Saturday, March 20, 2010

अवचेतन कला कैनवास पर तो ज्यामितीय आकारों के भीतर ही होती है

लखनऊ फाइन आर्ट कॉलेज में आर्किटेक्चर डिपार्टमेण्ट के विभागाध्यक्ष रहे डी0 एल0 साह की चित्रकला में रूचि और दखल समान है। अपने लैण्डस्केप चित्रों में उदासी के रंगों को फिराते चित्रकार साह के पास चित्रकला एक विजन के रूप में भी मौजूद है। प्रस्तुत है चित्रकार डी0 एल0 साह से रोहित जोशी की बातचीत के अंश-

रोहित जोशी
9837263452
सबसे पहले तो अपने बारे में बताइए कि आप में कला अभिरूचियां कहां से पैदा हुई? और आपके कला कर्म की शुरूआत कहां से रही है?
डी0 एल0 साह: जब मैं आठवीं या नवीं कक्षा में पढ़ा करता था तो मेरा आर्ट अच्छा समझा जाता था, फिर जब मैं दसवीं के बाद लखनऊ फाइन आर्टस् कालेज में गया तो मेरी दिली ख्वाहिश फाइन आर्टस को ही विषय के रूप में लेने की थी लेकिन हमारे प्रोफेसर श्री विशाल लाल साह ने कहा कि तुम फाइन आर्ट नहीं करोगे। तुम्हैं वास्तुकला में एडमिशन लेना है। इस तरह मैंने वास्तुकला में एडमिशन ले लिया। कुछ समय बाद जब में दशहरे की छुट्टियों में पिथौरागढ़ आया तो यहां मैं वहां प्रकृति को देखकर विचलित हो उठा। क्योंकि इससे पहले मैं चित्रकला की गम्भीरता को समझता नहीं था और स्कूल में फूल पत्ती आदि के चित्रण को ही कला मानता था। लेकिन आर्टस् कालेज में फाइन आर्टस् के स्टूडैण्ट्स को कार्य करते हुए देखा था खास कर कि लैण्डस्कैप में। तो पिथौरागढ़ की बेहद खूबसूरत वादियों में मेरा विचलित हो उठना लाज़मी ही था। मेरे भीतर का चित्रकार इन छुट्टियों भर हिलोरे मारता रहा और उसने मुझे चित्रकला की ओर खींचा। नतीजा ये हुआ कि आर्टस् कालेज के, अपने चित्रकला की तकनीकों के ऑब्जर्वेशन्स के चलते मैंने लैण्डस्कैप्स बनाने शुरू कर दिए। मुझे कॉलेज में चित्रकला के अनुरूप माहौल मिला। हम एक दूसरे के काम से सीखा करते थे। जो भी लैण्डस्कैप मैं करके लाता अपने सीनियर्स को दिखाता। वहां एक टीचर थे फ्रैंक रैसली। वे लैण्डस्कैप के बड़े चित्रकार थे उन्हें मैं अपना वर्क जरूर दिखाता था। उनके सुझावों से मेरा काम काफी परिष्कृत हुआ। वहां तमाम कलाकारों के संपर्क मंे आने से मुझे कई चीजंे सीखने को मिली और मेरा एक अपना स्टाइल भी बनने लगा था। एक तरह से ये हो रहा था कि वास्तुकला मे रहते हुए चित्रकला की ओर ज्यादा आकृष्ट था।
आपने किन किन माध्यमों पर काम किया है?
डी0 एल0 साह:- मैंने शुरूवात तो वॉटर कलर्स से ही की और लैण्डस्कैप ही ज्यादा किया था। उसके बाद धीरे धीरे जब वॉटर कलर मेरी पकड़ बनने लगी तो फिर स्टूडियो वर्क मैंने आयल कलर्स से करने शुरू किए। आउटडोर वर्क तो मैं तब भी वॉटर कलर या फिर स्कैचिंग से ही किया करता था।
तो रचनाकर्म के लिए आपने लैण्डस्कैप के अतिरिक्त कौन सी विधाएं चुनी हैं ?
डी0 एल0 साह:- प्रतिनिधि रूप से लैण्डस्कैप में ही मैंने काम किया है इसके अतिरिक्त कम्पोजिषन भी तैयार किए हैं। कम्पोजिषन्स में जो फिगर आए हैं वो भी निभाऐ हैं। लेकिन पोट्रेट मैंने कभी एक्सपर्टाइज के साथ नहीं बनाऐ।
मुख्य रूप से लैण्डस्कैप की विधा चुनने के क्या कारण रहे?
डी0 एल0 साह:- कारण ये रहे कि प्रकृति के आयाम बहुत वास्ट हैं। उसकी कोई लिमिट्स नहीं हैं। इसलिए मैने लैण्डस्कैप को विधा के रूप में चुना। लोग कहते हैं कि प्रकृति को चुन कर आप क्या कर लेंगे? लेकिन मेरा स्पष्ठ मानना रहा है कि नेचर में सब कुछ है। आपने अल्मोड़ा के एक चित्रकार बुस्टर का नाम सुना होगा उनका काम देखिए उन्होंने अल्मोड़ा की आत्मा को पकड़ डाला है। उनके फ्रेम लीजिए उनके रंग लीजिए। वो कार्य की पराकाष्ठा है। मैंने बांकी कलाकारों को भी देखा है वो कार्य की उस गहराई तक नहीं जा पाऐ हैं। लेकिन 'बुस्टर" के चित्रों में लगता है जैसे अल्मोड़ा की मिट्टी उधर है।
