Thursday, April 28, 2011

तेहरान की सड़क पर


पिछले दिनों युवा हाना मखमलबाफ की एक फ़िल्म देखने का अवसर मिला- Budha collapsed out of shame। फ़िल्म की कहानी एक  रूपक कथा है। तालीबानी आक्रामकता को झेलने के बाद टूटी बोध गुफाओं में जीवन बीताते लोगों का जीवन और वहां के बच्चों के लिए तालीबानी आक्रमण भी कैसे एक खेल हो जाता है।  हाना की फ़िल्म पर विस्तार से आगे पढ़ियेगा, अभी तो हमारे मित्र यादवेन्द्र जी मोहसिन मखमलबाफ (Mohsen Makhmalbaf)
के बहाने आपसे मुखातिब हैं।  




मोहसिन मखमलबाफ इरान के बेहद चर्चित और विवादास्पद फ़िल्मकार हैं जिनकी ज्यादातर फिल्मों को विश्व स्तर पर प्रशंसित और पुरस्कृत किया गया.इरान की कट्टरपंथी सरकार ने उनकी फिल्मों की राह में तरह तरह से अड़ंगे लगाये,उन्हें प्रताड़ित किया...इन सब से तंग आकर उन्होंने देश छोड़ने का फैसला कर लिया.अब वे अमेरिका में रह कर एक फिल्म स्कूल चलाते हैं जिसमें उनके अलावा उनकी पत्नी,बेटियाँ और बेटा सब पढ़ते पढ़ाते हैं...अपनी अपनी तरह से यह पूरा परिवार ऎसे विषयों पर फ़िल्में बनाता है जो स्वस्थ बहस की मांग करते हैं.
पिछले राष्ट्रपति चुनाव में की गयी कथित धांधलियों के मुखर विरोधी रहे हैं मखमलबाफ.
उन्होंने कई साल पहले एक स्क्रिप्ट लिखी जिसका शीर्षक था एमनेसिया (स्मृति लोप).जैसा कि इरान का कानून है,उन्हें अपनी स्क्रिप्ट सरकार को अनुमति लेने के लिए जमा करानी पड़ी.इसमें इरान की इस्लामी क्रांति के सूत्रधार अयातोल्ला खोमेनी के एक अत्यंत निकट के सलाहकार (जो दृष्टिहीन थे, पर सांस्कृतिक मुद्दों पर अयातोल्ला के सबसे विश्वस्त परामर्शदाता और नीतिकार थे) के चरित्र को विकसित किया गया है जो देखे बगैर इरानी फिल्मकारों की फिल्मों की काट छाँट किया करता है...जैसा अनुमान था,इरान की सरकार ने अपने ही एक बड़े कारिंदे का मजाक बनाए वाली इस मुखर राजनैतिक विचारों से भरी फिल्म को बनाने की इजाज़त नहीं दी.संकीर्ण और तंग नजरिये से कलाकारों की वैचारिक और रचनात्मक क्रियाशीलता को कुचलने के इस निर्मम तानाशाही तंत्र की तस्वीर प्रस्तुत करने वाली इस फिल्म स्क्रिप्ट के कुछ सम्पादित अंश यहाँ प्रस्तुत हैं...साथी पाठक मेरी इस राय से इत्तेफाक करेंगे कि भूगोल बदल जाने से मानवीय बर्ताव और मनोविज्ञान नहीं बदलता...दुनिया के किसी भी कोने में जबतक बंदिशों और दमन की राज सत्ता रहेगी तो उसके प्रतिकार के लिए आगे बढ़ने वाले दिल दिमाग और हौसले भी रहेंगे...अरब देशों में कोई भी कीमत चुका कर उठाई जा रही आज़ादी की माँग से ज्यादा समीचीन और क्या उदाहरण होंगे :
