Friday, March 26, 2010

इब्नबतूता की यात्रायें

मोरक्कन यात्री इब्नबतूता का जन्म 24 फरवरी 1304 ई. को हुआ था। इनका पूरा नाम अबू अब्दुल्ला मुहम्मद था। इब्बनबतूता इनके कुल का नाम था पर आगे चलकर इनकी पहचान इसी नाम से बनी। यह 22 वर्ष की अवस्था में ही माता-पिता और जन्म भूमि को छोड़कर मक्का आदि सुदूर पवित्र स्थानों की यात्रा करने की ठान ली थी आक्र 14 जून 1325 को मक्का मदीना की पवित्र यात्रा पर निकल पड़े। यहां बतुता सिर्फ हज यात्रा के उद्देश्य से ही आया था पर एक संत की भविष्यवाणी की - तू बहुत लम्बी यात्रा करेगा, ने बतूता पर ऐसा जादू किया कि बतुता सीधे काहिरा की ओर चल दिया और वहां से मिश्र होता हुआ सीरिया और पैलेस्टाइन में गजा, हैब्रोन, जेरूशलम, त्रिपोली, एण्टिओक और तताकिया आदि नगरों से सैर की। उसके बाद 9 अगस्त 132 को दमिश्क जा पहुंचा। वहां से बतुता बसरा होता हुआ पहले मदीने पहुंचा और यहां से इराकी यात्रियों के साथ बगदाद चला गया। वहां से मक्का की ओर वापस लौटा। बिमारी की अवस्था में ही काबा की परिक्रमा की और मदीना चला गया। वहां स्वस्थ होकर मक्का वापस आया।

उसको बाद बतुता ने पूर्व अफ्रिका की यात्रा की और वहां से लौट कर भारत यात्रा पर निकलने की सोची। लगभग नौ वर्ष तक बतूता दिल्ली में ही रहा। इसके बाद चीन देश की यात्रा के लिये निकल गया। उसके बाद मालद्वीप चला गया। जहां से 43 दिन की यात्रा कर बंगाल पहुंचा और वहां से मुसलमानों के जहाज़ में बैठ कर अराकनन, सुमात्रा, जावा की यात्रा पर चला गया। समस्त मुस्लिम मेें से केवल दो ही देश शेष रह गये थे - अंदू लूसिया और नाइजर नदी के तट पर बसा नीग्रो -देश। अगले तीन वर्ष बतूता ने इन जगहों की यात्रा में व्यतीत किये। मध्यकालीन मुसलमानों और विधर्मियों के देश की इस प्रकार यात्रा करने वाला सबसे पहला और अंतिम यात्री बतूता ही था। एक अनुमान के अनुसार इसकी यात्रा का विस्तार कम से कम 75000 मील लगभग है।

750 हिजरी को यह मोरक्को वापस लौट गया। स्वदेश पहुंचने से पहले बतूता को यह पता चल गया था कि उसके पिता का देहांत 15 वर्ष पूर्व और कुछ दिन पूर्व माता का देहांत हो चुका है। 73 वर्ष की आयु में सन् 1377-78 ई. में बतूता ने अपने ही देश में अपने प्राण त्यागे।



मैं यहां पर इब्नबतूता के कुछ यात्रा संस्मरण दे रही हूं।


हन्नौल, वजीरपुरा, वजालस और मौरी

कन्नौज से चलकर हन्नौत, वजीपुरा, वजालसा होते हुए हम मौरी पहुंचे। नगर छोटा होने के पर भी यहां के बाजार सुन्दर बने हुए हैं। इसी स्थान पर मैंने शेख कुतुबुदीन हैदर गाजी के दर्शन किये। शैख महोदय ने रोग शय्या पर पड़े होने पर भी मुझे आशीर्वाद दिया, मेरी लिये ईश्वर से प्रार्थना की और एक जौ की रोटी मेरी लिये भेजने की कृपा की। ये महाशय अपनी अवस्था डेढ़ सौ वर्ष बताते थे। इनके मित्रों ने हमें बताया कि यह प्रायः व्रत और उपवास में ही रहते हैं और कई दिन बीत जाने पर कुछ भोजन स्वीकार करते हैं। यह चिल्ले में बैठने पर प्रत्येक दिन एक खजूर के हिसाब से केवल चालीस खजूर खाकर ही रह जाते हैं। दिल्ली में शैख रजब बरकई नामक एक ऐसे शैख को मैंन स्वयं देखा है जो चालीस खजूर लेकर चिल्ले में बैठते हैं और फिर भी अंत में उनके पास तेरह खजूर शेष रह जाते हैं।

