Tuesday, June 30, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर - आठ




सुबह के वक्त थमजैफलांग में बारिस की रिमझिम पड़ने लगी। तम्बू उखाड़ चुके थे। सामान की पैकिंग की जा चुकी थी। रोहतांग पार बारिस- सच में एक सुकून देने वाला क्षण था। कमलनाथ जी की पुस्तक स्फीति में बारिस तो बारिस के इंतजार का ही गान है। हमारे अपने अनुभवों में भी यह पहला ही क्षण था। लेकिन बारिस में भीगने का खतरा नहीं उठा सकते थे। ठंड बढ़ने लगी थी। बारिस से बचने के लिए पॉलीथिन की बरसातियां निकाल ली गयीं। और बरसाती ओढ़े-ओढ़े ही सिंगोला की ओर रुख किया। रंगबिरंगी बरसातियों में ढके हम चलते फिरते ढूह नजर आ रहे थे। हर कोई दूसरे को ढूह कह सकता था। लेकिन हमारे साथ चल रहा वह इजरायली लड़का हम सबक को ढूह कह कर मंद-मंद मुस्करा रहा था जो पलामू से हमारे साथ चल रहा था।

वह हिन्दी भाषा सीखना चाहता था। देवनागरी स्क्रिप्ट उसने एक हद तक सीख ली थी और कुछ शब्द भी टूटे-फूटे तरह से बोलने लगा था। कोई नया शब्द सुनता तो उसकी उत्सुकत बढ़ जाती। अर्थ पूछ कर उसे बार-बार दोहराता। ढूह- उसकी जुबान में था। ब्रिटेन वासी एक दूसरा युवक उसका सहयात्री था। दोनों की ही उम्र में करीब 13-14 वर्ष का अंतर था। पलामू में ही पहली बार इन दोनों युवकों से मुलाकात हुई थी। वहीं से वे हमारे साथ-साथ थमजैफलांग तक पहुंचे थे। पलामू में टैन्ट गाड़ कर बैठे वे दोनों ही आगे के मार्ग से अनभिज्ञ थे। दारचा से चलते हुए उनके सामने बहुत स्पष्ट नहीं था कि आगे कितने दिनों का मार्ग है पदुम तक। हालांकि एक गाईड बुक उनके पास थी। पर उसमें दिए गये वर्णन से बेपरवाह वे दोनों बिना पर्याप्त भोजन सामाग्री को लादे ही निकल पड़े। कुछ पैक फूड ही लेकर चले थे वे। कोई गाईड या सहयोगी भी उनके साथ नहीं था। पलामू में वे हमारे तम्बू में आए तो अपरिचय की दीवार टूट गई। मालूम हुआ कि दोनों ही भारत में, वो भी इस जांसकर यात्रा के दौरान ही एक दूसरे के दोस्त बने हैं और यात्रा कि समाप्ति पर फिर अपने-अपने रास्तों के हिसाब से निकल लेंगे। यात्रा के दिनों के हिसाब से उनके पास राशन का अभाव था। पूछने लगे कि आगे कहां मिल सकता है। उस बीहड़ में कहां तो मिलना था राशन। हम स्वंय ही उस जिम्मेदारी के दबाव में आ गए कि इनके लिए कुछ न कुछ व्यवस्था तो करनी ही होगी। हम तो अपने हिसाब से ही राशन लादकर चले थे। कम-कम भी खाएं तो एक व्यक्ति को तो एडजस्ट किया जा सकता था पर वे दो थे। खैर उस शाम का भोजन तो हमने उनके लिए भी बनवा दिया। कैम्पिंग-चार्ज वसूलने के लिए तम्बू लगाए नेपाली लड़के से गुहार लगाई कि किलो दो किलो चावल और कुछ दाल का प्रबंध कर दे। नेपाली युवक सहृदय था। हमारे कहे का मान रख दिया और आगे के दो-तीन दिनों की राशन उसने वाजिब पैसे लेकर अपने टैन्ट से निकाल कर मुहैय्या कर दी।
थमजैफलांग तक वे दोनों ही साथी हमारे साथ थे लेकिन थमजैफलांग पहुचते-पहुचंते एक साथी की तबीयत खराब होने लगी। ब्रिटेन वासी जो रास्तेभर सिगरेट का धुंआ उड़ाता रहा, उसकी सांस फूलने लगी थी और एक-एक कदम बढ़ाना उसके लिए भारी हो गया। हम लोग तम्बू गाड़ चुके थे। लेकिन न तो इजरायली युवक रूई अमित और न ही उसका साथी अभी तक पहुंचे थे। उनका इंतजार करने के बाद अंतत: यह मानते हुए कि शायद जांसकर सुमदो भी ही वे लोग रुक गए हैं, हमने सूप बनाया और पी कर कुछ देर यूंही लेटे कि आंख लग गई। थकान ज्यादा थी। कुछ ही देर बाद कुछ आवाज-सी हुइ। सोचा हमारा सहयोगी दोरजे है जो अपने घोड़ों के साथ बतिया रहा है शायद। बस वैसे ही लेटे रहे। जब आंख खोली तो देखा कि इजरायली युवक रूई अमित पहुंच हुआ है। उसके चहरे पर थकान थी और परेशानी के भाव। पूछना चाहा तो कुछ कहना उसने उचित न समझा। उसके चेहरे पर थकान की रेखाएं इतनी गहरी थीं कि उसकी नीली आंखें गडढों में धंसकर और नीली हो गईं थीं। हम उसे आराम करने देना चाहते थे। लिहाजा उसे यूंही अपने शरीर को ढीला छोड़ कर उसे बिना डिस्टर्ब किए लेटने दिया। लेकिन थोड़ा विश्राम करने के बाद रूई अमित अपना पिट्ठू वहीं पटक गायब था। सोचा, दिशा-मैदान के लिए निकला होगा। लेकिन थोड़ी ही देर बाद वह अपने साथी ब्रिटेनी युवक का पिट्ठू लादे गहरी थकान से भरे पांवों को उठाते हुए उस पहाड़ी के कोने से प्रकट हुआ, थमजैफलांग जिसकी ओट में था। पीछे-पीछे उसका साथी। उसकी हालत कहीं ज्यादा खराब थी। हमारे तम्बू के पास आकर उसने पिट्ठू को ऐसे पटका मानों एक क्षण भी उसे संभाले रखना अब उसके लिए संभव न रहा हो और हाथ पांवों को फैलाकर थमजैफलांग के उस मैदान में लेट गया। ऐसे मानो उस छोटे से मैदान को अपने शरीर से ढांप लेना चाहता हो। उसके साथी के लिए तो उस तरह से लेटना भी संभव न रहा। वह तो उल्टियां कर रहा था। दोनों की स्थितियां हमें परेशान कर गयी। दवा के बाक्स को ढूंढा गया और जल्द से जल्द उनका उपचार कर देना चाहा । कच्चे लहसुन की एक फांक उन्हें चबाने को दी। अपने अनुभव के देशीपन में ऊंचाई पर आने वाली समस्या से हम अक्सर ही ऐसे निपटते रहे हैं। ब्रिटेन के उस युवक का हाथ पकड़ कर उसे इधर-उधर चहलकदमी करवाई तो उसे थोड़ा आराम-सा मिलने लगा। ऐसा लगता था कि सिगरेट की बुरी लत ने उसके फेफड़ों की ताकत को निचोड़ दिया है। वह अपने शरीर में तकात महसूस ही नहीं कर रहा था। रूई अमित शांत था। कुछ देर तक वैसे ही लेटा रहा। फिर जाने कहां से उसमें ऐसी स्फूर्ति आई कि टैंट खोलने लगा। हवा जो कुछ देर पहले काफी तेह बह रही थी- अभी उसकी गति में कुछ कमी आ गई थी। अपना टैंट लगाने के बाद हमारे साथियों ने उन युवकों का टैंट भी लगवाना चाहा तो रूई अमित हिचकने लगा। लेकिन आग्रह को टाल न पाया। उनका तम्बू खड़ा हो गया था।
रूई अमित तो फिर भी थोड़ी देर बाद अपने को ठीक महसूस करने लगा लेकिन ब्रिटिश युवक की हालत गम्भीर थी। वह आगे निकलने से घ्ाबराने लगा था। हम भी नहीं चाहते थे कि इस हालत में वह सिंगोला की लगभग 17000 फुट की उस कठिन चढ़ाई पर चढ़े। रूई अमित अमित का मन जांसकर को देखने का था। अपनी यात्रा को स्थगित होते देख वह गम्भीर हो गया था। एक खास किस्म की निराशा उसके चेहरे पर थी। आगे जाना चाहता था। हिम्मती था लेकिन अकेले आगे जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था। वह चाह रहा था कि हम उसे अपने साथ ले चलें। वह पदुम तक जाना चाहता था। टैन्ट और अन्य साधन उसके अपने पास थे। वह कह रहा था कि फूड आईटम्स उसके पास है। पांच-छै मैगी के पैकेट और पलामू में खरीदा गया मात्र थोड़ा-सा राशन- दाल और चावल। रूई अमित की इच्छाओं का दमन नहीं किया जा सकता था। लेकिन उस ब्रिटिश युवक का क्या होगा ? यही हमारी चिन्ता थी। लेकिन उसका हल खुद उसने ही निकाल दिया। वह भी चाहता था कि हम रूई अमित को अपने साथ ले जाएं। वह खुद वापिस लौटना चाहता था- दारचा। बस रूई अमित हमारा साथी हो गया। वैसा ही साथी जैसे दोरजे सहित हम छै थे। उसे मिलाकर सात।


हम सभी साथी चुमी नापको की ओर बढ़ रहे थे। चुमी नापको- सिंगोला का बेस।
मौसम अभी पूरी तरह से साफ नहीं हुआ था।
हां, बारिश रुक चुकी थी। मौसम के गीलेपन की वजह से हवा का वो बहाव जो पास के एकदम नजदीक काफी तेज होता है और जिसमें टैन्ट लगाना आसान नहीं होता है, अभी उतना वेगवान नहीं था। लेकिन वैसा ही शांत बना न रहेगा, इस बात से अनभिज्ञ न थे। बस्स, जब तक मौसम साथ दे रहा है, टैंट गाड़ लेते हैं, यह हर कोई कह रहा था। टैंट गाड़ दिए गए। चारों ओर बर्फीली चोटियों के बीच चुमी नापको पर हमारे टैंटों की रंगीनियां बिखर गई।

मौसम के मिजाज में जो बदलाव था वो हैरान करने वाला भी था और उसी वजह से थोड़ा परेशान भी हो गए। समाने के पहाड़ों पर ताजा पड़ी बर्फ की सफेदी स्पष्ट थी। सिंगोला यूं तो ऊंचाई पर होते हुए भी आसान पास कहा जा सकता है- हौले-हौले उठती हुई चढ़ाई। पर सीधी धूप गिरने की वजह से बर्फ सुबह ही गलने लग जाती है वहां और फिर गलती हुई बर्फ में घुटनों-घुटनों धंसते हैं पांव। जिन्हें निकालने में ही सारी ऊर्जा खर्च हो जा रही होती है। फिर तो पार करना कठिन लग रहा होता है। सोचते रहे कि कल यदि मौसम ठीक से न खुला तो क्या सुबह-सुबह ही निकलना संभव होगा ? और निकलने में देर हो गई तो कहीं फंस न जाएं गलती हुई बर्फ में। हमारे अनुभवों में इसी सिंगोला पर घुटनों-घुटनों धंसना अटका हुआ था।

