Friday, January 8, 2010

पुरस्कार का एक अर्थ होता है प्रतिफल

"समांतर कोश में पुरस्कार के तमाम अर्थों में से एक है- प्रतिफल। अब यह प्रतिफल किसका?"
साहित्य और पुरस्कार के सवाल पर अशोक कुमार पाण्डे की यह टिप्पणी हिन्दी साहित्य की दुनिया की उन हलचलों को पकड़ते हुए जो वर्ष 2009 को आंदोलित करती रहीं, कुछ जरूरी सवाल छेड़ रही है। अशोक के परिचय के तौर पर इतना ही कि कविता, कहानी के साथ-साथ आलोचना लिखते हैं। हिन्दी का ब्लाग जगत उन्हें न सिर्फ एक जिम्मेदार टिप्पणीकार के रूप में जानता है बल्कि एक सजग और मानवीय सरोकारों से जुडे सवालों भरी पोस्टों को अपने ब्लागों में पोस्ट अपडेट करने वाले ब्लागर के रूप में भी पाता है। 






साहित्य के विकास में पुरस्कारों की भूमिका

अशोक कुमार पाण्डेय


इस नवसाम्राज्यवादी समय में संस्ह्नति, साहित्य और कला भी सर्वग्रासी बाजार से मुक्त नहीं है। वैसे ऐसा भी नहीं है कि साहित्य में पुरस्कारों की अवधारणा कोई नयी चीज है। दरअसल हर क्षेत्र में हमेशा से ही दो धारायें मौजूद रही हैं- एक वह जो राज्यव्यवस्था से नाभिनालबद्ध हो अपना मूल्य उगाहती रहती है तो दूसरी वह जो समाज का जैविक हिस्सा बनकर इसके सार्थक बदलाव के लिये अपना योगदान देती है। सामंतकालीन युग में भी एक तरफ केशव और बिहारी जैसे राज्याश्रित कवि थे तो दूसरी तरफ कबीर जैसे विद्रोही जनकवि। लेकिन पहली धारा के लोग वर्तमान में महत्व भले पा जायें इतिहास में तो जनपक्षधर रचनाकार ही जीवित रहता है।
एक साहित्यकार का मूल्यांकन उन पुरस्कारों से नहीं होता जो उसे राज्यव्यवस्था या श्रेष्ठिवर्ग देता है , उसका मूल्यांकन समय और समाज में उसके हस्तक्षेप से निर्धारित होता है। सार्त्र ने नोबेल इसलिये ठुकरा दिया था कि वह इसे देने वालों की वर्गीय भूमिका के विरुद्ध सर्वहारा के पक्ष में खड़ा था। क्या इससे वह कमतर साहित्यकार साबित होता है? ब्रेख्त, नेरुदा, नाजिम हिकमत, प्रेमचंद, गोर्की, लोर्का, निराला, मुक्तिबोध, शील या नागार्जुन को हम उन्हें मिले पुरस्कारों से नहीं उनकी युगप्रवर्तक जनपक्षधर रचनाओं और तदनुरूप जीवन से जानते हैं।

