Saturday, January 23, 2010

कलाकार एक चेतना से परिपूर्ण सत्ता है

घुमकड़ी का शौक रखने वाले और कला साहित्य में खुद को रमाये रखने वाले रोहित जोशी ने यह साक्षात्कार विशेषतौर इस ब्लाग के लिए भेजा है। हम अपने इस युवा साथी के बहुत बहुत आभारी हैं। प्रस्तुत है चित्रकार एम0 सलीम से रोहित जोशी की बातचीत---




चित्रकार के रूप में एम0 सलीम से मिलना प्रकृति के विविध पहलुओं से मिलना है। भूदृश्य चित्रण के कलाकार एम0 सलीम के चित्रों में प्रकृति के तमाम रंगो-आकार अंगड़ाई लेते दिखते हैं। जो कई बार रंगों में वॉ्श  तकनीक के प्रयोग से यथार्थ और स्वप्न के कहीं बीच लहराते नजर आते हैं। उनके कैनवास मूलत: इसलिए ध्यान आकर्षित करते हैं क्योंकि वहां प्रकृति की अनुकृति भी प्रकृति से एक कदम आगे की है। उनसे हुई कुछ बातें---
रोहित जोशी

  सबसे पहले तो कुछ बहुत अपने बारे में बताइए? कला के प्रति आपकी अभिरूचि कहां से जन्मीं?
एम सलीम:- यूं तो ये रूझान बचपन से ही रहा है। जब छोटी कक्षाओं में पढ़ा करते थे तो सलेट में पत्थरों के ऊपर चॉख से, या इसी तरह कुछ, कभी जानवरों के चित्र, पेड़-पौंधे मकान आदि ड्रा किया करते थे। इसके बाद ऊंची कक्षाओं में आए यहां काम कुछ परिष्कृत हुआ इसके अलावा कला अभिरूचियों में विस्तार के लिए एक कारण मैं समझता हूं प्रमुख रहा, अब तो यह चलन कम हुआ है, लेकिन पहले लगभग 50से 70 तक के दशक में अल्मोड़ा में बाहर से बहुत कलाकार आया करते थे और साइटस् पर जाकर लैण्डस्केप्स् किया करते थे। उन्हें कार्य करते देखना अपने आप में प्रेरणाप्रद रहा। रूचि थी ही, कलाकारों को देखकर स्वाभाविक ही बड़ी होगी।
चित्रकला सम्बन्धी शिक्षा-दीक्षा कहां से रही?
एम सलीम:- दसवीं पास करने के बाद पिताजी और उनके मित्रों ने मेरी कला में अभिरूचि को देखते हुए मुझे लखनऊ आर्टस् कालेज में दाखिला दिलवा दिया। वहां फाईन आर्टस् का पॉंच वर्षों का कोर्स हुआ करता था। यहीं मेरी कला की समुचित शिक्षा दीक्षा हुई।
आपने किन-किन माध्यमों और विधाओं में काम किया है?

एम सलीम:- मैंने जलरंग व तैलरंग दोनों ही माध्यमों में काम किया है। लेकिन मुख्य रूप से जलरंगों में मेरी बचपन से ही रूचि रही है। तैल रंगों से तो परिचय ही आर्टस् कालेज में जाकर हुआ और जहां तक विधाओं का सवाल है, मैंने लैण्डस्केप, पोट्रेट, स्टिल लाइफ, लाइफस्टडी, और एब्स्ट्रैक्ट आदि पर भी काम किया है। लेकिन यहॉं मुख्य रूप से लैण्डस्केप पर मेरा काम है। जिसे मैं अधिकतम् जल माध्यम के रंगों से ही करता हूं। जल माध्यम भी कला जगत् में बड़ा विवादास्पद रहा है। जो
पुराने मास्टर्स रहे हैं, उनका मानना है कि पानी में घोलकर रंगों को पेपर में लगाया जाना चाहिए। इसमें पारदर्षिता होनी चाहिए। जैसे आपने कोई एक रंग लिया है, और उसके ऊपर दूसरा ले रहे हैं तो सारी परतें एक के बाद एक दिखनी चाहिए। इस तकनीक में अपारदर्शी रंगों का प्रयोग वर्जित माना गया है। लेकिन दौर बदला है और ये मान्यताऐं भी टूट रही हैं। कई नऐ प्रकार के रंग माध्यम आए हैं। ऐक्रेलिक मीडियम है पोस्टर मीडियम है, इनके आने के बाद से आयाम बढ़े हैं।

आपने मुख्य रूप से जल रंगों में जो लैण्डस्कैप को अपनी विधा के रूप में चुना इसके क्या कारण रहे। आपको ये ही पसन्द क्यों आया?
एम सलीम:- इसका मुख्य कारण प्रकृति में मेरी रूचि से था। आप देखेंगे हमारे पास तो काम के लिए छोटा सा  कैनवास है लेकिन प्रकृति के पास ऐसे अनेक कैनवास हैं। इसी से लैण्डस्कैप में बहुत सारी चीजें हैं, जंगल र्हैं, नदियां हैं, झरने हैं, बादल हैं, मकान हैं, पेड़-पौंधे हैं, और भी कई अन्य चीजें हैं जिनको लेकर ताउम्र काम किया जा सकता है।

