Tuesday, February 23, 2010

भाड़े का विज्ञान और विशेषज्ञ

यूं तो सम्पूर्ण ऊर्जा के दोहन को लेकर अनेक योजनाएं बनायी जा रही है पर उत्तराखण्ड के पहाड़ों में विशेष रूप से 400 से ज्यादा छोटी-बड़ी जल-विद्युत परियोजनाओं पर काम चल रहा है। जाहिर है स्थानीय जनता के विस्थापन से लेकर पर्यावरण संरक्षण तक के मुद्दे प्रमुख रूप से उभर कर आ रहे हैं। ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में जनता के पास कुल भूमि का मात्र 7 प्रतिशत भूमि पर मालिकाना हक है, बाकी सब भूमि रिजर्व फॉरेस्ट व अन्य सरकारी खातों में बंद है। जल-विद्युत परियोजनाओं के निर्माण की अंधी दौड़ में यह तथ्य छुपाया जा रहा है कि जिस हिसाब से पर्वतों की जनता यहां की भूमि पर मालिकाना हक खो रही है उस हिसाब से बहुत जल्दी उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों की नदी घाटियों में बांध ही बांध और शिखरों में वन्यजीव अभ्यारण्य होंगे। यह भी उदघाटित होना चाहिए कि बांधों के निर्माण हेतु जारी दिखावटी प्रक्रिया, जिसके तहत पर्यावरणीय समीक्षा से लेकर विस्थापन और मुआवजों के मामलें निपटाये जाते हैं, कैसे उन विशेषज्ञों की रिपोर्टों के आधार पर तैयार हो जाते है जिनके अपने हित जल-विद्युत कम्पनियों के साथ बंधें होते हैं। पिछले दिनों जोशीमठ शहर के ठीक नीचे बनाये जा रही एक सुरंग में यकायक 600 लीटर प्रति सैकेण्ड की गति से जल रिसाव होने से निर्माण कार्य ठप है। अब जोशीमठ के निवासी भयभीत हैं कि कहीं उनके जल स्रोत सूख न जाए या कहीं जोशीमठ भूमि धसाव की जकड़ में न आ जाए। यह चिंताएं अकारण नहीं है। जोशीमठ के ठीक सामने के उस चाई गांव का मामला अभी कोई ज्यादा पुराना नहीं हुआ है जो एक ऐसी ही परियोजना के कारण इतिहास के गर्त में समा गया। चाई नाम के उस छोटे-से गांव के ठीक नीचे से जे पी कम्पनी की सुरंग निकाली गयी थी। परियोजना को पूर्ण रूप से सुरक्षित होने का प्रमाण-पत्र भी विशेषज्ञों द्वारा जारी किये जाने के बावजूद दो वर्ष पूर्व चाई गांव भूमि धसाव का शिकार हो चुका है, लेकिन अफसोस कि उन विशेषज्ञ रिपोर्टो पर आज तक कोई सवाल नहीं।
ऐसे ही सवालों के साथ प्रस्तुत है डॉ. सुनील कैंथोला का यह आलेख:

सुनील कैंथोला

हिंदुकुश हिमालय का एक बड़ा हिस्सा आतंकवाद और राजनैतिक अस्थिरता से ग्रस्त है। आतंक के इस खूनी खेल में भाड़े के सैनिकों की प्रमुख भूमिका है, जो लोकतंत्र और अमन-चैन को अपने पेशे के प्रतिकूल समझते हैं। दूसरी तरफ, हिमालय के ऐसे क्षेत्र जहां अमन है, लोकतंत्र है, वहां भाड़े के विशेषज्ञों का आतंक दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। भाड़े के आतंकवादियों की ही तरह इनका दीन मात्र पैसा है और इसके एवज में ये लोकतंत्र का गला घोंटने से परहेज नहीं करते। इनके आतंक में पिसती स्थानीय जनता की स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ जैसी होकर रह गई है। अब भारत सरकार का कोई बोर्ड हो, विशेषज्ञों की मोटी तकनीकी रिपोर्ट हो और इसके बावजूद भी आप तकरार करने की हिमाकत करें, तो या तो आप कतई सिरफिरे हैं या निश्चित तौर पर माओवादी हो सकते हैं। जिसके नापाक इरादों पर पानी फेरने के लिए भारत सरकार चौबीसों घंटे चौकन्नी व लामबंद है।