समाप्त

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समाप्त

Sunday, June 28, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर- सात

पलामू से आगे जांसकरसुमदो तक रोड़ काटी जा चुकी है। उसी कच्ची रोड़ पर, जो बीच बीच में गायब हो जाती थी लेकिन कुछ ही दूर जाकर फिर प्रकट, हम बढ़ लिए। 1997 में जब इसी रास्ते से गुजरे थे तो बोल्डरों भरे रास्ते पर चलते हुए पेट दुखने लगे थे । हर क्षण लगता था कब आएगा जांसकरसुमदो और जब जांसकर सुमदो पहुंचे थे तो विशाल हरे मैदान को देख कर तंबू तन गया । एक ओर भेड़ वालों का बसेरा था और दूसरी ओर, जांसकर नाले के एकदम नजदीक हम। कारगियाक गांव का नाम्बगिल दोरजे अपने घोडों के साथ हमारा सहयोगी था। घोड़ों को जांसकर नाले के पार उतारने के लिए उसने इसी दरिया में घोड़ों को धकेल दिया था। जो तैरते हुए नाले के पार हो गए थे। लेकिन इस बार तो कच्ची ही सही, फिर भी एक हद तक समतल कही जा सकने वाली रोड़ पर हम बढ़ते रहे। जांसकरसुमदो से लगभग आधा घंटा पहले तक रोड़ एकदम स्पष्ट थी। आगे का आधा घंटा वही पुरानी स्मृतियों वाला - बोल्डरों भरा था। उस रास्ते पर एक बड़ी जल धारा भी पार करनी पड़ी।
उछाल मारता हुआ पानी जांसकर नाले में मिल जाने को तेज ढलान पर आवाज करता हुआ और पत्थरों को लुढ़काता हुआ बहता चला जा रहा था। पानी का बहाव देख कर एक बारगी तो हिम्मत जवाब देने लगी, कैसे पार करेंगे ? पर पार तो जाना ही था । घोड़े हमसे बहुत पहले पार हो चुके थे । पलामू से निकलते ही घोड़े वाले ने इस पानी के बाबत आगाह कर दिया था कि जितना जल्दी हो निकल लें वरना दोपहर होते - होते तक पानी बढ़ जाता है । उस वक्त उसकी राय पर कोई तवज्जो ही नहीं दी।
जूते भीग न जाएं इसलिए उन्हें उतार लिया गया। वस्त्रों को घुटनों तक मोड़ लिया और एक दूसरे के सहारे चाकू की धार सी ठंडक लिए उस तेज बहते पानी में उतर गए। रिपटते, संभलते और एक दूसरे को सहारा देते हुए पार हो गए। बस ऐसे ही आगे का बोल्डरों भरा रास्ता भी पार कर लिया। जांसकरसुमदो पहुंच चुके थे। जांसकरसुमदो का बदला हुआ रूप देख कर चौंक गए। हरियाली का कहीं नामो निशान न था । पत्थरों का साम्राज्य बिखरा हुआ था । यदि पत्थरों और रेत भर वह मैदान-सा न दिखाई देता और ना ही जांसकर नाले और बरसी नाले का संगम वहां पर दिखता तो तय था कि हमारी पुरानी स्मृतियां उस जगह को जांसकर सुमदो मानने ही न देती।
हो सकता है कि रास्ता भटक जाने का एक अनजाना भय भी हमें घेर लेता । पर जांसकरसुमदो का भूगोल, सिर्फ उस हरियाली को छोड़कर जो 1997 में थी, वैसा का वैसा ही था। पूरा मैदान नदी का पाट जैसा दिख रहा था। संभवत: पिछले कुछ वर्षों में बरसी नाले का बहाव जांसकर सुमदो के मैदान की हरियाली को बहा ले गया होगा। और बदले में जो कुछ था वह पत्थर और रेत। मैदान के बीच में एक कच्चा पुल भी दिखा। अनुमान लगा सकते हैं कि बरसी नाले ने, दारचा से जांसकर या जांसकर से दारचा आने-जाने वाले स्थानीय लोगों को मुसीबत में डाल दिया होगा। और जिससे निपटने के लिए ही उस कच्चे पुल का निर्माण किया होगा जो अब मैदान के बीच में टूटा हुआ अकेला और उदास पड़ा था। यानी जांसकर सुमदो में पत्थर और रेत बिखेर कर बरसी नाला अपने पूर्व मार्ग पर वापस लौट चुका। पत्थरों और रेत के उस मैदान पर रुकने के बजाय झूला पुल से बरसी नाले को पार कर सिंगोला पास की ओर बढ़ती हुई चढ़ाई पर चढने लगे और थमजैफलांग जा कर रूके। बरसी नाले के साथ-साथ यदि आगे बढ़ें तो पहाड़ी दर्रों को पार कर जम्मू कश्मीर की मयाड़ घाटी में उदयपुर उतरा जा सकता है।



-जारी
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Friday, June 26, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर- छै




दोपहर 1 बजे के आस-पास पलामू का मैदान दिखाई दे गया। खूबसूरत कैम्पिंग ग्राउंड। जांसकर नाले के एक ओर । दक्षिण के पहाड़ों से उतर कर आ रही जलधारा जो मैदान के बीचो बीच बह रही थी,, के दोनों ओर दो तम्बू गड़े हुए- स्थानीय निवासियों के। 1997 में भी इस रास्ते से गुजर चुके हैं। उस वक्त स्थानीय निवासी सैलानियों से कैम्प लगाने का कोई चार्ज नहीं लेते थे। अभी तो वे इंतजार में हैं कि सैलानी आएं तो अपने खाली पड़े खेतों पर तम्बू गाड़ने का चार्ज लें। आय का एक स्रोत तो उन्होंने भी जांसकर वासियों की तरह खोज ही लिया है। फिर पलामू का मैदान तो है भी खूबसूरत। हरियाली ऐसी कि मन लोटने को हो।


कौन नहीं रुकना चाहेगा ! बर्फीले पहाड़ों के बीच हरा मैदान कैसा सुकून देता है, इसे तो यहां आकर ही जाना जा सकता है। फिर रोहतांग पार के रूखेपन के बाद यह हरियाली तो सचमुच ललचाने वाली है। अब यह तो नहीं कह सकता कि सड़क, जो यहां काटी जा रही है, होनी ही नहीं चाहिए क्योंकि उससे प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट हो जाएगा। हां, इतना जरूर कहूंगा कि विकास का कोई ऐसा मॉडल बने कि सड़क और दूसरी सुविधाएं भी हों और प्रकृति का यह खजाना भी नष्ट न हो। वैसे भी रोहतांग के पार, सिंगोला पास के इस रास्ते पर ऐसा हरा मैदान तो दूसरा कोई है नहीं। बल्कि मेरे अनुमान से तो पूरे रोहतांग पार के भूगोल में जो कुछ गिनती के हरियाले मैदान होंगे, उनकी सूची पलामू के बिना अधूरी ही कही जाएगी। 1997 में इसी रास्ते से गुजरे थे। चतरसिंह जो उस वक्त हमारा मार्गवाहक था, अपने घोड़ों को, जो उसने चुगने के लिए छोड़े थे, पलामू से ही लेकर दारचा पहुंचा था और राशन आदि लादने के बाद हमें हमारे पहले पड़ाव पलामू तक लाया था। पलामू के मैदान में पहुंचकर उसके घोड़े भी ऐसे हिनहिनाए थे कि पलामू की हरियाली फुरफुरा गई थी। पलामू पार करने के बाद भी जब अगले पड़ाव जांसकरसुमदो पहुंचे थे

तो रात को घास चुगने के लिए खुले छोड़ दिए गए घोड़े पलामू के मैदान तक ही निकल आए थे और जिन्हें खदेड़ लाने के लिए निकलते वक्त चतर सिंह के मुंह में पलामू की हरियाली के लिए गालियां फूटी थी। उस समय बस-मार्ग दारचा से आगे रारिक तक ही था। अभी तो रारिक से भी आगे छीका तक पी सड़क है। बस भी आती है अब छीका तक। बल्कि कहूं कि छीका से आगे जांसकर नाले पर बने उस पुल, जिस पर होकर नाले के पार्श्व को बदलना मजबूरी है, जो पलामू का रास्ता पकड़ता है, तक कटी हुई सड़क बेशक कच्ची है पर जीप या ऐसा ही कोई दूसरा वाहन उस पर दौड़ ही जाता है। वे सैलानी जो सिर्फ पलामू के सौन्दर्य का आनन्द लूटना चाहते हैं, दारचा से जीप बुक कर उसी पुल तक आ जाते हैं। लगभग दस वर्ष पूर्व के उस समय में लकड़ी के पुल से जांसकर नाले को पार किया था। पुल भी क्या, लम्बी-लम्बी बल्लियां- इस छोर से उस छोर तक। जैसे-तैसे कांपते-कूंपते पार हुए थे उस समय। यहां पर जांसकर नाला गहरा गर्त बनाता है। अभी पा पुल बन गया है। लोहे का। बड़ा सा वह पत्थर, जिस पर बल्ली का दूसरा छोर टिका था- जांसकर नाले का पानी जहां उछाल मारता हुआ पहुंच जाता था, अभी दिखाई ही नहीं देता। लोहे का पुल उसी पर टिका है। मार्ग का वह जोखिम, जो कांपती बल्लियों पर संतुलन बनाने को मजबूर करता, अब नहीं। यहां उस रोमांच के क्षणों से वंचित हो जाना बेशक खलने वाला है पर गांव वालों के लिए पुल ने जो सहजता प्रदान की है उसकी खुशी कहीं ज्यादा है।
कच्ची रोड़ पर अपनी ट्रैक्टर-ट्राली के साथ आलू मटर की तैयार फसल को वे दारचा तक उतार सकते हैं।
हम सड़क से गुजर रहे थे - जांसकर नाले के पार खेतों में एक ट्रैक्टर-ट्राली दिखाई दी। गांव वाले खेतों में मौजूद थे। गांव के बीच से गुजरते हुए जो सूनापन महसूस कर रहे थे वह खेतों में दिखाई दे रहे लोगों के कारण टूट रहा था। खेतों में काम कर रही स्त्रियों की आखों में उत्सुकता थी । खिलखिलाने की आवाजें और उचक - उचक कर देखती निगाहें हमसे संवाद करना चाहती थी। हम लाहौली नहीं जानते थे तो कैसे बतियाते भला ?

