Sunday, November 14, 2010

उसके कैमरे की शटर-स्पीड

वरिष्ठ कथाकार मदन शर्मा अपने नजदीकी मित्रों को (बहुत अनजान किस्म के लोगों को भी)  याद करते हुए  लगातार संस्मरण लिख रहे हैं। उनके संस्मरणों में देहरादून शहर की तस्वीर को ढलते हुए देखा जा सकता है। वी. के. अरोड़ा यूं वैसे कोई अनजाना नाम नहीं होना चाहिए पर यह सच्चाई है कि वह सचमुच अनजाना-सा ही नाम है। 
देहरादून थियेटर के बिल्कुल शुरूआती दौर को, बिना फ्लैशगन को इस्तेमाल किए, सिर्फ मंच के प्रकाश के सहारे ही श्वेत-श्याम तस्वीरें खींचने वाला जुनूनी शायद ही कभी देहरादून के रंगकर्मियों की जुबा पर अपने नाम को छोड़ पाया हो। हां, जिक्र छिड़ने पर ऐसे एक फोटोग्राफर की यादें तो किसी के भी भीतर जिन्दा हो सकती है पर उसका नाम उनके लिए अनजान ही रहा। अपने ही तरह का, मनमौजी, यह शख्स किसी के मुंह से अपनी तारीफ सुनना भी चाहता रहा, मुझे तो ऐसा कभी नहीं लगा।  
-वि.गौ.   



   मदन शर्मा
       बिछुड़े मित्रों में, वी0 के0 अरोड़ा की कभी-कभी बहुत याद आती है। पूरा नाम वीरेन्द्र कुमार अरोड़ा, दुबला-पतला, कांगड़ी सा शरीर, रंग गेहवां, नक्श तीखे और आवाज़ थोड़ी तीखी। ऐनक के शीशों को चीरती शरारती नज़रें। स्वयं कम हंसता, मगर दूसरों को हंसा-हंसा कर रूला डालता।
    मुझे यह काफी बाद में पता चला, कि वह उसी सरकारी संस्थान में सुपरवाइज़र है, जहां मैं काम करता था। उससे मेरी पहली भेंट मसूरी में हुई। एडवोकेट अविनन्दा, अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था 'जागृति" की पूरी टीम लेकर, मसूरी के हॉकमनस होटल में 'शो" देने जाने लगे, तो अपना 'तमाशा" दिखाने के लिये, मुझे भी साथ ले गये।
    हम लोग, मसूरी के 'टाउनहाल" में ठहरे हुए थे। कार्यक्रम शाम सात बजे आरम्भ होना था। सभी कलाकारों को कार्यक्रम स्थल पर पांच बजे तक पहुंच जाना ज़रूरी था। नन्दा जी ने मुझे कुछ नोट थमाते हुए कहा, "शर्मा जी, आप कुलरी के किसी रेस्टरेंट में इन सभी के लिये नाश्ते की व्यवस्था कर दें। मगर एक बात का ध्यान रहे, कोई भी आदमी प्रोग्राम के लिये, देर से न पहुंचे।''
    मैंने चेतावनी दे दी, कि सभी लोग चार बजे तक, 'नीलम रेस्टरेंट पहुंच जायें। वहां चार पच्चीस के बाद पहुंचने वालों को अपने चाय नाश्ते का स्वयं बंदोबस्त करना होगा।
    जैसा अपेक्षित था, निर्धारित समय पर, केवल एक चौथाई सदस्य ही नाश्ता कर पाये। शेष  आदमी टाउनहाल में कंघियों से अपने बालों के स्टाइल बनाते रहे और लड़कियां अपने लिये साड़ियों का चुनाव करती रह गईं
    मेरी इस हरकत पर एक व्यक्ति, न जाने कब से नज़र जमाये था।
    वह मेरे नज़दीक आकर बोला, ""आप शायद मुझे नहीं पहचानते। मैं भी ऑर्डनैंस फैक्टरी में ही काम करता हूं। मैं आपके वक्त की पाबंदी से काफ़ी प्रभावित हुआ हूं।''