आज जिस तरह वरिष्ठ से लेकर बिल्कुल युवा साहित्यकारों में पुरस्कारों के लिये आपाधापी मची है यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि राज्याश्रित कवियों की ही भांति आज भी साहित्यकारों का एक तबका बस पुरस्कारों और सम्मान के लिये ही लिख रहा है। जिन्हें बड़े पुरस्कार नहीं मिल पाते उन्हें पुरस्कार देने के लिये शहर-शहर में छोटी-बडी दुकानें खुली हैं। हालत यह है कि अब तो ऐसी संस्थायें भी उपलब्ध हैं जो इन पुरस्कारों के बदले लेखकों से धन भी वसूल रही हैं।
समांतर कोश में पुरस्कार के तमाम अर्थों में से एक है- प्रतिफल। अब यह प्रतिफल किसका? निश्चित तौर पर पुरस्कारप्रदाता के हित में किये गये किसी कार्य का। जब कोई साहित्यकार किसी संस्था से पुरस्ह्नत होगा तो निश्चित तौर पर प्रभावित भी। पुरस्कारों का एक पक्ष प्रोत्साहन भी निश्चित रूप से है। ब्राजील की महान लोकगायिका मारिओ सूसो को उनके स्कूल के दिनों में मिले एक पुरस्कार ने उनका जीवन बदलकर रख दिया। उससे मिली प्रेरणा ने उनको वह ताकत दी की अपने क्रांतिकारी गानों से उन्होंने पूरे लैटिन अमेरिका में एक नयी चेतना का प्रसार किया। कम से कम आजादी के तुरंत बाद साहित्य एकेडमी जैसी तमाम संस्थाओं के गठन के पीछे भी एक हद तक यही उद्देश्य था। आरंभिक दौर में उन्होंने सकारात्मक भूमिका भी निभाई। लेकिन तमाम सरकारें, पूंजीपतियों के धन से चलने वाली संस्थायें इत्यादि जो पुरस्कार साहित्यकारों को देती हैं उनका एकमात्र उद्देश्य प्रोत्साहन देना नहीं होता अपितु कहीं न कहीं वे साहित्य को नियंत्रित तथा अपने हित में अनूकूलित करना चाहती हैं और हमारे समय में इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। कांग्रेसी सरकारों के दौर में दिये गये पुरस्कार उसके हितों के अनुरूप थे तो भाजपा के शासनकाल में दक्षिणपंथ के एजेण्डे को ध्यान में रखकर पद एवं पुरस्कार निर्धारित किये गये जिसके लोभ में तमाम लोगों ने अपने पाले भी बदले। इस तरह इन पुरस्कारों ने साहित्य की दिशा भी बदली है। अभी हाल में जब विष्णु खरे ने सैमसंग जैसी कंपनी के साहित्य एकेडमी से हुए करार पर आपत्ति जताई तो एक युवा लेखक ने इस करार का स्वागत करते हुए साहित्य को बाजार से जोडने की हिमायत की। पुरस्कारों का ही प्रभाव है कि कविता और कहानी में बेहद वाचाल लेखक समाज के तमाम मुद्दों पर जमीन पर बिल्कुल खामोश नजर आता है। लेखन और जीवन के बीच की खाई निरंतर गहरी होती गयी है।


आज जिस तरह वरिष्ठ से लेकर बिल्कुल युवा साहित्यकारों में पुरस्कारों के लिये आपाधापी मची है यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि राज्याश्रित कवियों की ही भांति आज भी साहित्यकारों का एक तबका बस पुरस्कारों और सम्मान के लिये ही लिख रहा है। जिन्हें बड़े पुरस्कार नहीं मिल पाते उन्हें पुरस्कार देने के लिये शहर-शहर में छोटी-बडी दुकानें खुली हैं। हालत यह है कि अब तो ऐसी संस्थायें भी उपलब्ध हैं जो इन पुरस्कारों के बदले लेखकों से धन भी वसूल रही हैं। हमारे अपने शहर में भी ऐसे खरीदे पुरस्कारों सहित अपने फोटो अखबारों में छपाने वाले साहित्यकारों की कोई कमी नहीं है।

