Tuesday, May 31, 2011

उजड़ते गाँवों की व्यथा-कथा


कभी देहरादून तो कभी बंगलौर और कभी नोएडा, पिछले कुछ वर्षों से कथाकार विद्यासागर नौटियाल के तीन-तीन घर हुए हैं। घर परिवार के लोगों का संग साथ और स्वास्थय के लिहाज से उनकी देखभाल का यह सफर उनकी रचनात्मकता को किस तरह से प्रभावित कर रहा होगा, यह एक अध्ययन का विषय है। देश दुनिया के बीच यात्राओं की अनंत आवाजाही (बनारस से लेकर सोवियत संघ और अमेरिका की भूमि तक) के बावजूद रचनाओं में वे अपने बचपन, जवानी और संघर्ष की यादों की टिहरी को ही क्यों जिन्दा रखते हैं, क्या यह जानना अपने आप में दिलचस्प नहीं क्या ? उनकी कथा यात्रा में ऐसे सूत्रों का खोजना और उन कारणों तक पहुंचना जहां उनकी रचनात्मकता का कोई मुहाना दिखायी दे, दिलचस्प शोध हो सकता है। गत 19 मई को देहरादून से बंगलौर निकलते हुए भाई नवीन नैथानी को उन्होंने एक पत्र मेल किया। पत्र , नवीन नैथानी के कथा संग्रह सौरी की कहानियों पर प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी है।  उनकी यह टिप्पणी न सिर्फ़ नवीन की कहानियों को समझने में मद्दगार हो सकती है अपितु स्वंय उनकी रचनात्मकता के मुहाने तक भी शायद इस रास्ते पहुँचा जा सकता  है।


   विद्यासागर नौटियाल
डी-8, नेहरू कॉलानी, देहरादून
   19-5-2011
प्रिय नवीन,
   मेरे कागजों में कहीं दर्ज है कि तुम्हारी पुस्तक ''सौरी की कहानियाँ " मेरे पास मार्च 2010 में भेजी गई थी । मुझे याद नहीं आ सकता कि मैने इसे कितनी बार पढ़ा । मेरा मानना है कि इन कहानियों के बारे में जल्दबाजी में कुछ  कहना ताती खीर खाना है, जो उतना स्वाद नहीं बताती जितना मुँह को जला बैठती है । इस पर तो अगली सदी में व्यवस्थित तौर पर विमर्श होना चाहिए । अपनी जड़ों को तलाशते, सदियों के फासलों को लाँघते आ रहे लोग, जो अपनी उम्र भी ठीक-ठीक नहीं बता सकते  । सदियों की चौकीदारी करने वाले पुरूष पुरातन रामप्रसाद ने छयानवे के बाद की गिनती करना छोड़ दिया है।  सालोंसाल अपने पास आने वालों को वह यही उम्र बताता रहता है । छयानवे से आगे वह कभी बढ़ता ही नहीं । यह बता पाना भी एक समस्या है कि यह उपन्यास है कि कहानियों का संग्रह । क्योंकि यह सौरी बे बाहर नहीं    निकलता । 'किस्से के शुरू में सौरी की सम्पन्नता का जिक्र होता था, जिसमें सौरी से बाहर निकलने के एक रास्ते का वर्णन होता था , जो एक तंग ढलान से होकर गुजरता था । ढलान के ऊपर खड़े होकर बाहर की दुनिया बड़ी लुभावनी, मोहक और मायावी लगा करती  । शुरू में जो लोग उस रास्ते से होकर गये, वे वापस नहीं लौटे । बादमें जो लोग वापस लौटे उनकी बाहर की स्मृति गायब हो गई, सौरी के लोगों को वे अजनबी लगा करते । वे सौरी के लोगों को पकड़कर अपनी पहचान बताते ।बाद में लोगां ने उस रास्ते से उतरना बन्द कर दिया । "  सौरी के बाद  और उससे अभिन्न रूप से नत्थी एक और महत्वपूर्ण नाम चोर घटड़ा । सौरी के लोग अपनी दुनिया में बन्द रहते थे ।  वे चाहते ही नहीं थे कि कोई  वहाँ से बाहर निकले । लोगों ने यह बात फैला रखी थी कि जो चोर धटडे से बाहर निकलेगा चोर घटड़ा उसमें  घुसते ही वहाँ  की उसकी याददाश्त चुरा लेगी ।  कलाधर वैद्य की तरह  जो अपने बड़े-से थैले में याददाश्त की जड़ी बूटियाँ भर कर बाहर गया, फिर लौटने  पर   उसे बड़  का पेड़ ही नहीं मिला । वह उसी पेड़ को ढ़ूढ़ने आसपास भटकता रहा । उसकी लाश की पहचान उसके हाथ में फंसे थैले से हुई।  यह किस्सा सुना लेने के बाद पिता  को बच्चा ही नहीं मिला । बदहवास पिता को कहीं दूर से उसकी आवाज़ सुनाई दी -मैं यहाँ हूं, चोर घटड़े में। बच्चे की आवाज़ अब और ज़्यादा दूर '' मैं यहाँ हूँ  चोर घटड़े में । " 
खोजराम के होने से पहले पूरना दाई पर यही अपयश लगाया जाता रहता था कि  उसके हाथ से सौरी में आजतक सिर्फ लड़के जन्म लेते रहे हैं ।  सौरी वासी  प्रसूति गृह से लड़की के जन्म लेने का शुभ समाचार कभी नहीं सुन पाए। बहुत बाद में एक खोजा ने जन्म लिया, जिसका एक पैर मुड़ा हआ था और एक कान बहरा। चार बरस की उम्र में वह सोना खोजने जंगल की ओर निकल पड़ा। फिर लोगों से सुनने के बाद पारस की ।
     सौरी में अपनी जड़ों को खोजते फिर रहे लोगों को  रात्रि निवास की शरण पाने की आस में मुंदरी बुढ़िया अपने घर की तीसरी मंजिल में भेज देती है । बहुत सारे लोग। उनके सामने वहाँ एक पीपल की जड़ उभरती दिखाई देती है । यह सौरी की मूल ज़ड़ है जो पूरी तरह उलटी हो चुकीहै । वही सौरी जो पहले तीस पैंतीस घरों का गाँव था और अब  पाँच छह घर बाकी रह गए हैं। सम्पन्नता प्रदान करने वाले उसके जंगल मर चुके हैं । अब ग्राम का इतिहास किसी गर्त में लुप्त होने लगा है । मुंदरी बुढिया के घर का निर्माण करने वाले गोकुल मिस्त्री को अब एक घर की टीन की छत के उड़ जाने के बाद उसकी फिर से छवाँईं करने लायक जिन्दा दीवारें नहीं मिल पा रही हैं । मुश्किल है बाबूजी, अब इनमें बल्लियाँ भी नहीं टिकेंगी राफ्टर कहाँ  लगेंगे ? उसने हाथ झाड़ लिए । मुंदरी बुढ़िया और रामप्रसाद चौकदार की पहचान मिट चुकी है , सौरी की तरह जिसके खोजा लाटा को जंगल में एक सुनयना मिल जाने और उसके सौरी में एक लडकी को जन्म देकर उस बारे में लोगों का अंधविश्वास मिटा देने के बावजूद । खुद सौरी वाले ही अपने अतीत और इतिहास को पूरी तरह बिसार चुके हैं ।
इस पुस्तक को मैं एक और मायने में भी ऐतिहासिक मानता हूँ। मैने दस साल पहले प्रकशित सुभाष पन्त के उपन्यास '' पहाड़ चोर " को  सदी का पहला धमाका की संज्ञा दी थी । वह एक मामले में ऐतिहासिक था । हिन्दी में पहली बार पहाड़ के साल वन को भी स्थान मिला था, जो सदियों से उपेक्षित रहते आए हैं । अब तुम्हारी पुस्तक में भी उन्हें स्थान मिला है । दोनों की एक ही भूमि है, और दोनों में  एक  ही जैसे लोगों की जीवन गाथाएँ उभरती हैं पूरी शिद्दत के साथ ।



Thursday, May 26, 2011

बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए


कथाकार                  धीरेन्द्र अस्थाना  की कहानी पिता को बिना किसी औपचारिकता के यहां प्रस्तुत करते हुए मुझे इस बात की खुशी है कि देहरादून से बाहर रह रहे देहरादून के हमारे इन तमाम रचनाकार साथियों के लिए देहरादून और वहां के लोग अभी भी उतने ही प्रिय हैं जैसे अपने युवा दौर में वे उनके साथ थे। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इस बहुत ही अनाम सी ब्लाग पत्रिका से जुड़ते हुए वे अपने आप को कहीं देहरादून के साथियों के बीच देखने की इक्षाओं के साथ होते हैं। उनके इस स्नेह को आभार के किसी भी शब्द से व्यक्त नहीं किया जा सकता। भाई सुरेश उनियाल, सूरज प्रकाश, धीरेन्द्र अस्थाना, एक समय में पुणे में रहते हुए फ़िल्मों पर गम्भीर रूप से लिखने वाले मनमोहन चड्ढा (वर्तमान में देहरादून में ही हैं) देहरादून की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी उपस्थिति आज देहरादून की फ़िजाओं में किस्से कहानियों के रूप में सुनी जा सकती है।
समकालीन जीवन स्थितियों और बदले नैतिक मूल्यों से टकराती कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना की कहानी पिता उनके वेब साइट से यहां साभार प्रस्तुत है।
पिता