    समझ में न आया, उसकी बात का क्या उत्तर दूं। तभी वह बोल पड़ा, ""सुना है, इन्हीं दिनों आपने कोई अश्लील उपन्यास लिखा है।'' मैंने कहा, 'उपन्यास छप चुका है", तो वह हंस कर बोला, ""छपने के बाद ही, लोगों ने पढ़ा होगा। मैं भी उस किताब को पढ़ना चाहूंगा।'' मैंने कहा, ""देहरादून पहुंचने पर मैं आप को उपन्यास की प्रति दे दूंगा।''
    मैंने उपन्यास की प्रति उसे दी, तो उसने तुरंत ज़ेब से पर्स निकाल, किताब की कीमत मेरे हाथ पर रख दी।
""यह आप क्या कर रहे हैं?'' मैंने चकित होकर पूछा।
""मुआफ़ कीजिये, मुझे मुफ्त किताबें पढ़ने का बिल्कुल शौक नहीं।''
    एक सप्ताह बाद वह मिला और कहने लगा, ""आपकी किताब पढ़कर मुझे काफी निरा्शा हुई है। उसमें मुझे अश्लीलता तो नज़र ही नहीं आईं।''
    ""काफी बोर हुए होंगे?'' मैंने पूछा।
    ""नहीं, बोर तो बिल्कुल नहीं हुआ। कहानी में आपने काफी चटपटे मसाले भर रखे हैं। मगर छपाई की इतनी गलतियां हैं कि बस--- वैसे आपने यह किताब किस गधे से छपवाई?'' मैंने भास्कर प्रेस और उसके मालिक सुमेध कुमार गुप्ता का नाम बता दिया। वह बोला, ""किसी दिन जाकर उसका फोटो ज़रूर उतारूंगा।''
    वह फैक्टरी के एयर कंडीशनिंग प्लांट का सुपरवाइज़र था। अपने इस ट्रेड में वह जितना दक्ष था, उससे कहीं बढ़कर वह अपनी हॉबी, अर्थात फ़ोटोग्राफ़ी में निपुण था। फोटोग्राफी  में लोग उसे कलाकार मानते थे। वह उस कलाकारी में, कभी कभी दीवानगी की सीमाएं भी पार कर जाया करता था। 'जागृति" के ही एक अन्य कार्यक्रम में वह हमारे साथ ऋषिकेश गया। वहां भी एक सांस्कृतिक कार्यक्रम था। खाली वक्त में वह अपना कैमरा उठा कर जंगल की ओर चल दिया। वहां से काफी देर बाद लौटा तो चेहरा लहूलुहान और पूरे द्रारीर पर खरोंचें।
""यह क्या हुआ?'' मैंने हैरान होकर पूछा।
वह हंस कर बोला, ""ऐसा हुआ, कि मुझे उधर एक बड़ा ही खूबसूरत हिरन दिखाई पड़ा। मेरा जी ललचा गया। सोचा, एक स्नैप ले लूं। मैंने तब यह ध्यान ही नहीं दिया था, कि उस हिरन के बड़े बड़े सींग भी हैं। कैमरा देखते ही, पता नहीं क्यों, उसका मूड़ ही खराब हो गया और एक दीवार पर चढ़ गया। वरना वह तो मुझे मार ही डालता।''
""उस फोटो का क्या रहा?'' मैंने पूछा, तो बोला,
""फोटो तो मैं लेकर ही रहा, मैं इसका प्रिंट आपको दूंगा।''
    उसका छायांकन सुन्दर ही होता था। मगर वह एक नम्बर का मूड़ी था। अपनी मर्जी से आपके दस फ़ोटों खींच मारेगा, किंतु दूसरे के कहने पर, टस से मस नहीं। कोई पकड़कर ज़ब्रदस्ती ले भी जाता, तो पछताता।
    एक मित्र धर्मप्रकाश वर्मा, अपने सम्बंधों और प्यार का वास्ता देकर, उसे अपनी शादी के मौके पर ले गये और फ़ोटो-ग्राफी के लिये पुरज़ोर अपील की। अरोड़ा तैयार हो गया।
    वर्मा जी का शुभ विवाह धूमधाम से संपन्न हो गया। एटहोम और हनीमून निपट गये। एक वर्ष के बाद घर में शिशु ने भी जन्म ले लिया, मगर अरोड़ा से शादी वाले वे फ़ोटो न मिले। वर्मा जी ने कई बार याद दिलाया। मगर।।। वर्मा जी ने एक दिन फिर तकाज़ा किया, तो अरोड़ा ने पूछा,
""यार तुम किस फ़ोटो की बात करते रहते हो?''