पुरस्कारों के अतिरेक और पाठकों के अभाव से स्थिति यह बनी है कि आज साहित्य चर्चा के केन्द्र से बाहर जा रहा है और पुरस्कार तथा सम्मान चर्चा के केन्द्र में है। इस आपाधापी में वैचारिक प्रतिबद्धता, सामाजिक सरोकार और लेखकीय आत्मसम्मान जैसी चीजें पीछे छूट गयी हैं। अभी एक समय सांप्रदायिकता के खिलाफ सशक्त कहानियां लिखने वाले कहानीकार उदयप्रकाश गोरखपुर की मिलिटेंट हिन्दू राजनीति के अगुआ आदित्यनाथ से पुरस्कार ले आये तो 1857 में अंग्रेजों का साथ देने वाले अयोध्या के एक पूर्व राजा के नाम पर स्थापित पुरस्कार को स्वीकार करने वालों में उनके साथ मंगलेश डबराल जैसे प्रतिष्ठित कवि भी हैं। पिछले दिनों विष्णु खरे ने भारतभूषण पुरस्कार पाये कवियों पर सवाल खडा तो किया पर खुद को बचाकर। लेकिन इस पर भी किसी सार्थक बहस की जगह बस पुरानी समिति के कुछेक लोगों को हटाकर और अधिक विवादित लोगों को शामिल कर लिया गया। कुल मिलाकर पुरस्कारों के जरिये स्थापित होने की भूख ने साहित्य के व्यापक आधारों को संकुचित कर जनमानस में इसके प्रभाव को अत्यंत सीमित कर दिया है। ऐसे में उम्मीद उन्हीं से है जो कर्म और रचना के द्वैत से मुक्त हो अपने समय की विसंगतियों से जूझते हुए बेहतर दुनिया के निर्माण की लडाई में जनता के पक्ष में खडे होकर अपना रचनाकर्म कर रहे हैं।

9 comments:

Ashok Kumar pandey said...

बस इतना बताना है कि यह लेखनुमा चीज़ यहां पर एक अख़बार द्वारा इस विषय पर चलायी गयी परिचर्चा के लिये लिखा गया था। जिसके सवाल थे (1)साहित्य के विकास में पुरस्कार का क्या महत्व है?
2)क्या पुरस्कार से लेखक की पहचान बनती है?
3)क्या पुरस्कारों का प्रयोग सरकारें लेखकों को प्रभावित करने के लिये करती हैं?
4) क्या लेखक पुरस्कारों के लिये लिख रहा है?
5) उम्मीद है ही नहीं क्या?

और जहां मारिओ सूसो आया है वह मर्सिडीस सोसा है।

Anshu Mali Rastogi said...

भाई लेख पढ़ लिया है। आपकी बातें सही हैं लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि पुरस्कार और सम्मान की बहस के बीच पाठक कहीं खो गया है। पाठक को पूछता कौन है? बस किसी भी तरह पुरस्कार हासिल हो जाए। भाड़ में जाए विचार और विचारधारा।
भाई पुरस्कार की जद में गिरते हुए मैंने कई महान प्रगतिशीलों को देखा-पढ़ा है। नामवर सिंह तो मुलायम सिंह यादव तक से सम्मानित हो चुके हैं। परमानंद श्रीवास्तव भी उत्तर प्रदेश सरकार से सम्मानित हो चुके हैं। तो क्या सारी की सारी दौड़ केवल पुरस्कार के लिए ही है। साहित्य कहां है? समाज कहां है? जन कहां है? विचार कहां है? मैं नफरत करता हूं इन साहित्यिक प्रगतिशीलों और पुरस्कारों से।

वीरेन्द्र जैन said...

अरे ये मेरे विचार कहाँ से चुरा लिये. मैनें तो इसलिये व्यक्त नहीं किये थे क्योंकि मुफ्त में मनोरंजन होता है और दूसरा डर यह था कि कहीं वे यह न खने लगें कि इसे नहीं मिला इसलिये ये ऐसा कह रहा है क्योंकि जिन बड़े साहित्यकारों की सूची आपने गिनयी है उन्होंने ऐसे पुरस्कारों को विरोध के लायक भी नहीं समझा। सात्र ने भी तब कहा जब उन्हीं पर नोबुल पटक दिया गया और वे- इसे हटाओ हटाओ कहते हुय्रे चिल्लाये थे।
खैर आपने व्यक्त कर ही दिये हैं तो आपके पीछे में भी लग लेता हूं।

अविनाश वाचस्पति said...

अशोक कुमार पाण्‍डेय जी की पोस्‍ट से शत प्रतिशत सहमत। और मत यह भी है मेरा कि पाठकों की भागीदारी पुरस्‍कार चयन में बढ़ाई जाये, परन्‍तु कैसे, सिर्फ रचना पर मत लिए जाएं या रचनाकार पर, इसके लिए आप सब तय कर सकते हैं।

प्रीतीश बारहठ said...