तेहरान की सड़क पर दौड़ती हुई कार के अंदर:
अंधा आदमी: वहाँ तक पहुँचने में कितना समय लग जायेगा?
ड्राइवर: बहुत अधिक भीड़ है...कम से कम एक घंटा तो लगेगा ही.
अं.आ. : उनलोगों ने आफिस से रास्ते में सुनने के लिए कुछ भेजा है?
ड्रा : हाँ,म्यूजिक का एक टेप है.
ड्राइवर कार स्टीरियो स्टार्ट करता है.संगीत की स्वर लहरियां हवा में गूंजने लगती हैं..एक स्त्री का स्वर इनमें सबसे मुखर होकर उभरता है.
.अं.आ.: तुम्हारी गाड़ी में कितने स्पीकर्स हैं?
ड्रा: बारह.
अं.आ: इसमें से औरत की आवाज निकल दो.हमारा मजहब इसकी इजाज़त नहीं देता.
ड्राइवर एक बटन दबाता है और बज रहे संगीत से स्त्री स्वर गायब हो जाता है.अंधा आदमी थोड़ी देर तक बज रहे संगीत को खूब ध्यान लगा कर सुनता है.गौर करने पर उसको मालूम होता है कि मुख्य स्वर को संगत देने वाले समवेत स्वर में भी किसी स्त्री की आवाज शामिल है.
अं.आ: संगत करने वाली ध्वनि भी निकल दो...इसमें औरत की आवाज बहुत भड़कीली है.
ड्राइवर दूसरा बटन दबाता है और संगत करने वाले स्वर भी गायब हो जाते हैं.अब जो संगीत बजता है उसमें किसी व्यक्ति की आवाज शामिल नहीं है.
अं.आ: जरा स्पीकर का वाल्यूम तेज करो...मुझे तार वाले साजों की आवाज ठीक से सुननी है.
ड्राइवर वाल्यूम बढ़ाता है तो तार वाले साजों की आवाज साफ़ सुनाई देने लगती है.इनमें सबसे मुख्य स्वर कैचक का आता है.
अं.आ: इन तार वाले साजों की आवाज भी ख़तम कर दो.कहते हैं कि इस जनम में जो संगीत सुनता है वो जन्नत में जाने के बाद इनसे महरूम हो जाता है.
ड्राइवर एक बटन दबाता है और तार वाले साजों की आवाज भी गायब हो जाती है.अब सिर्फ म्यूजिक बेस या ड्रम बीट्स सुनाई पड़ते हैं.इसको सुन कर ऐसा लगता है जैसे युद्ध के लिए ललकारा जा रहा हो.
ड्रा: सर,जन्नत में संगीत होता है क्या?
अं.आ: जब मंद मंद बयार पेड़ों की पत्तियों को छू कर निकलती है तो ईश्वरीय संगीत का जन्म होता है.
ड्रा: अब जो संगीत बज रहा है इसके बारे में आपका क्या ख्याल है सर?
अं.आ; सिर्फ इसी संगीत की कानून इजाज़त देता है ..पर यदि इस से भी तौबा कर ली जाये तो खुदा ज्यादा खुश होगा.
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सेंसर आफिस के अंदर का दृष्य:

अं.आ.कई बड़े बड़े हाल पार कर के सेंसर आफिस के अंदर दाखिल होता है.
अं.आ: दोस्तों,सलाम वाले कुम.
दूसरा: हमेशा समय पर हाजिर रहने वाले जनाब,आपको भी वाले कुम सलाम.
अं.आ: माफ़ करना,मेरी बीवी बीमार थी और मुझे किसी को उसके पास रहने के लिए छोड़ कर आने के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ा.
प्रोजेक्शनिस्ट; मैं अपना काम शुरू करूँ सर?
अं.आ: बिलकुल शुरू करो..आगे बढ़ो.
कमरे में अँधेरा पसर जाता है और प्रोजेक्शन लाइट चारों ओर घूमते हुए वहाँ मौजूद लोगों के चेहरे पर भी बारी बारी से पड़ती है.प्रो.अपना काम शुरू करता है,अं.आ. के पास पहुँच कर स्क्रीन पर चल रही गतिविधियों के बारे में उसको बताने लगता है.
प्रो: एक औरत घर से बाहर कदम निकालती है..फिर अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगा लेती है.
दूसरा: यह एक प्रतीकात्मक सीन है...डाइरेक्टर यह बतलाने की कोशिश कर रहा है कि इस समाज में आप साँस भी नहीं ले सकते.
प्रो: औरत आगे बढती जाती है..एक ऐसी गली में पहुँच जाती है जहाँ धुंआ ही धुंआ भरा हुआ है....हाथ के इशारे से वो एक टैक्सी वाले को बुलाती है.
अं.आ: किस दिशा में उठता है उसका हाथ?..बाँये या दाँये?
प्रो: दाँयी दिशा में सर.
दूसरा: नहीं भाई,वो बाँयी दिशा में इशारा कर रही है...गौर से देखो,उसका दाहिना हाथ हमारी बाँयी ओर पड़ता है.
अं.आ: जाहिर है डाइरेक्टर कहना चाहता है कि समाज का यदि उद्धार करना है तो हमें बाँयी तरफ रुख करना पड़ेगा...इस सीन को काट कर अलग करो.
प्रो: आस पास धुंआ इतना घना हो जाता है कि औरत लड़खड़ा कर गिर पड़ती है.. एक एम्बुलेंस आती है...दो नर्सें उनसे निकल कर बाहर आती हैं...दोनों के चेहरे पर मुखौटा..वे उस औरत को उठा कर एम्बुलेंस में डालती हैं.
दूसरा: डाइरेक्टर यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि हम उदारवादियों को जेल तक ले जाने के लिए एम्बुलेंस का उपयोग करते हैं.
अं.आ: नहीं नहीं...वह कहना चाहता है कि हमने सूप में इतना नामक झोंक दिया है कि रसोइया भी अब इस ज्यादती की शिकायत दर्ज करने लगा है.नर्सों ने मुखौटे क्यों लगा रखे हैं? इस लिए कि अब हुकूमत को भी इसका आभास होने लगा है कि हमारे समाज में सहज ढंग से साँस लेने की जगह अब नहीं बची है... हमें यह सीन भी काट कर अलग करना होगा.
दूसरा: इस सीन को भी काट कर अलग करना होगा...क्या कह रहें हैं जनाब आप?..आप कहना क्या चाहते हैं?...जनाब,इस पूरी फिल्म पर पाबन्दी लगायी जानी चाहिए...और डाइरेक्टर को जेल के अंदर ठूँस देना चाहिए..
अं.आ: ऐसी हड़बड़ी मत करो भाई...इसपर थोड़ा और गौर फरमा लेते हैं.
इसी बीच फोन की घंटी बजने लगती है,प्रोजेक्शनिस्ट फोन उठाता है..धीमी आवाज में कुछ बात करता है और अं.आ. को फोन थमा देता है.
प्रो; फोन आपके लिए है सर.
अं.आ: अच्छा.. तो आप हैं?...अभी?..मैं तो इस वक्त फिल्मों को रिव्यू कर रहा हूँ...क्या बहुत जरुरी है?..अच्छा,मैं आता हूँ.(वह उठ कर चलने लगता है)...माफ़ करना दोस्तों,मुझे इसी वक्त यहाँ से जाना पड़ेगा.

