Monday, March 23, 2009

इस शहर में कभी हरजीत ऒर अवधेश रहते थे

ब्लाग को जब शुरू किया, मालूम नहीं था कि सही में इसके मायने क्या है ? धीरे-धीरे अन्य मित्रों के ब्लोगों को देखते और जानते-समझते हुए तय करते चले गए कि एक पत्रिका की तरह भी इसे चलाया जा सकता है। जैसे तैसे लगभग एक वर्ष का समय बिता दिया। इस बीच बहुतकुछ जानने समझने का मौका मिला। मालूम नहीं कि पत्रिका का स्वरूप दे भी पाए या नहीं।
पत्रिका की तरह ही क्यों चलाया जाए?
इसके पीछे यह विचार भी काम कर रहा था, जो अक्सर अपने देहरादून के लिखने पढने वाले सभी साथियों के भीतर रहा कि देहरादून से कोई पत्रिका निकलनी चाहिए पर पत्रिका को निकालने के लिए जुटाए जाने वाले धन को इक्टठा करने में जिस तरह के समझोते करने होते हैं उस तरह का मानस कोई भी नहीं रखता था। आर्थिक मदद के लिए कहां और किसके पास जाएंगे- बस यही सोच कर हमेशा चुप्पी बनी रही और ऎसी स्थितियों के चलते जिसे तोड पाना तो कभी संभव हुआ और ही हो पाने की संभावना है। यह अलग बात है कि इधर पत्रिका निकालना तो एक पेशा भी हुआ है।
तो पत्रिका का स्वरूप बना रहे इसकी कोशिश जारी है। इस एक साल में यदि कुछ कर पाए हैं तो कह सकते हैं कि देहरादून के साहित्यिक, सामाजिक माहौल को पकडने की एक कोशिश जरूर की है और इसमें बहुत से साथियों का सहयोग भी मिला है। खास तौर पर मदन शर्मा, सुरेश उनियाल, जितेन ठाकुर और भाई नवीन नैथानी का। जिन्होंने अपने संस्मरणात्मक आलेखों से इसे एक हद तक संभव बनाया है। तो आज फ़िर से प्रस्तुत है ऎसा ही एक संस्मरण।



नवीन नैथानी



राजेश सकलानी ने एक रोज कहा था कि उसकी बहुत इच्छा है कि देहरादून को याद करते हुए इस पंक्ति का उपयोग किया जाये-
इस शहर में कभी अवधेश ऒर हरजीत रहते थे दरअसल ,यह पूरी श्रंखला देहरादून पर ही केन्द्रित है.कोशिश है कि इस बहाने देहरादून की कुछ छवियां एक जगह पर आ सकें. यह भी कि एक व्यक्ति के बीच से शहर किस तरह गुजरता है? एक शहर को हम कैसे देख सकते हैं?दो ही तरीके हैं. पहला ऒर शायद आसान तरीका है कि हम शहर के बाशिन्दों को याद करें.बाशिन्दों से शहर है.अलबत्ता कुछ शहर हम जानते हैं- उनके नाम जानते हैं,उनमें रहने वालों को नहीं जानते.राजेश सकलानी की ही एक कविता है जिसमें कुछ शहरों के नाम आये हैं. होशंगाबाद है, इन्दॊर है ऒर शायद एक आध शहर ऒर हैं.कुछ शहरों को हम इतिहास की वजह से जानते हैं.
(इतिहास ऒर शहर की काव्यात्मक पराकाष्ठा श्रीकान्त वर्मा के मगध में देखी जा सकती है ) कुछ शहर जो अब सिर्फ़ इतिहास में मिलते हैं , हमें अपने नाम के साथ आकर्षित करते हैं .उनका आकर्षण उनके नाम में होता है या फ़िर उन भग्नावशेषों में जो सदियों से उनकी छाती पर सवार होकर उनके नाम का सब सत्व अपने आस-पास की आबो-हवा में खेंच लेते हैं .वे इतिहास के शहर होते हैं ऒर वर्तमान को शायद वे एक दयनीय दृष्टि से देखते होंगे.उस दृष्टि में थोडी़ सी दया, थोडा़ सा उपहास ,जरा सी करूणा ऒर किंचित यातना का भाव छिपा रहता है.आप किसी ऐसे शहर की कल्पना कीजिए जहां लोग नहीं खण्डहर रहते हैं ऒर बेहद भीड़ उनके आस-पास दिखायी पड़्ती है-अतीत के अनदेखे वैभव से आक्रान्त लोग एक भागते ऒर हांफते समय के बीच थोडा़ सुकून तलाश करते हुए नजर आते हैं.ये इतिहास के शहर हैं.इन शहरों में लोग नहीं रहते,इनमें सैलानी आते हैं.यहां चुल्हे नहीं जलते,यहां खाना बिकता है.
कुछ शहरों को हम उनकी चमक - दमक के कारण जानते हैं.ये प्रायः उद्योगों के घर होते हैं.उद्योग धीरे-धीरे शहर के बाहर की तरफ सरकने लगते हैं. शहर कुछ ऒर ही किस्म की आबो- हवा में सांस लेने लगता है.शहर के आस - पास की हरियाली कुछ - कुछ कम होते हुए बिल्कुल नहीं के स्तर पर पहुंच जाती है.शहर के बीचो - बीच लकदक घास का मैदान हो सकता है,हरियाली मिल सकती है- आदमी नहीं मिलता.वह शहर की फैलती हुई परिधी पर सिकुड़ते हुए फैलता जाता है.
कुछ शहर हम उनके बाशिन्दों की वजह से जानते हैं.मुझे याद आता है एक बार मैं ट्रेन से शायद लखनऊ जा रहा था.शाहजहां पुर से गुजरते हुए ध्यान आया ,"अरे! यह तो हृदयेश का शहर है.!"
सुबह का वक्त था पर उजास अभी नहीं हुआ था. कोई मुझे जागता हुआ नहीं मिला.ट्रेन शाहजहांपुर से आगे निकल गयी तो यही लगता रहा कि अभी अभी हृदयेश के शहर से होकर गुजर गया हूं , बस उनसे मिलना रह गया. आज तक उनसे नहीं मिला हूं पर लगता है उन्हें बहुत करीब से जानता हूं क्योंकि उनके शहर शाहजहांपुर से होकर गुजर चुका हूं.
अदब से जुडे़ बहुत से लोग देहरादून को अवधेश ऒर हरजीत के शहर के रूप में जानते हैं.अवधेश ऒर हरजीत का देहरादून वह नहीं है जो दिखाई देता है. वह देहरादून थोडा़ सा कुहासे में ढका है - सूरज ढलने के आस - पास जागना शुरू करता है , दिये की बाती जलने पर अंगडा़ई लेता है ऒर जब घरों में बत्तियां गुल हो जाती हैं तो शहर स्ट्रीट लाइट की रोशनी में बतकही करता है... कभी थोडा़ फुसफुसाते हुए, कभी लम्बी खामोशी में ऒर कभी किसी नयी धुन में जिसे सिर्फ देहरादून में ही रह जाना है.
वे धुनें प्रायः उन गीतों की होती थीं जिन्हें अभी गाया जाना था . वहां सुर होते थे ऒर लय हवाऒं में कहीं आस-पास उतरा रही होती. यह तो जरा शब्दों की कुछ आपसी कहा-सुनी ही थी जो वे गाये नहीं गये. कभी उन धुनों में कोई पुराना नग़्मा अपनी हदों के बाहर जाने को अकुला रहा होता. कभी एक सार्वभॊमिक ऒर सार्वकालिक गीत की प्रतीक्षा होती जहां मनुष्य होने की करूणा को धीरे-धीरे प्रकृति के समक्ष एक चुनॊती बन कर खडा़ हो जाना था.
शहर ये धुनें सुनता था - कभी बगल से गुजरते यात्री के कानों से जिन्हें बहुत जल्दी घर पहुंचते ही रजाई की तपिश याद आ रही होती . कभी रास्ता भूल चुके किसी बाशिन्दे की उम्मीदों में वहां घर का रास्ता याद आने लगता.कभी - कभी ये धुनें कोई चॊकीदार सुन लेता.