हाँ पुरस्कारों का यह एक सच है। और यह भी केवल बड़े पुरस्कारों और बड़े लेखकों को मिलने वाले पुरस्कारों का सच। पूंजीवाद, फासीवाद की रुचि भी दिखावे और केवल उन लेखकों को खरीदने-प्रभावित करने में ही रहती है जो अन्यत्र सक्षम हों किसी लॉबी में या मीडिया में जहां उनका उपयोग किया जा सके, या जिनके पीछे एक छोटी-बड़ी भीड़ हो चेलों की। सभी साहित्यकारों में उनकी रुचि नहीं होती है। दूसरी तरफ अमर्त्य सेन या अंरुधति राय की भूमिका भी पुरस्कार मिलने की बाद ज्यादा प्रभावी होती है। अविनाश जी के मतानुसार पुरस्कारों पर पाठकों का मत लेने की बात है तो इसमें केवल लोकप्रिय या जुगाड़ू साहित्यकार नोबेल ले उड़ेगा तब मुझे निश्चित विश्वास है कि जीजा साली की फुटपाथिया शायरी करने वालों के पाठकों की संख्या साहित्यकारों के पाठकों से अधिक होगी। बिकाउ और समझौतावादी साहित्यकार पुरस्कार मिलने से बहुत पहले ही बिक चुके होते हैं, पुरस्कार तो उनके बिकाउ होने की पहचान और प्रमाण हैं। फिर पुरस्कार की लालसा केवल नैतिक रूप से कमज़ोर साहित्यकारों में ही हो ऐसा भी नहीं है, यह मनुष्य की खुद की पहचान बनाने, प्रंसशा पाने की, खुद पर ध्यान दिये जाने की लालसा का ही विस्तार है। अन्यथा रचना पर लेखक का नाम ही क्यूँ हो? नाम होने से उत्तरदायित्व तो निर्धारित होता है लेकिन यदि रचना में वज़न नहीं तो वह स्वतः ही नष्ट हो जायेगी। हम जो अपने लेखों पर प्रंसशा (निंदा भी) चाहते हैं, वह पुरस्कार की भावना से अलग नहीं है। लेकिन पुरस्कार की चाह में अपने विचार बदल लें तो वह ही निन्दनीय है। साहित्य का स्थान/महत्त्व निर्धारण न तो पुरस्कार कर सकते हैं और न ही पाठक संख्या यह काम तो हमेशा आलोचना ही करेगी। हम क्यूं नहीं उस परम्परा की ओर बढ़ते जिसमें रचना के रचनाकार का पता नहीं होता।
जमीन पर काम करने वाले समाज सेवी की तुलना में साहित्यकार हमेशा दूसरे पायदान पर रहेगा। वास्तविक महत्त्व तो कर्म का ही है और साहित्य उसकी प्रेरणा होना चाहिये।

रवि कुमार, रावतभाटा said...

एक महत्वपूर्ण आलेख जो इस मामले की पृष्ठभूमि को एक सार्थक दिशा हेतु खोलता है...
सही सरोकारों को सामने रखता है...

पुरस्कार या जैसा कि कोश कहता है प्रतिफल, जाहिर है व्यवस्था के हितार्थ किए गए या साहित्य को प्रतिरोध का वायस नहीं हो पाने की सेवा के एवज़ में ही व्यवस्था प्रदान करेगी। इनको पाने की व्यवस्था भी जानबूझ कर ऐसी ही रखी जाती है, ताकि अपने-आपको इस नाभिनालबद्धता में खपाए बिना इस होड़ में नहीं रहा जा सकता...