धीरेन्द्र अस्थाना

‘अपन का क्या है/अपन तो उड़ जायेंगे अर्चना/धरती को धता बताकर/अपन तो राह लेंगे अपनी/पीछे छूट जायेगी/घृणा से भरी और संवेदना से खाली/इस संसार की कहानी‘ - एयर इंडिया के सभागार में पिन ड्रॉप साइलेंस के बीच राहुल बजाज की कविता की पंक्तियां एक ऐंद्रजालिक सम्मोहन उपस्थित किये दे रही थीं। अब किसी सभागार में राहुल बजाज की कविता का पाठ शहर के लिए एक दुर्लभ घटना जैसा होता था। प्रबुद्ध जन दूर दूर के उपनगरों से लोकल, ऑटो, बस, टैक्सी या अपनी निजी कार से इस क्षण का गवाह बनने के लिए सहर्ष उपस्थित होते थे। राहुल शहर का मान था। साहित्य के जितने भी भारतीय अवार्ड थे वे सब के सब राहुल के घर में एक गर्वीले ठाठ के साथ शोभायमान थे। दुनिया भर की प्रसिद्ध किताबों से उसकी स्टडी अंटी पड़ी थी। अखबार, पत्रिकाओं और टीवी चैनल वाले जब तब उसका इंटरव्यू लेने के लिए उसके घर की सीढ़ियां चढ़ते उतरते रहते थे। उसके मोबाइल फोन में प्रदेश के सीएम, होम मिनिस्टर, गवर्नर, कल्चररल सेक्रेटरी, पुलिस कमिश्नर, पेज थ्री की सेलिब्रिटिज और बड़े पत्रकारों के पर्सनल नम्बर सेव थे।
वह युनिवर्सिटियों में पढ़ाया जा रहा था। असम, दार्जिलिंग, शिमला, नैनीताल, देहरादून, इलाहाबाद, लखनऊ, भोपाल, चंडीगढ़, जोधपुर, जयपुर, पटना और नागपुर में बुलवाया जा रहा था। मुंबई जैसे मायावी नगर में वह टू बेडरूम हॉल के एक सुविधा और सुरुचि संपन्न फ्लैट में जीवन बसर कर रहा था। वह मारुति जेन में चलता था। रेमंड तथा ब्लैक बेरी की पैंटें, पार्क एवेन्यू और वेनह्यूजन की शर्टें और रेड टेप के जूते पहनता था। विगत में घटा जो कुछ भी बुरा, बदरंग और कसैला था, उन सबको वह झाड़-पोंछकर नष्ट कर चुका था। लेकिन चीजें इस तरह नष्ट होती हैं क्या! ‘अतीत कभी दौड़ता है, हमसे आगे, भविष्य की तरह, कभी पीछे भूत की तरह लग जाता है। हम उल्टे लटके हैं आग के अलाव पर, आग ही आग है नसों के बिल्कुल करीब, और उनमें बारूद भरा है।‘ यह उसके बचपन का एक बहुत खास दोस्त बंधु था जो कॉलेज पहुचने तक कविताएं लिखने लगा था और नक्सली गतिविधियों के मुहाने पर खड़ा रहता था। वह बारूद की तरह फटता इससे पहले ही देहरादून की वादियों में कुछ अज्ञात लोगों द्वारा निर्ममता पूर्वक मार दिया गया।
राहुल डर गया। इसलिए नहीं कि उसने पहली बार मौत को इतने करीब से देखा था। इसलिए कि चौबीस बरस का बंधु बीस साल के राहुल के जीवन की पाठशाला बना हुआ था। यह पाठशाला उजड़ गई थी। उसने गर्दन उठाकर देखा, शहर के तमाम रास्ते निर्जन और डरावने लग रहे थे। एक खूबसूरत शहर में कुछ अभिशप्त प्रेतों ने डेरा डाल दिया था। वह एकदम अकेला था और निहत्था भी। कुछ कच्ची अधपकी कविताएं, थोड़े बहुत विद्रोही किस्म के विचार, कुछ मौलिक और पवित्र तरह के सपने, एक इंटरमीडियेट पास का सर्टिफिकेट, अहंकारी, तानाशाह, सर्वज्ञ और गीता इलेक्ट्रिकल्स के मालिक पिता के एकाधिकारवादी साये के नीचे बीत रहा था जीवन। यह सबकुछ इतना थोड़ा और आततायी किस्म का था कि राहुल डगमगा गया। उस रात वह देर तक पीता रहा और आधी रात को घर लौटा। पीता वह पहले भी था लेकिन तब वह बंधु के साथ उसके घर चला जाता था।
राहुल को याद है। एकदम साफ साफ। पिता ने उसे पर्दे की रॉड से मारा था। वह पिटते पिटते आंगन में आ गया था और हैंडपंप से टकराकर गिर पड़ा था। पंप और हत्थे को जोड़ने वाली मोटी-लंबी कील उसके पेट को चीरती गुजर गई थी। पेट पर दायीं ओर बना छह इंच का यह काला निशान रोज सुबह नहाते समय उसे पिता की याद दिलाता है। सिद्धार्थ अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़कर एक रात घर से गायब हुआ था और गौतम बुद्ध कहलाया था। राहुल अपने पिता, अपनी मां और कमरे की खिड़की से झांकते अपने तीन भाई-बहनों की भयाक्रांत आंखों को ताकते हुए, खून से लथपथ उसी हैंडपंप पर चढ़कर आंगन की छत के उस पार कूद गया था। उस पार एक आग की नदी थी और तैर के जाना था। पीछे शायद मां पछाड़ खाकर गिरी थी।
मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, नौकर हैं। तुम्हारे पास क्या है? अमिताभ बच्चन ने दर्प में ऐंठते हुए पूछा है। शशि कपूर शांत है। ममत्व की गर्माहट में सिंकता हुआ। उसने एक गहरे अभिमान में भरकर कहा - मेरे पास मां है। अमिताभ का दर्प दरक रहा है।
राहुल को समझ नहीं आता। उसके पास मां क्यों नहीं है? राहुल को यह भी समझ नहीं आता कि क्यों दुनिया का कोई बेटा घमंड से भरकर यह नहीं कहता कि मेरे पास बाप है। बाप और बेटे अक्सर द्वंद्व की एक अदृश्य डोर पर क्यों खड़े रहते हैं?
‘अब जबकि उंगलियों से फिसल रहा है जीवन/ और शरीर शिथिल पड़ रहा है/ आओ अपन प्रेम करें वैशाली।‘ एस.एन.डी.टी. महिला विश्विविद्यालय के कॉन्फ्रेन्स रूम में राहुल बजाज की कविता गूंज रही है। कविता खत्म होते ही वह ऑटोग्राफ मांगती नवयौवनाओं से घिर गया है।
वह कुमाऊं विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का सभागार था। उसके एकल काव्यपाठ के बाद विभागाध्यक्ष ने अपनी सबसे मेधावी छात्रा को नैनीताल घुमाने के लिए उसके साथ कर दिया था। इस छात्रा के साथ राहुल का छोटा-मोटा भावत्मक और बौद्धिक पत्र-व्यहार पहले से था। वह पत्रिकाओं में राहुल की कविताएं पढ़कर उसे खत लिखा करती थी। बीस साल पहले माल रोड की उस ठंडी सड़क पर केतकी बिष्ट नाम की उस एम.ए. हिन्दी की छात्रा ने सहसा राहुल का हाथ पकड़कर पूछा था -‘मुझसे शादी करोगे?‘
राहुल अवाक। हलक भीतर तक सूखी हुई। अक्तूबर की उस पहाड़ी ठंड में माथे पर चली आई पसीने की चंद बूंदें। आंखों में अचरज का समंदर। एक युवा, प्रतिभाशाली, तेज-तर्रार कवि के रूप में राहुल को तब तक मान्यता मिल चुकी थी। वह दिल्ली के एक साप्ताहिक अखबार में नौकरी कर रहा था। लेकिन शादी के लिए इतना काफी था क्या? फिर वह लड़की के बारे में ज्यादा कुछ जानता नहीं था। सिवा इसके कि वह कुछ कुछ रिबेलियन किस्म के विचारों से खदबदाती रहती थी, कि जीवन की चुनौतियां उसे जीने की लालसा से भरती थीं। उसकी आंखें गजब के आत्मविश्वास से दमक रही थीं।
आत्मविश्वास की इस डगर पर चलता हुआ क्या मैं अपने स्वप्नों को पैरों पर खड़ा कर सकूंगा? राहुल ने सोचा और केतकी की आंखों में झांका। ‘हां!‘ केतकी ने कहा और केतकी का माथा चूम लिया। आसपास चलती भीड़ आश्चर्य से ठहरने लगी। बीस बरस पहले यह अचरज की ही बात थी। खासकर नैनीताल जैसे छोटे शहर में। बिष्ट साहब की बेटी... बिष्ट साहब की बेटी... हवाओं में हरकारे दौड़ पडे।
लेकिन अगली सुबह नैनीताल कोर्ट में बिष्ट दंपती तथा विभागाध्यक्ष की गवाही में राहुल और केतकी पति-पत्नी बन गए। उसी शाम राहुल और केतकी दिल्ली लौट आए-सरोजिनी नगर के एक छोटे से किराये के कमरे में अपना जीवन शुरू करने। एस.एन.डी.टी. के सभागार में ऑटोग्राफ सेशन से निपटने के बाद एक कुर्सी पर बैठे राहुल को अपना विगत अपने से आगे दौड़ता नजर आता है।
राहुल अंधेरी स्टेशन की सीढ़ियां उतर रहा था। विकास सीढ़ियां चढ़ रहा था। उसकी उंगलियों में सिगरेट दबी थी। राहुल ने विकास की कलाई थाम ली। सिगरेट जमीन पर गिर पड़ी। राहुल विकास को घसीटता हुआ स्टेशन के बाहर ले आया। एक सुरक्षित से लगते कोने पर पहुंचकर उसने विकास की कलाई छोड़ दी और हांफते हुए बोला, ‘मैंने तुमसे कहा था, जीवन का पहला पैग और पहली सिगरेट तुम मेरे साथ पीना। कहा था ना?‘ ‘ज्जी!‘ विकास की घिघ्घी बंधी हुई थी। ‘तो फिर?‘ राहुल ने पूछा। विकास ने गर्दन झुका ली और धीरे से कहा, ‘सॉरी पापा! अब ऐसा नहीं होगा।‘ राहुल मुस्कुराया। बोला, ‘दोस्त जैसा बाप मिला है। कद्र करना सीखो।‘ फिर दोनों अपने अपने रास्तों पर चले गए।