""मेरी शादी के फोटो।''
""तुम्हारी शादी के फ़ोटो?--- अरे, वो तुम्हारी शादी के फ़ोटो थे? वो तो बहुत दिन तक मेरी मेज़ पर पड़े रहे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था, किस के हैं।''
""मेरे हैं, तुम लाकर दे दो।''
""दे दो? वो तो सभी मैंने फाड़ ड़ाले। समझ में ही नहीं आ रहा था, किस बेवकूफ़ के फ़ोटो इतने दिन से पड़े सड़ रहे हैं।''
    एक दिन वह किसी शरीफ़ आदमी का फ़ोटो लेने लगा। वह आदमी, पुराने ज़माने की तरह, बहुत ही गम्भीर मुद्रा में और सांस रोककर कैमरे के सामने खड़ा हो गया। अरोड़ा ने कैमरे से नज़र हटाकर उस आदमी से कहा, ""हज़ूर आप इस तरह अकड़ कर क्यों खड़े हो गये? मैं आपका फ़ोटो ही तो ले रहा हूं। कोई गोली तो नहीं मार रहा!'' मैंने उसे टोका और कहा, ""प्रथम श्रेणी के एक राजपत्रित अधिकारी से यह कैसी बात कह दी!''
वह हंसकर कहने लगा, ""मैं कौन सा राजपत्रित अधिकारी को सचमुच ही गोली मारने लगा था!''
    मेरे मित्र डा0 आर0 के0 वर्मा को 26 जनवरी के दिन, अपने साप्ताहिक पत्र '1970" का जन्म दिन मनाना था। उस भव्य आयोजन में ज़िलाधीश, पुलिस अधीक्षक के अतिरिक्त, नगर की सभी बड़ी हस्तियां मौजूद थीं। मेरे मना करने पर भी, डाक्टर साहब ने अरोड़ा को फ़ोटोग्राफी के लिये बुला लिया। प्रोग्राम शानदार रहा। कई लोगों ने, बड़े  लोगों के साथ पोज़ बनाबना कर फोटो उतरवाये।
    ये फोटो, विशेषांक में छापे जाने थे। विशेषांक के बाद भी अखबार के कई अंक प्रकाशित हो गये। मगर अरोड़ा से वे फोटो न मिल पाये। पता चला, उसके कैमरे में डाली गई रील खराब थी, या कैमरे में रील थी ही नहीं और वह खाली फ्लैश ही मारता हो!
    मगर वह जब मूड में होता तो, कमाल ही कर देता। आधी रात के समय, देहरादून से मसूरी का फ़ोटो लेने के लिये, वह महीना भर रायपुर रोड और तपोवन के जंगलों में घूमता रहा। मगर फ़ोटो अपने हिसाब से 'ठीक" लेकर ही टला। एक बार किसी टयूर से लौटते हुए, बस से उतर कर उसने आधे मिनट में, एक दृश्य को कैमरे में कैद कर लिया। यह छायाचित्र उसका 'मास्टरपीस" कहा जा सकता है।
    वह जब कोई कलात्मक फ़ोटो तैयार करता, उसका एक प्रिंट मुझे अवश्य भेंट करता। मैं पैसे देने लगता, तो हंसकर हाथ जोड़ देता।
    मैंने एक बार पूछ ही लिया, ""फिर किताब के पैसे क्यों दिये थे?''