लाहौली होने की हमारी कोशिश कंठ से फूटती और जोर से चिल्लाते- "जूले"
दूर खेतों से हाथ उठ जाते । रंग बिरंगी तितलियों के सम्वेत स्वर उठते- "जूले"
दारचा से रारिक तक का पैदल मार्च लेह रोड़ ही थी। सड़क पर काम कर रही स्त्रियों से भी कहा था -"जूले"
जवाब था - "जूले जी जूले "
कुछ खटका लगा । लाहौली तो जूले के जवाब में सिर्फ जूले ही कहेगा।
फिर ये जुले जी जूले !
चेहरे मोहरों से तो वे लाहौली ही लग रहीं थी। पहनावा भी वैसा ही। तितलियों के से रंग। ढके हुए मुंह से झांकती निगाहें में भी वैसी ही उत्सुकता जैसी लाहौली स्त्रियों में सैलानियों को देखकर होती है।
"---कहां तक ?"
किसी स्त्री ने संवाद को आगे बढ़ा दिया था। अन्यों की उत्सुक निगाहें भी जवाब सुनने को हमारी ओर ही उठ गयीं।
"पदुम" यह सोचते हुए कि लाहौल वालों के लिए पूछे गए जवाब को एक मात्र शब्द- "पदुम" कहकर भी दिया जा सकता है। फिर अपनी बात को लाहौली में न कह पाने का संकोच भी बहुत छोटे जवाब की ही छूट देता था। बातों को विस्तार से रखने पर बचना चाहते थे। हालांकि ठहर कर बातें कर पाने का मन तो था। किसी भी भू-भाग के जन-जीवन को सिर्फ वहां से गुजर कर तो जाना नहीं जा सकता न!
"आप कहां के हैं ?""
हम में से कोई एक जो अपने भीतर उठ रहे अंदाजों की पड़ताल कर लेना चाहता था, चहक उठा। आपसी संवाद को उसने हल्का-सा विस्तार दे दिया था। हमारे ही किसी दूसरे साथी ने उस जवाब को उच्चारित किया जो हम उनके मुंह से सुनना चाहते थे।- "दारचा !" हमारा अनुमान था कि दारचा के परिचित जगह है और स्त्रियां भी अपने को उस परिचित जगह से ही जोड़ना चाहेगीं जैसा कि अक्सर होता भी है। चमोली जनपद के भीतर रहने वाला कोई भी अपने को कर्णप्रयाग का ही कह देता है। या कभी भी किसी व्यक्ति से उसके निवास स्थान का पता पूछो तो सबसे पहले वह वहां के जाने पहचाने नाम को ही उच्चारित करेगा।

खुद ही सवाल और खुद ही जवाब हमारे भीतर की असमंजस और विश्लेषणों के गवाह थे। हम में से कुछ साथी उन स्त्रियों को आस-पास के गांवों के निवासियों के रूप में चिहि्नत कर रहे थे और कुछ ऐसा ही मानते हुए एक हिचकिचाहट के साथ थे।
"जी--- जी--- दारचा।" यह किसी एक स्त्री का स्वर था जिसमें कुछ स्वर भी गुंथ गए थे। मानो वे सभी यकीन दिलाना चाहते हों अपने को दारचावासी होने का। हमारे सवालों में छुपे पड़ताल करने को अंदाज को मानो उन्होंने भांप लिया हो। लेकिन जवाब देते हुए एक खास तरह की लड़खड़ाहट उनके सम्वेत स्वर में भी छुप न पा रही थी। वे खुद भी इसको भांप चुकी थीं। उसी को छुपाने के लिए सवाल हमारे तरफ उछाल दिया गया-
"---और आप कहां के ?" कहे गए वाक्य में जरा भी लाहौली लटक नहीं। यह पूरा दृश्य ही ऐसा था जिसमें स्त्रियों के द्वारा खुद की पहचान को छुपाने की गंध छुपी थी। अपनी पहचान को स्पष्ट तरह से रखे बिना हम इन स्त्रियों की वास्तविकता को जान पाने में असमर्थ रहेंगे, यह सवाल खुद ही उठा। उनकी पहचान को जान लेने की कि गैर जरूरी सी जिद न जाने कैसे हावी हो गई। क्योंकि पहचान को छुपा लेने में चालाकी नहीं बल्कि एक चुहल दिखाई दे रही थी। पर हमने चेहरे पर ऐसी गम्भीरता कि सुनने वाला हमारे एक-एक शब्द पर यकीन कर सके जवाब दिया -
"हम तो उत्तराखण्ड से हैं। ---पर आप लोग जांसकरी हैं या लाहौली ?"
"जी जांसकरी --- नी--- नी--- लाहौली।" खिलखिलाहट फिर से बिखर गई।
"नेपाली हैं जी हम लोग।" यह कुछ शांत लेकिन उसकी आवृति यकीन दिलाती हुई थी। जो हम से छेड़-छाड़ कर रही स्त्रियों को नेपाली पहचान में ढक गया। जिसके उदघाटित होते ही वह खिलंदड़पन गायब हो गया जो पहचान के छुपे होने पर वे करती रही थीं। अब बातचीत में खासी गम्भीरता आ गई। नेपाल से मजदूरी के वास्ते पलायन किए लोगों की यह टोली दारचा गांव में ही रुकी थी- ऐसा बातचीत के दौरान ही मालूम हुआ। पति-पत्नी और बच्चों के साथ पूरा परिवार। लेह रोड़ की दुरस्तीकरण का काम उनकी रोजी बना हुआ था।
"कितना पैसा मिलता है एक दिन का ?"
"सौ रुपया दिहाड़ी।"
"हमारा काम तो टूटी हुई रोड़ की सफाई करना ही है। मरम्मत करने वाले दूसरे हैं।"


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Thursday, June 25, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर- पांच

केलांग को मैं अजेय के नाम से जानने लगा हूं। रोहतांग दर्रे के पार केलांग लाहुल-स्पीति का हेड क्वार्टर है। अजेय लाहुली हैं। शुबनम गांव का। केलांग में रहता हैं। पहल में प्रकाशीत उनकी कविताओं के मार्फत मैं उन्हें जान रहा था। जांसकर की यात्रा के दौरान केलांग हमारे पड़ाव पर था। कथाकार हरनोट जी से फोन पर केलांग के कवि का ठिकाना जानना चाहा। फोन नम्बर मिल गया। उसी दौरान अजेय को करीब से जानने का एक छोटा सा मौका मिला। गहन संवेदनाओं से भरा अजेय का कवि मन अपने समाज, संस्कृति और भाषा के सवाल पर हमारी जिज्ञासाओं को शान्त करता रहा। अजेय ने बताया, लाहौल में कई भाषा परिवारों की बोलियां बोली जाती हैं। एक घाटी की बोली दूसरी घाटी वाले नहीं जानते, समझते। इसलिए सामान्य सम्पर्क की भाषा हिन्दी ही है। भाषा विज्ञान में अपना दखल न मानते हुए भी अजेय यह भी मानता हैं कि हमारी बोली तिब्बती बोली की तरह बर्मी परिवार की बोली नहीं है, हालांकि ग्रियसेन ने उसे भी बर्मी परिवार में रखा है। साहित्य के संबंध में हुई बातचीत के दौरान अजेय की जुबान मे। शिरीष, शेखर पाठक, ज्ञान जी (ज्ञान रंजन) से लेकर नेट पत्रिका कृत्या"" की सम्पादिका रति सक्सेना जी के नाम थे। एक ऐसी जगह पर, जो साल के लगभग 6 महीने शेष दुनिया से कटी रहती है, रहने वाला अजेय दुनिया से जुड़ने की अदम्य इच्छा के साथ है। उनसे मिलना अपने आप में कम रोमंचकारी अनुभव नहीं। उनकी कविताओं में एक खास तरह की स्थानिकता पहाड़ के भूगोल के रुप में दिखायी देती है। जिससे समकालीन हिन्दी कविता में छा रही एकरसता तो टूटती ही है।

केलांग में रात रुके। सुबह जब अजेय से विदा लेने के बाद हम दारचा निकलने के लिए केलांग बस स्टैण्ड पहुंचे तो बस स्टैण्ड पर भीड़ थी कि पूछो मत। मानों पूरा केलांग बस स्टैएड पर था। और हो भी क्यों न। उनके छोटे-छोटे बच्चे, जो केलांग स्कूल में दर्जा चार-पांच में पढ़ते थे, स्कूली खेलकूद-जलसा, जो दारचा में आयोजित हो रहा था, उसमें हिस्सेदारी करने जा रहे थे। 25 जून से शुरू होने वाली खेलकूद प्रतियोगिताएं चार दिन तक चलनी है, ये हमने वहां मौजूद लोगों से पूछ कर जान लिया था। खेलकूद प्रतियोगिताओं के साथ, शाम को रंगारंग कार्यक्रम भी होने थे। खिलाड़ियों के बीच ही वे बच्चे भी थे जिन्हें रंगारंग कार्यक्रमों में भाग लेना था। कुछ ऐसे भी थे जो मैदान में दौड़-भाग भी करने वाले थे और शाम को अपने दूसरे साथियों के साथ मंच पर भी जिन्हें थिरकना था- कोई लाहुली समूह नृत्य या फिर किसी फिल्मी धुन पर। बस स्कूल के बच्चों से पूरी तरह खचा-खच भरी हुई थी। ऐसी भीड़ कि खड़ा हो पाना भी मुश्किल। हमारे जैसे अन्य भी यात्री थे। कुछ विदेशी भी। जिन्हें आगे निकलना था। यात्री तो यात्री, केलांग के स्थानीय निवासी, जिन्हें क्वार्लिंग, गिमूर, कोलंग, खनकसर, जिप्सा, दारचा, रारिक या छीका जाना था, वे भी बस में चढ़ नहीं पा रहे थे। बस की छत पिट्ठुओं से लद चुकी थी। स्कूल के बच्चों के पिट्ठुओं के साथ जलसे की सजावट का सामान- कनाते, लाऊडस्पीकर, बांस के लम्बे-लम्बे डंडे और कार्यक्रम के दौरान कलाकारों द्वारा इस्तेमाल होने वाली पोशाकों से भरे लोहे के बक्से जैसा ढेरों सामान था जो दारचा जा रहा था। स्कूल के ये विद्यार्थी भी ऐसे कि एक बारगी लगेगा कि दूध पीते इन बच्चों को चार दिन और चार रातों के लिए उनके माता पिता उनका विछोह करना ठीक नहीं।
बस की भीड़ को देखकर हम अनिश्चित-से हो गए- दारचा कैसे पहुंचेंगे ?