विकास मुंबई के जेजे कॉलेज ऑफ आर्ट्स में प्रथम वर्ष का छात्र था। केतकी उसे डॉक्टर बनाना चाहती थी लेकिन विकास के कलात्मक रूझान को देख राहुल ने उसे हाई स्कूल साइंस के बाद इंटर आर्ट्स से करने और उसके बाद जेजे में एडमिशन लेने की स्वीकृति दे दी थी। वह कमर्शियल आर्टिस्ट बनना चाहता था। राहुल उन दिनों एक दैनिक अखबार का न्यूज एडीटर था। आधी रात को आना और सुबह देर तक सोते रहना उसकी दिनचर्या थी।
इतवार की एक सुबह उसने केतकी से पूछा, ‘विकास नहीं दिख रहा।‘
‘बेटे की सुध आई?‘ केतकी व्यंग्य की डोर थामे उस पार खड़ी थी।
‘लेकिन घर तो शुरू से ही तुम्हारा ही रहा है।‘ राहुल ने सहजता से जवाब दिया।
‘यह घर नहीं है।‘ केतकी तिक्त थी। उसे बहुत जमाने के बाद संवादों की दुनिया में उपस्थित होने का मौका मिला था, ‘गेस्ट हाउस है। और मैं हाउस कीपर हूं। सिर्फ हाउस कीपर।‘
राहुल उलझने के मूड में नहीं था। सीईओ ने उसे पुणे एडीशन की रूपरेखा बनाने की जिम्मेदारी सौंपी थी। दोपहर के भोजन के बाद अपनी स्टडी में बंद होकर वह होमवर्क कर लेना चाहता था। उसने विकास का मोबाइल लगाया।
‘पापा...।‘ उधर विकास था।
‘बेटे कहां हो तुम?‘ राहुल थोड़ा तुर्श था।
‘पापा, बांद्रा के रासबेरी में मेरा शो है अगले मंडे। इसलिए एक हफ्ते से अपने दोस्त कपिल के घर पर हूं। रिहर्सल चल रही है।‘
‘रिहर्सल? कैसा शो?‘
‘पापा आपको अपने सिवा कुछ याद भी रहता है, पिछले महीने मैंने आपको बताया नहीं था कि मैंने एक रॉक बैंड ज्वाइन किया है।‘
‘रिहर्सल घर पर भी हो सकती है।‘ राहुल उत्तेजित होने लगा था, टिपिकल पिताओं की तरह।
‘पापा, आप यह भी भूल गए?‘
विकास की आवाज में भी व्यंग्य तैरने लगा था, ‘अभी कुछ दिन पहले जब मैं रात को प्रैक्टिस कर रहा था तब आपने घर आते ही मुझे कितनी बुरी तरह डांट दिया था कि यह घर है नाचने गाने का अड्डा नहीं।‘
‘शटअप‘ राहुल ने मोबाइल ऑफ कर दिया। उसने देखा, केतकी उसे व्यंग्य से ताक रही थी। उसने सिर झुका लिया। वह धीमे कदमों से अपनी स्टडी में जा रहा था। पीछे पीछे केतकी भी आ रही थी।
‘क्या है?‘ राहुल ने पूछा और पाया कि उसकी आवाज में एक अजीब किस्म की टूटन जैसी है। इस टूटन में किसी शोध में असफल हो जाने का दर्द समाया हुआ था।
‘तुम हार गए राहुल।‘ केतकी की आंख में बरसों पुराना आत्मविश्वास था।
‘तुम भी ऐसा ही सोचती हो केतकी?‘ राहुल ने अपनी कमीज और बनियान उलट दी। ‘क्या तुम चाहती थीं कि पेट पर पड़े ऐसे ही किसी निशान को देखकर विकास को अपने बाप की याद आया करती?‘
‘नहीं।‘
‘तो फिर?‘ राहुल की आवाज में दर्द था। ‘मैंने विकास को एक लोकतांत्रिक माहौल देने का प्रयास किया था। मैं चाहता था कि वह मुझे अपना बाप नहीं, दोस्त समझे।‘
‘बाप दोस्त नहीं हो सकता राहुल। वह दोस्तों की तरह बिहेव भले ही कर ले। लेकिन होता वह बाप ही है। और उसे बाप होना भी चाहिए।‘ केतकी ने झटके से अपना वाक्य पूरा किया और स्टडी से बाहर चली गई।
राहुल अराम कुर्सी पर ढह गया। अगली सुबह जब वह बहुत देर तक नहीं उठा तो केतकी ने अपने फैमिली डॉक्टर को तलब किया। डॉक्टर ने बताया, ‘इनके जीवन में हाई ब्लड प्रेशर ने सेंध लगा दी है।‘
राहुल की आंखें आश्चर्य से भारी हो गईं। वह सिगरेट नहीं पीता था। शराब कभी कभी छूता था। तला हुआ और तैलीय भोजन नहीं खाता था। घर से बाहर का पानी तक नहीं पीता था।
‘तो फिर?‘ उसने केतकी से पूछा।
लेकिन तब तक डॉक्टर की बताई दवाइयां लेने के लिए केतकी बाजार जा चुकी थी।
ग्यारह सितंबर दो हजार एक को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए विनाशक हमले के ठीक एक हफ्ते बाद राहुल बजाज को रात ग्यारह बजे उसके बेटे विकास ने मोबाइल पर याद किया। राहुल उन दिनों एक टीवी चैनल में इनपुट एडीटर था और पत्नी के साथ दिल्ली में रहता था। चैनल की नौकरी में विकास तो विकास, केतकी तक राहुल को कभी कभी किसी भूली हुई याद की तरह उभरती नजर आती थी। वह विकास को अपने मुंबई वाले बसे-बसाये घर में अकेला छोड़ आया था। विकास तब तक एक मल्टीनेशन कंपनी के मुंबई ऑफिस में विजुलाइजर के तौर पर नौकरी करने लगा था। आम तौर पर विकास का मोबाइल ‘नॉट रीचेबल‘ ही होता था। पंद्रह बीस दिनों में कभी उसे मां की याद आती तो वह दिल्ली के लैंडलाइन पर फोन कर मां से बतियाता था। केतकी के जरिये ही राहुल को पता चला कि विकास मजे में है। उसकी नौकरी ठीक है और वह एक उभरता रॉक गायक भी बन गया है। वह मां को बताता था कि मकान का मेंटेनेंस समय पर दिया जा रहा है, कि लैंड लाइन फोन का बिल और बिजली का बिल भी समय पर दिया जा रहा है। सोसायटी के लोग उन्हें याद करते हैं और उसने अपने एक दोस्त से किस्तों पर एक सेकिंड हैंड मोटर साइकिल खरीद ली है। वह बताता कि मुंबई की लोकल में भीड़ अब जानलेवा हो गई है। अब तो किसी भी समय चढ़ना-उतरना मुश्किल हो गया है। एक खाते-पीते मध्यवर्गीय परिवार के लक्षण यहां भी थे, वहां भी। राहुल की जिंदगी बीत रही थी। केतकी की भी। व्यस्त रहने के लिए केतकी दिल्ली में कुछ टयूशन करने लगी थी।
इसीलिए विकास के फोन ने राहुल को विचलित कर दिया।
‘बापू....‘ विकास लाड़, शराब और स्वतंत्रता के नशे में था, ‘बापू, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की बिल्डिंग में हमारा भी हेड ऑफिस था। सब खल्लास हो गया। ऑफिस भी, मालिक भी। मालकिन ने ई-मेल भेजकर मुंबई ऑफिस को बंद कर दिया है।‘
‘अब?‘ राहुल ने संयत रहने की कोशिश की, ‘अब क्या करेगा?‘
‘करेगा क्या स्ट्रगल करेगा। अभी तो एक महीने नोटिस की पगार है अपने पास। उसके बाद देखा जाएगा।‘ विकास आश्वस्त लग रहा था।
‘ऐसा कर, तू घर में ताला लगाकर दिल्ली आ जा। मैं तुझे अपने चैनल में फिट करवा दूंगा।‘ राहुल की हमेशा व्यस्त और व्यावसायिक आवाज में बहुत दिनों के बाद एक चिंतातुर पिता लौटा।
‘क्या पापा...।‘ विकास शायद चिढ़ गया था, ‘आप भी कभी कभी कैसी बातें करते हैं। मेरा कैरियर, मेरे दोस्त, मेरा शौक, मेरा पैशन सब कुछ यहां है... यह सब छोड़कर मैं वहां आ जाऊं, उस गांव में जहां लोग रात को आठ बजे सो जाते हैं। जहां बिजली कभी कभी आती है। ओह शिट... आई हेट दैट सिटी।‘ विकास बहकने लगा था, ‘मम्मी मुझे बताती रहती है वहां की मुसीबतों के बारे में। अपुन इधरीच रहेगा। आई लव मुंबई, यूू नो। अगले महीने मैं अपना बैंड लेकर पूना जा रहा हूं शो करने।‘
‘जैसी तेरी मर्जी।‘ राहुल ने समर्पण कर दिया, ‘कोई प्रॉब्लम आए तो बता जरूर देना।‘
‘शाब्बाश। ये हुई न मर्दों वाली बात।‘ विकास ने ठहाका लगाया फिर बोला, ‘टेक केयर... बाय।‘
राहुल का जी उचट गया। उसने खुद को सांत्वना देने की कोशिश की। आखिर सब कुछ तो है मुंबई वाले घर में। टीवी, फ्रिज, कंप्यूटर, वीसीडी प्लेयर, वाशिंग मशीन, गैस, डबल बेड, वार्डरोब, सोफा, बिस्तर। इतना सक्षम तो है ही अपना बेटा कि दो वक्त की रोटी जुटा ले। उसने निश्चिंत होने की कोशिश की लेकिन कुछ था जो उसके सुकून में सेंध लगा रहा था। थोड़ी देर बाद वह घर लौट आया। लौटते वक्त उसने मोबाइल पर अपनी सोसायटी के सेक्रेटरी से रिक्वेस्ट किया कि कभी मेंटेनेंस मिलने में देर हो जाये तो वह मिस कॉल दे दे। पैसा सोसायटी के अकाउंट में ट्रांस्फर हो जाएगा। फिर उसने सेक्रेटरी से आग्रह किया कि विकास का ध्यान रखना। सेक्रेटरी सिख था। खुशमिजाज था। बोला, ‘तुसी फिक्र न करो। असि हैं न। वैसे त्वाडा मुंडा बड़ा मस्त है। कदी-कदी दिखता है बाइक पर तो बाय अंकल बोलता है।‘
राहुल को घर आया देख केतकी विस्मित रह गई। अभी तो सिर्फ पौने बारह बजे थे। राहुल कभी भी दो बजे से पहले नहीं आता था।
