व्याख्यायित न कर पाए या, कई बार अपने विस्तृत अनुभव से रचना का एक नया ही पाठ खोले जिसे कवि ने भी न सोचा हो। रचना का वह दूसरा पाठ और नया पाठ आखिर कहां से आया ? यह प्रश्न विचारणीय होना चाहिए। क्या वह किसी निश्चित तर्क प्रणाली को अपनाते हुए है या, वेग तरह की शब्दावली में उसको व्याख्यायित किया जा रहा है ? लेकिन यहां भाई नवीन नैथानी की उस व्याख्या को नकारा नहीं जा सकता जो एक कविता को अच्छी कविता कहने के लिए बहुत सारे कारणों के साथ-साथ एक पाठक की तात्कालिक मन:स्थिति को भी दर्ज करती है। यानी किसी भी कविता को एक बेहतर कविता कहने के लिए कोई सांख्यिकी मानदण्ड नहीं अपनाए जा सकते। कविता का सम्पूर्ण मल्यांकन ऐसी किसी भी प्रणाली से जब संभव नहीं तो तय है कि एक ही कविता के अनगिनत पाठ हो सकते हैं। यानी अनगिनत पाठक किसी निश्चित समय पर उसे एक बेहतर कविता कह सकते हैं और उतने ही उसी समय पर उसे एक कमजोर कविता भी बता रहे हो सकते हैं। जब कविता के मूल्यांकन में इतनी अनिश्चितता मौजूद है तो फिर किसी कविता के पुरस्कृत होने और किसी के पुरस्कार से वंचित रह जाने का कोई मायने नहीं। इसे और साफ तरह से कहूं तो कविता में पुरस्कार के औचित्य पर सवाल हमेशा लगता रहेगा। कविता के लिए किसी भी तरह के पुरस्कार का कोई औचित्य दिखाई नहीं देता। बावजूद इसके पुरस्कारों के लिए लम्बी से लम्बी दौड़ में कवियों को ही शामिल क्यों होना पड़ता है फिर ? खुद से देखें तो पाएंगे कि मूल्यांकन की यही अनिश्चितता संगीत में भी और पेंटिग में भी दिखाई देती है। मूल्यांकन की ऐसी अनिश्चित प्रणाली वाली विधाओं के लिए पुरस्कार अंधा बांटे रेवड़ी अपने-अपने को देय वाला मुहावरा नहीं तो और क्या है फिर ? तो कविता के लिए दिए जाने वाले पुरस्कार को बाजारू प्रवृत्तियों का आइकन बनाऊ खेल क्यों न माना जाए ?  पुरस्कारों के निहितार्थ क्यों षडयंत्रों के दायरे में न आएं ? वे षडयंत्र जो रचनाकारों के भीतर झूठी श्रेष्ठता को स्थापित कर एक फांक पैदा कर रहे हों ।
यह सवाल आज की पीढ़ी ही नहीं अपने वरिष्ठों ओर आदरणीयों से भी है कि साहित्य में पुरस्कारों के सवाल पर वे मुक्कमल तौर पर विचार करें। दलित, स्त्री विमर्शों के साथ-साथ युवा रचना शीलता, फिल्म, प्रेम विशेषांकों के बीच क्या पुरस्कार विशेषांक जैसी किसी योजना को कार्यान्वित करने की जरूरत नहीं ?       
अशोक भाई ने बहुत साफ और स्पष्ट शब्दों में कहा कि चर्चित होना कोई अपराध नहीं और न अचर्चित रह जाना महानता का प्रतीक। यहां इसका एक अन्य अर्थ भी है कि कविता चाहे किसी नामी कवि की हो चाहे अनाम रह गए कवि की, सबसे पहले उसे कविता होना चाहिए। यह एक दुरस्त बात है। लेकिन चलताऊ तरह से सिर्फ चंद वे शब्द जिनको बहुत स्पष्ट न करते हुए आज की आलोचना जब किसी रचना को स्थापित या उखाड़ने के लिए कर रही होती है, उसी के आधार पर कैसे कहा जा सके कि जिस कविता पर बात हो रही है वह वाकई एक कवि के भीतर से आवेग बनकर फूटी है या नहीं ? पैशन भी ऐसा ही एक चलताऊ शब्द और मुहावरा हो जाता है जब हम उसे बहुत गैर जरूरी तरह से इस्तेमाल कर देते हैं तो। गैर जरूरी इसलिए कि पैशन यानी आवेग के बिना कोई भी रचना संभव नहीं, बेशक वह बहुत खराब तरह से लिखी गई हो या फिर बहुत कुशल तरह से अपनी कलात्मकता के साथ। हां, आवेग की धुरियां हो सकती हैं जो किसी महत्वांकाक्षा के तहत हो चाहे सचमुच किसी रचने की पीड़ा के तहत। यानी बिना आवेग के कोई खराब रचना भी संभव नहीं। ऐसे चलताऊ शब्दों का इस्तेमाल करने वाली आलोचना ने ही एक ही तरह की कविता को पुरस्कृत और उसी तरह की कविता को खारिज करने की कार्रवाइयां की है, यह अशोक खुद स्वीकारते हैं। साहित्य में गिरोहगर्दों की जबरदस्त पकड़ ने रचना की व्याख्या के ये टूल अपने मंतव्य को साधने के लिए ही गढ़े हैं। खास शब्दावलियों के ये ऐसे टूल हैं जिनमें रचना और संरचना के फर्क को भी समझना मुश्किल है। हम कब रचना को संरचना मानने की गलती कर बैठते हैं और कब संरचना को रचना, इसको ठीक-ठीक जान नहीं रहे होते हैं। मेरी समझ में यही उत्तर आधुनिकता है। जिसमें जो कहा गया उसका भी कोई मायने नहीं होता। पैशन रचना या मात्र कुछ शब्दों में कैसे हो सकता है ? पैशन तो रचनाकार में होता है या पाठक में होता है। रचनाकार का पैशन उससे रचना करवा रहा होता है या, संरचना भी बिना पैशन के संभव नहीं। हां, वहां उसका पैशन भविष्य की जुगत, मसलन प्रकाशन से लेकर पुरस्कारों तक पहुंचने की कवायद को संरचना में आकार दे रहा होता है। पाठक का पैशन उसे पढ़ने को मजबूर कर रहा होता है। अच्छी रचनाओं को तलाश लेने की कोशिश उसे न जाने किन-किन भाषाओं के साहित्य तक ले जाती है।

विजय गौड़

अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।