इन दिनों उत्तराखंड मुआवजे की धनराशि से खरीदी गई गाड़ियों, उन पर लगे भारत सरकार के बोर्ड और उसमें विराजमान ताजी हजामत वाले, कृत्रिम इत्र-फुलेल की दुर्गंध छोड़ते भाड़े के विशेषज्ञों और उनके काणे विज्ञान की कलाबाजियों से पूरी तरह सम्मोहित है। मदारी, बहरूपिए, चालबाज, जेबकतरे आदि जब बड़े स्तर पर हाथ मारने में कामयाब हो जाते हैं, तो अंग्रेजी में उन्हें कलाकार का दर्जा देते हुए कॉन आर्टिस्ट कहा जाता है। उत्तराखंड में बड़े कॉन आर्टिस्टों की क्षमता संपन्न कंपनियों द्वारा कथित विशेषज्ञों को भाड़े पर उठाकर जो मायाजाल बुना जा रहा है, वह शेयर बाजार में भले ही उफान पैदा कर दे, स्थानीय आजीविका और अस्तित्व पर तो वह अंतिम कील ठोक ही देगा। इस भ्रम का शीघ्र अति शीघ्र पर्दाफ़ाश करना संविधान की आत्मा और लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई का हिस्सा बनता जा रहा है।

जब किसी के नाम के आगे विशेषज्ञ शब्द जुड़ जाए और ऊपर भारत सरकार का बोर्ड हो तो किसी की क्या मजाल कि उसकी विशेषज्ञता को चुनौती दे सके। फिर मामला जब ऐसा हो कि विशेषज्ञ की जरूरत पहले से तैयार रिपोर्ट के अंत में सिर्फ हस्ताक्षर भर करने के लिए हो, तो लाला किसी भी अंजे-गंजे को विशेषज्ञ के स्थान पर खड़ा कर देगा। जैसे वर्ष 2003 में विख्यात पर्वतारोही हरीश कपाड़िया जल्दबाजी में ग्लेशियोलॉजी पढ़ने वाले एक लौंडे को विशेषज्ञ बनाकर विश्व धरोहर नंदादेवी कोर जोन में ले गए, तो पूरी सरकार उनकी आवभगत में जुटी रही। सामाजिक-आर्थिक स्तर पर विशेषज्ञता का बंटाधार तो डा।राबर्ट चैंबर्स अपने पी।आर।ए। और आर।आर।ए।के कथित विज्ञान द्वारा पहले ही कर चुके थे। आप दो हफ्ते के 70-72 घंटे के प्रशिक्षण द्वारा डॉक्टर, इंजीनियर या फॉरेस्टर नहीं बन सकते परंतु इतने ही समय में कोई भी लप्पू झन्ना न केवल समाजशास्त्री बन सकता है बल्कि अपने तूफानी दौरे के दौरान होटल-ढ़ाबों में हुई बातचीत के बल पर नीतिगत अनुशंसा करने के स्तर तक भी पहुंच जाता है। बहुत संभव है कि डा.चैंबसरा की यह मंशा न रही हो पर उनके पी.आर.ए.शास्त्र ने लालाओं के "उत्तराखंड कब्जाओ" एजेंडा को बल ही प्रदान किया है। बांध संबंधी विषयों पर जनता के साथ बैठकों की संचालन विधि, चांदी के कटोरों की भेंट और जन सुनवाइयों की हलवा-पूरी की कवायद उस दौर से बिल्कुल अलग नहीं, जब नकली मोती और आईना देकर अंग्रेज आदिवासियों की जमीनें हड़पा करते थे। इतना जरूर है कि तब नेतृत्व दलाल नहीं अपितु भोला था। पी।आर।ए।ने हमारे माननीय प्रशासकों के दृष्टिकोंण को ठीक उसी सांचे में ढालने में भूमिका निभाई हो, जो साम्राज्यवाद के विस्तार के दौर में क्षेत्रीय प्रशासकों का होता था। आज का प्रशासक उससे भी ज्यादा क्षमता संपन्न है, वह अपने पी।आर।ए। द्वारा लोकतंत्र के बाकी बचे स्तंभों को चलाता है।