‘विकास का फोन था।‘ राहुल ने बताया, ‘उसकी नौकरी चली गई है लेकिन यह कोई चिंता की बात नहीं है।‘
‘तो?‘ केतकी कुछ समझी नहीं।
‘उसने शराब पी रखी थी।‘ राहुल ने सिर झुका लिया। उसकी आवाज दूसरी शताब्दी के उस पार से आती हुई लग रही थी। राख में सनी, मटमैली और अशक्त। केतकी के भीतर बुझते अंगारों में से कोई एक अंगार सुलग उठा। राहुल की आवाज ने उसे हवा दी थी शायद।
‘जब हम दिल्ली आ रहे थे मैंने तभी कहा था कि विकास को मुंबई में अकेला मत छोड़ो।‘
‘केतकी, मूर्खों जैसी बात मत करो। बच्चे जवान होकर लंदन, अमेरिका, जर्मनी और जापान तक जाते हैं। नौकरियां भी आती-जाती रहती हैं। फिर हम अभी जीवित हैं न!‘ राहुल सोफे पर बैठ गया और जूते उतारने लगा, ‘उसका नशे में होना भी कोई धमाका नहीं है। ऑफ्टर ऑल बाइस साल का यंग चैप है।‘
‘तो फिर?‘ केतकी पूछ रही थी, ‘तुम परेशान किस बात को लेकर हो?‘
‘परेशान कहां हूं?‘ राहुल झूठ बोल गया, ‘एक प्रतिकूल स्थिति है जो फिलहाल विकास को फेस करनी है। टेलेंटेड लड़का है। दूसरी नौकरी मिल जाएगी। इस उम्र में स्ट्रगल नहीं करेगा तो कब करेगा? उसे अपने खुद के अनुभवों और यथार्थ के साथ बड़ा होने दो।‘
‘तुम जानो।‘ केतकी ने गहरी निश्वास ली, ‘कहीं तुम्हारे विश्वास तुम्हें छल न लें।‘
‘डोंट वरी। मैं हूं न!‘ राहुल मुस्कुराया। फिर वे सोने के लिए बेडरूम में चले गये। रात का खाना राहुल दफ्तर में ही खाया करता था। उस रात राहुल ने सिर्फ दो काम किये। दाएं से बाएं करवट ली और बाएं से दाएं।
सुबह हमेशा की तरह व्यस्तताओं भरी थी। अखबार, फोन, खबरें, न्यूज चैनल, इंटरव्यू, प्रशासनिक समस्याएं, कंट्रोवर्सी, मार्केटिंग स्ट्रेटेजी, ब्यूरो कोऑर्डिनेशन, आदेश, निर्देश, टार्गेट...। एक निरंतर हाहाकार था जो चौबीस घंटे, अनवरत उपस्थित था, इस हाहाकार में समय हवा की तरह उड़ता था और संवेदनाएं मोम की तरह पिघलती थीं। इन्हीं व्यस्तताओं में दिल्ली का दिसंबर आया। ठंड, कोहरे और बारिश में ठिठुरता। विकास से कोई संपर्क नहीं हो पा रहा था। घर का फोन बजता रहता। दिल हूम हूम करता। पता नहीं विकास ने क्या खाया होगा? खाना हलक से नीचे उतरने से इंकार कर देता। केतकी कुमार गंधर्व और भीमसेन जोशी की शरण लेती। विकास का मोबाइल ट्राई करती। सोसायटी की सक्रेटरी की पत्नी से फोन पर पूछती, ‘विकास का क्या हाल है?‘ एक ही जवाब मिलता, ‘दिखा नहीं जी बड्डे दिनों से। मैं इनसे पूछ के फोन करांगी।‘ पर उसका फोन नहीं आता। केतकी अपनी कातर निगाहें राहुल की तरफ उठाती तो वह गहरी निस्संगता से भर कर जवाब देता, ‘नो न्यूज इज गुड न्यूज।‘
‘कैसे बाप हो?‘ आखिर एक रात केतकी ढह गई, ‘तीन महीने से बेटे का अता-पता नहीं है और बाप मजे में है।‘
‘केतकी?‘ राहुल ने केतकी को उसके मर्मस्थल पर लपक लिया, ‘मैं बीस साल की उम्र में अपना घर छोड़ कर भागा था। देहरादून से। फिर तुमसे शादी की। स्ट्रगल किया, अपना एक मुकाम बनाया। बेशक तुम साथ साथ आ रही थीं। हम देहरादून से दिल्ली, दिल्ली से लखनऊ, लखनऊ से गुवाहाटी और गुवाहटी से मुंबई पहुंचे। और अब दिल्ली में हैं। क्या तुम्हें एक बार भी याद नहीं आया कि मेरा भी एक पिता था। मैं भी एक बेटा था?‘
‘लेकिन इस मामले में मैं कहां से आती हूं राहुल?‘ केतकी ने प्रतिवाद किया। ‘वह तुम्हारा और तुम्हारे पिता का मामला था। लेकिन यहां मैं इन्वॉल्व हूं। मैं विकास की मां हूं। मेरे दिल में हर समय सांय-सांय होती है। सोचती हूं कि कुछ दिनों के लिए मुंबई हो आती हूं।‘
‘ठीक है।‘ राहुल गंभीर हो गया, ‘मैं कुछ करता हूं।‘
नये वर्ष के पहले दिन दोपहर बारह पैंतीस की फ्लाइट से राहुल मुंबई के लिए उड़ गया। उसके ब्रीफकेस में घर की चाबियों और पर्स में तीन बैंकों के डेबिट तथा क्रेडिट कार्ड थे।
घर विस्मयकारी तरीके से बदरंग, उदास, अराजक और उजाड़ था। राहुल का घर, जिसे वह बतौर अमानत विकास को सौंप गया था। दरवाजे के बाहर लगी नेमप्लेट जरूर राहुल के ही नाम की थी लेकिन भीतर मानों एक अपाहिज पहरेदार की छायाएं डोल रही थीं।
धीरे-धीरे राहुल को डर लगना शुरू हुआ। ‘मैं उधर से बन रहा हूं, मैं इधर से ढह रहा हूं।‘ राहुल ने सोचा। इक्कीसवीं सदी का अंधेरा उसके जिस्म में भविष्य की तरह ठहर जाने पर आमादा था। उसके विश्वास, उसके मूल्य, उसकी समझ जिस पर देश का पढ़ा-लिखा तबका यकीन करता था, उसके अपने घर में विकास के मैले-कुचैले कपड़ों की तरह जहां-तहां बिखरे पड़े थे। हॉल में बने बुक शेल्फ में मकड़ी के जाले लगे हुए थे और उनमें छिपकलियां आराम कर रही थीं। उसने फोन का रिसीवर उठाकर देखा - वह मृतकों की दुनिया में शामिल था। यानी घंटी एक्सचेंज में बजा करती होगी। नागार्जुन, निराला और मुक्तिबोध की रचनावलियों के साथ कालिदास ग्रंथावली जैसी दुर्लभ और बेशकीमती पुस्तकें सदियों पुरानी धूल के नीचे हांफ रही थीं। सोफे के ऊपर एक इलेक्ट्रोनिक गिटार औंधा पड़ा था। टीवी के ऊपर एक नहीं तीन-तीन ऐश-ट्रे थीं, जिनमें चुटकी भर राख झाड़ने की भी जगह नहीं थी। शोकेस के किनारे कोने में सिगरेट के खाली पैकेट पड़े थे। फर्श पर चलते हुए धूल पर जूतों के निशान छप रहे थे।
राहुल भीतर घुसा- एक साबुत आशंका के साथ। किचन के प्लेटफार्म पर बिसलरी के बीस लीटर वाले कई कैन कतार से लगे थे - खाली, बिना ढक्कन। वाशिंग मशीन का मुंह खुला था और उसमें गरदन तक विकास के गंदे कपड़े ठुंसे हुए थे। पर्दों पर तेल और मसालों के दाग थे। बाथरूम और लैटरीन के दरवाजों पर कुछ विदेशी गायकों के अहमकों जैसी मुद्रा वाले पोस्टर चिपके थे। राहुल का स्टडी रूम बंद था। बैडरूम में रखा कंप्यूटर और प्रिंटर नदारद था। राहुल ने चाबी से स्टडी का दरवाजा खोला- वहां धूल, उमस और सीलन जरूर थी लेकिन बंद होने की वजह से बाकी कमरा जस का तस था- जैसा राहुल उसे छोड़ गया था। थका हुआ, प्रतीक्षातुर और उदास। यह कमरा मानों राहुल को यह सांत्वना दे रहा था कि अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है। अपनी राइटिंग टेबल के सामने पड़ी रिवॉल्विंग चेयर पर बैठकर राहुल ने विकास का मोबाइल लगाने की एक व्यर्थ सी कोशिश की लेकिन आश्चर्य कि घंटी बज गई।
‘हैलो...‘ यह विकास था हूबहू राहुल जैसी आवाज़ में। तीन महीने से अदृश्य।
‘कहां है?‘ राहुल ने पूछा।
‘पापा...!‘ विकास चीखा, ‘कैसे हो, मॉम कैसी है?‘
‘तुझसे मतलब?‘ राहुल चिढ़ गया।
‘पापा, मेरा मोबाइल बंद था, परसों ही चालू हुआ है। मैं आपको बताने ही वाला था। गुड न्यूज। परसों ही मेरी नौकरी लगी है- रिलायंस इन्फोकॉम में। पगार है पंद्रह हजार रुपये। तीन महीने से खाली भटकते-भटकते मैं पागल हो गया था। बीच में मेरा एक्सीडेंट भी हो गया था। मैं पंद्रह दिन अस्पताल में पड़ा रहा। बाइक भी टूट गई। भंगार में बेच दी।‘ विकास बताता जा रहा था। बिना रुके, बिना किसी दुख, तकलीफ या पछतावे के। खालिस खबरों की तरह।
‘तूने एक्सीडेंट की भी सूचना नहीं दी?‘ राहुल को सहसा एक अनाम दुख ने पकड़ लिया।
‘उससे क्या होता?‘ विकास तर्क दे रहा था, ‘आपका ब्लड प्रेशर बढ़ जाता। आप लोग भागे-भागे यहां आते। ठीक तो मुझे दवाइयां ही करतीं न? फिर दोस्त लोग थे न। किस काम आते साले हरामखोर। आप देखते तो डर जाते पापा। बाईं आंख की तो वाट लग गई थी। पूरी बाहर ही आ गई थी। माथे पर सात टांके आये। होंठ कट गया था। अब सब ठीक है।‘
‘पैसा कहां से आया?‘ राहुल ने पूछा।
‘दोस्त ने दिया। कंप्यूटर बेचना पड़ा। अब धीरे धीरे सब चुका दूंगा।‘
‘और घर कबसे नहीं गया?‘
‘शायद आठ-दस दिन हो गए।‘ विकास ने आराम से बताया।
‘और घर का फोन?‘
‘वो डैड है।‘ विकास ने बताया, ‘मैं भाड़ा कहां से देता? खाने के ही वांदे पड़े हुए थे।‘