समानों से भरे अपने बड़े-बड़े पिट्ठू, राशन-टैन्ट, बर्तन और मिट्टी तेल के डिब्बों से भरे किट कहां रखेंगे ?
पर गलतफहमी में थे। हमारे भीतर की आशंका हमारी उस पृष्ठभूमि से उपजी थी जहां नितांत अपने को केन्द्र में रखकर ही किसी भी समस्या के बारे में सोचा जाता है और जैसे तैसे उससे निपट लेने पर फिर किसी दूसरे की चिन्ता करना बेइमानी हो जाता है। हमारी फिक्र करने को पूरा समूदाय था - केलांगवासी जो अपने बच्चों को बस तक छोड़ने आए थे, केलांग से दारचा तक के रास्ते पर पड़ने वाले गांवों को जाने वाले वे स्थानीय सवारियां जिन्हें अभी खुद ही नहीं पता था कैसे जाएंगे और स्कूल के अध्यापक और दूसरे कर्मचारी जो जलसे में इस्तेमाल होने वाले समानों और छत पर लाद दिए गए बच्चों के पिट्ठुओं को बांधने में जुटे थे, सभी की चिन्ताओं में हम भी शामिल थे। वे हमारे सामान को छत पर लदवाने लगे। नीचे जलसे का सामान, बच्चों के पिट्ठू और उनके ऊपर हमारे भारी-भारी किट को लाद दिया गया। तभी दो विदेशी यात्री भी- एक पुरूष और एक स्त्री, जिन्हें दारचा जाना था, अपने पिट्ठू समेत आ पहुंचे। उनके पिट्ठुओं को भी छत में ऊपर खींच लिया गया। हमारे सामानों की तरह उनके लिए भी जगह निकल आई। स्कूल वालों के पास रस्सियों की कमी न थी। बस के ऊपर लद चुके सामान के पहाड़ को स्कूल के कर्मचारियों ने और हमारे साथियों ने मिलकर बांध दिया। रस्सी हमारे पास भी थी। जो भी सामान जैसे ठूंसा जा सकता था, ठूंस दिया गया बस्स। न सिर्फ छत पर सामान रखने की जगह बल्कि बस की छत का वह भाग, ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ी के साथ जो एक प्लेटफार्म सदृश्य था और जिसमें सामान को टिकाए रखने के लिए ओट जैसा भी कुछ नहीं था, बहुत से सामानों से ढक गया। रस्सियों के जाल से वहां रखे गए सामानों को भी दूसरे सामानों के साथ कस दिया गया। बस चलने को तैयार हो चुकी थी।
बस पूरी तरह से भर गई थी, अन्दर जाने की भी जगह नहीं। कैसे तो जैसे तैसे घुसे भर ! पर जिस मुद्रा में थे, उसी में रहने के सिवा कोई दूसरा चारा न था। हाथ-पांव भी हिला-डुला नहीं सकते थे। अभी बहुत से यात्री जगह न मिल पाने की वजह से नीचे खड़े थे। उनमें ज्यादतर युवा थे। जो बस के भीतर जगह न मिलने पर भी छत पर बैठकर यात्रा के आनन्द को लूटना चाहते थे। बस कंडेक्टर उन पर चिल्ला रहा था जो छत पर बैठने के लिए सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे। कंडेक्टर किसी भी कीमत पर छत पर बैठने नहीं देना चाहता था। कंडेक्टर की दृढ़ता के आगे मनमानी कर पाने की वे हिम्मत न कर पा रहे थे-
"कहां बैठे फिर---? सीट तो है ही नहीं।"
"पैर रखने की भी तो जगह नहीं है अन्दर।"
वे युवा यात्री कंडेक्टर से लड़ रहे थे।
"जगह तो छत पर भी नी है। अबे कोई मर-मरा गया तो कौन लेगा जिम्मदारी ?"
कंडेक्टर का अपना तर्क था।
"कोई नी मरता---"
"अन्दर ही जो सांस घुटकर मर जाएंगे।"
तर्क करते हुए लड़के इस कोशिश में थे कि कंडेक्टर छत में बैठने को कह भर दे और वे बस की छत पर पिट्ठुओं के ऊपर ही लुढ़क जाएं।
"ओए चुपचाप अन्दर चढ़ जाओ। जादा ही जल्दी है तो वहां जाकर एक और बस लगवाओ।"
कंडक्टर ने बहस कर रहे लड़कों के सामने आफिस की ओर ईशारा करते हुए एक चुनौति रख दी थी। लेकिन कोई भी उस ओर न बढ़ा। बस्स जैसे तैसे पायदान पर या जहां भी पैर को फंसा सकने की जगह मिल पा रही थी ठुंस गया। हाथ किसी कुडे या खिड़की पर चिपक गए और आधे शरीर बाहर को लटकाए हुए ही वे आगे के तंग पहाड़ी रास्ते पर हिचकोले खा-खाकर चलने वाली बस में यात्रा करने को तैयार।
बस पूरी तरह से ठसा-ठस हो गई। सीट जो एक व्यक्ति के लिए निर्धारित थी, उस पर चार-चार बच्चे बैठे थे। स्वास्थय सर्वे के लिए निकली एकेडमी ऑफ मैनेजमेंट, देहरादून की एक टीम के कार्यकर्ता भी बस में थे। डिफेंस कालोनी, देहरादून में अवस्थित उस गैर-सरकारी संस्थान के युवा साथियों से बस में ही मुलाकात हुई। उनसे मिलना एक सुखद एहसास तो था लेकिन यह सोचना भी स्वाभाविक ही था कि लाहौल के इस बीहड़ इलाके में एक छोटी सी जगह का छोटा-सा संस्थान अपने कार्यकर्ताओं से आखिर कैसा सर्वे करवाना चाहता है ! जबकि वे ज्यादातर युवा जो सर्वे के लिए निकले है, लाहौल ही पहली बार आ रहे हैं। गैर-सरकारी संगठनों की ये अव्यवाहरिक गतिविधियां और धड़कते युवाओं का इनकी चालाकियों में फंसकर अपनी ऊर्जा को व्यर्थ गंवाना आखिर चिन्ता का कारण क्यों न हो ? चार-चार लड़कियों के साथ दो लड़के, कुल छै-छै के ग्रुप में पांच-छै टीम इस काम के लिए पूरे लाहौल में तैनात थीं। बस में हमारी सहयात्री-टीम के सभी साथी कोलंग मोड़ से पहले कुर्लिंग गांव पर उतर गए। बस में उनसे बाते हुई। लड़कियां अपनी परेशानी रख रहीं थीं। हिमाचल देखने का सपना संजोए वे केलांग आने को तैयार हुई थीं। वरना दूसरी टीम के साथ, जो उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर निकलीं थीं, उसमें शामिल हो सकती थीं- ऐसा वे कहती रहीं। "उत्तराखण्ड के पहाड़ तो देखे ठहरे।" रोहतांग दर्रा और दर्रे के पार का हिमाचल उन्हें केलांग जाने के लिए उकसा चुका था। पर केलांग पहुंचने के बाद मालूम हुआ, न ठीक से रहने की व्यवस्था न खाने की। नहाने के लिए भी कोई उचित प्रबंध संस्था द्वारा दिए जा रहे पैसों में वे कर नहीं पा रहे थे। एक खाली पड़ी दुकान, जो अभी अधूरी ही बनी थी, किराए पर लेकर वे सामूहिक रूप से एक ही जगह पर रुके थे।


खचाखच भरी बस में हिचकोले खाते और सहयात्रियों से बतियाते जब दारचा पहुंचे तो पहले का देखा गया दारचा बदला हुआ लगा। पुलिस चैक पोस्ट जो पुल के इस पार ही होता था, पुल के दूसरी ओर शिफ्ट हो चुका था, वहीं जहां सड़क के दूसरी ओर भौजू का ढाबा होता था- अपना ढाबा। अपना ढाबा वहां नहीं था। पूछने पर मालूम हुआ कि अपना ढाबा अब वहीं, जहां कभी पुलिस चैक पोस्ट था, खुल गया है। मानव निर्मिति का यह जबरदस्त मंजर था जो सात-आठ साल पहले देखे गए दारचा को उसी रूप में देखने नहीं दे रहा था। और भी कई ढाबे वहां खुल चुके हैं। हां जो भूगोल उस जगह पर पहुंचने पर हमें उसे वही पहले वाला दारचा मानने को मजबूर कर रहा था, उसके लिए एक मात्र सबूत मुलकिला चोटी थी,

जो नदी के प्रवाह की ओर देखने पर साफ चमकती हुई दिख रही थी। आगे की यात्रा पैदल यात्रा थी। दारचा में रुक कर घोड़े आदि का प्रबंध किया। रास्ते के लिए राशन-पानी की जरूरत को चैक कर, कम दिखाई दे रहे या पहले ही ले लेने से चूक गए सामान, जैसे माचिस के पैकट, मोमबत्ती आदि को खरीदकर रख लिया गया और अगले दिन सुबह 9 बजे पलामू की ओर बढ़ लिए।


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Wednesday, June 24, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर -चार