"कहां से आये हो?"
"घर से"
"कहां जाना है?"
"घर"
"घर कहां है?"
"बगल में."
ऒर शहर चुप हो जाता.हरजीत ऒर अवधेश के देहरादून पर आगे बात करेंगे. फिलहाल अवधेश के गीत की कुछ पंक्तियां(देहरादून के बाहर बहुत कम लोग जानते हैं कि अवधेश ने गीत लिखे हैं ऒर उनमें भी बहुत कम लोगों ने अवधेश के कण्ठ से उन्हें सुना है)

है अंधेरा यहां ऒर अंधेरा वहां ,फिर भी ढूंढूंगा मैं रॊशनी के निशां
है धुंए में शहर या शहर मे धुआं, आप कहते जिसे रॊशनी के निशां


Wednesday, March 18, 2009

बोलना सही समय पर सही बात का

पिछले दिनों कवि लालटू की कविता पड़ी थी- कहां ?
याद नहीं। पंक्तियां याद हैं-

मैं हाजिर जवाब नहीं हूं
इसीलिए नहीं कह पाया किसी महानायक को
सही सही, सही वक्त पर कि उसकी महानता में
कहीं से अंधेरे की बू आती है
मैं ताजिन्दगी सोचता रहा
कि बहुत जरुरी थी
सही वक्त पर सही बात कहनी।

यह कविता मुझे शिरीष के हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह प्रथ्वी पर एक जगह में बोलना शीर्षक से शामिल कविता को पढ़ते हुए याद रही हैं। दोनों ही कविताओं के बारे में ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहता सिर्फ इतना ही कि हिन्दी कविता के दो अलग-अलग पीढ़ियों के कवियों की बेचैनी क्या मात्र उनके मनोगत कारण हैं ? या दौर ही ऐसा है जों बार-बार खुद को ही सचेत रहने को मजबूर कर रहा है।


शिरीष कुमार मौर्य
बोलना



अपने समय के सबसे चुप्पा लोगों से
बोल रहा हूं मैं

मेरी आवाज़ मेरी रही-सही ताकत है
मेरा बचा-खुचा साहस है
मेरा बोलना

और अपनी इस ताकत और साहस के साथ मैं बोल रहा हूं
सुनाई दे रही है मेरी आवाज़

सुन लें वे जिन्हें सुनाई देता है
समझ आता है जिन्हें वे समझ लें अच्छी तरह
कि बोलना
और बोलना सही समय पर सही बात का
बेहद ज़रूरी है

ऐसे में चुप रहेंगे सिर्फ वे जो बिल्कुल ही आत्महीन हैं
या फिर जिनकी
कोई अमूर्त-सी मज़बूरी है।

Tuesday, March 17, 2009

कविता संग्रह से

सोचो थोड़ी देर

आखिर कब तक
सरकारों का बदल जाना
मौसम के बदल जाने की तरह
नहीं रहेगा याद

कब तक यही कहते रहेंगे
इस बार गर्मी बड़ी तीखी है
बारिस भी हुई इस बार ज्यादा
और ठंड भी पड़ी पहले से अधिक

कब तक


बेशक
सट्टे बाजार के इर्द-गिर्द
घूमते हुए हम
पूंजीवाद का विराध करते रहे

बेशक
हथियारों की ईजाद में संलग्न
दुनिया को बेखौफ देखने की
सोचते रहे

बेशक
प्रेम में हारते हुए हम
बच्चों को प्रेम करने को
कहते रहे

पर जंगल से दूर रह कर
जंगल राज पर
कब तक मारते रहेंगे ठप्पे ?

यह कविताएं मेरे हाल में ही प्रकाशित कविता संग्रह सबसे ठीक नदी का रास्ता में शामिल हैं।

Monday, March 16, 2009

सत्यनारायण पटेल का कहानी पाठ

उदयपुर
"कहां है आदमी, यहां तो सब कीड़े-मकोड़े है। इनकी औलादें भी ऐसी ही होंगी। कभी नहीं, कभी पनही नहीं पहनेंगे। जिनगीभर उबाणे पगे पटेलों की जी हुजूरी करेंगे।" गांवों में जातीय और आर्थिक शोषण के यथार्थ का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करने वाली कहानी "पनही" पढ़ते चर्चित युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल ने अंत में कथा नायक के इस कथन से समाहार किया 'अब मेरा मुंह वया देख रहे हो, जाओ टापरे जो कुछ हो-लाठी, हंसिया लेकर तैयार रहो, पटेलों के छोरे आते ही होंगे और हां, उबाणे पगे मत आजो कोई।" पटेल की इस कहानी का अंत प्रबल जन प्रतिरोध की अभिव्यक्ति से हुआ है जो अब कैसी भी धौंस को बर्दाश्त नहीं करेगा।

जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के जनपद विभाग द्वारा आयोजित इस कहानी पाठ के पश्चात हुई चर्चा में वरिष्ठ कवि नन्द चतुर्वेदी ने कहा कि "पनही" एक शक्तिशाली कहानी है जो दबे हुए व्यक्ति को वाणी दे सकने वाली चेतना का उदघाटन करती है। उन्होंने कहा कि इधर का कहानीकार मध्यम वर्ग की चालाकियों से भरा नजर आ रहा है। ऐसे में पटेल की कहानियॉ आश्वस्ति देने वाली हैं कि कई तरह के पटेलों से लड़ रहे लोगों के स्वर देने की सामर्थ्य अभी मौजूद है। नंद बाबू ने ग्लोबलाइजेशन के नये खतरों में स्थानीयता की रक्षा को बड़ी चुनौती बताया। वरिष्ठ उपन्यासकार राजेन्द्र मोहन भटनागर ने पटेल को बधाई दी कि उन्होंने गांव को अपने रचनाकर्म की विषय वस्तु बनाया। उन्होंने कहा कि "पनही" की सफलता इस बात में है कि यह श्रोताओं को शहर से निकालकर ठेठ गांव में ले जाती है। सुखाड़िया विश्वविद्यालय के अंगे्रजी विभाग के प्रो.आशुतोष मोहन ने इसे छोटे कैनवास के बावजूद सघन कथा बताया जो अपने भीतर औपन्यासिक गुंजाइश रखती है। उन्होंने नायिका पीराक के चित्रण में आई ऐन्द्रिकता को विरल अनुभव बताते हुए कहानी में छिपे अनेक संकेतों की भी व्याख्या की। उर्दू कथाकार डॉ.सर्वतुन्निसा खान ने कहा कि समकालीन कथा लेखन की एकरसता में जीवन के बहुविध रंगों की छटा गायब हो रही है ऐसे में गांव की कहानी आना खुशगवार है। खान ने कहानी की भाषा को देशज अनुभवों की समृद्ध उपज बताया। राजस्थान विद्यापीठ के सहआचार्य डॉ। मलय पानेरी ने कहा कि सामंतवाद का पहिया स्वत: जाम नहीं होगा अपितु उसके लिए संघर्ष करना होगा। डॉ। पानेरी ने कहानी को ग्रामीण निम्न वर्गीय जीवन का यथार्थ बताया। "बनास" के संपादक डॉ. पल्लव ने देशज कथा रूप और शोषण की उदाम चेष्टा को सत्यनारायण पटेल की कहानियों की मुख्य विशेषता बताया।
इससे पहले जनपद विभाग के निदेशक पुरुषोतम शर्मा ने अतिथियों का स्वागत किया और जनपद विभाग की गतिविधियों की जानकारी दी। वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी रामचन्द्र नन्दवाना ने दलित उत्पीड़न के प्रतिरोध के अपने अनुभव सुनाए। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ समालोचक प्रो. नवल किशोर ने कहा कि भूमंडलीकरण की चकाचौंध में साहित्य में ही जगह बची है जो पूरन और पीराक जैसे दबे कुचले लोगों की बात कर सके। उन्होंने कहा कि अच्छे लेखक की पहचान यह है कि वह बदलते समय को पकडे और उसे सार्थक कला रूप दे। उन्होंने सत्यनारायण पटेल की कहानियों को इस चेतना से सम्पन्न बताते हुए कहा कि छोटी छोटी अस्मिताओं के नाम पर बंटने से ज्यादा जरूरी है कि हम बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हों। आयोजन में लोककलाविद् डॉ। महेन्द्र भाणावत, डॉ. एल.आर. पटेल, विभा रश्मि, दुर्गेश नन्दवाना, भंवर सेठ, हिम्मत सेठ, अर्जुन मंत्री, लक्ष्मीलाल देवड़ा, गणेश लाल बण्डेला सहित बड़ी संख्या में युवा पाठक उपस्थित थे।
अंत में विद्यापीठ के सांस्कृतिक सचिव डॉ। लक्ष्मीनारायण नन्दवाना ने आभार व्यक्त किया।



गणेशलाल मीणा
152, टैगोर नगर, हिरण मगरी, से। 4, उदयपुर-313 002

हम उदयपुर के युवा रचनाकार पल्लव जी के आभारी हैं जिनके मार्फ़त यह रिपोर्ट हम तक पहुंची और साथ हीआभारी हैं गणेशलाल मीणा जी के जिन्होंने इसे तैयार किया।

Sunday, March 15, 2009

अभी तो ठीक से याद नहीं

होली बीत चुकी है। यूंही दर्ज कर लिया गया दृश्य आंखों में घूम रहा है। यूं तो बचपन की होली का ध्यान है जब गाने बजाने वालों की टोलियां घर-घर जाकर होली गाती थी। हमारे इलाके में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ढेरों लोग रहते थे जो लगभग महीने भर पहले से ही शाम के वक्त ढोल मजीरा लेकर होली गाते थे। बोल कुछ इस तरह थे -
इकवर खेलै कुंवर कन्हैया, इकवर राधा होरी हो
सदा अन्नदही रहयौ द्वारा, मोहन होरी खेलै हो।
या

कहै के हाथे कनक पिचकारी,, कहै के हाथे गौरी की चुनरी होह्णह्णह्ण


अभी तो ठीक से याद भी नहीं, सुने हुए को भी नहीं तो 28-30 वर्ष हो गए

इधर हमारी परीक्षाओं की तैयारी चल रही होती थी और उधर वे होलियारे हमें अपनी लोकधुन गुन-गुना लेने को उकसा रहे होते थे।
इस बार हू--हू तो नहीं, पर हां वैसा ही, लेकिन बिना साज बाज का नजारा था- कालोनी के तमाम जौनसारी लड़के जिस मस्ती में होली गा रहे थे और नाच रहे थे, देखकर मन मचल उठा। गाने के बोल को तो समझा नहीं जा सका पर उस लय को तो महसूसा ही जा सकता था जो इन आधुनिक पीढ़ी के जौनसारी युवाओं को मस्त किए थी। अपनी भाषा और लोकगीत के प्रति उनका अनुराग घरों के भीतर बैठे लागों को भी पहले बैलकनी से झांकने के लिए और फिर रंग लेकर नीचे उतर आने को उकसा रहा था। बेशक कोई पूर्व तैयारी के बिना यह हुजूम गा रहा था पर उनके गीत और नृत्य में एक खास तरह का उछाल था। लीजिए आप भी देखिए और सुनिए-

Friday, March 13, 2009

सरग-दिद्दा

देहरादून की वे छवियां जो कथाकार नवीन नैथानी के भीतर दर्ज हैं, पहले भी उनके लिखे संस्मरणों से हम जान पाए हैं। कवि रमेशमिश्र सिद्धेश , सुखबीर विश्वकर्मा को उन्होंने अपने पिछले आलेखों में याद किया। इस बार वे एक ऐसे रचनाकार को याद कर रहे हैं। जो आज भी रचना रत है।