‘मेंटनेंस भी नहीं दिया होगा?‘
‘हां।‘ विकास बोला।
‘तुझे यह सब बताना नहीं चाहिए था?‘ राहुल झुंझला गया, ‘इस तरह बर्ताव करती है तुम लोगों की पीढ़ी अपने मां-बाप के साथ?‘
‘पापा आप तो लेक्चर देने लगते हो।‘ विकास भी चिढ़ गया, ‘मकान कोई छीन थोड़े ही रहा है? अब नौकरी लग गई है, सब कुछ दे दूंगा। अच्छा सुनो, मम्मी से बात कराओ न!‘
‘मम्मी दिल्ली में है।‘
‘दिल्ली में? तो आप कहां हैं?‘ विकास थोड़ा विस्मित हुआ।
‘मुंबई में। अपने घर में।‘ राहुल ने बताया।
‘ओके बाय, मैं शाम तक आता हूं।‘ विकास ने फोन काट दिया। उसकी आवाज में पहली बार कोई लहर उठी थी। क्या फर्क है? राहुल खुद से पूछ रहा था। सिर्फ इतना ही न कि मैं घर से भाग गया था और विकास घर से दूर है - अपनी तरह से जीता-मरता हुआ। अपनी एक समानांतर दुनिया में। वह एक अदृश्य सी डोर से अपने मम्मी-पापा के साथ बंधा हुआ है और राहुल की दुनिया में यह डोर भी नहीं थी। घर से भागने के पूरे सात वर्ष बाद जब जोधपुर में पिता का ब्रेन कैंसर से देहांत हो गया, तब मां का मौन टूटा था। और मां की आज्ञा से छोटे भाई ने उसका पता खोज कर उसे टेलीग्राम दिया था -‘पिता नहीं रहे। अगर आना चाहो तो आ सकते हो।‘
वह नहीं गया था। अगर पिता उसके जीवन से निकल गए थे, अगर मां, मां नहीं बनी रह सकी थी, अगर भाई-बहन उसे ठुकरा चुके थे तो राहुल ही क्यों एक बंद दुनिया का दरवाजा खोलने जाता? जब अपने लहुलुहान शरीर को लिए वह घर के बाहर कूद रहा था तब दरवाजा खोलकर मां बाहर आकर उसके कदमों की जंजीर नहीं बन सकती थी? पिता को एक बार भी ख्याल नहीं आया कि बीस साल का एक इंटर पास लड़का इतनी बड़ी दुनिया में कहां मर-खप रहा है?
राहुल बजाज ने पाया कि उसकी बाईं आंख से एक आंसू ढुलककर गाल पर उतर आया है। शायद बाईं आंख दिल से और दाईं आंख दिमाग से जुड़ी है। राहुल ने सोचा और अपनी खोज पर मुस्कुरा दिया।
दो बाइयों की मदद से घर शाम तक सामान्य स्थिति में आ गया। सोसायटी का सेक्रेटरी बदल गया था। नोटिस बोर्ड पर मेंटेनेंस न देने वालों में राहुल बजाज का नाम भी शोभायमान था। राहुल ने पूरे हिसाब चुकता किये और बारह महीने के पोस्ट डेटेड चेक सेक्रेटरी को सौंप दिये। बिजली के बिल के खाते में भी उसने पुराने चौदह सौ और अग्रिम सोलह सौ मिलाकर तीन हजार का चेक जमा करवा दिया। टेलीफोन सरेंडर करने की अप्लीकेशन भी उसने सेक्रेटरी को दे दी- साइन किये हुए क्रॉस्ड चेक के साथ। विकास के सारे गंदे कपड़े धोबी के यहां भिजवा दिए। टीवी, फ्रिज और वाशिंग मशीन उसने दस हजार रुपये में केतकी के एक दोस्त को बेच दिये। इसी दोस्त रेवती के पति ललित तिवारी के घर वह रात के खाने पर आमंत्रित था।
रात आठ बजे विकास आया। वह अपने साथ बैगपाइपर की बॉटल लाया था।
‘आपने कहा था न, पहला पैग मेरे साथ पीना।‘ विकास बोला, ‘वह तो नहीं हो सका लेकिन मेरी नयी नौकरी की खुशी में हम एक साथ चियर्स करेंगे।‘
‘मंजूर है।‘ राहुल निर्विकार था, ‘मैं घर में ताला लगाकर जा रहा हूं।‘
‘चलेगा।‘ विकास तनिक भी परेशान नहीं हुआ, ‘मेरा दफ्तर मरोल में है। अंधेरी से मीरा रोड की ट्रेन में चढ़ना अब पॉसिबल नहीं रहा। मैं दफ्तर के पास ही कहीं पेइंग गेस्ट होने की सोच रहा हूं।‘
विकास रेवती और ललित के घर खाने पर नहीं गया। उसने पुष्पक होटल से अपने लिए चिकन बिरियानी मंगवा ली।
अगली सुबह इतवर था। राहुल सोकर उठा तब तक विकास तैयार था। उसने पापा के लिए दो अंडों का ऑमलेट बना दिया था।
‘कहां?‘ राहुन ने पूछा।
‘मेरी रिहर्सल है।‘ विकास ने कहा, ‘आज शाम सात बजे बांद्रा के रासबेरी में मेरा शो है।‘
‘क्या उस शो में मैं नहीं आ सकता?‘ राहुल ने पूछा।
‘क्या?‘ विकास अचरज के हवाले था। ‘आप मेरा शो देखने आएंगे? लेकिन आप और मम्मी तो कुमार गंधर्व भीमसेन जोशी टाइप के लोगों...।‘
‘ऑफ्टर ऑल, जो तू गाता है वह भी तो संगीत ही है न?‘ राहुल ने विकास की बात काट दी।
‘येस्स‘ विकास ने दोनों हाथों की मुट्ठियां हवा में उछालीं, ‘मैं इंतजार करूंगा।‘ फिर वह अपना गिटार लेकर सीढ़ियां उतर गया। देर तक राहुल की आंख में विकास के कानों में लटकी बालियां और छोटे छोटे कलर किये गए खड़े बाल उलझन की तरह डूबते-उतराते रहे। जब केतकी का फोन आया तो राहुल ठीक ठीक बता नहीं पाया कि वह किसके साथ है - विकास के या अपने? केतकी जरूर विकास के साथ थी, ‘जब उसके लिए तुमने घर ही बंद कर दिया है तो उसका अंतिम संस्कार भी हाथोंहाथ क्यों नहीं कर आते?‘ वह रो रही थी। वह मां थी और स्वभावतः अपने बेटे के साथ थी। राहुल मां को नहीं जानता। वह केतकी के रुदन से तनिक भी विचलित नहीं हुआ।
रासबेरी। नई उम्र के लड़के-लड़कियों का डिस्कोथेक। बाहर पोस्टर लगे थे - न्यू सेंसेशन ऑफ इंडियन रॉक सिंगर विकास बजाज। राहुल तीन सौ रुपये का टिकट लेकर भीतर चला गया। वहां अजीबोगरीब लड़के-लड़कियों की भीड़ थी। हवाओं में चरस की गंध थी। बीयर का सुरूर था। यौवन की मस्ती थी। क्षण में जी लेने का उन्माद था। लड़कियों की जीन्स से उनके नितंबों के कटाव झांक रहे थे। लड़कों ने टाइट टी शर्ट पहनी हुई थी। उनके बाल चोटियों की तरह बंधे थे। स्लीवलेस टी शर्ट्स से उनके मसल्स छलके पड़ रहे थे। ब्रा की कैद से आजाद लड़कियों के स्तन शर्ट्स के भीतर टेनिस की गेंद की तरह उछल रहे थे। राहुल वहां शायद एकमात्र अधेड़ था जिसे रासबेरी का समाज कभी कभी कौतुक भरी निगाह से निहार लेता था।
एक संक्षिप्त से अनाउंसमेंट के बाद विकास मंच पर था - अपने गिटार के साथ। उसने कान-फाड़ शोर के साथ गर्दन को घुटनों के पास तक झुकाते हुए पता नहीं क्या गीत गाया कि हॉल तालियों से गड़गड़ाने लगा, लड़कियां झूमने लगीं और लड़के उन्मत्त होकर नाचने लगे।
इस लड़के की रचना हुई है उससे? राहुल ने सोचा और युवक-युवतियों द्वारा धकेला जाकर एक कोने में सिमट गया। भीड़ पागल हो गई थी और विकास के लिए ‘वन्स मोर‘ का नारा लगा रही थी। राहुल का दिल दो-फांक हो गया। उसने केतकी को फोन लगाया और धीरे से बोला, ‘शोर सुन रही हो? यह विकास की कामयाबी का शोर है। मैं नहीं जानता कि मैं सुखी हूं या दुखी। पहली बार एक पिता बहुत असमंजस में है केतकी।‘ राहुल ने फोन काट दिया और मंच पर उछलते-कूदते विकास को देखने लगा।
ब्रेक के बाद वह बाहर आ गया। ‘हाय गाइज, हैलो गर्ल्स‘ करता हुआ विकास भी बाहर निकला। उसके मुंह में सिगरेट दबी थी। उसने राहुल के पांव छू लिए और बोला, मैं बहुत खुश हूं कि मेरा बाप मेरी खुशी को शेयर कर रहा है।‘
‘मेरे बच्चे‘ राहुल ने विकास को गले लगा लिया, ‘जहां भी रहे, खुश रहे। मुझे अब जाना होगा। मेरी दस पैंतीस की फ्लाइट है। अपने सारे प्रेस किये हुए कपड़े तुझे रेवती आंटी के घर से मिल जाएंगे।‘ राहुल बजाज का गला रूंध गया था, ‘कल से तू कहां रहेगा? क्या मैं घर की चाबियां?‘
राहुल बजाज के भीतर एक पिता पिघलता, तब तक विकास का बुलावा आ गया। उसने वापस राहुल के पांव छुए और बोला, ‘मेरी चिंता मत करो पापा। मैं ऐसा ही हूं। आप जाओ। बेस्ट ऑफ जर्नी। सॉरी।‘ विकास ने हाथ नचाए, ‘मैं एयरपोर्ट नहीं आ सकता। मां को प्यार बोलना।‘ विकास भीतर चला गया। भीड़ और शोर और उन्माद के बीच।
बाहर अंधेरा उतर आया था। इस अंधेरे में राहुल बजाज बहुत अकेला, अशक्त और दुविधाग्रस्त था। वह सबके साथ होना चाहता था लेकिन किसी के साथ नहीं था। उसके पास न पिता था, न मां। उसके पास बेटा भी नहीं था। और दिल्ली पहुंचने के बाद उसके पास केतकी भी नहीं रहने वाली थी। राहुल ने हाथ दिखाकर टैक्सी रोकी, उसमें बैठा और बोला, ‘सांताक्रूज एयरपोर्ट।‘
टैक्सी में गाना बज रहा था -‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए।‘