सावन के महीने में नीलेकंठ की यात्रा पर ढेरों लोग निकलते हैं। ऋषिकेश के नजदीक ही एक पहाड़ी चोटी पर नीलकंठ मंदिर है। खड़ी चढ़ाई के इस रास्ते पर उस वक्त मोटर रोड़ नहीं बनी थी और यात्रा पैदल ही की जाती थी। सावन के पहले सोमवार को जल चढ़ाने के लिए वहां श्रद्धालुओं की वहां अथाह भीड़ होती है। 1989-1990 के आस पास की घटना है। मैं भी अपने कुछ ऐसे मित्रों के साथ, जिनमें ज्यादातर के लिए नीलकंठ की यात्रा, धार्मिक यात्रा से ज्यादा, एक रोमंचकारी अनुभव ही थी, शनिवार की शाम नीलकंठ के लिए निकल गया। सावन का महीना शुरू हो चुका था लेकिन पहला सोमवार अभी नहीं आया था। ऐसे ही मौंको पर पहले गए हुए साथियों का अनुभव था कि सोमवार के बाद नीलकंठ के पैदल रास्ते पर गंदगी ही गंदगी हो जाती है। जगह-जगह से पहुंचने वाले श्रद्धालु जहां तहां अपनी टांगे फैलाकर जमाने भर की गंदगी कर देते हैं। बारिस का पानी जिसको दलदल बना देता है। इसलिए सोमवार से पहले ही निकलना ठीक रहेगा। फिर जिसे मन्दिर में जल चढ़ाना है वह भी आसानी से चढ़ा लेगा। जल चढ़ाने के सवाल पर दो एक मित्रों ने अपनी राय भी रखी कि जल चढ़ाने का महात्मय तो सोमवार का ही है। लिहाजा रविवार के दिन निकलना ठीक रहेगा। खैर, इसका हल निकाल लिया गया कि शनिवार की रात को चलकर इतवार की सुबह तक आराम-आराम से मन्दिर तक पहुंच जाएंगे। रात बारह बजे तक इंतजार कर, क्योंकि रात बारह बजे के बाद तो सोमवार लग ही जाएगा, जिसे जल चढ़ाना है जल चढ़ा लेगा और जल चढ़ाते ही वापिस हो जाएंगे। हालांकि इस बात पर कुछ न-नुकूर और तकरार भी हुई कि रात बारह बजे से दिन नहीं माना जाता सुबह चार बजे से दिन माना जाता है। जीत अंतत: चार बजे वालों की ही हुई-संख्या में वे ज्यादा निकल आए। फिर हारने वालों के लिए अपनी जिद पर अड़े रहना कोई सवाल न था। तय हो गया कि सुबह चार बजे ही सही, पर शनिवार को ही निकल लो ताकि सुबह चार बजे आसानी से मन्दिर में घुसने को मिल जाये, वरना लम्बी लाईन में तो शाम तक भी नम्बर न आएगा।
तेज बारिस पड़ रही थी तो भी हम सभी मस्ती में सवार, रात का खाना घर से ही खाकर दोपहिया वाहनों पर सवार होकर निकल पड़े। भीगने से बचने के लिए बरसातियां सभी ने ओढ़ी हुई थे। ऋषिकेश पहुंचने के बाद वाहन किसी परिचित के घर पर रख उसी वक्त नीलकंठ के रास्ते पर बढ़ लिए। बारिस की झड़ी के बीच टार्च की रोशनी में ही रात भर रुकते और चलते हुए सुबह नीलकंठ पहुंच गए। रविवार का पूरा दिन मन्दिर के आस पास घूम कर बिता दिया। शाम तक पहले सोमवार के महात्मय को महत्वपूर्ण मानने वाले श्रद्धालुओं की अच्छी खासी भीड़ हो गई थी। मन्दिर में जल चढ़ा लेने वालों की लाईन रात नौ बजे से ही लगनी शुरु हो गई। हम सभी पहली रात के थके हुए थे। बारिस में भीगते रहने के कारण बदन टूट रहे थे। चार बजने में कई घंटे बाकी थे। सोचा, तब तक कहीं बदन टिका कर आराम कर लेते हैं। मन्दिर के पास ही धर्मशालानुमा उस छत के नीचे जहां पहले से ही बहुत भीड़ थी, एक कोना पकड़, गीली बरसातियों को फर्श पर बिछा लेटने और बैठने की मुद्रा में पांवों को आराम देने लगे। जिन्हें जल चढ़ाना था वे लाईन में लग गए लेकिन बार-बार दौड़कर चले आते और थोड़ा सा आराम करने के बाद फिर लाईन की ओर दौड़ जाते- उस दूसरे साथी को यह मौका देने के लिए कि अ बवह आरम कर ले। इस तरह से वे लाईन में अपनी जगह को सुनिश्चित करते रहते। इस बीच हमारी तो आंख ही लग गयी। वे साथी जिन्हें जल चढ़ाना था, थके होने की वजह से नींद उनकी आंखों में भरी हुई थी। बस लाईन में आगे पीछे लगे अपने सह-श्रद्धालुओं को यह कहकर कि थोड़ी देर में आते हैं तब तक वे उनकी जगह को सुनिश्चित रखें, निकल आए और आकर हमारी बगल में लेटे तो नींद ने उन्हें भी घेर लिया। लेकिन मन्दिर में जल चढ़ाने और लाईन में अपनी जगह को सुरक्षित रखने की चिन्ता ने उन्हें सोते हुए भी चैन न लेने दिया। शायद रात दो बजे के आस पास उनमें से एक की नींद खुली तो उसे लाईन का ध्यान आया। तब तक लाईन अच्छी खासी लम्बी हो चुकी थी। जब वह लाईन में अपनी उस जगह पर पहुंचा, जहां उसका अनुमान था कि होनी चाहिए, तो लोगों ने लाईन में घुसने न दिया। वे लड़ने मरने का उतारू हो गए। लाईन में खड़े सज्जन को उसने कहा कि मैं आपको बता कर गया था तो वह कुटिल मुस्कान में हंसने लगा। लाईन में लगे दूसरे लोग भी इस हंसी में शामिल थे। थक हार कर वह वापिस आकर बैठ गया। किसी दूसरे को उठाने की भी कोई कोशिश उसने नहीं की। सभी गहरी नींद में थे। भीड़ भरी हलचल के बीच भी नींद की गहरी जकड़ में। जब उस दूसरे साथी की नींद खुली जो खुद भी मंदिर में जल चढ़ाने के लिए उसके साथ ही था तो उसने उसे पूरा वाकया बता दिया। दूसरा साथी तो कुछ ज्यादा ही परेशान हो गया। जब नीलकंठ के लिए निकले थे तो कुछ ऐसे परिचित श्रद्धालुओं ने जो नीलकंठ नहीं जा पा रहे थे लेकिन जाने की तमन्ना रखते थे, उसके पास अपनी ओर से धूप-दीप और नैवेध्य का अर्घ्य उसके ही हाथ नीलकंठ पहुंचा दिया था। एक नैतिक किस्म के दबाव में वह बेचैन हो गया। उसने खुद उस ओर जाकर देखा जहां लोग लाईन लगाये खड़े थे। जब उसे कोई रास्ता दिखाई न दिया तो लाईन में सबसे पीछे जाकर लग गया। लाईन लगाए लोगों के लिए खड़े होने की बहुत ही सीमित जगह होने की वजह से एक लम्बी दूरी के बाद लाईन घूम कर सर्पीला आकार ले चुकी थी। उस साथी को वहां पर जगह मिली जहां एक दो आदमियों के और खड़े हो जाने के बाद लाइन को फिर से घूमना था। रात के चार बज रहे होगें उस वक्त। वह छ बजे तक लाईन में लगा रहा लेकिन लाईन कुछ इंच भर ही खिसकी थी। उसके भीतर एक खास तरह की उक्ताहट और बेचैनी होने लगी। अब उसके भीतर तो श्रद्धा क्या ही बची थी पर बेचैन था तो इसलिए कि दूसरे लोगों द्वारा दिये गये नैवेध्य को कैसे मंदिर में चढाए। लाईन में खड़ा रहना भी उसे राहत न दे रहा था। बारिस की रिमझिम लगी हुई थी। वह भीग चुका था। बरसाती ओढ़े होने पर भी लगातार पड़ती बारिस का पानी गले से सरकता हुआ उसके पीठ और छाती तक पहुंचता रहा। उसके वस्त्र भीग चुके थे। भीगे हुए कपड़ों में वह ठिठुर रहा था। तब तक हम लोग भी उठ चुके थे। एक लम्बी नींद ने हमें तरोताजा कर दिया था। हमें तो कुछ भी मालूम नहीं था कि क्या माजरा है। हम तो बस निकल भागने को तैयार थे। पर उसके चेहरे पर मायूसी थी। एक तरह के नैतिकता बोध से वह बेचैन था।
"साली लाइन खिसक ही नहीं रही है।" उसका बेचैनी भरा दोहराव जारी था।
लाइन में पीछे लगा हर कोई ऐसी ही शिकायत से भरा था। लाइन में धा मुक्की भी हो रही थी। पुलिस के सिपाही, होमगार्ड के जवान और कुछ स्वंय सेवक लाइन को व्यवस्थित करने में जुटे थे। कुछ लोग थे जो रह-रहकर बीच में घुसने की फिराक में थे। कितने ही सफल हो चुके थे और जो सफल नहीं हो पाए थे, उनकी कोशिशें जारी थी। हम घर वापिस लौट जाना चाहते थे लेकिन उस साथी की बेचैनी हमें लौटने नहीं दे रही थी। इस बीच लाइन भी कुछ आगे खिसकी थी और अब वह लाइन के उस मोड़ पर पहुंच चुका था जहां से लाइन की गतिविधि को वह सीधे देख पा रहा था। लाइन में किसी को भी बीच में घुसते देख वह वहीं से चिल्ला उठता। हम भी चाहते थे कि लाइन जल्दी से जल्दी आगे खिसके और हमारा साथी मन्दिर में जल्द से जल्द प्रसाद चढ़ा आए। ताकि हम लोग वापिस निकल सकें। लिहाजा हम लोग भी हाथों में लिए हुए डंडों को फटकारते हुए स्वंय सेवक बन गये। बारिश से बचने के लिए मैंने खाकी बरसाती ओढ़ी हुई थी और सिर पर उसी की टोपी को ऐसे लगाया हुआ था कि पी-केप सी दिखायी देती थी। लाइन में लगे लोग मुझे पुलिस का सिपाही या होमगार्ड का सिपाही समझ रहे थे। कोई लाइन के भीतर घुसता तो वे मेरी ओर को इस उम्मीद से देखते हुए कि मैं लाइन में घुसते हुए आदमी से सख्ती से पेश आऊं। मेरी ओर उम्मीद से देखते हुए वे चिल्लाते,
"अबे कहां घुसा जा रहा है ?"
उनके इस अनबोली अपेक्षा पर मैं जोर से दहाड़ते हुए डंडा फटकारता और लाइन में घुसने वाला सहम कर वहां से खिसक लेता। कुल मिलाकर एक अच्छा सा प्रभाव मेरी उपस्थिति का पड़ता रहा जिसका मुझे उस वक्त भान हुआ जब स्वंय सेवक बना एक युवक मेरे पास आकर बोला, "दीवान जी अपनी चाची जी हैं, बीमार हैं बेचारी ---।" आगे कहते हुए उसकी धिग्गी बंध गयी। लाइन में लगे लोगों की अपेक्षा पर अभी तक मैं एक सही सिपाही साबित हुआ था, इसका प्रभाव उस स्वंय सेवक पर भी पड़ा था। लिहाजा मुझे पुलिस वाला जान, वह आदर भरे शब्दों मे पेश आते हुए, मुझे दीवान जी कह कर संबोधित करने लगा। वह स्त्री जो उसके साथ थी, बहुत ही बूढ़ी थी। यदि वह स्वंय भी मेरे पास आती तो मैं तो उसे मन्दिर में प्रवेश कराने की सोचता ही। पर स्त्री को मन्दिर के भीतर प्रवेश करवाना मेरे लिए तत्काल संभव न हुआ। क्योंकि स्वंय सेवक बना वह युवक इससे पहले भी अपने कई परिचितों को बिना लाईन के अन्दर प्रवेश करा चुका था। लिहाजा मैंने उस युवक को वहां से हट जाने के लिए कहा और उस स्त्री को वहीं रोक लिया। अन्य स्वंय सेवकों को भी मैंने हिदायत दी की वे भी पीछे जाकर लाईन में हो रही धा मुककी को रोके, इधर मैं अकेले ही देख लूंगा। वे सब पीछे चले गये। बोले कुछ नहीं।
अब मैं पूरी तरह स्वतंत्र था। अपनी समझ और अपने आदर्शों के हिसाब से लाईन को व्यवस्थित करने में सक्षम। लाईन में लगे दूसरे लोगों से बात कर मैंने उस बूढ़ी स्त्री को मन्दिर में प्रवेश करा दिया। लोगों का मुझ पर यकीन बढ़ रहा था कि सिर्फ किसी जैनुइन व्यक्ति को ही मैं भीतर प्रवेश करा रहा हूं। मेरा प्रतिरोध करने की बजाय वे मेरी कार्रवाई को सराह रहे थे। बूढ़ी-बूढ़ी स्त्रियां या कोई शारीरिक रूप से लाचार व्यक्ति, जिनके लिए लाईन में खड़े रहना असंभव-सा ही होता, मैं उसे खुद ही लाईन के लोगों से प्रार्थना कर भीतर प्रवेश करा देता।
बस लाइन में लगे लोगों पर विश्वास कायम कर लेने के बाद मुझे एकाएक विचार आया कि क्यों न मंदिर के अन्दर मैं खुद ही हो आंऊ, क्यों मेरे भीतर जाने का विरोध तो कोई शायद ही करे। मेरा अनुमान ठीक निकला। अपने साथी सारा नैवेध्य औरप्रसाद लेकर मैं मन्दिर के भीतर चला गया और उस साथी के नैतिकता बोध को मंदिर में प्रसाद चढ़ाकर उतारने के बाद हम लोग वापिस लौट गए।



जांसकर में धर्म-दर्शन का ऐसा कोई मामला न तो मेरे लिए है और न ही मेरे उन साथियों के लिए जो वैसे तो धर्म पर आस्थावान हैं पर बौद्ध मट्ठ जिनके लिए सैलानी स्थल ही हैं बस। हां किसी भी जगह को देखने और जानने की इच्छा, हमेशा मेरे अंदर रही है। धार्मिक साहित्य को पढ़ते हुए भी एक तरह की जिज्ञासा ही मुझे घेरे रहती है। कुरान शरीफ, बाईबिल, गीता या त्रिपटक जैसी कोई भी साहित्यिक पुस्तक पढ़ने को मैं लालायित ही रहता हूं। उसके कथासार और उस दौर विशेष के समाज, जिसमें वे लिखी गई, को जानने की ललक हमेशा ऐसा कुछ भी पढ़ने को उकसाती है।


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Monday, June 22, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर -तीन



लद्दाख के बारे में जानकारी हासिल करो तो हर स्थल वहां स्थित गोनपा के नाम से जाना जाता हुआ दिखायी देगा। धार्मिक प्रतीकों का ये घना विस्तार ही योरोपिय लोगों को लद्दाख तक खींचने में एक कारण बनता है। रेतीले पहाड़ों का ठंडा मरूस्थल और नीले आकाश के भीतर धंसने को आतुर बर्फीली चोटियों का लुभावना मंजर भी सैलानियों को आकर्षित करने वाला है।
जांसकर का आकर्षण मेरे भीतर बौद्ध धर्म-दर्शन या गोनपाओं के रूप में कभी नहीं रहा। वह तो कह ही चुका हूं- रोमांच, जोखिम और उसके बीच सांस लेते जीवन को जानने समझने की चाह के रूप में है। जो मुझे ऐसे ही दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों तक निकलने को उकसाती है।