नवीन नैथानी

तो इस शहर देहरादून की फ़ितरत का दिलचस्प बयान करते हुए कभी धुरन्धर देहरादूनिये श्री सुभाष पन्त ने एक किंवदन्ती का का जिक्र करते हुए लिखा था- सवेरे की सैर करते हुए एक साहब अपनी छ्डी़ पार्क की बैंच में भूल गये. अगली सुबह वे जब पार्क में पहुंचे तो छडी़ उसी बैंच में मिल गयी.हां,अब उसमें कोंपलें निकल आयी थीं.
यह किस्सा तो लगभग सॊ साल से ज्यादा पुराना होगा, पर देहरादून का मिजाज बहुत ज्यादा नहीं बदला है.नये राज्य की राजधानी की किंचित अश्लील भूमिका निभाने ऒर नव धन-कुबेरों के प्रदर्शन-प्रिय कुत्सित आचरण के बावजूद शहर अब भी संभावना है.यहां की हवा बहुत ज्यादा नहीं बदली है.पुराने साहबों की छडी़ में जीवन के अंकुर खिलाने वाली हवा में अभी संवेदना को बचाने की तासीर नष्ट नहीं हुई है. यहां साहित्य की गतिविधियां अनॊपचारिक रूप में अधिक दिखायी पड़्ती हैं.पिछली कडी़ में कविजी का जिक्र हो चुका है. इस बार आपको श्री चारू-चंद्र चंदोला जी से मिलवाते हैं.
अनुप्रास की छटा से सुसज्जित चंदोला जी का नामकरण प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पंत द्वारा किया गया था.यह अलग बात है कि चंदोला जी की कविता अनुप्रास से सायास बचती है .
न्द हो गया है, मॊसम का ढक्कन बद्रीनाथ के कपाट की तरह लिखने वाले चारू-चंद्र चंदोला की कविताऒं में साफ़-गोई, बात कहने की उत्कट बेचैनी लगभग अन छुए बिम्बों के रूप में अभिव्यक्ति पाती है.चंदोलाजी से पहली बार मैं १९८७ मेंअप्रैल या मई के महिने की किसी तपती दुपहरी में मिला था.वे साहित्यकारों से मेरे संपर्क के शुरुआती दिन थे. अतुल शर्मा के साथ अंक देहरादून से नाम की हस्तलिखित पत्रिका के प्रकाशन की योजना लेकर चंदोलाजी के सामने उपस्थित हुए थे.उन दिनों वे अमर उजाला या जागरण के साथ जुडे़ हुए थे. तब अखबारों के आक्रामक फ़ैलाव के दिन आने में थोडा़ वक्त था.दून-दर्पण , हिमाचल-टाईम्स , जैसे स्थानीय अखबारों की पूछ थी ऒर कव्य-गोष्ठियों की रपट अच्छी-खासी जगह घेर लिया करती थी. फालतू लाईन की कुछ टेढी़ गलियों से होते हुए चंदोलाजी के यहां पहुंचे .उनकी वाणी में एक खास किस्म की गुरुता ने ध्यान आकर्षित किया था. यह अभी भी उनके साथ चली आ रही है. वे जब कविता पढ़्ते हैं तो शब्दों का ही पाठ नहीं करते -उनकी वाणी में सरस्वती वर्णों की निरंतर धारा में प्रवाहित होती है.वे प्रायः शब्दों का उच्चारण नहीं करते , अक्षरों का घोष शब्दों की महिमा में निःसृत होता है.उनके काव्य-पाठ की शैली निराली है. पहाडी़ आदमी का हिन्दी उच्चारण उनके यहां एक विशेष नाद ले आया है.
बाईस वर्षों में चंदोलाजी के व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता.उनके सामने लगता है समय ठहर गया है.उनकी कविता भी लगभग समकालीनता का अतिक्रमण करती हुई दिखलायी पड़्ती है.चंदोलाजी नेपथ्य के कवि हैं.वे हालांकि मंचस्थ होते हुए बहुत बार दिखायी पड़ जाते हैं किन्तु मंच पर उनकी धज कविता के साथ ही बन पड़्ती है. वे प्रायः भाषण देते हुए भी देखे जाते हैं.बाईस वर्ष पूर्व उनकी उपस्थिति हम लोगों के लिये बहुत जरूरी थी.इस श्रंखला के शुरू में जिक्र किया जा चुका है कि मंचीय कविता के विरोध में हम लोगों का प्रयास गंभीर कवि-कर्म को जनता के बीच ले जाने की चिन्ता में ज्यादा रहता था ऒर हमें अध्यक्षता करने के लिये सम्मानित बुजुर्गों की आवश्यकता रहती थी.सिद्धेश जी सहज उपलब्ध हो जाते थे. कविजी के कुछ आग्रह रहा करते थे .चंदोलाजी से स्वीकृति मिलना सहज नहीं था.अतुल शर्मा के पास यह गुण बहुत प्रचुर मात्रा में हुआ करता था.इन बाईस वर्षों में तो इसमें ऒर सुधार ही आया होगा.अतुल के साथ सबसे बडी़ खूबी यह रही आयी है कि वह दोनों जगह आसानी से संतरण कर जाता है. अतुल के सॊजन्य से मुझे मंचों की गतिविधियों को नजदीक से देखने का अवसर भी मिला.लेकिन वह एक अलग ही किस्सा है ऒर उसे बयान करने से ज्यादा लाभ नहीं होने वाला है.
हां , तो चंदोलाजी का ज्यादा समय पत्रकारिता ने ले लिया है. लेकिन फिर भी वे काफी समय से युगवाणी में सरग-दिद्दा के नाम से चुटिले लेख लिखते रहे हैं.हिन्दी ऒर गढ़्वाली के फ़्यूजन से युक्त उनकी भाषा ने जो मुहावरा गढा़ है उस पर अभी चर्चा नहीं हुई है. हालांकि गढ़्वाल विश्वविद्यालय में उनकी कविताएं पढा़यी जाती हैं किन्तु उनकी सृजनात्मकता का अभी सही मूल्यांकन होना बाकी है.
चंदोलाजी के साथ समय बिताना अपने में एक रोचक अनुभव है. उनके पास संस्मरणों का खजाना भरा पडा़ है. युगवाणी में बहुत सारा समय उनके सान्निध्य मे बिताने का अवसर मिला है. अपने परिवार की जन्म-कुण्डली के बहुत से ग्रहों-नक्षत्रॊं का पता मुझे चंदोलाजी के श्रीमुख से ही मिला.लीलाधर जगूडी़ ऒर मंगलेश डबराल की आरंभिक रचनाओं की जानकारी चंदोला जी कुछ इस तरह देते हैं जैसे कल की ही कोई घट्ना बता रहे हों.देहरादून के केन्द्र-स्थल में होने के कारण ,ऒर अपनी प्रकृति के चलते भी ,युगवाणी एक महत्वपूर्ण मिलन-स्थल बन चुका है जहां बाहर से आने वाले लब्ध-प्रतिष्ठित विचारक ,लेखक ऒर कवि अक्सर पधारते रहते हैं.चंदोला जी को मैने बहुत कम अपने केबिन से बाहर निकलते देखा है.कितना भी महत्वपूर्ण व्यक्ति हो चंदोलाजी अगर केबिन में बैठे हों तो बाहर नहीं निकलेंगे.आप घण्टे - भर आगन्तुक से बतियाएंगे , नयी जानकारियों से भर जायेंगे ऒर आगन्तुक के जाने पर अपने को समृद्ध समझने लगेंगे.तभी चारू-भाई (उन्हें युगवाणी में इसी नाम से जाना जाता है) अपने केबिन से बाहर आयेंगे.सिगरेट सुलगायेंगे(अब वे सिगरेट पीते हैं या नहीं ,मुझे ठीक जानकारी नहीं है -काफी समय से मैने उन्हें युगवाणी में नहीं देखा है)थोडी़ देर मॊन में कुछ ढूंढेंगे ऒर जिन महानुभाव के प्रभाव में हम गद्गगद भाव में विभोर हुए जा रहे थे उनका प्रशस्तिवाचन शुरू हो जायेगा.व्यक्तित्व-विश्लेषण की इतनी निस्संग तटस्थता अन्यत्र दुर्लभ है.
समय के बीहडों में भटक कर गुम हो चुकी स्मृतियों को बटोर लाने का साहस
तो जैसे चंदोलाजी में भरा ही है,अगली पीढि़यों तक उन्हें पहुंचाने की चेष्टा उनके व्यक्तित्व को विशिष्ट आभा प्रदान करती है.
उनकी कवितायें उनके व्यक्तित्व का ही विस्तार हैं.







प्रस्तुत है कवि चारु चन्द्र चंदोला की कविताएं-

चारु चन्द्र चंदोला

और

पूछती है लकड़ी की अल्मारी
क्या स्टील के भी पेड़ होते हैं ?

थोड़ी ही देर में
आ जाती है स्टील की अल्मारी
और, चली जाती है लकड़ी की वह अल्मारी
वर्षों तक
हीरे/मोती और सोने के गहने
सूंघने के बाद।

पूछते हैं कौवे
चर्चा है, स्टील के भी होने लगे हैं पेड़
बदलना तो नहीं पड़ेगा
हमें अपना बसेरा ?