बोला, ""तब बात और थी। अब तो, आप मेरे बड़े भाई हैं। बड़े भाई से जूते खाये जा सकते हैं, पैसे नहीं लिये जा सकते ।''
    वह स्कूटर बहुत तेज़ चलाता था। मैंने इसके लिये कई बार टोका। मगर वह कब किसी की सुनने वाला था। एक दिन एक्सीडेंट कर ही बैठा। सिर फट गया और उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा। दो तीन दिन बाद वह ज़रा बात करने काबल हुआ, तो मैंने कहा, ""शुक्र है भगवान का, जान बच गई!''
    वह हंस कर बोला, ""भगवान साले ने तो मुझे मार ही डाला था। यह तो डाक्टर भट्टाचार्य का कमाल है, जिसने बचा लिया।
    अपनी शादी के कार्ड छपवा कर, वह स्वयं ही बांटने निकल पड़ा। हमारे दफ़तर के दरवाजे की चौखट पर खड़े खड़े ही वह कई मेज़ों पर कार्ड फेंकते हुए बोला, ""भाई लोगों यह मेरे शुभ विवाह का कार्ड है। आपके पास फ़ाल्तू वक्त हो, तो अवश्य दर्शन दें। वैसे कोई ज़ब्रदस्ती वाली बात नहीं है, क्योंकि शादी तो सिर्फ मेरी है। मेरा वहां उपस्थित होना ज़रूरी है। आपको तो सिर्फ तमाशा देखना है। या प्लेटें चाटनी हैं।''
    इसके बावजूद, हम सभी उसकी शादी में शामिल हुए।
    वहां वह पूरे समय गम्भीर बना रहा। हालांकि मैं डरा हुआ था, कि फेरों के समय, वह कोई उल्टी सीधी हरकत न कर दे।
    शादी के बाद, वह काफी सुधर गया लगता था। कई बार ऊषा जी को लेकर हमारे घर आया और कई बार हम उनके घर गये।
    एक बार पता चला, ऊषा जी की तबीयत कुछ खराब है। मैं सरोज के साथ, पता लेने उनके क्वार्टर पर पहुंचा। पूछा, ""अब क्या हाल है?''
    वह बोल पड़ा, ""आपने यह तो पूछा नहीं इसे क्या बीमारी है।।। दरअसल इसे कोई बीमारी नहीं। इसके सिर्फ़ सिर में दर्द है और दर्द तब होने लगता है, जब कोई मेहमान घर में आ जाये और इसे चाय- वाय बनानी पड़ जाये।''
    ऊषा जी नाराज़ हो गई। मुझ से शिकायत की, ""देख लीजिये भाई साहब, यह मुझे तकलीफ़ में देख कर भी कभी सीरियस नहीं होते और मज़ाक उड़ाते रहते हैं। आप तो अपने ही हैं, कोई बात नहीं। मगर ये तो बाहर वालों के सामने भी मेरा अपमान करने से नहीं चूकते।''
    एक सुबह, वह अपने एयरकंडीशनिंग प्लांट वाले रूम में अपने रोज़मर्रा के कार्य में व्यस्त था। एक मित्र अपना टिफ़िन कैरियर उठाये वहीं आ पहुंचा। अरोड़ा ने कहा, ""आ भई सरदारा, बैठ जा। मगर तू सुबह सुबह यह क्या उठा लाया? मैं तो यार, घर से नाश्ता करके आया हूं।''
    वह बोला, ""तेरे लिये नहीं, यह मेरा दोपहर का खाना है। यहां रख ले, दोपहर को उठा लूंगा।''
    ""यहां कहां रखूं?''
    ""कहीं भी रख दे।''
    फैक्टरी में लंच टाइम का हूटर हुआ, तो सरदार जसवीर सिंह खाने का डिब्बा लेने आ पहुंचा।
    ""कहां है भई मेरा टिफिन कैरियर?''