अपनी यात्राओं में, जब भी पुख्ताल गोनपा तक गया, तो इसलिए कि इतिहास के किसी अंधेरे कोने को देख पाऊं। लद्दाख के दर्ज इतिहास से पूरी तरह से वाकिफ नहीं। पूरी तरह से दर्ज है भी या नहीं, इसकी भी ठीक-ठीक जानकारी नहीं। इधर जो कुछ भी दर्ज हुआ है उसके हिसाब से तो मात्र 1000 - 1200 वर्ष ही खोजे जा सके हैं। पुख्ताल के बारे में जो जानकारी अभी तक मेरे पास है वो तो इससे कहीं ज्यादा पहले उसके निर्माण को मानती है। गोनपा जाकर ही कुछ मालूम हो तो हो। पर गोनपा में भी तो सिर्फ इसी तरह है इतिहास- गल्प के रूप में। कोई ठोस पुख्ता सबूत तो वहां शिक्षा प्राप्त कर रहे लामा भी नहीं रखते। बौद्ध भिक्षुओं से पूछता हूं तो कहीं भाषा आड़े आती है या फिर बताने वाले के पास भी सिर्फ सुना गया समय ही होता है। जब पहली बार जांसकर गया था पुख्ताल गोनपा के बारे में पहले से कोई जानकारी नहीं थी। यह भी नहीं पता था कि रोहतांग पार बौद्ध-धर्म का ऐसा घना विस्तार है। उस वक्त, 1997 में, जब पुरनै पहुंचे थे तो उसके बारे में सुना-जाना। उससे पहले कभी किसी बौद्ध मठ के बारे में सुना, जाना और देखा नहीं था। स्थानीय लोगों से मालूम हुआ था कि गोनपा लगभग 2000 वर्ष पुरानी है। गुफा में ही निर्मित गोनपा की ईमारत को देखकर तो 2000 वर्ष क्या इससे भी पहले का बताया जाए तो भी तय नहीं कर सकता कि वास्तव में कब हुआ होगा इस दुर्ग सरीखी गोनपा का निर्माण। कहूं कि मुझे तो यह उससे भी पुरानी लग रही है तो इससे इतिहास गड़बड़ा सकता है। गोनपा में ही विद्यालय है जिसमें जांसकर घाटी के बच्चे बौद्ध-धर्म की शिक्षा पाते है। बौद्व भिक्षुओं के रूप्ा में लाल चोंगों में लिपटे शरीर और घुटे सिर वाले गोल चेहरे बरबस ही ध्यान खींचते हैं। ऐसे ही रूप्ा को धारण करने वाले जब कभी घोड़ों पर सवार होकर निकलते हैं तो उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानों गढ़ी के सैनिक हों। सिंगोला पास को पार कर जब जांसकर घाटी में घुस चुके थे तो पुरनै से पिपुला जाते हुए क्याल बक के पास चढ़ाई चढ़ते हूए पीछे से टक टक कर चले आ रहे घोड़ों की पदचाप सुनी थी। दो बौद्ध भिक्षु जो पुख्ताल गोनपा के छात्र थे अपने गांव ईचर को निकल रहे थे। जब पास से गुजरे तो बरबस ही उनके मुंह से छूटी ध्वनि "जूले" ने सहज किया था। वरना तो गढ़ी के सैनिकों को घोड़ों पर सवार होकर गुजरते देख क्या ही मजाल होती कि बिना डगमगाये चढ़ाई पर चढ़ पाते। उनकी "जूले" का जवाब "जूले" ही हो सकता था। दोनों ही भिक्षु कम उम्र थे। यही काई 15-17 बरस। उत्सुकतावश या यूं ही, संवाद कायम हो, ऐसा साचते हुए ही शायद उन्होंने जानना चाहा था कि कहां से आ रहे हैं हम और आज कहां तक जाएंगे ? बातचीत चल निकली तो मालूम हुआ कि पुख्ताल गोनपा के दोनों भिक्षु ईचर गांव के निवासी हैं और अपने घर जा रहे हैं। वे तो घोड़े पर ही चढ़े रहे और "जूले" करतेे हुए आगे बढ़ गये। क्यालबक में चाय-पानी की दुकान लगाकर बैठे जांसकरी ने भी नतमस्तक होकर ऐसे "जूले" किया मानो भिक्षुओं ने सिर्फ और सिर्फ उसी के अभिवादन में, विदा लेते हुए "जूले" कहा हो जैसे।
गोनपाओं को देखने का वैसा आकर्षण मेरे भीतर कभी रहा नहीं जैसा कि बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों में होता है। या मठों मन्दिरों की मूर्तियों और शिल्प को पारखी निगाहों से देखने वालों के भीतर होता है। न तो धर्म पर मेरी आस्था रही और न ही मुझमें कला-शिल्प को जानने की समझ है। पुख्ताल गोनपा के अलावा यदि किसी अन्य गोनपा को भीतर से देखा भी है तो बस नुब्रा घाटी में दिकसित गोनपा को ही। जबकि रोहतांग पार के इस घने बौद्ध-विस्तार पर लिखी कृष्णनाथ जी की पुस्तकों "स्फीति में बारिश", "किन्नर धर्मलोक में", "लद्दाख में राग-विराग" या ऐसी ही अन्य लेखकों की पुस्तकों को पढ़ता हूं तो पाता हूं कि कितने ही तो बौद्ध-मठ हैं जिनको जाकर देखना तो दूर नाम याद रखने के लिए भी कितने ही दिनों तक तोता रटन्त करने के बाद भी शायद ही उनका सिलसिले वार जिक्र कर पांऊ।
दिकसित गोनपा तक तो गाड़ी जाती है। जांसकर घाटी की पैदल यात्रा के बाद पदुम से कारगिल होते हुए लेह निकल गये थे।
नुब्रा के सुने गए रेतीले आकर्षण में ही खिंचे चले गये थे हुन्दर। हुन्दर के रास्ते में ही दिकसित गांव था। वैसे लद्दाख के इतने अंदरुनी गांव में दिकसित के बाजार को देखकर उसे गांव कहने में जीभ थोड़ा लटपटा जाती है। विदेशी सैलानियों की डार की डार लद्दाख की इन गोनपाओं को देखने ही पहुंचती है। धर्म के प्रति ऐसा कोई लगाव, जब से मैंने होश संभाला, मेरे भीतर नहीं रहा। धर्मों के प्रतीक इबादतगाहों में भी आस्था न पैदा हो सकी। फिर उनके भीतर जाने या न जाने की कोई ऐसी कोशिश, जिसमें आस्था या निषेध जैसा कुछ हो, मुझे नहीं। मैं उनके भीतर उसी तरह जा लेता हूं जैसे किसी भी ऐसी जगह पर जहां बहुत से लोग मौजूद हों और उनके भीतर न जाते हुए भी मैं ऐसे ही बाहर रुका रह सकता हूं जैसे मन न हो पाने पर भी कोई मुझे बहुत ही अच्छी फिल्म देखने को भी कहे। ऐसा ही एक किस्सा बड़ा मजेदार है। हो सकता है किसीको भी बहुत ही साधारण सा लगे पर मुझे तो जब भी स्मरण हो जाता है, बेहद मजा आता है-


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Sunday, June 21, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर- दो

लद्दाख के इस बीहड़ क्षेत्र जांसकर की यात्रा का हेतु क्या है ? बौद्ध दर्शन और गोम्पाओं की बाहरी-भीतरी दुनिया कैसी है ? या जीवन के वे स्रोत जो जांसकरी या, सीधे लद्दाखी ही कहूं तो, लोगों को हजारों सालों से बौद्ध-धर्म दर्शन पर टिकाए हुए है, क्या है ? किस हेतु के लिए यात्रा की जाए ?
ये सवाल यूंही नहीं है। मेरे भीतर हर उस वक्त घुमड़ते रहे हैं जब-जब जांसकर आया हूं। योरोपिय सैलानियों की लगातार आवाजाही और भारतीय लेखकों की लेखनी में लद्दाख और उस जैसे ही भौगोलिक क्षेत्र लाहौल-स्फीति, किन्नौर के जनजीवन की तस्वीर को जानने-समझने के बाद उपजते सवाल हैं।
मेरा हेतु तो रोमांच, जोखिम और उसके बीच सांस लेता जीवन, जो बेशक क्षणिक ही सही, उसी की आवाजाही हो सकता है और रहा है। हरहराता मौसम, लद्दाख के लोग, बर्फ, चढ़ाई-उतराई और कंप-कंपा देने वाली ठंड को महसूस करना ही है। नुब्रा की उड़ती रेत का आकर्षण जैसे किसी भी व्यक्ति के भीतर पहाड़ पर रेगिस्तान की उपस्थिति से भौचा करने वाला है, मैं भी उससे मुक्त तो नहीं। न मैं इतिहासविद्ध हूं न समाजशास्त्री। न भूगर्भ विज्ञानी और न ज्ञान के किसी और क्षेत्र में जुटा अध्येता। बस सहज यात्री हूं। कोई दर्रा, कोई दरिया, कोई खतरनाक चढ़ाई और तेज ढलान कैसे पांवों के जोर से हो सकती है पार, उसे ही देखना चाहता हूं। वो ऊंचाई, जो सांस को उखाड़ देने में कोई कसर न छोड़ती हो, कैसे उससे भिड़ते हुए लद्दाखी और रोहतांग पार के लोग अपने जीवन को ढहने से बचा रहे होते हैं।



यात्राओं में निकलते हुए, एक बात तय की है कि कभी कोई ऐसी पद्धति नहीं अपनाना चाहता जिसमें सिर्फ सांख्यिकी आकंड़ों से भरी भरपूर जानकारी हो। बस कुछ बातें और बातों से निकलती बाते ही दर्ज करूंगा, हमेशा यही सोचा है। हालांकि जानकारी इक्टठा करने का पारम्परिक ढंग ज्यादा व्यवस्थित है, इससे इंकार नहीं। किसी दूसरे के ऊपर प्रभाव डालने के लिए भी ज्यादा कारगर कि अमुक जगह के तो आप एक मात्र जानकार है। पर दूसरों पर अपने जानकार होने का रोब क्यों गांठा जाए ? सांख्यिकी विभाग के पास तो ढेरों जानकारी हो सकती है। जहां के कर्मचारी किसी विशेष भूभाग पर जाए बिना भी, बहुत जानकार होते ही है। कितने गांव हैं, गांव में कितने घर हैं। बच्चे कितने है, कितने हैं व्यस्क। मर्द कितने और कितनी हैं स्त्रियां। रोजगार क्या हैं, क्या हैं उद्योग। ये जानकारियों के ऐसे नमूने हैं जिन्हें मैं स्थूल मानता हैं।
आंकड़ों की जादूगरी जीने और मरने का ढंग बता सकती है। सांस्कृतिक स्वरूप का बयान कर सकती है। और सच है कि मात्र 10-12 दिनों के भीतर ही आप जानकारियों का खजाना जुटा सकते हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि मौसम विशेष में मात्र कुछ दिनों की यात्राओं भर से न तो मैंने जांसकर में मनुष्य के मृत्यू संस्कार को देखा है और न ही कोई जीवन का उत्सव- छम-छेशू,, न कोई देव न कोई दानव। यद्यपि किसी से भी पूछने पर इस सबको जानना कोई मुश्किल काम नहीं। पर ये सारे के सारे सिर्फ पूछे गए विवरण ही हो सकते हैं। छपी हुई पुस्तकों में पढ़कर भी ऐसे विवरणों से रूबरू हुआ जा सकता है। किसी भूगोल के संदर्भ ग्रंथ से यह जानना भी कोई कठिन काम नहीं कि सिंगोला से दोनों ओर की ढलानों पर निकलती जल धाराएं है जो दोनों ही ओर एक ही नाम- जांसकरी नाला के रूप में मौजूद है।

एक ओर की धारा जिसके विपरीत दिशा में चलते हुए सिंगोला की चढ़ाई चढ़ेंगे दारचा पर भागा नदी से मिलती है और दूसरी ओर की धारा जो सिंगोला के पार अपने साथ पदुम तक ले जाती है आगे चलकर सिंधु नदी से मिल जाती है। जांसकर के भीतर से होकर बहने वाला जांसकरी नाला जो सिंधु नदी से मिलता है वह सर्दियों पर जम जाता है। जमा हुआ नाला सफर को आसान भी करता है और जोखिम भी बढ़ा ही देता है। जांसकरी तो बढ़े खुश होकर कहते हैं कि उस वक्त कोई ऐसा सामान जैसे लम्बी-लम्बी बल्लियों को लाना उनके लिए आसान हो जाता है जो जीम हुई बर्फ के ऊपर खींचते हुए कहीं भी ले जाई जा सकती है।