अदृश्य हो जाते हैं पेड़
और, फोड़े जाने लगते हैं श्रीफल
श्रीपुत्रों के बसेरों के लिए।


खेत और पेट

मुझे मालूम है
वर्षा हो रही है
यह भी मालूम है
पेट और खेत का सम्बन्ध
अच्छा रहेगा

यह मालूम नहीं है
किस खेत का
कौन-सा अन्न
मेरी थाली में आकर
जाएगा मेरे पेट में

यह भी मालूम नहीं है
कितने पेटों में
नहीं पहुंच पाएगा
इस बार की
पैदावार का अंश

मुझे मालूम है
फिर भी आएगा
मेरे द्वार पर
कोई भूखा पेट

आएगी चिड़िया भी
अपने बच्चों के साथ

मुझे नहीं मालूम है
किनकी संख्या अधिक है
पेटों की
या खेतों की ?

Tuesday, March 10, 2009

किसका हक है - एक्स या वाई

कविता, कहानी और आलोचना से पटे पड़े समकालीन हिन्दी साहित्य के बीच अन्य विधाएं कहीं खो सी गई हैं।व्यंग्य तो नदारद सा ही है। हां, इधर कुछ पहल होती हुई सी दिख रही है। उसी को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत हैव्यंग्यकार अशोक आनन्द की ताजा रचना। अशोक आनन्द देहरादून में रहते हैं। वर्ष 2004 में उनकी व्यंग्य रचनाओं को संग्रह खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान प्रकाशित हुआ है।

अशोक आनन्द
धन्य हो प्रभु!


कहा जाता है, कि नारखाने में तूती की आवाज का कोई महत्व नहीं होता, लेकिन जब से मुझे यह "विस्फोटक" शुभ-समाचार प्राप्त हुआ है, कि आज के इस महाप्रदूषित माहौल में आप परम-लोकप्रिय तथा चरम-सुरिंक्षत कमीशन तक को ठुकरा कर "सूखी तनख्वाह ही सबकुछ है" की मधुर-रागिनी में मदमस्त रहते हैं, तब से ही मेरे मन-मस्तिष्क में आपके "त्याग-राग" की तूती हलचल मचा रही है और मेरा ईमान मुझे "पुश" कर रहा है कि मुझ जैसे बाल-बराबर को भी आपकी ताल के साथ ताल मिलानी चाहिए और यदि मैं आपके यशोगान में महाकाव्य न भी लिख पाऊँ, तो--तो कुछ पन्ने रंगने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।
वैसे, मौटे तौर पर, आम लोगों की घातक-धारणा यह है, कि रिश्वत और कमी्शन में जमीन-आसमान का सा अन्तर होता है। उन अक्ल के अंधों के अनुसार, रि्श्वत लेना किसी गलत काम में सहयोग देने, किसी मज़बूर को निचोड़ने अथवा मिस्टर "एक्स" के हक को श्रीमान "वाई" को दिलवाने के षड्यंत्र में शामिल होने जैसा महापाप होता है, जबकि कमी्शन ग्रहण करना तो एक शुद्व-सात्विक प्रक्रिया है, क्योंकि कमीशन स्वीकारने के दौरान न तो किसी फाईल को ठंडे बस्ते के अंधेरे से निकाल कर रौ्शनी में लाया जाता है, जिससे उसका पुर्नजन्म हो सके, न ही किसी बदनसीब को सताया-तड़पाया-रूलाया जाता है और न ही किसी प्रकार की हेरा-फेरी का दामन थामा जाता है। इस नाते, कमी्शन को अपनी अंटी के हवाले करते समय, किसी भी अपराध-बोध को नहीं पालना चाहिए और इसे कुर्सी का प्रसाद अथवा पद-वि्शेष का "हक" समझकर डकार लेना चाहिए या हस्ताक्षर रूपी चिड़िया बिठाने का 101 प्रतिशत वैध नजराना समझ कर, ईमान की घुट्टी में मिलाकर बेखटके पी जाना चाहिए।
इसी क्रम में, उनका "गणित" यह कहता है, कि रिश्वत को तो पहले इशारों-इशारों में और फिर नंगे शब्दों के साथ "एडवाँस" में माँगना पड़ता है, जबकि कमीशन गान प्रदान करने वाला, अपने पूरे होशो हवास में, होम-मिनिस्ट्री से बाकायदा नो ऑब्जेक्शन सर्टीफिकेट लेकर, रिवाज और दस्तूर के मुताबिक, लकीर का फकीर बना, निर्विघ्न कार्य-समाप्ति के पश्चात, कॉलगेट-स्माइल के साथ, चन्द दमड़े अर्पित करने पर आमादा रहता है, तो--तो इस "सूफियाना-भेंट" को स्वीकार न करने की गुँजायश ही कहाँ बचती है ? (और, उस पर तुर्रा यह, कि कमी्शन उर्फ "ऑफिस-एक्सपेंसेज" का उज्जवल-धवल लिफाफा थामने वाले आप इकलौते मेहरबान-कदरदान नहीं होते, वरन् आप तो नीचे से ऊपर तक फैली अमरबेल रूपी जंजीर की एक छुटकी कड़ी मात्र होते हैं और आपकी हाँ या न का कोई खास महत्व नहीं होता)
जाहिर है-उक्त वर्णित शब्दो के आधार पर आज अधिकाँश विभूतियाँ कमी्शन के पक्ष में ही अपना कीमती वोट अर्पित करती हैं और उससे किनारा करके इस चींटी रूपी बेईमानी को चोट पहुँचाने का दुस्साहस बिरले ही कर पाते हैं। ऐसे में, जब मैं आपको इस दूसरी पंक्ति में शान से खड़ा पाता हूँ, तो बरबस मेरे हाथ सलामी के लिए उठ जाते हैं।
यूं, रिश्वत हो या कमी्शन, कुछ महानुभावों की दिलचस्प धारणा यह होती है, कि यदि ऊपरी अन्धी-कमाई का कुछ हिस्सा नेक कार्यों में खर्च कर दिया जाये, तो--तो फिर इस लोक ही क्या, परलोक के लिहाज से भी, किसी प्रकार का "टेंशन" पालने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। यह अलग बात है, कि शायद ऐसे ही शरीफ-बदमाशों की शान में एक शायर फर्मा चुके हैं:-
तामीरें हैं, खैरातें है, तीरथ-हज भी होते हैं।
ये दौलत वाले दामन से, यूँ खून के धब्बे धोते है।