चयन और प्रस्तुति: यादवेन्द्र मो. 9411100294

Friday, April 22, 2011

पेशावर काण्ड

भारतीय इतिहास में पेशावर काण्ड एक ऐसी घटना है जिसने आजादी के संघर्ष की उस बानगी को पेश किया जिसमें देश प्रेम का वास्तविक मतलब देश के नागरिकों से प्रेम के रूप में परिभाषित हुआ है। पेशावर के इस सैनिक विद्रोह की गाथा है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज की एक टुकड़ी ने निहत्थे नागरिकों पर हथियार उठाने से इंकार कर दिया था। 23 अप्रैल 1930 को घटी इस घटना का सुंदर काव्यात्मक जिक्र कथाकार और इतिहास के अध्येता शोभा राम शर्मा ने भी किया है। चन्द्र सिंह गढ़वाली के जीवन को केन्द्र में रखकर उन्होंने एक महाकाव्य लिखा है जो अभी तक अप्रकाशित है। इस अवसर पर महाकाव्य का वह अंश जिसमें पेशावर विद्रोह की पृष्ठभूमि और उसके लिए हुई आरम्भिक तैयारियां पुनसर्जित हुई है, यहां प्रस्तुत करते हुए वीर सिपाही चन्द्र सिंह गढ़वाली को याद करने की कोशिश की जा रही है।

अप्रैल 1930- पेशावर में जनता पर नहीं चली गोली। अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत फौज की एक टुकड़ी ने की, नेता कौन था? चन्द्र सिंह। संवत 1948(1891 ई।) पौष शुक्ल 15 को रौणसेरा गांव में पैदा होने वाला चन्द्र सिंह। जिसके बाप का बाप कमली चौहान, उसका बाप बनिया चौहान, उसका बाप गल्लू चौहान और उसका बाप दास चौहान। अपनी छ: पुश्तों का इतिहास जानने वाला- चन्द्र सिंह।

हरियाली से ढके ऊंचे पहाड़ों की सौम्यता, बुरांश का सुर्ख लाल रंग जिसके भीतर समाया रहा। प्रकृति के अनुपम सौंदर्य ने जिसके व्यक्तित्व को तराशा। अपने पूर्वजों के नाम के आगे लिखे दास शब्द का अर्थ क्या रहा, मालूम नहीं, पर चन्द्र सिंह जानता था- दासता के चिन्ह को उसके पिता जाथली सिंह ने ही उतार फेंका। 18वीं-19वीं सदी में दास प्रथा गढ़वाल और पूरे देश में रही। जो दास नहीं थे, वे भी अपने मालिकोंे-सामन्तों या राजाओं के सामने बहुत नीचे स्थिति रखते थे और उनका जीवन भी अर्द्ध दास जैसा ही था।
वि.गौ.