लेखन के वास्तविक सरोकार जनपक्षधरता और जनप्रतिरोध की अभिव्यक्ति से जुडे होने चाहिए। जनचेतना के परिष्कार और इसके जरिए हुए ज़मीनी हस्तक्षेपों की भौतिक परिणति के जरिए ही वास्तविक लेखकीय व्यक्तिगत संतुष्टि प्राप्त की जा सकती है, और लेखन की सार्थकता खोजी जा सकती है...

यही असल पुरस्कार या सम्मान होता है। जनता ख़ुद इसके पैमाने तय करती है...

आपने सही पक्ष को अभिव्यक्ति दी...
अच्छा लगा...

गौतम राजऋषि said...

अंशुमाली जी पूर्ण्तया सहमत हूँ। पाठक तो हाशिये पे खड़ा बस ताली बजाने के लिये है...

शरद कोकास said...

पुरस्कारों को लेकर हमारे यहाँ साहित्यकार अलग अलग खेमों में बँट गये हैं । जिन्हे पुरस्कार मिल जाता है वे इस परम्परा की हिमायत मे खड़े होते हैं और जिन्हे नहीं मिलता वे विरोध में । कुछ लोगों को शहर में मिलने वाले छोटे छोटे पुरस्कारों से संतोष नही होता और वे किसी बड़े पुरस्कार की अपेक्षा करते हैं । इस चक्कर मे समिति के सदस्यों के तलुवे चाटते रह्ते हैं । पुरस्कार देने वालों की अलग राजनीति रह्ती है जिनके नाम से पुरस्कार दिये जाते हैं उन्हे कोई याद नहीं करना चाहता इस बहाने अपनी दुकान चलती रहे बस यही उनकी सबसे बड़ी फिक्र होती है । इस तरह यह दौड़ चलती रहती है ।
हल तो इसका यही है कि पुरस्कार की यह परम्परा ही बन्द कर देनी चाहिये जिसे मर्सिडीस डोसा बनना है वह ऐसे ही बन जायेगा ,बल्कि इससे और ज़्याद लोग बनेंगे । कम से कम आपसी वैमनस्यता , कटुता , और एक दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति का तो अंत होगा ।

अजेय said...

लेखक की पह्चान पाठकों में तो लेखन से बनती है.लेकिन उन लोगों में निश्चित रूप से पुरस्कारों /सम्मानों से बनती है जो पढ़ते तो कुछ नहीं , लेकिन साहित्यकार /साहित्य प्रेमी का लबादा ओढ़े रहते हैं.पिछले दिनों मुझे एक सरकारी पत्रिका से पत्र मिला. कि आप चूँकि एक कवि हो तो हमारे विभाग द्वारा आयोजित प्रतियोगिता मे शामिल होईए.प्रथम आने पर पाँच हज़ार का पुरस्कार मिलेगा. मैं ने स6पादक महोदय से कहा भाई जी, स्कूलों में जाईए. कितने ही बच्चे ऐसे सपने पाले रहते हैं. हम उन के हिस्से का भी हड़प जाना चाहते हैं ? यह सच मुच डिस्गस्टिंग है.
बचपन में पुरस्कार की ललक रहती थी. नहीं मिला. स्कूल और क्लास स्तर का भी नही मिला. अब नही चाहता.हाँ बच्चों को ज़रूर मिलना चाहिए.
सम्मान की बात उम्र के सम्मान् जनक पड़ाव पर पहुँच कर ही कर पाऊँगा.उस वक़्त कैसी वांच्छाएं होती होगीं, बिना अनुभव के क्या कहा जा सकता है. वैसे गत वर्ष सूत्र सम्मान प्राप्त अग्रज कवि सुरेश सेन निशांत से जब मैंने पूछा कि पुरस्कार और सम्मान में कुछ फर्क़ होता है क्या, तो वे हँसने लग पड़े थे.
मुझे लगता है पुरस्कार सम्मान लेखक के निजी चुनाव होने चाहिए. जिसे चाहिए , उसे मिले . लेकिन जब हम उस लेखक को उस के लेखन की बजाय पुरस्कार से पहचानने लगें, तो यह हमारी बौद्धिक विपन्नता मानी जाएगी.