इसके पश्चात हम ‘मरह’ नामक नगर में पहुँचे। यह नगर बड़ा है और यहाँ के निवासी हिंदु भी जिमी हैं (अर्थात धार्मिक कर देने वाले)। यहाँ यह गढ़ भी बना हुआ है। गेहूँ भी इतना उत्तम होता है कि मैंने चीन को छोड़ ऐसा उत्तम लम्बा तथा पीत दाना और कहीं नहीं देखा। इसी उत्तमता के कारण इस अनाज की दिल्ली की ओर सदा रफ्तनी होती रहती है।

इस नगर में मालव जाति निवास करती है। इस जाति के हिंदु सुंदर और बड़े डील डौल वाले होते हैं। इनकी स्त्रियां भी सुंदरतया तथा मृदुलता आदि में महाराष्ट्र तथा मालद्वीप की स्त्रियों की तरह प्रसिद्ध हैं।

अलापुर
इसके अंनतर हम अलापुर नामक एक छोटे से नगर में पहुँचे। नगर निवासियों में हिुुंदुओं की संख्या बहुत अधिक है और सब सम्राट के अधीन हैं। यहां के एक पड़ाव की दूरी पर कुशम नामक हिन्दू राजा का राज्य प्रारंभ हो जाता है। जंबील उसकी राजधानी है। ग्वालियर का घेरा डालने के पश्चात राजा का वध कर दिया था...

इसके पश्चात हम गालियोर की ओर चल दिये। इसको ग्वालियर भी कहते हैं। यह भी अत्यंत विस्तृत नगर है। पृथक चट्टान पर यहां एक अत्यंत दृढ़ दुर्ग बना हुआ है। दुर्गद्वार पर महावत सहित हाथी की मूर्ति खड़ी है। नगर के हाकिम का नाम अहमद बिन शेर खां था। इस यात्रा के पहले मैं इसके यहां एक बार और ठहरा था। उस समय भी इसने मेरा आदर सत्कार किया था। एक दिन मैं उससे मिलने गया तो क्या देखता हूँ कि वह एक काफिर (हिन्दू) के दो टूक करना चाहता है। शपथ दिलाकर मैंने उसको यह कार्य न करने दिया क्योंकि आज तक मैंने किसी का वध होते नहीं देखा था। मेरे प्रति आदर-भाव होने के कारण उसने उसको बंदी करने की आज्ञा दे दी और उसकी जान बच गयी।

बरौन
ग्वालियर से चलकर हम बरौन पहुंचे। हिन्दू जनता के मध्य बसा हुआ यह छोटा सा नगर मुसलमानों के आधिपत्य में आता है और मुहम्मद बिन बैरम नामक एक तुर्क यहां का हाकिम है। यहां हिंसक पशु बहुतायत में मिलते हैं...

चंदेरी
इसके पश्चात हम चंदेरी पहुंचे। यह नगर भी बहुत बड़ा है और बाजारों में सदा भीड़ लगी रहती है। यह समस्त प्रदेश अमील-उल-उमरा अज्जउदीन मुलतानी के अधीन है। ये महाशय अत्यंत दानशीन और विद्वान हैं और अपना समय विद्वानों के साथ ही व्यतीत करते हैं।

इब्नबतूता की भारत यात्रा या चौदहवीं शताब्दी का भारत’ पुस्तक से साभार

9 comments:

Fauziya Reyaz said...

itni jaankari faraaham karne k liye shukriya....main bahut dino se janna chah rahi thi ki ibnebatuta kaun the...khaas kar jabse wo ishqiya ka gana suna tha

रंजू भाटिया said...

बहुत रोचक लगी यह पोस्ट ..नाम ही जुबान पर चढ़ गया है यह ...

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प शख्स थे ये साहब भी....

P.N. Subramanian said...

इब्न बतूता के इस रोचक भारत यात्रा वृत्तांत के लिए आभार.

naveen kumar naithani said...

उम्दा पोस्ट!
धन्यवाद विनीता.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

are.......!!kya likhun....kyaa kahun....kyaa gunu....kyaa bunu.... dil to akkhha lazawaab ho gayaa.....!!

मुनीश ( munish ) said...

sundar prastuti ! badhyia !

ravi praksh "premi" said...

धन्‍यवाद सर जी
बहुत ही अच्‍छा लगा इसे पढकर

leena malhotra rao said...

ibn batuta par bahut rochak samgri uplabdh karvai hai.. abhaar.