पंचवटी में प्राप्त प्रशिक्षण, शिक्षक बनकर आया था।
उसकी सैनिक प्रतिभा से भी, असर वहाँ पर छापा था।।
मार्टिन था कप्तान उसी ने, ट्रेनिंग का खुद भार दिया।
अभी निशानेबाजी पर वह, भाषण ही दे पाया था।।
गोरा अफसर आकर बोला-''आज तुम्हें कुछ बतलाऊँ।
गढ़वाली क्यों पेशावर में, भेद यही सब समझाऊँ।।
मुस्लिम भारी बहुमत में हैं, हिन्दू रहते आफत में।
धन-दौलत क्या औरत लूटें, इज्जत सारी साँसत में।।
दूकानों पर धरना देते, लूट न पाते जब उनको।
तुमको सारी बदमाशी का, सबक सिखाना है इनको।।
इसीलिए तो हिन्दू पलटन, सोच-समझकर भेजी है।
शायद कल बाजार चलोगे, जहाँ निपटना है तुमको।।''
इस पर कोई उठकर बोला-''हमको कुछ पहचान नहीं।
हिन्दू-मुस्लिम एक सरीखे, रंग वही परिधान वही।।''
''जो भी धरना देता होगा, याद रखो मुस्लिम होगा।
फिर भी अफसर साथ चलेंगे, पास तुम्हारे हम होगा।।''
फूट बढ़ाओ राज करो की, धूर्त चमक थी आँखों में।
धूल मगर वह झोंक न पाया, भड़ की निर्मल आँखों में।।
इन बातों की समझ उसे थी, आया नहीं छलावे में।
संकट में क्या करना होगा, भूला नहीं भुलावे में।।
गोरा तनकर चला गया तो, रोक न पाया वह मन को।
बोला-''यदि कुछ सुनना चाहो, राज बता दूँ सब तुमको।।
कहीं किसी से मत कह देना, अपनी भी लाचारी है।
हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न उठाना, साहब की मारी है।।
झगड़ा शासित-शासक का है, प्रश्न खड़ा आजादी का।
बीज इन्होंने बो डाला है, जन-जन की बर्बादी का।।
सात समुन्दर पार निवासी, बना हमारा स्वामी है।
चूस रहा जो खून हमारा, शोषक जोंक कुनामी है।।
यहाँ निकलसन1 लाइन है या, हरिसिंह नलवा लाइन है।
बैर-विरोध न मिटन पाए, सोची-समझी लाइन है।।
देश-धरम पर मिटने वाले, इनको गहरे दुश्मन हैं।
झूठे-सच्चे केस चलाकर, नरक बनाते जीवन हैं।।
अपने घ्ार में बन्द अभागे, आपस में हम लड़ते हैं।
खुलकर नाच नचाया जात, कठपुतले हम पिटते हैं।।
आज चुनौती दे डाली तो, हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न उठा।
हमें चलानी होगी गोली, सोच-समझ तो आँख उठा।।
सिर पर बाँधे कफन खड़े हैं, आजादी के मतवाले।
गद्दारों में गिनती होगी, मूढ़ रुकावट जो डाले।।
गोली दागो, अच्छा होगा, गोली खाकर मर जाओ।
खून निहत्थे जन का होगा, हाथ न अपने रंग जाओ।।
कुल का नाम कलंकित करना, कहो कहाँ की नीति भली।
नहीं नरक में ठाँव मिलेगा, हमसे गोली अगर चली।।
दुनिया को दिखलादो यारो, टुकड़ों के हम दास नहीं।
समझ हमें भी दुनिया की है, चरते केवल घ्ाास नहीं।।
देश-द्रोह फिर बन्धु हनन का, पाप कमाना लानत है।
उदर-दरी तक सीमित रहकर, जीवित रहना लानत है।।
अंग्रेजों का नमक नहीं है, जिस पर अपना पेट पले।
नमक-हलाली किसकी यारों, देश हमारा भारत है।।



जाकर देखा भीड़ खड़ी थी, सम्मुख सैनिक डटे हुए।
चित्र लिखे से सिर ही सिर थे, पथ के पथ ज्यों पटे हुए।।
पूरी पलटन आ धमकी फिर, भीत न लेकिन भीड़ घ्ानी।
गगनांगन पर यान उड़ाए, तोप शहर की ओर तनी।।
अंग्रेजों का शक्ति-प्रदर्शन, खेल बना दीवानों को।
जल जाते हैं लेकिन तन की, चिन्ता कब परवानों को।।
जमघ्ाट जुड़ता देख भयातुर, आगे बढ़ आदेश दिया।
संगीनों की नोंक दिखाकर, पट्ठानों को घ्ोर लिया।।
तभी अचानक सिक्ख दहाड़ा, उर्दू में कुछ पश्तों में।
मुर्दो तक में हरकत ला दे, ताकत थी उन शब्दों में।।
'अल्ला हू अकबर !" का नारा, गले हजारों बोल उठे।
जय गाँधी, जय जन्म-भूमि के, शत-शत नारे गूँज उठे।।
उधर तिरंगे लहराते थे, पठानों के वक्ष खुले।
उधर मनोबल तुड़वाने पर, अंग्रेजों के दास तुले।।
सीटी लम्बी बजा-बजाकर, जनता को चेताया था।
गोली दागी जाएगी अब, पढ़कर हुक्म सुनाया था।।
गोरा था कप्तान जिसे अब, अग्नि-परीक्षा देनी थी।
अपने खूनी आकाओं की,, इच्छा पूरी करनी थी।।
''गढ़वाली ! बढ़ गोली दागो'', उसके मुख से जब निकला।
चन्द्रसिंह भी सिंह सरीखा आगे बढ़कर कह उछला।।
''गढ़पूतों ! मत गोली दागो'', साथ सभी थे चिल्लाए।
निर्भय उसके पग-चिह्नों पर, हुक्म गलत सब ठुकराए।।