एक सवाल मेरा है, कला के दर्शन से। कला जन्म कहां लेती है?
डी0 एल0 साह:- कला की उत्पत्ति के बारे में मेरा अनुभव है कला ईश्वर की कृपा से जन्म लेती है। इसके लिए कोई जरूरत नहीं कि आप कितना पढ़े लिखे हैं अगर आप पर कृपा है तो आप कलाकार हो जाऐंगे। कबीर का उदाहरण ले लीजिए कबीर अनपढ़ थे लेकिन उनके भीतर रचना कर्म कर सकने की अद्भुत् क्षमताऐं थीं। यदि कोई ये समझे कि मैं बहुत ज्यादा पढ़ लिख कर कलाकार बन जाऊंगा तो आर्ट्स कालेज से आज तक न जाने कितने ही लोग प्रशिक्षित हुए लेकिन कलाकार कितने बने ये देखने वाली बात है।
कला कला के लिए और कला समाज के लिए की दो बहसें हैं इनमें आप अपनी पक्षधरता कहां पाते हैं?
डी0 एल0 साह:- देखिए मैं समाज को कोई मैसेज नहीं देना चाहता। वस्तुत: मैं कबीर से बहुत प्रभावित रहा हूं। क्योंकि जो उसके स्टेटमैंट्स रहे हैं उसमें समाज की कोई परवाह नहीं है। जो कुछ उसने कहना था कह डाला। और उसी तरह का मैं पेण्टर हूं। मैं स्पोन्टिनियस पेण्टर हूं किसी भी चीज से मैं प्रभावित होता हूं तो उसको मैं अपनी तरह से अभिव्यक्तित करता हूं। दूसरी ओर मैं गौतम बुद्ध को लेता हूं। गौतम बुद्ध अभिजात्य परिवार से संबद्ध रहे हैं वे ऐकेडमिक भी रहे हैं। उन्होंने हर एक बात नपी तुली बोली है। लेकिन कबीर ने ये नहीं देखा। कबीर ने अपने कला बोध से पानी में आग लगते हुए भी देखी गौतम बुद्ध ने तर्क तलाशे। ऐसे ही मछलियों को पेड़ में चड़ते हुए कबीर देख सकते हैं गौतम बुद्ध नहीं। ऐसे ही पेंटिंग की दुनिया में आप चित्रकार एम0 सलीम को ले लीजिए वह एक डिसिप्लिंड पेंटर हैं। ऐकेडमिक किस्म के। गौतम बुद्ध की तरह। और मेरे चित्रण में अराजकता है जैसी आप कबीर के भीतर पाएंेगे। अगर समाज मुझसे मैसेज लेना चाहे तो ठीक है लेकिन में कोई मैसेज देना नहीं चाहता।
तो एक प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्थिति में एक कलाकार को समाज स्वीकारे क्यों? क्योंकि अन्तत: स्वीकार्यता तो समाज की ही है?
डी0 एल0 साह:- हां समाज की स्वीकार्यता तो है। लेकिन जिसको समाज ने कभी अस्वीकार किया है तो बाद में स्वीकार भी किया है। जैसे आप 18वीं षताब्दी में विन्सेन्ट वान गॉग को देखिए उन्हें कलाजगत में स्वीकार ही नहीं किया जाता था। लेकिन आज वो कला जगत का बड़ा नाम हैं।
कला की जो मुख्यधारा है उसमें अभी अवचेतन कला को बड़ी मान्यता है। इसे आप कैसे देखते हैं?
डी0 एल0 साह:- देखिए मैं एब्स्ट्रैक्ट आर्ट को लगभग 1956 से देख रहा हूं। लेकिन अवचेतन कला जिसे कहा जाता है कि विचार से जन्मीं कला। कैनवास पर तो वह ज्यामितीय आकारों के भीतर ही है। अवचेतन तो कुछ नहीं है। उसके लिए जो आकार हमने लिए हैं वो भी प्रकृति से इतर नहीं हैं। हां लेकिन एक ट्र्रैण्ड चल पड़ा है।
एक सवाल अब कुमाऊं की लोकचित्रकला के इतिहास पर है कि इसका विकासक्रम क्या रहा है?
डी0 एल0 साह:- कुमाऊं में चित्रकला की जो परम्परा मुख्यधारा की रही वो तो अंग्रेजों के आने के बाद ही की है। लेकिन इससे पहले ऐपण की और ऐसे ही लोकचित्रण की परम्परा और उससे भी पहले गुहाकालीन मानव की चित्रण अभिव्यक्ति रही है। पिछले 100 सालों और 150 सालों के भीतर जो यथार्थवादी अभिव्यक्ति कला की हुई है वो छिटपुट ही रही है और जितनी भी रही है या तो वो अंग्रेजों ने ही की या फिर अंग्रेजों की प्रेरणा ने ही उसके पीछे काम किया।