उत्तराखंड निर्माण के उपरांत जिस धंधे के दिन पलटे उसमें विशेषकर डी.पी.आर.(डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) बनाने के व्यवसाय से जुड़ा पेशा शामिल है। इसमें भू-वैज्ञानिक, कथित समाजशास्त्री, पर्यावरणीय प्रभाव की रिपोर्ट बनाने वाले किसी भी पृष्ठभूमि के कंसल्टेंट अथवा भाड़े के विशेषज्ञ शामिल होते हैं, जो लालाओं की कंपनी के दिशा निर्देशानुसार रिपोर्ट बनाते हैं। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि जरूरत इनके कथित ज्ञान की नहीं सिर्फ हस्ताक्षरों की होती है, कोई मना कर भी दे, तो बाजार में इनकी कमी नहीं।

उत्तराखंड निर्माण से पूर्व डी।पी।आर।का धंधा अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर हुआ करता था, जिस पर देहरादून के मुट्ठी भर भू-वैज्ञानिकों की इजारेदारी थी, जो बेरोजगार भू-वैज्ञनिकों को अल्प समय के लिए भाड़े पर रखकर सीमित मुनाफे में अपनी आजीविका चलाते थे। राज्य निर्माण के उपरांत उत्तराखंड के जल स्रोतों के दोहन के अभियान में आई तेजी ने इनके भी दिन फेर दिए, जो कि निश्चित रूप से बुरी बात नहीं है। मुद्दा रिपोर्टों की और भू-विज्ञान की वैज्ञानिक विश्वसनीयता का है। भू-विज्ञान स्वयं में आधारभूत (फंडामेंटल) विज्ञान न होकर विभिन्न आधारभूत विज्ञानों व एप्लाइड साइंस का अद्भुत सम्मिश्रण है। इसकी नितांत आवश्यकता भी है। तभी तो 1767 में सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1836 में कोल कमेटी का गठन किया, जो कालांतर में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया बनी। साम्राज्यवाद को अपने विस्तार के लिए जिन विभागों की आवश्यकता थी, उनमें भूगोल और भू-विज्ञान प्रमुख थे। पिछली दो शताब्दियों में भू-विज्ञान ने भले ही चहुमुंखी प्रगति कर भी ली हो परंतु वह आधारभूत विज्ञान की तरह दो और दो चार कह पाने की स्थिति में नहीं पहुंचा है। जैसे कि चांई का मामला। अब जे।पी।के सीमेंट से बनी जे।पी।हाईड्रो पावर की टनल यदि रिक्टर 8 के पैमाने के भूकंप को झेल जाएगी, तो इसका श्रेय सीमेंट, सरिया और रेत को सही अनुपात में मिलाने को जाएगा पर ग्राम चांई जो ध्वस्त हुआ तो उस भू-विज्ञान को कौन शूली चढ़ाएगा, जिसके आधार पर उक्त योजना को स्वीकृति प्रदान की गई? जाहिर है कि यह जनता के पैसे पर भू-वैज्ञानिकों के अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार को आयोजित करने का अच्छा बहाना हो सकता है। जिसमें विभिन्न प्रकार के कयास लगाए जाएंगे पर चांई के साथ हुए विश्वासघात पर चर्चा नहीं होगी क्योंकि यह भू-विज्ञान का विषय जो नहीं है।