Friday, April 8, 2011

नियंत्रित अराजकता के विरोध में


जन लोकपाल बिल के सवाल पर अन्ना हजारे की मुहिम के समर्थन और भ्रष्टाचार के विरोध में देहरादून के रचनाकारों की संस्था संवेदना के तत्वाधान में आयोजित धरना इस मायने में सफल कहा सकता है कि उसने देहरादून के तमाम समाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को ही नहीं अपितु ट्रेड यूनियस्ट के साथ साथ विधा विशेष में सक्रिय कलाकारों को भी एक मंच पर लाकर एकजुटता की ऐतिहासिक मिसाल कायम की है। भ्रष्टाचार के सवाल पर संवेदना के राजेश सकलानी ने अपना मत रखते हुए कहा, हम एक कंट्रोल एनार्किज्म के दौर में है। एक नियंत्रित किस्म की अराजकता आज हमारे चारों ओर है जिसके बीच हमारा पूरा मध्यवर्ग स्थितियों के सही और गलत का आकलन करने में भी चूक कर देता है। संवेदना की ही ओर से अन्य वक्ताओं में प्रमोद सहाय, डॉ जितेन्द्र भारती, शकुन्तला सिंह, गीता गैरोला, गुरुदीप खुराना, विद्यासागर नौटियाल एवं सुभाष पंत ने अपने अपने अंदाज में अन्ना हजारे की वर्तमान मुहिम को उसी नियंत्रिक अराजकता के प्रतिरोध में एक कदम मानते हुए इस बात को रखा कि भ्रष्टाचार का उत्स मुनाफाखौर व्यवस्था है। मुनाफे पर कब्जे की गलाकाट होड़ ही भ्रष्टाचार की जननी है।

धरने में शिरकत करने पहुँचे अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्यावरणविद और वयोवृद्ध सुन्दर लाल बहुगुणा की उपस्थिति इस मायने में उल्लेखनिय रही कि अपनी मद्धिम आवाज में भी आंदोलन को चरणबद्ध रूप्ा से लगातार आगे बढ़ाने की दृढ़ता से भरा उनका वक्त्वय  आंदोलनरत जनमानस को प्रेरित करने वाला रहा। केन्द्रीय कर्मचारियों की समन्वय समिति के जगदीश कुकरेती ने स्वत:स्फूर्त किस्म के वर्तमान आंदोलन में पिछलग्गूपन की तरह से हिस्सेदारी करने की बजाय एक सार्थक हस्तक्षेप करने की बात पर बल दिया। अन्य वक्ताओं में समर भण्डारी, अद्गवनी त्यागी, डॉ बुद्धिनाथ मिश्र, अतुल शर्मा, भारती पाण्डे, एस बी मेहंदीरत्ता, संजय कोठियाल आदि सभी ने अपने अपने तरह से भ्रष्टाचार के विरुद्ध जारी मुहिम को सतत आगे बढ़ाने की बात कही। धरने में डेण्ड सौ से ज्यादा लोगों ने शिरकत की।