4 comments:

naveen kumar naithani said...

कबीर का उदाहरण ले लीजिए कबीर अनपढ़ थे लेकिन उनके भीतर रचना कर्म कर सकने की अद्भुत् क्षमताऐं थीं। यदि कोई ये समझे कि मैं बहुत ज्यादा पढ़ लिख कर कलाकार बन जाऊंगा तो आर्ट्स कालेज से आज तक न जाने कितने ही लोग प्रशिक्षित हुए लेकिन कलाकार कितने बने ये देखने वाली बात है।
और
देखिए मैं एब्स्ट्रैक्ट आर्ट को लगभग 1956 से देख रहा हूं। लेकिन अवचेतन कला जिसे कहा जाता है कि विचार से जन्मीं कला। कैनवास पर तो वह ज्यामितीय आकारों के भीतर ही है। अवचेतन तो कुछ नहीं है। उसके लिए जो आकार हमने लिए हैं वो भी प्रकृति से इतर नहीं हैं। हां लेकिन एक ट्र्रैण्ड चल पड़ा है।
खूबसूरत बातें हैं

सुशीला पुरी said...

अच्छा लगा बातचीत पढ़कर .......

अजेय said...

मैं बहुत ज़ोर दे कर सहमत होना चाहता हूँ कि :

"वस्तुत: मैं कबीर से बहुत प्रभावित रहा हूं। क्योंकि जो उसके स्टेटमैंट्स रहे हैं उसमें समाज की कोई परवाह नहीं है।"

यह अराजकता मुझे पसन्द है. और विश्वास करना चाहता हूँ कि यही अराजकता अभिव्यक्ति के नए आयाम खोलती है. मुक्ति बोध ने इसी लिए कहा था कि (हिन्दी साहित्यिकों को)'अभिव्यक्ति के खतरे उठाने पड़ेंगे'. ऐसा नहीं है कि कबीर उस युग मे अचानक कुकुर्मुत्ते की तरह उग गए थे. मध्य काल मे अराजकता की पूरी एक परंपरा थी. देखें तो यह अंतर्धारा वेदांत, उपनिषद, और श्रमण साहित्य के समय से पनपनी शुरू हो गई थी .लेकिन यह् हमारी शुद्धता वादी सोच को हज़म नहीं हुई.हम इस धारा को चालाकी से मिटाते रहे. इस खतरे को कबीर से पहले उठाया भी गया था ...लेकिन अज्ञात कारणो से वह अभिव्यक्ति फक़त कबीर के रूप में ही बची रह सकी. बहर हाल मैं वे कारण यहाँ डिस्कस नही करूँगा. विषयांतरण हो जाएगा, लेकिन साह जी के ये बोल्ड स्टेटमेंट मुझे प्रेरित करते हैं. एक घुटन के महौल से उबारते हैं. थेंक्स विजय भाई.

पंकज said...

रचनाकार के रचना संसार में झांकता साक्षात्कार. साधुवाद.