कला के दर्शन से उपजता एक सवाल मैं आपसे करना चाहुंगा, कि-कला जन्म कहॉं से लेती है? उसका उद्भव कहां है?
एम सलीम:- मेरा इस बारे में जो मानना है वह यह है कि कला मूलत: पैदाइशी है। लेकिन इसे उभारने की प्रेरणा हमारे चारों ओर मौजूद प्रकृति से मिलती है। जो चीज हमें अपील करती है उसके प्रति हमारे भीतर भावनाऐं पैदा होती हैं कि हम इन्हैं अपने मनोभावों के साथ पुन: उतारें, यहीं कला का जन्म होता है। मानव ने अपने प्रारंभिक अवस्था से ही ऐसा किया है।
कला के संदर्भ में दो मान्यताऐं हैं 'कला कला के लिए" और 'कला समाज के लिए" ऐसे में आप स्वयं को कहॉं पाते हैं? और कला के सामाजिक सरोकार क्या होने चाहिए?
एम सलीम:- जो कहा जाता है कि- "आर्ट फॉर दि सेक ऑफ आर्ट" ,'कला कला के लिए" ये अपनी जगह बिल्कुल सही चीज है। इसको आप बिल्कुल इप्तदाई तौर से लें, जब आदमी समाज में नहीं बधा था, तब भी उसने सृजन किया है। प्रकृति की प्रेरणाओं से उसने चित्रांकन किया। लेकिन जब हम समाज में बध गए तो समाज के प्रति स्वाभाविक रूप से उत्तरदायित्व भी बने हैं। समाज के भीतर बहसों की वजहें भी विषय के रूप में सामने आई। कई कलाकारों ने इन विषयों पर काम भी किया। यहां एक बात मैं समझता हूं कि यह कलाकार की रूचि का विषय है कि वे इन पर कलाकर्म करे, न कि उसका उत्तरादायित्व।
कुमाऊं पर बात करें। यहॉं चित्रकला के विकासक्रम को कैसे देखते हैं आप?
एम सलीम:- कुमाऊं के ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों के अभाव में चित्रकला का विकास मुख्यत: लोककलाओं में ही रहा है। मुख्यधारा की चित्रकला परम्मरा यहॉं देखने को नहीं मिलती है। लोककलाओं में भी ज्यादातर योगदान महिलाओं का रहा है। अपनी अभिव्यक्ति के लिए घर के अलंकरण के जरिए सुलभ उपकरणों, रंगों आदि का प्रयोग कर उन्होंने चित्रण किया है। गेरू, चांवल, रामरज आदि का रंगों के लिए प्रयोग किया है। और इसके अतिरिक्त जो काम कुमाऊं में चित्रकला की मुख्यधारा का हुआ वह नगरी क्षेत्रों में हुआ। यह भी लगभग विगत् एक से डेढ़ शताब्दी पुरानी ही बात है।
आप मुख्यत: प्रकृति के चितेरे रहे हैं। अभी यहॉं मुख्यधारा के कला जगत में अवचेतन कला में प्रधानता आई है। इसे ही मान्यता भी मिल रही है। इसे आप कैसे लेते हैं?

एम सलीम:- नऐ दौर का यह एक ऐसा क्रेज है जिसके बिना हम नहीं रह सकते। यह चित्रकला का समय के सापेक्ष विकास है। देखिए आज फोटोग्रॉफी, चित्रकला की प्रतिस्पर्धा में है। और साथ ही ये तकनीकी रूप से भी बहुत ऐडवांस हो गई है। इससे चित्रकला की पुरानी मान्यताऐं भी टूट रही हैं। कैमरा सिर्फ एक क्लिक में चित्रकार के तीन चार घण्टे की मेहनत सरीखा परिणाम दे रहा है। ऐसे में यदि आप सिर्फ वस्तुओं की अनुकृति मात्र कर देंगे तो वह आकर्षित नहीं कर पाऐगी यदि आप अवचेतन विचारों का अपनी अनुकृति में प्रयोग करेंगे तो यह कलागत् दृष्टि से नवनिर्माण होगा व उसे मान्यता भी मिलेगी। यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात है कि कैमरे के पास मन नहीं होता और न हीं संवेदनाऐं होती है। लेकिन कलाकार एक चेतना से परिपूर्ण सत्ता है जो कि मौलिक सृजन करने की क्षमता रखता है।
अवचेतन कला है क्या?
एम सलीम:- जिसको अवचेतन कला कहते हैं, "एब्स्ट्रैक्ट आर्ट"। तो एब्स्ट्रैक्ट तो वीज्युअल आर्ट में कुछ है ही नहीं। आकार रहित तो कोई कला हो ही नहीं सकती। हां ये जरूर है कि प्रकृति से वह विषय आपके भीतर गया है व रूप बदलकर बाहर आया है। बुनियादी रूप में वह मूर्त था बस जब तक आपके विचारों में रहा अमूर्त रहा लेकिन जब कैनवास में रंगों के माध्यम से उतरा फिर मूर्त हो उठा। हां लेकिन यह मूर्तता उस मूर्तता से अलग है जो वह प्रकृति में है।

2 comments:

Ashok Kumar pandey said...

इसे अभी सरसरी तौर पर पढ़ गया हूं
शाम तक पक्का दुबारा आके पढ़ुंगा

Ashok Kumar pandey said...

वादा निभाने आ ही गया

मोटे तौर पर कला कला के लिये के सलीम साहब के निष्कर्ष से सहमत हुआ जा सकता है पर पूरी तरह इसे मान पाना मेरे लिये मुश्किल है।

इंटरव्यू अख़बारी सा होकर रह गया…