    ""वो पड़ा है चैम्बर में। अपने आप निकाल ले।''
    जसवीर सिंह ने चैम्बर खोला, तो अपना सिर पीट लिया। बहुत कम तापमान में, टिफ़िन कैरिया, भोजन सहित, चिपक कर रह गया था।
    ""अरोड़ा, यह तूने क्या किया।''
    अरोड़ा ने हंस कर कहा, ""तुम्हीं ने तो कहा था, कहीं भी रख दे। ---यार अब तू रो मत, आज खाना मेरे साथ खा।''
    मेरा उपन्यास 'वायलिन" साप्ताहिक 'जंजीर" में धारावाहिक छापने के लिये, सम्पादक चन्द्रप्रकाश को, वॉयलिन बजाती किसी खूबसूरत लड़की की तस्वीर चाहिये थी। मैंने इसका ज़िक्र अरोड़ा से किया, तो वह बोला, ""मामूली बात है, दो तीन दिन में ऐसा फोटो आपको मिल जायेगा।''   
    वह दो दिन बाद ही वायॅलिन बजाती हुई लड़की का फ़ोटो ले आया। ब्लाक तैयार हो गया और उपन्यास की पहली किस्त भी छप गई।
    किस्त छपने के अगले ही दिन, मुझे फोन कर सेक्योरिटी-इंचार्ज के कमरे में बुला लिया गया।
सेक्योरिटी इंचार्ज का मूड़ काफी खराब था, बोला, ""कम से कम, मुझे आप जैसे द्रारीफ़ आदमी से ऐसी उम्मीद नहीं थी।''
""मगर हुआ क्या?'' मैंने हैरान होकर पूछा।
""यह देखिये।।। यह आप ही की कोई कहानी छपी है और यह फोटो मेरी बेटी का है, जिसकी अगले महीने शादी है।'' मैंने कहा, ""मुझे वाकई बहुत अफ़सोस है। यदि मुझे मालूम होता तो कभी।।।''
वह बोला, ""मैं जानता हूं, यह सिर्फ़ अरोड़ा की शरारत है। मगर आप को भी थोड़ा विचार करना चाहिये।''
मैंने कहा, ""आप निश्चिंत रहे। आगे किसी भी अंक में यह फोटो नहीं छपेगा।''
    उपन्यास की अगली किस्तों के लिये नया ब्लाक तैयार करना पड़ा।
    वह लाडपुर ग्राम में अपना मकान तामीर करा रहा था। मिस्त्री लोगों के साथ, वह स्वयं भी काम में पिला रहता। हर काम उन्हें अपने हिसाब से कराता। पलम्बर पाइप पर चूड़ियां काटने लगा, तो उसे रोक, स्वयं चूड़ियां काटने लग पड़ा। पलम्बर मुंह बनाने लगा तो बोला, "तुझे मज़दूरी पूरी मिलेगी। बात सिर्फ इतनी है, कि तुम चूड़ी काटोगे, तो लीकेज रोकने के लिये धागे बांधने पड़ेंगे। मैं चूड़ी काटूंगा, तो बिना धागा बांधे भी कभी पानी लीक नहीं करेगा।''
    मैंने एक दिन पूछा, "बाल बच्चेदार हो गये हो। अब तो स्कूटर ज्यादा तेज़ नहीं चलाया करते?''
    वह लापरवाही से बोला, "अब कहां तेज़ चलाता हूं, अस्सी नब्बे से ऊपर, कभी स्पीड नहीं जाने देता।''
    कुछ ही दिन बाद की बात है, वह अपनी बेटी को, स्कूटर पर मसूरी छोड़ने जा रहा था। मालूम नहीं, तब स्पीड क्या रही थी, क्योंकि टर सामने आते वाहन ने दे मारी थी। बिटिया को तो मामूली चोंटे आईं। मगर वह स्वय---इस बार उसे न तो भगवान बचा सका और न ही कोई डाक्टर!
                           

2 comments:

Anonymous said...

I laughed hard throughout while reading the story. While reading the story, I was visualizing the gestures of my father that he would have had in these incidents. Thank you uncle for writing biography of Papa.

Anurag Arora
son of Late V.K. Arora

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्पी में डूबा हुआ .......जारी रखिये.....अभी पढने की तलब बाकी है