चांई एक छोटा गांव है, जो भाड़े के विशेषज्ञों की बलि चढ़ गया। अब जोशीमठ के अस्तित्व पर तलवार लटक गई है, जो बदरीनाथ जी का शीतकालीन आवास और संभवत: लाखों परिवारों की आजीविका का स्रोत है। जिसके ऊपर अरबों रुपयों के शीतकालीन क्रीड़ा की इंवेस्टमेंट भी हैं। इधर, एन.टी.पी.सी.का एफ.पी.ओ.शेयर बाजार में उतरा रहा है। उधर, जोशीमठ के ठीक नीचे कहीं जल रिसाव से सुरंग का कार्य बंद हो गया। अब बाजार से पैसा उठाना परियोजना की गुणवत्ता से महत्वपूर्ण हो गया है। मामला फिर विशेषज्ञों के पाले में है, जो भाड़े पर हैं। जिनका विज्ञान अंत में मात्र कयासों पर आधारित है। कल यदि जोशीमठ के अस्तित्व को कुछ होता है, तो जनता संभवत: ये कैसे हुआ होगा इस विषय पर भूगर्भ शास्त्रियों की थ्योरियां न सुनना चाहेगी बल्कि आज अपने अस्तित्व की गारंटी लेना पसंद करेगी।

ऊर्जा निश्चित रूप से देश की आवश्यकता है। हैरत की बात है कि ओ.एन.जी.सी.के भूगर्भशास्त्री दशकों भारत में तेल खोजते रहे पर मिला खुलेपन के उपरांत रिलायंस घराने को। जिसकी बंदरबांट का झगड़ा इस देश का सबसे चर्चित अदालती केस है। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में कहें, तो यहां पर्यावरणवादियों और जल ऊर्जा कंपनियों ने अपने-अपने इलाके कब्जा लिए हैं। बांध के मामले में पर्यावरणवादी भी चुप्पी साध लेते हैं। इस दोहरी मार का एक उदाहरण जोशीमठ-मलारी के बीच स्थित ग्राम लाता है, जहां भारत के वन्य जीव संस्थान के विशेषज्ञों ने अपने कथित अध्ययनों के आधार पर जनता पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए पर उसी ग्राम की तलहटी पर बन रहे बांध के पर्यावरणीय प्रभाव पर ये विशेषज्ञ मौन हैं। इन बांधों की डी।पी।आर।में इस क्षेत्र का कोई जैव विविधीय महत्व नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं कि इन परियोजनाओं की पर्यावरणीय समीक्षा भी इन्हीं विशेषज्ञों अथवा इनके चेलों ने तैयार की हों। विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पर्यावरण व जैव विविधता का रोना रोने वाले ये विशेषज्ञ आज मौन क्यों हैं? इस पर चर्चा करना व्यर्थ है। ऊर्जा की आवश्यकता और जैव विविधता संरक्षण, अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे हैं, जबकि स्थानीय जनता का अस्तित्व, स्थानीय मुद्दा। उत्तराखंड की राजनीति यदि ठेकेदारी पर आश्रित न होती, तो संभवत: भाड़े के विशेषज्ञों द्वारा रचे गए इस मारक चक्रव्यूह से जनता को सुरक्षित बाहर निकाल लाती।


10 comments:

Ashok Kumar pandey said...

एक बेहद ज़रूरी रिपोर्ट

naveen kumar naithani said...

यह महत्वपूर्ण सवाल है,एक तरफ नन्दा देवी बायो-स्फेयर रिजर्व के नाम पर तमाम पाबन्दियां और दूसरी ओर नदियों की जैव विविधता पर नकारात्मक असर डालने वाली परियोजनाओं की लंबी फेहरिस्त!और असली प्रश्न तो मनुष्य का है
इन सवालों पर जरूरी बात होनी ही चाहिये

अजेय said...

महत्वपूर्ण पोस्ट. सुनील जी को पढ़ना खुद को नई रोशनी से भरपूर् कर देने जैसा होता है...

डॉ .अनुराग said...

गंभीर आलेख है .ब्लॉग में कुछ सेटिंग ठीक करिए.....साइड बार वाले आलेख की वजह से दिक्कत हो रही है

Dr. Dinesh Sati said...

