Thursday, April 8, 2010

दिनेश चन्द्र जोशी की कविता


(दिनेश चन्द्र जोशी की कवितायें इस ब्लोग के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं कहानी-संग्रह राजयोग तीन वर्ष पूर्व प्रकशित हुआ था.उनकी कविताएं जीवन की सहज गति के बीच बह्ते हुए उन चीजों को उठाती हैं जो हर वक्त हमारे सामने रहती हैं लेकिन दृष्टि में नहीं आतीं.जीवन के सहज द्र्श्यों और कार्य व्यापारों को उनकी कविता संवेदना का अनिवार्य अंग बना डालती है. यहां हम उनकी ताजा कविता पाठकों के सामने सगर्व प्रस्तुत कर रहे हैं)
दरी

यह दरी विछी थी घर में
जिसमें बैठ कर बेटी की शादी के मौके पर
बन्नी गा रही थीं मुहल्ले की स्वाभाविक व
निपुण नृत्यांगनाएं
खिलखिला रही थीं हास परिहास करके


कई मौकों पर बिछाया गया , घर के फर्नीचर
सोफों कुर्सियों को हटाकर कमरे के चौरस
फ़र्श पर दरी को,
कितने सारे लोग अटा जाते हैं
कमरे में सामुहिक काम काज के मौके पर
’दरी बडी काम की चीज है’ पिता कहते थे बच्चों से


गोष्ठी, मीटिंग,कथा, कीर्तन, भजन के अनेक अवसरों पर
काम आयी दरी, इसे किन अनाम कारीगरों ने बनाया होगा
बनी होगी यह भदोही या चंदौली में या कि जौल्जेबी
गौचर चमोली में, जहां भी बनी हो , देश में ही बनी होगी
देशी किस्म के कामों के वास्ते

बिछती है दरी बडी बडी सभाओं में
गोष्ठियों .सेमिनारों .कार्यशालाओं में
कवि सम्मेलनों में भी बिछती थी दरी पहले सारी रात
अब न वैसे कवि रहे न श्रोता

दरी बिछती है घर मे शोक के अवसरों पर
पिता की मृत्यु के वक्त जिस पर बैठ कर दहाडें मारती है मां
सांत्वना व ढाढस देती हैं मां को दरी पर बैथी हुई स्त्रियां
दरी खुद भी हिम्मत बंधाती है मां की हथेलियों को
छूते हुए अपने अजीवित स्पर्श से

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया प्रस्तुति।

सुशीला पुरी said...

सुंदर लिखा आपने .

Udan Tashtari said...

आभार इसे प्रस्तुत करने का.

रवि कुमार, रावतभाटा said...

बेहतर कविता...
आभार...