Sunday, May 22, 2011

बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा लेखक होना बेहतर है.

सूरज प्रकाश हमारे मित्र हैं और देहरादूनिये भी। फेसबुक में लगा उनका नोट्स जो एक बेहतरीन संस्मरण है, फेस बुक पर उनके मित्रों से इतर इस ब्लाग के लेखक भी पढ़ सके- उनकी इजाजत के बिना ही साभार यहां लगाने की गुस्ताखी कर दे रहा हूं। 
वि.गौ. 


विजय
नेट पर आयी मेरी रचना पर तुम्‍हारा, तुम्‍हारे ब्‍लाग का और मेरे शहर का पूरा हक है। इजाज़त की बात ही नहीं है। ये मेरा अतिरिक्‍त सम्‍मान हुआ ना।
कल शरदजी का जनमदिन था। इसीलिए ये रचना डाली थी।
कल से ही शरदजी की बेटी नेहा ने indradhanushpatrika.com शुरू की है। उसका लिंक दोगे तो हमें अतिरिक्‍त सुख मिलेगा।
कथाकार
 बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा लेखक होना बेहतर है.
आदमी के पास अगर दो विकल्प हों कि वह या तो बड़ा अफसर बन जाये और खूब मज़े करे या फिर छोटा मोटा लेखक बन कर अपने मन की बात कहने की आज़ादी अपने पास रखे तो भई, बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा सा लेखक होना ज्यादा मायने रखता है. हो सकता है आपकी अफसरी आपको बहुत सारे फायदे देने की स्थिति में हो तो भी एक बात याद रखनी चाहिये कि एक न एक दिन अफसर को रिटायर होना होता है. इसका मतलब यही हुआ न कि अफसरी से मिलने वाले सारे फायदे एक झटके में बंद हो जायेंगे, जबकि लेखक कभी रिटायर नहीं होता. एक बार आप लेखक हो गये तो आप हमेशा लेखक ही होते हैं. अपने मन के राजा. आपको लिखने से कोई रिटायर नहीं कर सकता.
लेखक के पक्ष में एक और बात जाती है कि उसके नाम के आगे कभी स्वर्गीय नहीं लिखा जाता. हम कभी नहीं कहते कि हम स्वर्गीय कबीर के दोहे पढ़ रहे हैं या स्वर्गीय प्रेमचंद बहुत बड़े लेखक थे. लेखक सदा जीवित रहता है, भावी पीढियों की स्मृति में, मौखिक और लिखित विरासत में और वो लेखक ही होता है जो आने वाली पीढियों को अपने वक्त की सच्चाइयों के बारे में बताता है.
तो भाई मेरे, जब लेखक के हक के लिए, लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए और लेखक के सम्मान के लिए आपको पक्ष लेना हो तो आपको ऐसी अफसरी पर लात मार देनी चाहिये जो आपको ऐसा करने से रोके. आखिरकार लेखक ही तो है जो अपने वक्त को सबसे ज्यादा ईमानदारी के साथ महसूस करके कलमबद्ध करता है और कम से कम अपनी अपनी अभिव्यक्ति के मामले में झूठ नहीं बोलता.
ये और ऐसी कई बातें थीं तो शरद जोशी ने मुझसे उस वक्‍त कही थीं जब सचमुच मेरे सामने एक बहुत बड़ा संकट आ गया था कि मुझे तय करना था कि मुझे एक ईमानदार लेखक की अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के पक्ष में खड़ा होना है या अपनी अफसरी बचाने के लिए अपने आकाओं के सामने घुटने टेकने हैं.
एक बहुत बड़ा हादसा हो गया था. शरद जी का भरी सभा में अपमान हो गया था. बेशक सारे एपिसोड में सीधे सीधे मुझे दोषी करार दिया जा सकता था और दोष दिया भी गया था लेकिन एक के बाद एक सारी घटनाएं इस तरह होती चली गयीं मानों सब घटनाओं का सूत्र संचालक कोई और हो और सब कुछ सुनियोजित तरीके से कर रहा हो. मैं हतप्रभ था और समझ नहीं पा रहा था कि ऐसा कैसे हो गया और क्यों हो गया. बेशक शरद जी का अपमान हुआ था लेकिन मेरी भी नौकरी पर बन आयी थी.
हादसे के अगले दिन सुबह सुबह शरद जी के गोरेगांव स्थित घर जा कर जब मैं इस पूरे प्रकरण के लिए उनसे माफी मांगने आया था तो मैंने उनके सामने अपनी स्थिति स्पष्ट की थी और सिलसिलेवार पूरे घटनाक्रम के बारे में बताया था तो बेहद व्यथित होने के बावजूद शरद जी ने मेरी पूरी बात सुनी थी, मेरे कंधे पर हाथ रखा था और पूरे हादसे को रफा दफा करते हुए नेहा से चाय लाने के लिए कहा था..
तब उन्होंने वे सारी बातें मुझसे कहीं थीं जो मैंने इस आलेख के शुरू में कही हैं.
ये शरद जी की प्यांर भरी हौसला अफजाई का ही नतीजा था कि मैंने भी तय कर लिया था कि जो होता है होने दो, मैं अपने दफ्तर में वही बयान दूंगा जो शरद जी के पक्ष में हो, बेशक मेरी नौकरी पर आंच आती है तो आये..
जिस वक्त की ये घटना है उस वक्त तक मैंने लिखना शुरू भी नहीं किया था और लगभग 34 बरस का होने के बावजूद मेरी दो चार लघुकथाओं के अलावा मेरी कोई भी रचना कहीं भी प्रकाशित नहीं हुई थी. छटपटाहट थी लेकिन लिखना शुरू नहीं हो पाया था.. शरद जी से मैं इससे पहले भी एक दो बार मिल चुका था जब वे एक्सप्रेस समूह की हिन्दी पत्रिका के संपादक के रूप में काम कर रहे थे. तब भी उन्होंने मुझे कुछ न कुछ लिखते रहने के लिए प्रेरित किया था लेकिन मैं नहीं लिख पाया तो नहीं ही लिख पाया.
जिस घटना का मैं जिक्र कर रहा हूं, उस वक्त की है जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे और वे देश भर में घूम घूम कर आम जनता की समस्या्ओं का परिचय पा रहे थे. इसी बात को ले कर शरद जी ने अपनी अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय रचना पानी की समस्या को ले कर लिखी थी कि किस तरह से राजीव गांधी आम जनता से पानी को ले कर संवाद करते हैं.. मैंने मुंबई में चकल्लस के कार्यक्रम में ये रचना सुनी थी और बहुत प्रभावित हुआ था. उस दिन के चकल्लस में जितनी भी रचनाएं सुनायी गयी थीं, सबसे ज्या्दा वाहवाही शरद जी ने अपनी इस रचना के कारण लूटी थी.
चकल्लस के शायद दस दिन बाद की बात होगी. हमारे संस्थान में एक राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम होना था जिसके आयोजन की सारी जिम्मेवारी मेरी थी. कार्यक्रम बहुत बड़ा था और इससे जुड़े बीसियों काम थे जो मुझे ही करने थे. तभी मुझसे कहा गया कि इसी आयोजन में एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया जाये और कुछ कवियों का रचना पाठ कराया जाये. मैंने अपनी समझ और अपने सम्पर्कों का सहारा लेते हुए शरद जी, शैल चतुर्वेदी, सुभाष काबरा, आस करण अटल और एक और कवि को रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया था. शरद जी और शैल चतुर्वेदी जी को आमंत्रित करने मैं खुद उनके घर गया था. सब कुछ तय हो गया था.
मैं अपने आयोजन की तैयारियों में बुरी तरह से व्यस्त था. कार्यक्रम में मंच पर रिज़र्व बैंक के गवर्नर, उप गवर्नर, अन्य वरिष्ठ अधिकारी गण उपस्थित रहने वाले थे और सभागार में कई बैंकों के अध्यक्ष और दूसरे वरिष्ठ अधिकारी मौजूद होते.
कार्यक्रम के‍ दिन सुबह सुबह ही मुझे विभागाध्यक्ष ने बुलाया और पूछा कि कार्यक्रम में कौन कौन से कवि आ रहे हैं. मैं इस बारे में उन्हें पहले ही बता चुका था, एक बार फिर सूची दोहरा दी. तभी उन्होंने जो कुछ कहा, मेरे तो होश ही उड़ गये.
विभागाध्यक्ष महोदय ने बताया कि पिछली शाम ऑफिस बंद होने के बाद कार्यपालक निदेशक महोदय ने उन्हें बुलाया था और बुलाये जाने वाले कवियों के बारे में पूछा था. जब उन्हें बताया गया कि शरद जी भी आ रहे हैं तो कार्यपालक निदेशक ने स्पष्ट शब्दों में ये आदेश दिया कि देखें कहीं शरद जी अपनी पानी वाली रचना न सुना दें. सरकारी मंच का मामला है और कार्यक्रम में रिज़र्व बैंक सहित पूरा बैंकिंग क्षेत्र मौजूद होगा, इसलिए वे किसी भी किस्म का रिस्क ‍ नहीं लेना चाहेंगे.
विभागाध्यक्ष महोदय अब चाहते थे कि मैं शरद जी को फोन करके कहूं कि वे बेशक आयें लेकिन पानी वाली रचना न पढ़ें. मेरे सामने एक बहुत बड़ा संकट आ खड़ा हुआ था. मैं जानता था कि जो काम मुझसे करने के लिए कहा जा रहा है. वह मैं कर ही नहीं सकता. शरद जी जैसे स्वाभिमानी व्यंग्यकार से ये कहना कि वे हमारे मंच से अलां रचना न पढ़ कर फलां रचना पढ़ें, मेरे लिए संभव ही नहीं था. मैं घंटे भर तक ऊभ चूभ होता रहा कि करूं तो क्या करूं. मुझे फिर केबिन में बुलवाया गया और पूछा गया कि क्या मैंने शरद जी तक संदेश पहुंचा दिया है. मैं टाल गया कि अभी मेरी बात नहीं हो पायी है. उनका नम्बर नहीं मिल रहा है.
उन दिनों हमारे विभाग में डाइरेक्ट टैलिफोन नहीं था और आपरेटर के जरिये नम्बर मांग कर किसी से बात करना बहुत धैर्य की मांग करता था. मैंने उस वक्त तो किसी तरह टाला लेकिन कुछ न कुछ करना ही था मुझे.
मेरी डेस्क पर आयोजन की व्यवस्था से जुड़े कई काम अधूरे पड़े थे जो अगले दो तीन घंटे में पूरे करने थे. अब ऊपर से ये नयी जिम्मेवारी कि शरद जी से कहा जाये कि वे हमारे कार्यक्रम में पानी वाली रचना न सुनायें. सच तो ये था कि शरद जी से बिना बात किये भी मैं जानता था कि वे हमारे कार्यक्रम में पानी वाली रचना ही सुनायेंगे.
चूंकि उन्हें आमंत्रित मैंने ही किया था, ये काम भी मुझे ही करना था. उनसे साफ साफ कहना तो मेरे लिए असंभव ही था लेकिन बिना असली बात बताये उन्हें आने से मना तो किया ही जा सकता था. तभी मैंने तय कर लिया कि क्या करना है. मैंने शरद जी के घर का फोन नम्बर मांगा ताकि उनसे कह सकूं कि बेशक कवि सम्मेललन तो हो रहा है‍ लेकिन हम आपको चाह कर भी नहीं सुन पायेंगे.
यहां मेरे लिए हादसे की पहली किस्त‍ इंतज़ार कर रही थी. बताया गया कि शरद जी दिल्ली गये हुए हैं और कि उनकी फ्लाइट लगभग डेढ़ बजे आयेगी और कि वे एयरपोर्ट से सीधे ही रिज़र्व बैंक के कार्यक्रम में जायेंगे. हो गयी मुसीबत. इसका मतलब मेरे पास शरद जी को कार्यक्रम में आने से रोकने का कोई रास्ता नहीं. वे सीधे कार्यक्रम के समय पर आयेंगे और सीधे आयोजन स्थल पर पहुंचेंगे तो उनसे क्या कहा जायेगा और कैसे कहा जायेगा, ये मेरी समझ से परे था.
मैंने अपने विभागाध्यक्ष को पूरी स्थिति से अवगत करा दिया और ये भी बता दिया कि मैं जो करना चाहता था, अब नहीं कर पाऊंगा. कर ही नहीं पाऊंगा.
मैं अभी कार्यक्रम की तैयारियों में फंसा ही हुआ था कि कई बार पूछा गया कि शरद जी का क्या हुआ. मैं क्या जवाब देता. मुख्य कार्यक्रम साढ़े तीन बजे शुरू होना था और मुझे दो बजे बताया गया कि कैसे भी करके किसी बाहरी एजेंसी के माध्यम से कवि सम्मेालन की आडियो रिकार्डिंग करायी जाये.
हमारे संस्थान की एक बहुत अच्छी परम्प‍रा थी कि आपका पोर्टफो‍लियो है तो सारे काम आपको खुद ही करने होंगे. कोई भी मदद के लिए आगे नहीं आयेगा और न ही किसी को आपकी मदद के लिए कहा ही जायेगा. मरता क्या न करता, मैं एक दुकान से दूसरी दुकान में रिकार्डिंग की व्य वस्था कराने के लिए भागा भागा फिरा. अब तो इतने बरस बाद याद भी नहीं‍ कि इंतज़ाम हो भी पाया था या नहीं.
मुख्य कार्यक्रम शुरू हुआ. आधा निपट भी गया और बुलाये गये पांचों कवियों में से एक भी कवि का पता नहीं. कहीं सब के सब तो दिल्ली से नहीं आ रहे.. मैं परेशान हाल कभी लिफ्ट के पास तो कभी सभागृह के दरवाजे पर. कुल 5 लिफ्टें और कम्बख्त कोई भी ऊपर नहीं आ रही. मेरी हालत खराब. कार्यक्रम किसी भी पल खत्म हो सकता था और कवि सम्मेलन शुरू करना ही होता. एक भी कवि नहीं हमारे पास.
तभी एक लिफ्ट का दरवाजा खुला और एक कवि नज़र आये. मैं उन्हें फटाफट भीतर ले गया और उनसे फुसफुसाकर कहा कि अभी कोई भी नहीं आया है. बाकियों के आने तक आप मंच संभालिये. संचालन हमारे विभागाध्यक्ष महोदय कर रहे थे. उन्हों ने ज्यों ही इकलौते कवि को देखा, उनके नाम की घोषणा की दी और कवि सम्मेलन शुरू. अब मैं फिर लिफ्टों के दरवाजों के पास खड़ा बेचैनी से हाथ मलते सोच रहा था कि अब मैं किसी भी अनहोनी को नहीं रोक सकता. किसी भी तरह से नहीं.
एक लिफ्ट का दरवाजा खुला. चार मूर्तियां नज़र आयीं. शैल जी, शरद जी, सुभाष काबरा जी और एक अन्‍य कवि. मेरी सांस में सांस तो आयी लेकिन अब मैं शरद जी से क्या कहूं और कैसे कहूं. किसी तरह उन्हें भीतर तक लिवा ले गया. अब जो होना है, हो कर रहेगा. शरद जी ने कुर्सी पर बैठते ही कहा, सूरज भाई एक गिलास पानी तो पिलवाओ. मैं लपका एक गिलास पानी के लिए. आसपास कोई चपरासी या टी बाय नज़र नहीं आया. मैं लाउंज तक भागा ताकि खुद ही पानी ला सकूं. जब तक मैं एक गिलास पानी ले कर आया, शरद जी के नाम की घोषणा हो चुकी थी. पानी पीया उन्हों ने और मंच की तरफ चले.
तय था वे पानी वाली रचना सुनायेंगे. मेरी हालत खराब. इतनी सरस रचना सुनायी जा रही है और सभागृह में एकदम सन्नाटा. सिर्फ शरद जी की ओजपूर्ण आवाज़ सुनायी दे रही है.
गवर्नर महोदय ने उप गवर्नर महोदय की तरफ कनखियों से देखा. उप गवर्नर महोदय ने इसी निगाह से कार्यपालक निदेशक महोदय को देखा और कार्यपालक निदेशक महोदय ने अपनी तरफ से इस निगाह में योगदान देते हुए हमारे विभागाध्यक्ष को घूरा और आंखों ही आंखों में इशारा किया कि ये रचना पाठ बंद कराया जाये. हमारे विभागाध्यक्ष महोदय की निगाह निश्चित ही मुझ पर टिकनी थी और मेरे आगे कोई नहीं था. मैंने कंधे उचकाये – मैं कुछ नहीं कर सकता. मंच पर तो आप ही खड़े हैं..
एक बार फिर तेज़ निगाहों का आदान प्रदान हुआ और एक तरह से विभागाध्‍यक्ष को डांटा गया कि वे ये रचना पाठ बंद करायें. नहीं तो.. नहीं तो.. मैं आगे कल्पना नहीं कर पाया कि इस नहीं तो के कितने आयाम हैं. विभागाध्यक्ष डरते डरते शरद जी के पास जा कर खड़े हो गये लेकिन कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पाये. यहां ये बताना प्रासंगिक होगा कि विभागाध्यक्ष खुद व्यंग्य कवि थे और दिल्ली में बरसों से कवि सम्मेलनों का सफल संचालन करते रहे थे. एक और कड़ी निगाह विभागाध्यक्ष की तरफ और उन्होंने धीरे से शरद जी से कहा कि आप कोई और रचना पढ़ लें, इसे न पढ़ें.
यही होना था. शरद जी हक्के बक्के. समझ नहीं पाये, क्या कहा जा रहा है उनसे.. फिर उन्होंने काग़ज़ समेटे और माइक पर ही कहा - ये तो आपको पहले बताना चाहिये था कि मुझे कौन सी रचना पढ़नी है और कौन सी नहीं, मैं पहले तय करता कि मुझे आना है या नहीं. मैं यही रचना पढूंगा या फिर कुछ नहीं पढूंगा.. बोलिये क्या कहते हैं...
एक लम्बा सन्नाटा. . . किसी के पास कोई शब्द नहीं.. कोई उपाय नहीं.. बिना शब्दों के ही सारा कारोबार हो रहा था.. अब शरद जी मंच से नीचे उतरे और सीधे सभागृह के बाहर..
अनहोनी हो चुकी थी.. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था.. हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी जो कभी टाइम्स में पत्रकार रह चुके थे और कभी बंबई में शरद जी के साथ धोबी तलाव इलाके में एक लॉज में रह चुके थे, शरद जी को मनाने उनके पीछे लपके.
शरद जी बुरी तरह से आहत हो गये थे.. ये बताने का वक्त नहीं था कि ये सब क्यूं कर हुआ और इस स्थिति को कैसे भी करके टाला ही नहीं जा सका.
अगले दिन अखबारों में ये खबर थी. ऑफिस में मुझसे स्प्ष्टी करण मांगा गया और मेरे लिए आने वाले दिन बहुत मुश्किल भरे रहे.. लेकिन शरद जी से‍ मिलने के बाद मेरी हिम्मत बढ़ी थी और मैं किसी भी अनचाही स्थिति के लिए अपने आपको तैयार कर चुका था.. शरद जी से उस मुलाकात के बाद ही मुझमें लिखने की हिम्मत आयी थी. अब मुझे लिखते हुए बीस बरस होने को आये.. शरद जी के वे शब्दे आज भी हर बार कलम थामते हुए मेरे सामने सबसे पहले होते हैं‍ कि बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा सा लेखक होना ज्यादा मायने रखता है.
मैं बेशक अपने संस्थान में मझोले कद का अफसर हूं लेकिन अपना परिचय छोटे मोटे लेखक के रूप में देना ही पसंद करता हूं. मुझे पता है,. जब तक चाहूं सक्रिय रह सकता हूं.. लेखन से रिटायरमेंट नहीं होता ना....
सूरज प्रकाश