योरोप, बौद्ध धर्म और दर्शन के आकर्षण में लद्दाख खिंचा चला आ रहा है। लद्दाख की बंद डिबिया जांसकर में पहुंचने वाले योरापिय समूह दर समूह हैं। जांसकरी दुनिया का धार्मिक वैभव और दर्रो का जोखिम और उनके पार गुजरने का रोमांच उनकी यात्रा के सहायक, घ्ाोड़ों वालों के घोड़ों की पीठ पर पर लदा होता है। जांसकर का आकर्षण उन्हें खींचता रहता है। खिंचे चले आते हैं वे। जांसकर उन्हें खींचता है वे जांसकर को खींचते हैं। दोनों के अपने-अपने रास्ते हैं। दोनों के अपने अपने कारण हैं। सुख के स्रोत इनका उत्स नहीं हो सकते। दोनों के अपने-अपने दुख हैं। अपनी अपनी तकलीफें हैं जो एक को दूसरे की ओर बढ़ने को मजबूर करते हैं। खाये-अघाये योरोपियों का अपना दुख है जिसका निदान वे धर्म में ढूंढना चाहते हैं। आध्यात्मिकता की खोज उन्हें बनारस की गलियों से लेकर दुर्गम पहाड़ों की दुनिया तक उकसाती है। पूंजीवादी दुनिया के छल-छद्म में आकार लेती उनकी निर्मम दुनिया पुरानी मान्यताओं पर टिके भारतीय समाज की राग द्वेष से भरी,, किन्तु एक हद तक आत्मीय दुनिया के बीच, आने को मजबूर करती है। निराशा और हताशा के क्षणों में डूबे रहने की बजाय वे जांसकर पहुच कर ''बुद्धं शरणं गच्छामी"" की राह में उतरते हैं और उनके चेहरों से टपकती भव्यता में खुद को दयनीय समझती जांसकरी दुनिया लाचारी के भावों से घिर जाती।
लद्दाख में बौद्ध गोनपाओं के प्रति योरोपिय आकर्षण ने लद्दाखी जन मानस को, खास तौर पर जांसकर में, उस पहल कदमी से रोका है जिससे वे जीवन के कठिन संग्राम में निर्वाण की इच्छा से मुक्त हो सकें। वे अचम्भित हैं अपने धर्म और अपने मठों की प्रासंगिकता से। यह अचम्भा उन्हें खुद के भीतर उठते सवालों से भी है। जो साल के सात आठ महीने जब बर्फीले विस्तार के बीच ही उन्हें अपनी दुनिया में सिमेटे होते हैं, उठ रहे होते हैं। वे सोच रहे होते हैं कि बर्फ के गलते ही उससे लड़ने का कोई मुमल रास्ता खोजेगें। पर ऐन उसी वक्त विदेशी सैलानियों का उमड़ता झुण्ड उन्हीं सूखी बर्फानी हवाओं में धकेल देता है। अपने धोड़ों की पीठ पर लबादे कस वे उनके माल ढोने को उतवाले हो जाते हैं। खेतों को कैम्पिंग के लिए खाली छोड़ उनकी स्त्रियां डोक्सा में जानवरों के साथ निकल जाती हैं। एक दम छोटे बच्चे, जिनकी नाकों के छेद, भीतर छिपे बैठे ग्लेशियरों से जांसकरी नालों के रूप बह रहे होते हैं, उत्सुक और ललचायी निगाहों से उन सैलानियों को ताकते हैं, जिनकी जेबों में रखी टाफियां उनके भीतर मिठाई का स्वाद भर रही होती हैं।
"-जूले।" सैलानियों के अभिवादन में उठती उनकी आवाज में एक तरह की दयनीयता होती है।
बहुत बूढ़ी स्त्रियां भी उसी गोली मिठाई की ख्वाहिश पाले खित-खित हंस रही होती है - दांत निपोर। एक दम निश्छल होती है उनकी हंसी। जिसमें उनका पूरा बदन हंसता हुआ होता है। गोनपाओं के लामा इंतजार में होते हैं कि दुनिया की 'काम चलाउ भाषा" में गोनपा का इतिहास और गोनपा के देवता का बखान कर सकें। जान रहे होते कि दान पात्रों के डिब्बे उसके बाद ही सिक्कों से खनकेंगे।


-जारी

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Saturday, June 20, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर


अभी हरकीदून से होते हुए बाली पास की यात्रा से लौटे हैं। स्वर्गारोहिणी का चित्र उसी यात्रा के दौरान का है। पिछलेवर्ष लद्दाख के ऎसे ही इलाके जासंकर की यात्रा की थी। प्रस्तुत है जांसकर यात्रा का व्रतांत जो अभी शब्दयोग के यात्रा विशेषांक में प्रकाशित हुआ है यह पहली किश्त है।


जांसकर जा रहे हैं। जांसकर पहले भी जा चुके हैं - 1997 में और 2000 में। उस वक्त भी जांसकर एक बंद डिबिया की तरह ही लगा था। जिसमें प्रवेश करने के यूं तो कई रास्ते हो सकते हैं पर हर रास्ता किसी न किसी दर्रे से होकर ही गुजरता है। 1997 में दारचा से सिंगोला पास को पार करते हुए ही जांसकर में प्रवेश किया था। जांसकर घाटी के लोग मनाली जाने के लिए इसी रास्ते का प्रयोग करते हैं। वर्ष 2000 में लेह रोड़ पर ही आगे बढ़ते हुए बारालाचा को पार कर यूनून नदी के बांयें किनारे से होते हुए खम्बराब दरिया पर पहुंचे थे और खम्बराब को पार कर दक्षिण पश्चिम दिशा को चलते हुए फिरचेन ला की ओर बढ़ गये थे। फिरचेन ला को पार कर जांसकर घाटी के भीतर तांग्जे गांव में उतरे। फिरचेन ला के बेस से यदि दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बढ़ जाते तो सेरीचेन ला को पार कर जांसकर के कारगियाक गांव में पहुंच जाते। यह सारे रास्ते मनाली,-हिमाचल की ओर से रोहतांग दर्रे को पार कर जांसकर में पहुंचते हैं। लेह-कारगिल मोटर रोड़ पर स्थित बौद्ध मठ लामायेरू से भी पैदल जांसकर के भीतर घुसा जा सकता है। इस रास्ते पर अनेकों दर्रे हैं। जांसकर को एक छोर से दूसरे छोर तक नापने वाले ढेरों सैलानी हैं। जो दारचा से लामायेरू या लामायेरू से दारचा तक जांसकर घाटी की यात्रा करते हुए हर साल गुजरते हैं। लेकिन इनमें विदेशी सैलानियों की संख्या ही बहुतायत में होती है।

दारचा की ओर से जांसकर नाले और बर्सी नाले का मिलन स्थल जांसकर सुमदो हिमाचल की आखरी सीमा है। बर्सी नाले को पुल से पार करते ही जम्मू कश्मीर का इलाका शुरु हो जाता है। जांसकर इसी जम्मू कश्मीर के लद्दाख मण्डल का अंदरुनी इलाका है। यदि लद्दाख को एक बड़ा बंद-डिब्बा माने तो जांसकर उस ड़िब्बे के भीतर चुपके से रख दी गयी डिब्बिया। पदुम जांसकर की तहसील है। पदुम से हर दिशा में रास्ते फूटते हैं। चाहे पश्चिम दिशा में बढ़ते हुए दर्रो की श्रृंखला को पार कर लामयेरू निकल जाओ और चाहे पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए सिंगोला दर्रे को पार कर दारचा। पदुम से दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए फिर वैसे ही दर्रे को पार कर कश्मीर के किश्तवार में पहुंच जाओ। ये सभी पैदल रास्ते हो सकते हैं। पदुम जांसकर का हेड क्वार्टर है। जहां से बाहर निकलने के लिए दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर जो मोटर रोड़ है वह भी पेंजिला दर्रे को पार कर कारगिल पहुंचाती है।

22 जून 2008 को देहरादून-मनाली बस में बैठकर मनाली पहुंचे। मनाली से रोहतांग दर्रे को पार कर लाहौल के हेडक्वार्टर केलांग और केलांग से दारचा तक भी बस में ही सवार रहे। सिंगोला दर्रे को पार कर जांसकर में घुसने के लिए दारचा से ही उस रास्ते पर पैदल बढ लिए, जो पहले रारिक तक और इस बार छीका तक बस द्वारा भी तय किया जा सकता था।


सिंगोला दर्रे के पार जांसकर नाम की इस बंद डिबिया के भीतर पूरा धड़कता हुआ जीवन है। नदियों का शोर है। हलचल है। उल्लास है। जीवन के सुख और दुख का जो संसार है उस पर लद्दाख के रूखे पहाड़ो की हवा का असर है। चेहरे मोहरों पर पड़ी सलवटों में उसी रूखी हवा की सरसराहट और बर्फीले विस्तार की चमक बिखेरती नाक और गाल के हिस्से पर कुछ उभर गईं सी पहाड़ियां हैं। आंखें गहरे गर्त बनाकर बहती नदियों के बहुत ऊंचाई से दिखाई देते छोटे छोटे स्याह अंधेरें हैं। इस दुनिया के भीतर झांकने के लिए बर्फीली ऊंचाइयों पर स्थित दर्रों को पांव के जोर से ही खोलना होता है।
स्मृतियों, सपनों और रूखे पहाड़ों से टकराकर आने वाली हवाओं ने जांसकर की दुनिया के चित्र पर बौद्ध मठों, अष्टमंगल चिन्हों के साथ-साथ "ऊं मणि पदमे हूं" की गहरी छाप छोड़ी हुई है। नदियों के किनारे-किनारे उतरती ढालों पर लम्बाई में स्थित गांवों के दोनों छोरों पर छोड़तन और मोने के रूप में की गयी निर्मितियां पहाड़ों के सूनेपन में जीवन के राग रंग की पहचान करा देती है। मंगल कामनाओं के ये चिन्ह धूसर रंग के पहाड़ों के बीच उल्लास की चमक बिखेरते हैं।

जांसकर जाना चाहता हूं। उसकी आबो हवा को पहचानना चाहता हूं। पर सोचता हूं- यूं ही गुजरते हुए कितना तो जान पाऊंगा? वो भी किसी एक जगह पर रात्री भर विश्राम ही। साल के बारह महीनों को मात्र बारह-पन्द्रह दिनों में महसूस नहीं किया जा सकता, यह जानता हूं। जो कुछ भी कहूंगा, सुना सुनाया होगा, बस। निश्चित ही वह भी हमारी यात्रा के खास समय विशेष का ही सच हो सकता है। वह भी उतना ही, जितना देख सकने की सामर्थय है। घटता हुआ भी पूरी तरह से न देख पाना तो मेरी ही नहीं, ज्यादातर की सीमा होता है। अपने ही में जकड़े कहां तो देख पाते हैं कि जमाने की तकलीफें किस किस तरह से रूप धर कर दुनिया को जकड़ती जा रही है। पढ़ लिख कर ही जीवन को पूरी तरह से समझा नहीं जा सकता। पुरानी कहावत है, बिना अपने मरे स्वर्ग नहीं। स्वर्ग और नरक नाम की कोई जगह इस ब्रहमाण्ड में हैं, इस पर यकीन नहीं। जो कुछ जीवन है, सिर्फ वही अन्तिम सत्य है - यही मानता हूं। जांसकर के जीवन की हलचल तो सिर्फ आंखों देखी ही होनी है। और उसका बयान करूं तो कह सकता हूं कि मैदानी इलाकों में इस वक्त भीषण गर्मी पड़ रही है। बारिश भी है तेज। जांसकर में तो हाथों को चाकू की धार से काट देने वाला ठंडा पानी है। चोटियों से पिघलता हिम है। तो फिर सर्दियों की जम-जम बर्फ में जीवन का संगीत कैसे गूंजता होगा, क्या उसे जान पाऊंगा ?