वैसे, छोटी ही नहीं, मोटी बुद्वि वाले भी, मन ही मन यह महसूस करते ही हैं, कि कमीशन रूपी मांसल-मारक "फुलझड़ी", सरकारी खजाने के हरम से ही अगवा करके लाई जाती है और उसके उपभोग-सहवास को बलात्कार और दे्शद्रोह की ही संज्ञा दी जा सकती है। इसी कारण, ऐसे प्रत्येक दलाल की अंतरात्मा उसे कचोटती रहती है अथवा अपना विरोध प्रगट करती रहती है, लेकिन वह नशेड़ी उस कमबख्त को "शटअप" कह कर उसकी बोलती बंद करता रहता है।
पता नहीं, आप किस आधार पर, कमी्शन-कुतिया को दुत्कार रहे हैं। न जाने
क्यों मुझे यह भी विश्वास है, कि आप जैसे संभ्रात-सज्जन का "बगुला-भगत" से कोई नाता नहीं है और न ही "नौ सौ चूहे खा कर हज को जाने वाली बिल्ली" से आपका कोई लेना-देना है और आप इस तथ्य से भी भली-भाँति अवगत है, कि उच्चपद के लिए कमीशन का प्रति्शत अधिकतम होता है, किन्तु खतरा निम्रतम रहता है, क्योंकि कोई काँड हो जाने पर, बड़ा अधिकारी तो पतली गली से साफ बच निकलता है और दण्ड की गाज, किसी छोटे-मोटे कर्मचारी पर ही गिरती है। सम्भव है, आप कमी्शन-जाम से इस कारण कन्नी काट रहे हों, कि कमी्शन-जुगाली की लत पड़ जाये, तो वृहद-वि्शाल तोप-खरीद से लेकर, छुटके से "कफन-बाक्स" की खरीद तक में कमीद्गान खाना पूर्णतया जायज लगने लगता है।
आज, जब मैं अपने को, ऐसे-ऐसे सफेदपो्श लुटेरो याने कमीशन खोरों में घिरा पाता हूँ, जो सचरित्रता और "संतोषधन" का ढिंढोरा पीटते नहीं थकते और "मुँह में राम, बगल में छुरी" का शर्मनाक उदाहरण होने के बावजूद, अपने चमचमाते मुखौटे के कारण इतराते-मदमाते फिरते हैं, तो--तो उन्हें हूट करने के साथ-साथ शूट करने का मन हो उठता है। बुजदिली्वश, मैं ऐसा कुछ नहीं कर पाता और शब्दों की मरहम से अपनी खाज-खुजली मिटाने की कोशिश करता रहता हूँ तथा कमी्शन ओढ़ने-बिछाने वालों को "श्लोक" सुनाने के साथ, आप सरीखे "विल-पॉवर" के धनी महामानव के चरणों में अपनी श्रद्वा के फूल अर्पित करता रहता हूँ।
सच! आज के इस संक्रमण-काल में आप जैसे दुस्साहसी विद्रोहियों की बहुत जरूरत है, जो कमीद्गान का झंड़ा बुलन्द करने वालों के खिलाफ अपने ईमान का डंडा उठा सके।
श्रीमन! आज घर आती लक्ष्मी को लात मारना बेहद मुश्किल होता जा रहा है-भले ही वह सरकारी खजाने में सेंध लगाकर लाई जा रही हो, चाहे दीन-हीन, विवश-मजबूर दे्शवासियों के मुँह के इकलौते निवाले को नीलाम करने से प्राप्त हो रही हो और एक चतुर्थ-श्रेणी कर्मचारी से लेकर राजपत्रित अधिकारी तक, बल्कि उससे भी ऊँची कुर्सी पर विराजने वाले महान महानुभाव भी, चन्द दमड़ों की कमी्शन की एवज मे, अपनी हया और अपने आत्मसम्मान की डुगडुगी पिटवाने में अपनी शान समझते हैं। ऐसे में, आप जैसे उच्चाधिकारी द्वारा, कमी्शन-विरोधी रवैया अपनाना, वास्तव में आठवें आश्चर्य की सी चमत्कारपूर्ण ईमान की मीनार खड़ी करने जैसा भगीरथ-प्रयास दीखता है और आपके इस इकलौते कारनामे के कारण ही यह नाचीज आपको तीन शब्दों का भारत-रत्न सरीखा व्यक्तिगत-तमगा प्रदान करना चाहता है-"धन्य हो प्रभु!

Monday, March 9, 2009

अब न आएंगे हम बाज खुद से ये वायदा किया है

अन्तर्राष्ट्रीय विश्व महिला दिवस के अवसर पर गांधी पार्क देहरादून मे सामाजिक राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संगठनों ने संयुक्त रूप से एक पोस्टर प्रदर्शनी एवं सभा का आयोजन किया। क्रालोस, सं0म0स0, पछास, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी, उत्तराखण्ड महिला मंच,कई राजनैतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं साहित्यकारों ने इस अवसर पर सक्रिय भागीदारी निभाई।
आठ मार्च पूरी दुनिया की संघर्षशील जुझारू महिलाओं के लिए एक यादगार दिन है। आठ मार्च के मुक्तिकामी संघर्ष, जो महिला कामगारों द्वारा अपने काम के घंटों को 16 से घटाकर 10 किए जाने की लड़ाई थी और जिसने गुजरे 10 सालों में घटित तमाम क्रातियों, आजादी के आंदोलनों तथा प्रत्येक छोटे बड़े संघर्षों के लिए दुनिया की महिलाओं को जो प्रेरणा दी, उसके एतिहासिक परिप्रेक्ष को केंद्र में रखते हुए सामाजिक कार्यकर्ता शकुंतला ने अपनी बात संक्षेप में रखी।
कथाकार डा0 अल्पना मिश्र ने आर्थिक आजादी के सवाल को वर्तमान समय में स्त्री मुक्ति के संघर्ष का एक पड़ाव, के रूप में विशेष तौर पर चिन्हित किया और सम्पत्ति पर स्त्रियों के अधिकार को एक मुद्दे के रूप में रखा।

गीत संगीत और साहित्यिक रचनाओं के साथ महिला कामगारों के जीवनानुभवों का यह आयोजन अपने ही तरह का अनूठा आयोजन था जिसमें जहां एक ओर एक मजदूर महिला सरजहां सुनिता ने अपने जीवन की कठोर सच्चाइयों को बेबाकी से रखा वहीं दुसरी ओर जौनसार जनजातीय क्षेत्र में सामाजिक रूप् से सक्रिय शांति वर्मा ने एक जौनसारी गीत गाया। एम के पी पी जी कालेज की छात्रा मनीषा ने कथाकार दीपक शर्मा की कहानी "चमड़े का अहाता" का पाठ किया एवं स्वाति ने पवन करण की कविता "स्त्री सुबोधनी" का पाठ किया।एम के पी पी जी कालेज की एक अन्य छात्रा शिक्षा सेमवााल ने समाज में स्त्रियों की वर्तमान अवस्था पर समाजशात्रिय ढंग से बात रखी। पर्वतीय जनकल्याण समिति की हेमलता ने-
मनमानी करेंगे हम आज खुद से ये वायदा किया है ।
अब न आएंगे हम बाज खुद से ये वायदा किया है

गीत गाया।
उत्तराखण्ड महिला मंच की सामाजिक कार्यकर्ता कमला पंत जिन्होंने राज्य आंदोलन के दौर में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और लगातार सक्रिय हैं, ने अपने व्यवहारिक अनुभवों से सभा को संबोधित किया।

रंगकर्मी श्रीश डोभाल, पछास के छात्र नितिन और भोपाल ने भी अपनी बात रखी। दृष्टि नाट्य संस्था के राजीव कोठारी ने एक जनगीत गाया।
सभा का संचालन वरिष्ठ कवियित्री कृष्णा खुराना ने किया।


युवा रचनाकार प्रेरणा पांडे एवं जयंती द्वारा इस अवसर पर पढ़ी गई कविताएं यहां प्रस्तुत है-
प्रेरणा पांडे

लड़की
एक

मां, तुमने मुझे
गुड़िया न दी होती जो
मैं यही नहीं होती
न खेला होता घर घरौंदा

होता मेरा भी मन
तितली, हवा या एक परिंदा

तुमने सिखाया मुझे
इच्छाओं के सहस्त्रनाग का
फन पकड़ना
टूटे मन तो चुपचाप
आंसू बोना-
क्या ऐसा ही होता है
किसी लड़की का लड़की होना ?