Thursday, April 7, 2011

पूँजीवादी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है






जन लोकपाल बिल के समर्थन और भ्रष्टाचार के विरोध में देहरादून के रचनाकारों की हलचल इसम मायने में एक सार्थक हस्तक्षेप कही जा सकती है कि उसका ध्येय मात्र तात्कालिक तरह से एक सीमित अर्थ वाली जन आजादी के बजाय एक वास्तविक जन आजादी  की मुहिम और उसके लिए निरंतर संघर्ष की अवश्यम्भाविता का पक्ष प्रस्तुत कर रही है। 8 अप्रैल 2011 को देहरादून के सभी रचनाकार संवेदना की पहल पर गांधी पार्क में एकजुट होकर जन लोकपाल बिल के समर्थन में अपना पक्ष रखते हुए अपनी भूमिका को बखूबी स्पष्ट कर रहे हैं।


भ्रष्टाचार कोई आज पैदा हुआ मुद्दा नहीं है। यह कई दशकों से हमारे जीवन को नारकीय जीवन बना रहा है। गरीब और कमजोर के हक की कोई सुनवाई नहीं है। दुखद है कि हमारे समाज का मध्यवर्गीय वर्ग विरोध की शक्ति पूरी तरह से खो चुका है। क्योंकि वह बाजार के प्रभाव में इस गलत फहमी में जी रहा है कि समाज की उन्नति में कभी भी और किसी भी तरीके से फायदे की स्थिति में पहुँच सकता है। इस कारण उसने अपने सामाजिक राजनैतिक विवेक को बिल्कुल खो दिया है और लूट-खसोट की इस राजनीति में हस्तक्षेप करने का अपना नैतिक आधार भी खो दिया है। देश के प्रति भी इस वर्ग की समझ स्वार्थपूर्ण और गलत है। वह वंचितों और गरीबों के अधिकार के प्रति थोड़ा भी संवेदनशील नहीं है और स्वंय शोषण के किसी न किसी रूप का हिस्सा बन चुका है।
आज भ्रष्टाचार कोई छिपा हुआ मुद्दा नहीं है। हरेक गाँव कस्बे और शहरों में ऐसी ताकतें साफ-साफ दिखाई देती है जो समाज के विरोध में कार्यरत हैं और सत्ता पर उनका कब्जा पूरी तरह से है। वे अपनी लूट का के हिस्से को गर्व से दिखाते हैं। यह उनके लिए कोई शर्म का विषय भी नहीं।
भ्रष्टाचार की इस तंत्र को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। आजादी से पूर्व और बाद के वर्षों में इस देश के भीतर मिश्रित अर्थव्यवस्था लागू की गई और वर्ष 1990 से इसके अन्दर नई आर्थिक औद्योगिक नीतियों का व उदारीकरण को इस देश की जनता पर लादा गया। इस पूरे कालखण्ड में मुनाफे और अतिरिक्त मूल्य को हड़पने की भीषण होड़ निरंतर जारी रही। इसके परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार तीव्र गति से बढ़ता रहा। इसका उदाहरण है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की आवाम ने भीषण जन आंदोलन के जरिये वर्ष 1977 में भ्रष्ट सरकार को धाराशायी कर दिया। लेकिन कालान्तर में दिखायी दिया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले लोग ही भ्रष्टाचार के दोषि पाये गये एवं भ्रष्टाचार अपने ज्यादा आक्रामक रूप में पनपने लगा।
उत्तराखण्ड के बुद्धिजीवी अन्ना हजारे की इस मुहिम का समर्थन करते हैं और जन लोकपाल बिल का समर्थन करते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम सिर्फ बिल पास होने तक ही नहीं है क्योंकि व्यवस्था के अन्दर मुनाफा कमाने की और अतिरिक्त मूल्य की लूट जब तक समाप्त नहीं होती तब तक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जाने वाली कोई भी लड़ाई मुक्कमिल जीत तक नहीं पहुँच सकती। प्रगतिशील और समाजवादी व्यवस्था ही इसका एक मात्र लक्ष्य हो सकती है और उसको हासिल करने तक संघर्ष में बने रहना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है।


संवेदना के सभी साथी