Wednesday, May 18, 2011

स्याह रात में चमकता जुगनू- जैसे उग आया अंधेरे के बीच एक सूरज


हिन्दी में दलित धारा के मूल्यांकन को लेकर एक बहस लगातार जारी है। क्षेत्रवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, लिंगभेद और अन्य गैर-प्रगतिशील मूल्यों के विरोध के साथ अम्बेडकर के विचार से पोषित हिन्दी की दलित धारा किसी भी जनवादी संघर्ष के साथ कदम दर कदम बढ़ाते हुए है।  साम्राज्यवादी पूंजी की मुखालफ़त और आवाम की खुशहाली का स्वप्न उसकी संवेदनाओं का हिस्सा है। ऎसे तमाम मसलों से टकराते हुए और एक स्पष्ट पक्षधरता की वकालत के साथ, अपनी उपस्थित के एक बहुत छोटे से अंतराल में ही, हिन्दी दलित धारा ने आलोचना के क्षेत्र को भी प्रभावित किया है। विधाओं के तमाम क्षेत्रों में दलित धारा के रचनाकारों की आवाजाही कोई आनायास नहीं है।
ओम प्रकाश वाल्मीकि मूलतः कवि हैं लेकिन कविता, कहानी, नाटक, आलोचना आदि के बीच उनके लगातार हस्तक्षेप से हिन्दी का पाठक जगत अपरिचित नहीं है। सदियों का संताप उनकी पहली काव्य पुस्तिका है, जिसने बिना ज्यादा शौर मचाए हिन्दी में दलित धारा की पदचाप को स्वर दिया है। बेशक उस पुस्तिका का प्रकाशन एक छोटे से शहर के बेहद अनजान  प्रकाशन से हुआ और प्रकाशन के वक्त हिन्दी में दलित धारा की किंचित अनुपस्थिति के चलते काव्य पुस्तिका में दलित धारा को दर्ज करने का एक संकोच रहा पर कथ्य के लिहाज से देख सकते हैं कि उन रचनाओं की काव्य संवेदना तत्कालीन हिन्दी की कविताओं से कुछ भिन्न स्वर के साथ हैं-
यदि तुम्हें,
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाये
पानी तक न लेने दिया जाये कुंए से
दुतकारा-फटकारा जाये
चिलचिलाती दुपहर में
कहा जाये तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाये खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे।
हाल में ही लिखी कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि की कुछ अन्य कविताओं यहां प्रस्तुत है। इन कविताओं पर अलग से बातचीत हो,  पाठकों से अनुरोध एवं अपेक्षा है कि वे हिस्सेदारी करें।