दो

मैं खुश हूं कि मेरी एक बेटी है
मैं नहीं दूंगी उसको गुड़िया
सिखाउंगी उसे लड़ना-भिड़ना
समय से दो-दो हाथ करना

बनाएगी घरौंदे वह आसमान में
सिखाउंगी उसे
इच्छाओं के पर से उड़ना

पिता से, परिवार से
समाज से भिड़ जाने का
मैं दूंगी उसे हौसला
लड़की बनकर दिखाने का।




जयंती

औरत होने का दर्द

आज
जब जाना है मैंने तुम्हें
लिख रही हूं कविता
औरत होने का दर्द
भोग रही हूं वही पीड़ा
शताब्दी दर शताब्दी
हमारी ही शक्ल में
भोगी गई होगी जो

तुम्हारी जिज्ञासाएं
आज भी खोज रही हैं
अपना अर्थ
चल रहा है द्वंद
भीतर तुम्हारे
तुम जो बार-बार बदल देती हो कपड़े
न्ाहीं बदल पाती अपने आप को
सौंप आती हर रात
अपनी देह
नोंचने के लिए
फिर थके बदन गिरती हो
निढाल होकर
एक एक कर
गिनती हो अपनी खरोंचो को
अपने कीचड़ में उगा देती हो
एक बीज
और देती हो उसे एक शक्ल
अपनी ही तरह

Thursday, March 5, 2009

गंदी बस्तियों के बच्चे

राजेश सकलानी

जैसे नालियॉं होती हैं वैसे ही गंदी बस्तियॉं भी होती हैं। नालियों की तरफ देखा नहीं जाना चाहिए। वे तकलीफ देती हैं। वे हमारे कारनामों को प्रकट करती है। उस गन्दगी में हम खुद ही बह रहे होते है। वे हमारी नाकामयाबी और हरामीपन को प्रकट करती हैं। हमें उन नालियों में अपनी असफलता दिखलाई देती है। यद्यपिः हम चाहते हैं कि नालियॉं हों किन्तु हम सफाई का ध्यान नहीं देना चाहते। यह हमारी परम्परा है। तथाकथित गौरवशाली परम्परा। मैली बस्तियॉं भी ऐसी ही होती है। रहना तो दूर, हम उनकी तरफ देखना भी नहीं चाहते हैं। वे हमारी सामाजिक रिश्तों की याद दिलाती है। हम हैं कि उनसे बचना चाहते है। हम चाहते हैं, मैली बस्तियॉं खत्म हो जाएं। वहां पर सुन्दर इमारतें बन जाएं, लेकिन वहां के निवासियों के लिए हम कोई कल्पना नहीं करते। हमें यह गतिहीनता भी परम्परा से ही मिली है। मनष्यता के लिए जन्मजात प्रेम का थोड़ा-सा अंश भी हमारे भीतर नष्ट प्राय: हो जाता है। क्योंकि सबको बदलने का संकल्प हमें हमारी राजनीति और सामाजिकता और धर्म नहीं देता। वह एक रूग्ण किस्म की घ्रणा में बदल जाता है। इसीलिए हम गन्दी बस्तियों को आशंका और असुविधा की तरह देखते हैं।
लेकिन पूंजीवादी, बाजारवादी मस्तिष्क इस घृणा दृश्य से भी मुनाफा ढूंढ निकालता है और मनु्ष्य की नियती को बदलने के आदर्श को कला से बहि्षकृत कर छलावे को निर्मित करता है और गुलामी के लिए हमारे बचे-खुचे संकल्प को ध्वस्त करने की को्शिश करता है। बाजार ऐसे ही उत्पादों से पेटा पड़ा है। विराट फलक पर बेहतरीन संगीत, सिनेमा, तस्वीरें, रैपर, डिब्बे आदि उपभोक्ताओं के लिए बनाए जा रहे है। नए दृ्श्यों और कथानकों की खोज में पूंजीवादी कैमरा मैली बस्तियों की मनुष्योचित ऊर्जा और जिजिविषा कों अन्यथा अचि्ह्नित जगहों पर पहुंच रहा है और जनता को मूर्ख बना कर तालियां और धन लूट रहा है। मैली बस्तियों के बाशिन्दों को कुत्तों में बदल डालता है। उनकी कला में खिलवाड़ यह है कि करोडों कुत्तों में कोई एक धनवान शोर में बदल जाएगा। विडम्बना यह है कि इस कला में दुनिया के बेहतरीन दिमागों का इस्तेमाल हो जाता है। वास्तव में इन दिमागों के मालिक खूंखार कुत्ते हैं जिनके गले में व्यवस्था का शानदार पट्टा लगा है और वे चेन से बंधे हुए हैं।
'स्लमडाग मिलेनियर" फिल्म को मिले आठ ऑस्कर पुरस्कारों में भारतीयों की अहम् भूमिका है किन्तु फिर भी गर्व करने का मौका नहीं बनता है। वैचारिक रूप से यह फिल्म दुनिया के ढांचे को बदलने से कतई इन्कार करती है। हॉं जरूर विचार आता है कि 'मां तुझे सलाम" और 'जय हो" को सशक्त तरीके से हम तक पहुंचाने वाले गायक, संगीतकार ए आर रहमान को इन गीतों के जरिए सामाजिक, राजनैतिक और कलापूर्ण हस्तक्षेप के लिए याद किया जाना चाहिए। साम्प्रदायिक द्वे्षी इसे ध्यान से सुनें।

Monday, March 2, 2009

तुम कहां के बाशिंदे हो

देहरादून के लिए य़ह खबर है कि मुम्बई में रहने वाला देहरादूनिया सूरज प्रकाश ६ मार्च को अपने शहर देहरादून में पहुंच रहा है। खबर इसलिए कि एक लम्बे अरसे बाद, वर्ष २००५ के बाद, जब पिछले दिनों वे देहरादून आ रहे थे तो एक आकस्मिकता की लपेट में देहरादून आने की बजाय उन्हें दिल्ली ही रूक जाना पडा और देहरादून में उनके आने की सूचना प्राप्त हुए मित्र बेचैनी से उनकी राह तकते रहे। अपनी जीवटता के दम पर सूरज ने उस कठीन समय का मुकाबला किया है।
कथाकार नवीन नैथानी उसी देहरादून के बाशिंदो का जिक्र करते हुए, जिसका बाशिंदा हमारा मित्र सूरज भी है, अपने लेखन के उन शुरूआती दिनों को जिक्र फ़िर से बिलकुल अलग अनुभवों के साथ कर रहे हैं। देहारादून के चरित्र को व्याख्यायित करने की नवीन यह कोशिश प्रशंसनिय है, जो आगे भी जारी रहनी है।