Once again a very serious issue of rampant development projects in Uttarakhand and capacity of consultants has been questioned by Dr. Kainthola which to me in a number of projects sounds very pertinent. At the outset I wish to admit that I am also one of those consultants who are advising on geology and geotechnical matters to hydropower companies. As a consequence of Govt. policy to open up hydropower sector for private investors also; there has been mushrooming of companies which are independently or in joint ventures with PSUs/ Govt. are supposed to produce Detailed Project Reports (DPRs) for their projects. Large number of hydropower companies; be in Govt. or private; there is almost dearth or even absence of qualified geologists/ geotechnical engineers. Sometimes they even do not know A B C of hydropower but hey have money to invest. Unfortunately for these masses the DPRs are being prepared by university departments/students or some freelance geologists assisted by junior level engineers of PSUs or Govt. Deptt. Unfortunately the inappropriate manpower even fail to carry out the minimum required geological/ geotechnical investigations for the identified hydro projects which are mandatory as per guidelines of the Ministry of Power (Govt. of India) but the companies simply manage to get the clearances from the Govt. The failures/ problems indicated by Dr. Kainthola are inevitable during implementation of these projects. I think the entire system is to be blamed for these failures!!!

arvind said...

दरअसल हमारे देश में ऐसे वैज्ञानिकों की तादाद बढ़ गयी है जिनके कोई सामाजिक सरोकार नहीं. वे तो चीजों को केवल विज्ञान विज्ञान के लिए के अतिसंकीर्ण नजरिये से देखते हैं. इन्ही पर एक लतीफा याद आ रहा है-
एक बार एक वैज्ञानिक प्रयोग के लिए जार में १०० स्वस्थ मधुमक्खियाँ ले आया. उसने एक मक्खी निकाली और कागज पर रख कर बोला-मक्खी उड़ . मक्खी उड़ गयी. फिर उसने दूसरी , तीसरी और सभी के साथ यह प्रयोग किया. सभी मक्खियाँ उड़ गयीं. उसने यह सब अपनी नोटबुक में दर्ज कर लिया. अब वैज्ञानिक फिर से जार में भर कर १०० स्वस्थ मधुमक्खियाँ लेकर आया. इस बार प्रयोग में कुछ तबदीली थी. उसने मक्खियों के पंख तोड़ दिए. उसने एक मक्खी निकालकर कागज पर रखी ओर बोला उड़. मक्खी नहीं उडी. दूसरी भी नहीं उडी फिर तीसरी और तमाम कोशिशों के बाद एक भी मक्खी नहीं उडी
वैज्ञानिक ने अपनी नोटबुक में निष्कर्ष लिखा-
' पंख तोड़ने के बाद मधुमक्खियों को सुनाई देना बंद हो जाता है '

KEEPTHEWORD said...

Sunil Bhai has touched some of the most serious issues confronting Uttarakhandis and people living on the margins of the nation-state. The saddest part of all this is that there is total lack of awareness among politicians and administrators in Uttarakhand on public policy that is driven by quality scientific research that is validated through peer-review. There is total absence of seeking independent scientific research on mega projects. The science bureaucracy in the state needs to encourage independent scientific review.
Beyond these elitist sounding scientific arguments, there is the plight of pahar that Sunil bhai is trying to bring to our attention. The plight of pahar is not because of development work, but because the development is destroying everything that makes the pahari what he or she is. This does not augur well for Uttarakhand.

प्रदीप कांत said...

गंभीर आलेख

JAIDEEP SAKLANI said...

Dear SunilSir
Wish ur article must be read by the so called policy makers of UTTARAKHAND.Prob yeh hai Sir ki IAS and PCS adhikariyon ko MUSSOORIE jate samay to thandi hawa lagti hai aur pauri ya tehri jate huye pahari ghoom ke karan unki tabiyat kharab ho jati hai jabki Mussoorie bhi pahar hai aur Tehri aur Pauri bhi pahar hai.

pahadi.bhulla said...

HkSth !
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