-जारी



Friday, June 19, 2009

सिर्फ़ एक फ़ोटो

क्या कुछ लिखा जाए इस पर ?
यह स्वर्गारोहिणी है।






चित्र-विजय गौड 12 June 2009

Friday, June 5, 2009

रात किसी पुरातन समय का एक टुकड़ा है




कहानी: मर्सिया
लेखक: योगेन्द्र आहूजा
पाठ : विजय गौड
पाठ समय- 1 घंटा 17 मिनट

मैंने अन्यत्र लिखा था कि योगेन्द्र की कहानियां अपने पाठ में नाटकीय प्रभाव के साथ हैं। उनमें नैरेटर इस कदर छुपा बैठा होता है कि कहानियों को पढ़ते हुए सुने जाने का सुख प्राप्त किया जा सकता है। मर्सिया में तो उनकी यह विशिष्टता स्पष्ट परिलक्षित होती है। योगेन्द्र की कहानियों पर पहले भी लिखा जा चुका है। इसलिए अभी उन पर और बात करने की बजाय प्रस्तुत है उनकी कहानी मर्सिया का यह नाट्य पाठ। मर्सिया को अपने कुछ साथियों के साथ, उसके प्रकाशन के वक्त नाटक रूप में मंचित भी किया जा चुका है।

कथा पाठ में कई ज्ञात और अज्ञात कलाकारों के स्वरों का इस्तेमाल किया गया है। सभी का बहुत बहुत आभार। कुछ कलाकार जिनके बारे में सूचना है, उनमें से कुछ के नाम है - उस्ताद राशिद खान, पं जस राज महाराज, सुरमीत सिंह, पं भीमसेन जोशी ।



कहानी को यहां से डाउनलोड किया जा सकता है

Tuesday, June 2, 2009

एक चूजे की यात्रा


यह एक सच्ची कहानी है। 1 जनवरी 1913 के दिन अमरीकी डाक विभाग ने घरेलू पार्सल सेवा शुरू की थी और फरवरी 1914 के दिन पांच साल की शार्लट मे को ग्रैंगविल से लुइसटन, इदाहो तक चूजों की श्रेणी में बतौर पार्सलभेजा गया। कौन ऐसा बच्चा होगा जिसने बंद डिब्बे में बैठकर नानी के घर जाने की कल्पना की होगी!
उन दिनों सड़कें भी इतनी अच्छी थीं कि 75 मील का दूभर पहाड़ी सफर तय किया जा सके। ट्रैन ही यात्रा कासबसे उपयुक्त जरिया था। डाक और टेलीग्राफ के अलावा किसी और तरीके से संदेश पहुंचाना कापफी कठिन कामथा। मे को भेजा जाना इतना अचानक तय हुआ कि दादी मेरी को इसकी खबर भी की जा सकी थी। या हो सकता है मे के माता-पिता इस अतिरिक्त खर्च से बचना चाहते थे।


एक दिन मां-बाबा ने मुझसे कहा कि मैं कुछ दिनों के लिए अपनी दादी के घर जा सकती हूं। यह तो उनको भी मालूम था कि वे हजारों मील दूर रहती हैं, इदाहो के पहाड़ों के उस पार!
फ़िर कई दिनों तक इस पर कोई बात नहीं हुई। मैंने ही एक दिन मां से पूछा। उन्होंने लंबी आह भरी। सिर हिलाया और काम में लगी रहीं। जब बाबा से पूछा तो बोले, "मे बेटा, इतने पैसे कहां हैं? रेलगाड़ी से वहां तक जाने में 55 डॉलर लग जाएंगे। ऐसा करो, तुम अगले साल चली जाना।"
मैं एक साल इंतजार नहीं कर सकती थी! अगले दिन मां ने मुझे एक भारी कोट और टोप पहनाकर बाहर बर्फ में खेलने भेजा। और मैं सीधे एलक्जेंडर महाशय की दुकान में जा पहुंची। वे सीढ़ी पर चढे हुए थे। मुझे देखते ही चहककर "हैलो" कहा।
मैं खुद को रोक न सकी। "मुझे काम चाहिए। रेल के टिकट के लिए पैसे जुटाने हैं मुझे।"
"काम! काश मैं ऐसा कर पाता, मे। देखो यहां के सारे काम बड़ों के लिए ही हैं।" सीढ़ी से उतरते हुए वे बोले।
और फ़िर मेरी रोनी सूरत को देखते हुए वे टॉफी की बरनी खोलने लगे। पर टॉफी की मिठास भी मेरे दुख को कम न कर पाई।
उस रात जब बाबा काम से आए तो चीजें और ज्यादा बिगड़ी हुई लगीं। वे धीरे-धीरे मां से कुछ कह रहे थे। बीच-बीच में दोनों सिर उठाकर मुझे देखते भी जा रहे थे। और फ़िर मुझे सुला दिया गया। इतनी जल्दी! मुझे बहुत बुरा लगा।
अगली सुबह जब मां ने मुझे उठाया तो चारों तरफ एकदम अंधेरा था। मैं चकराई। बाबा का छोटा बैग दरवाजे के पास रखा था। मैंने पूछा, "हम कहां जा रहे हैं?" वे मुस्कुराते हुए बोलीं, "चलो, नाश्ता कर लो फटापफट।"
इतने में हल्की-सी दस्तक हुई। बाबा ने दरवाजा खोला। सामने हमारे एक रिश्तेदार लियोनार्ड खड़े थे।
"जल्दी करो मे, हमें लियोनार्ड के साथ पोस्टऑफ़िस जाना है।" बाबा बैग उठाते हुए बोले। मां मेरे कोट की सिलवटें सही करने में लगी थीं। मैंने मुंह खोला ही था कि बाबा आंख दबाते हुए बोले, "न, न कोई सवाल मत करना।"
मां ने मुझे गले लगाया। मेरा माथा चूमा और मैं बाबा का हाथ थामे बाहर आ गई।
हम ग्रैंगविल पोस्टऑफ़िस पहुंचे। गोंद, कैनवस के बैग और लकड़ी के चिकने फर्श की मिली-जुली अजीब-सी गंध् आने लगी थी। तब तक बाबा पोस्टमास्टर के पास पहुंच गए थे। "डाक के नए नियमों की सूची तुम तक पहुंच गई होगी। मुझे पता है कि आजकल 50 पाउंड (लगभग 22 किलो) वजन तक की सामग्री पार्सल भेजी जा सकती है। लेकिन कैसी-कैसी चीजें पार्सल से भेजी जा सकती हैं?"
मिस्टर पार्किन्स ने अजीब-सी निगाहों से बाबा को घूरते हुए पूछा, "आपके दिमाग में क्या चल रहा है, जॉन?"
"यह मेरी बेटी मे है। मैं इसे डाक से लुइसटन पार्सल करना चाहता हूं। और आपको तो पता ही है कि लियोनार्ड रेल में डाक के डिब्बे की देख-रेख करता है। वह हमारे पार्सल का भी ख्याल कर लेगा।"
"हां, हां क्यों नहीं।" लियोनार्ड बोला।
"मैं बाबा की इस तरकीब से पूरी तरह हैरान थी।" मिस्टर पार्किन्स का भी कुछ ऐसा ही हाल था, "मे को डाक से भेजेंगे?" वे बुदबुदाए।
"देखते हैं डाक के नियम बताते हैं कि डाक से छिपकली, कीड़े या कोई दूसरी बदबूदार चीजें नहीं भेज सकते हैं।" मिस्टर पार्किन्स ने चश्मे में से मुझे देखा और हवा में सूंघते से बोले, "मेरे ख्याल से यह टैस्ट तो तुमने पास कर लिया है।"
"और लड़कियां ? क्या मुझे डाक से भेजा जा सकता है?"
"भई, नियमों की किताब में बच्चों के बारे में तो कुछ नहीं कहा गया है। लेकिन हां, चूजे जरूर भेजे जा सकते हैं।" मिस्टर पार्किन्स ने मुस्कुराते हुए बोले। "देखें तुम्हारा और तुम्हारे बैग का वजन कितना है?"
मैं फौरन एक बड़े-से तराजू पर चढ़ गई। बाबा ने मेरा बैग मेरे पास रख दिया।
"48 पाउंड और 8 सेंट। आज तक का दर्ज सबसे बड़ा चूजा।"
फ़िर एक चार्ट पर उंगली फेरते हुए वे बोले, "मे को ग्रैंगविल से लुइसटन भेजने का खर्च है 53 सेंट (लगभग 132 रूपए)। तो लियोनार्ड इस रेलगाड़ी में तुम्हें कुछ मुर्गियों का भी ख्याल रखना होगा, हूं।" वे शरारत भरे अंदाज में बोले।
कोई कुछ बोलता इससे पहले ही मिस्टर पार्किन्स ने मेरे कोट पर 53 सेंट का डाकटिकट चिपका दिया था। साथ में एक पर्ची भी थी, जिस पर दादी का पता लिखा था।
बाबा ने मुझे गले लगाया और कहा कि मैं दादी को ज्यादा परेशान न करूं। उनके जाने के बाद मैं पोस्टऑफ़िस में एक बंडल की तरह बैठ गई। लियोनार्ड ने मुझे बाकी डाक के साथ एक गाड़ी में बिठाया और प्लेटफॉर्म पर ले गया। वहां एक बड़ा-सा काला इंजन खड़ा था - धुंआ छोड़ता, जंगली सुअर की तरह फुफकारता-सा। मेरे अंदर सिहरन-सी पैदा हो गई। लगा, जैसे मैं पहले कभी रेल में बैठी ही न हूं।
रेल पर सारा सामान चढ़ा लेने के बाद लियोनार्ड ने मुझे भी डिब्बे में चढ़ाते हुए कहा, "चलने का समय हो गया, मे।"
ठीक सात बजे रेल मेरे घर से चल दी। दूर पहाड़ों की ओर। कितना रोमांचकारी लग रहा था सब!
डाक वाला डिब्बा एक छोटे-से पोस्टऑफ़िस जैसा ही लग रहा था। लियोनार्ड रास्ते में आने वाले शहरों में बांटी जाने वाली डाक की छंटाई करने लगे। मैं पास रखे स्टोव के पास दुबककर बैठ गई - ताकि गर्माहट भी मिलती रहे और नजरों में भी रहूं।
लियोनार्ड को जब भी समय मिलता वो मुझे दरवाजे के पास ले जाते। ओह, क्या बढ़िया नजारे थे! कभी हम पहाड़ों के किनारे से गुजरते, कभी सुरंग में घुसते। गहरी-गहरी खाइयां हमने लोहे की टांगों पर खड़े पुल से पार कीं।
काफी देर बाद जब रेलगाड़ी लैपवाइ नाम के दर्रे के पास पहाड़ों पर गोल-गोल होती हुई उरतने लगी तो मेरे पेट में कुछ अजीब-अजीब-सा होने लगा। उल्टी-सी होने को आई। मैं ताजी हवा लेने दरवाजे के पास दौड़ने ही वाली थी कि एक गुस्सैल आवाज कानों में पड़ी। "लियोनार्ड बेहतर है यह लड़की टिकट ले ले या निकाले पैसे।" ये हैरी मॉरिस थे। गाड़ी के टिकट चैकर। इस पर लियोनार्ड बोले, जनाब, यह सवारी नहीं सामान है। देखिए, इसके कोट पर लगी यह चिप्पी।
मॉरिस जोर से हंस पड़े और चले गए।
मिस्टर मॉरिस की डांट ने मेरे पेट की गुड़गुड़ाहट को ठीक कर दिया था। मुझे भूख भी लग आई थी। लियोनार्ड ने कहा कि खाना तो दादी के घर ही मिलेगा। टे्रन स्वीटव्हॉटर और जोसेपफ जैसे दो-एक शहरों में रूकने के बाद लुइसटन पहुंची। यह आखिरी स्टेशन था। कुछ देर बाद लियोनार्ड ने मेरा हाथ पकड़ा और इस डाक को छोड़ने चल पड़ा।
दादी को देखते ही मैं दौड़ पड़ी। मां-बाबा ने अपनी बात रख ली थी। थोड़ी-बहुत मदद अमरीकी डाक विभाग की भी रही।

साभार: चकमक मई २००९
लेखक: माइकल ओ टनेल