नवीन नैथानी

देहरादून की फितरत का पता इसके बाशिन्दों से लगता है. वे जव शहर से बाहर जाते हैं तो शहर को भूल नहीं पाते. पता नहीं, दूसरे शहरों में रहने वाले लेखक अपने शहर को किस तरह से देख्रते हैं.सुरेश उनियाल , मनमोहन चड्ढा ऒर सूरज प्रकाश देहरादून से बाहर रहते हैं लेकिन लगता नहीं कि वे देहरादून में नहीं रहते . हां, पिछली किस्त में मैंने सिद्धेशजी का जिक्र किया था. उस त्रयी के अन्य महानुभावों पर बात करना एक तरह से शहर के उन दिनों को फिर से जीने की तरह है.
कविजी (सुखबीर विश्वकर्मा ) वेनगार्ड में काम करते थे- वे उस अखबार में हिन्दी संपादक थे. वह एक विलक्षण अखबार था.द्विभाषी. अंग्रेजी ऒर हिन्दी में. तीन पन्ने अंग्रेजी में होते थे ऒर एक पन्ना हिन्दी में .हिन्दी का पन्ना पूरी तरह साहित्यिक होता था. अक्सर कवितायें छपती थीं.साहित्यकारों के साक्षात्कार होते ऒर गोष्ठियों की रपट होती.कविजी हिन्दी पन्ने के तो घोषित सम्पादक थे ही, अंग्रेजी की सामग्री भी जुटाते थे-अधिकतर STATESMAN की कतरने वे रामप्रसादजी को पकडा़ देते.रामप्रसाद एक माहिर कम्पोजिटर थे.लैटर-प्रेस के वे दिन बहुत जादुई लगते हैं.सीसे के ढले हुए अक्षर,स्याही की गन्ध ऒर ट्रेडल-मशीन की आवाज!शाम की नीम-रोशनी में पढे़ जाने का इन्तजार करता हुआ ताजा छपा पन्ना रामप्रसाद के हाथों में होता.कविजी प्रूफ फ़ाईनल करें तो फ़र्मा छपे ऒर रामप्रसाद घर जायें.रामप्रसाद में असीम धैर्य था.सब कविजी की आदतों के साथ होना जानते थे-खासतॊर पर तब, जब उनके पास साहित्यकार बैठे हों.
अखबार के मालिक जीत साहब अपना पोर्टेबल टाइप राइटर लिये शाम चार बजे के आसपास वेन गार्ड के दफ्तर में आते थे .कोई खास रपट टाइप करते ऒर संपादकीय लिख कर कविजी के हवाले कर देते . हमने उन्हें ज्यादा देर वेन गार्ड के दफ्तर में नहीं देखा. कविजी प्रूफ देखते, खबरें दुरूस्त करते ऒर शहर की सरगोशियों को कान दिये रहते. वे वेनगार्ड के दफ्तर में बैठे-बैठे शहर की साहित्यिक - सांस्कॄतिक गतिविधियों की खबर रखते थे. एक जमाने में वेन गार्ड लेखकों की एक किस्म की नर्सरी के रूप में जाना जाता था. मैंने पुराने लोगों से सुना है कि वहां अच्छा खासा जमावडा़ हुआ करता था. हां, अवधेश के साथ कई मर्तबा शाम की बैठक में शामिल होने का मॊका जरूर मिला.
वेनगार्ड में संभवतः विजय गॊड़ ने ओमप्रकाश वाल्मीकि का साक्षात्कार लिया था जो हिन्दी में दलित-विमर्श से बहुत पहले की घटना है.उन्हीं दिनों की बात है-रतिनाथ योगेश्वर ऒर जय प्रकाश ’नवेन्दु’ ने देहरादून के युवा कवियों की कविताओं का संग्रह निकाला ’इन दिनों’ नाम से. उस संग्रह की समीक्षा खाकसार ने की ऒर कविजी की प्रशंसा में कुछ टिप्प्णी की थी जिसका भाव कुछ युं था कि कविजी ने बेहद ठण्डेपन के साथ अपनी बात कही है.काफी दिनों के बाद कविजी से शाम के वक्त घंण्टाघर में अचानक भेंट हो गय़ी. उन्होंने नाराजगी जाहिर की-सुखबीर विश्व्कर्मा ठण्डा कवि है!तुमने मुझे ठण्डा कवि कैसे बता दिया.
हिन्दी में दलित विमर्श की गूंज देहरादून से ही उठी - यह एक तथ्य के रुप में रखा जा सकता है। 'सदियों का संताप" दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह है, जिसकी खोज में दलित साहित्य का पाठ्क आज भी उस कविता संग्रह पर छपे उस पते को खड़खड़ाता है जो इसी देहरादून की एक बेहद मरियल सी गली में कहीं हैं। हिन्दी साहित्य के केन्द्र में दलित विमर्श जब स्वीकार्य हुआ, तब तक कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) वैसी ही न जाने कितनी ही रचनाऐं जैसी बाद में दलित चेतना कीसंवाहक हुई, लिखते-लिखते ही विदा हो गये। मिथ और इतिहास के वे प्रश्न जिनसे हिन्दी दलित चेतना का आरम्भिक दौर टकराता रहा उनकी रचनाओं का मुख्य विषय था। अग्नि परीक्षा के लिए अभिशप्त सीता की कराह वेदना बनकर उनकी रचनाओं में बिखरती रही। पेड़ के पीछे छुप कर बाली का वध करने वाला राम उनकी रचनाओं में शर्मसार होता रहा। - कागज का नक्शाभर नहीं है देहरा दून

उनके पास पत्रिकाएं बहुत आती थीं. तमाम जगह वे छ्पे ऒर गर्व से इस बात को कहा करते थे कि वे जितनी जगह छ्पे हैं, उतनी जगह कोई दूसरा कवि नहीं छपा होगा.उनके पास मिलने वालों की अक्सर भीड़ लगी रहती थी.शुरु-शुरु में मुझे ताज्जुब होता था कि अवधेश कवि जी के पास बैठ कैसे जाता है! उनके दफ्तर के सामने कनाट प्लेस का ठेका था (देहरादून में एक कनाट प्लेस भी है).तो मैं इसके पीछे ठेके की मॊजूदगी कोसबसे बड़ा कारण समझता था. य्ह एक कारण था पर सबसे बड़ा कारण नहीं था. कविजी के व्यक्तित्व में एक सहजता थी. निर्भीकता भी-अपनी बात पर अड़ गये तो फिर आप उन्हें समझा नहीं पायेंगे.एक बार से.रा.यात्री उनके कब्जे में पड़ गये. यह १९९०में मई-जून की कोई शाम थी. अवधेश मेरे साथ था.हरजीत संभवतः नहीं था.किसी बात पर कविजी उलझ पडे़.यात्रीजी ने हाथ जोड़ लिये. यात्रीजी का एक वाक्य मुझे अक्सर याद आ जाता है-ऐसा नशा-खाऊ आदमी मैंने नहीं देखा.
खैर, कविजी नशा-खाऊ तो नहीं थे. बाद के वर्षों में एक तरह की कुण्ठा उनमें घर कर गयी थी. वे अपना कविता संग्रह राष्ट्रपति को भेंट करने जब दिल्ली गये तो मेहमानों की फेहरिस्त में अवधेश का नाम जुड़्वाना नहीं भूले. अवधेश दिल्ली गया कि नहीं ,यह मुझे ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा.
कविजी के व्यक्तित्व के बहुत से पहलू मुझे जितेन ठाकुर से पता चले. जितेन अपने साहित्यिक सफर की शुरूआती वर्जिश में वेनगार्ड के पास काफी टहला किये.
मृत्यु-पर्यंत कविजी कवि - कर्म में लिप्त रहे.हरिद्वार में कवि-सम्मेलन था. लॊटते हुए जीप पलट गयी. हरजीत गम्भीर रूप से घायल हुआ. कविजी दुर्घटना -स्थल पर ही हत-प्राण रह गये.