opvalmiki@gmail.com
०९४१२३१९०३४

शब्द झूठ नहीं बोलते

मेरा विश्वास है
तुम्हारी तमाम कोशिशों के बाद भी
शब्द जिन्दा रहेंगे
समय की सीढियों पर
अपने पांव के निशान
गोदने के लिए
बदल देने के लिए
हवाओं का रुख

स्वर्णमंडित सिंहासन पर
आध्यात्मिक प्रवचनों में
या फिर संसद के गलियारॉं में
अखबारों की बदलती प्रतिबद्धताओं में
टीवी और सिनेमा की कल्पनाओं में
कसमसाता शब्द
जब आयेगा बाहर
मुक्त होकर
सुनाई पडेंगे असंख्य धमाके
विखण्डित होकर
फिर –फिर जुडने के

बंद कमरों में भले ही
न सुनाई पडे
शब्द के चारों ओर कसी
सांकल के टूटने की आवाज़

खेत –खलिहान
कच्चे घर
बाढ में डूबती फसलें
आत्महत्या करते किसान
उत्पीडित जनों की सिसकियों में
फिर भी शब्द की चीख
गूंजती रहती है हर वक्त

गहरी नींद में सोए
अलसाये भी जाग जाते हैं
जब शब्द आग बनकर
उतरता है उनकी सांसों में

मौज-मस्ती में डूबे लोग
सहम जाते हैं

थके हारे मजदूरों की फुसफुसाहटों में
बामन की दुत्कार सहते
दो घूंट पानी के लिए मिन्नते करते
पीडितजनों की आह में
जिन्दा रहते हैं शब्द
जो कभी नहीं मरते
खडे रहते हैं
सच को सच कहने के लिए

क्योंकि,
शब्द कभी झूठ नहीं बोलते !
4 मई,2011



 जुगनू


स्याह रात में
चमकता जुगनू
जैसे उग आया
अंधेरे के बीच
एक सूरज

जुगनू अपनी पीठ के नीचे
लटकाये घूमता है
एक रोशनी का लट्टू
अंधेरे मे भटकते
जरूरतमंदों को राह दिखाने के लिए

जुगनू की यह छोटी सी चमक भी
कितनी बडी होती है
निपट अंधेरे में

जिसके होने का सही-सही अर्थ
जानते हैं वे
जो अंधेरे की दुनिया में
पडे हैं सदियों से

जिनका जन्म लेना
और मरना
एक जैसा है

जिंनके पुरखे छोड जाते हैं
विरासत में
अंधेरे की गुलामगिरि

रोशनी के खरीदार
एक दिन छीन लेंगे जुगनू से

उसकी यह छोटी - सी चमक भी
बंद कर लेंगे तिजोरी में
जो बेची जायेगी बाजार में
ऊंचे दामों पर
संस्कृति का लोगो चिपका कर !



29.04.2011




अंधेरे में शब्द

रात गहरी और काली है
अकालग्रस्त त्रासदी जैसी

जहां हजारों शब्द दफन हैं
इतने गहरे
कि उनकी सिसकियां भी
सुनाई नहीं देती


समय के चक्रवात से भयभीत होकर
मृत शब्द को पुनर्जीवित करने की
तमाम कोशिशें
हो जायेंगी नाकाम
जिसे नहीं पहचान पायेगी
समय की आवाज़ भी

ऊंची आवाज में मुनादी करने वाले भी
अब चुप हो गये हैं
’गोद में बच्चा
गांव में ढिंढोरा’
मुहावरा भी अब
अर्थ खो चुका है

पुरानी पड गयी है
ढोल की धमक भी

पर्वत कन्दराओं की भीत पर
उकेरे शब्द भी
अब सिर्फ
रेखाएं भर हैं

जिन्हें चिन्हित करना
तुम्हारे लिए वैसा ही है
जैसा ‘काला अक्षर भैंस बराबर’
भयभीत शब्द ने मरने से पहले
किया था आर्तनाद
जिसे न तुम सुन सके
न तुम्हारा व्याकरण ही


कविता में अब कोई
ऎसा छन्द नहीं है
जो बयान कर सके
दहकते शब्द की तपिश

बस, कुछ उच्छवास हैं
जो शब्दों के अंधेरों से
निकल कर आये हैं
शुन्यता पाटने के लिए !

3 मई,2011

Monday, May 16, 2011

कहीं खण्डित न हो जाये सौन्दर्य को उपजाने वाली चेतना

ओसामा के मारे जाने के समाचार से खुश होती दुनिया की खबरें अखबारों और दूसरे माध्यमों पर पिछले दिनों खूब छायी रही। तालिबानी विध्वंश की आक्रामकता की पराजय को देखने की ख्वाइश शायद हर सचेत नागरिक के भीतर थी। आतंक की परिभाषा को गढ़्ते बाजार की चकाचौंध दुनिया के प्रभाव में डूबे  लोगों की खुशी के बाबत तो क्या ही कहना। बल्कि कहा जाये कि जीवन में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप करते बाजार के प्रभाव के प्रतिरोध की धाराओं में बंटे लोगों के सामने एक संकट स्पष्ट रहा कि आक्रामकता के विरोध में सिर्फ़ व्यापारिक हितों की चिन्ता से भरे अमेरिका का क्या करें ? अपनी बात को बहुत साफ साफ दोनों ही तरह की  आक्रामकता को लक्षित करने की कोशिश में कई बार किसी एक के साथ दिख जाना हो जाता रहा। हाना मखमलबाफ़ की फ़िल्म   इस द्रष्टि से देखी जाने योग्य फ़िल्म है।  इरादों में  तालिबानी आक्रमता और मानवीय चिंताओं पर झूठी अमेरिकी संवेदनशीलता- जो बम वर्षकों का  बेहद दिल्चस्प खेल है, दोनों को ही लक्षित करती एक युवा फ़िल्मकार की फ़िल्म Budha collapsed out of shame एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है। बुध की करूणा में उसका संयोजन एक अनूठा प्रयोग  है। 

बाखती ! यदि घर जाना चाहती हो तो अभी मर जाओ।
यह किसी अमेरीकी सिपाही की सीख नहीं एक दोस्त की सीख है, अपनी हम उम्र दोस्त को जो तालिबानी आक्रामकता के खेल में निरीह अफगानी नजर आ रही है। वही दोस्त जिसकी हर कोशिश उस युद्ध से और युद्ध की आक्रामकता से बाहर निकलने की है। 
जीने के लिए मरना जरूरी है।  तालिबानी आक्रमकता को झेलने के बाद टूटी बोध गुफाओं में जीवन बिताते बच्चों के जीवन में तालिबानी होना भी एक खेल हो जाता है। कथा पात्र बाखती युद्ध के ऐसे खेल की बजाय जीवन को जगमगाने का खेल खेलना चाहती है। स्कूल जाना चाहती है। उस कहानी को फिर-फिर पढ़ना चाहती जिसको सुनना ही उसे लुत्फ देता रहा है। वही कहानी जिसमें एक आदमी पेड़ के नीचे लेटा है। हम उम्र और पड़ोसी अब्बास जिसको जोर-जोर से पढ़ता है। वही अब्बास जिसे तालीबानी होते बच्चे अमेरिका का प्रतीक बना देना चाहते है, बावजूद इसके कि बुद्ध की सी तटस्थता में वह शान्त बना रहता है। अमेरीकी होता हुआ कहीं दिखता ही नहीं।
युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ की फिल्म  Budha collapsed out of shame एक रूपक है। एक खेल है जिसे देखने से ज्यादा खेलने का मन करता है। तकनीक की दृष्टि से कहें चाहे कथ्य की दृष्टि से, बहुत ही लाजवाब फिल्म है। एक उम्दा वृत्तचित्र का सा सच उदघाटित करती।  तालिबानी दौर की आक्रामकता जिसमें खूबसूरत आंखों को आजादी नहीं कि दुनिया के खूबसूरत को मंजर को खुली आँखों से देख सके। बबलगम खाती बेफिक्र किस्म की स्त्री को कैद करना तो और भी जरूरी है। लिपिस्टिक अपने पास रखने वाली स्त्री को छूट नहीं दी जा सकती कि वह स्कूल भी जाए। ईश्वर के बताये रास्ते पर दुनिया को चलाने के लिए उन्हें कैद किया जाना जरूरी है। कोई अमेरीकी बम वर्षक नहीं आता मुक्त कराने पर एक खेल चलता रहता है। बाखती स्कूल के लिए निकली है। अण्डे बेचने की थकाऊ कार्रवाई के बाद भी पैसे हासिल नहीं हुए। अण्डों के बदले में जुटाई गई रोटी को बेचने के बाद ही नोट-बुक खरीदी जा सकी है। पेंसिल फिर भी नहीं। स्कूल का कायदा नोट-बुक के साथ पेंसिल भी ले जाने का है। माँ की लिपिस्टिक पेंसिल हो सकती है, यह कल्पना ही इस फिल्म को वह उछाल दे देती है कि फिर तो खेल खेल रह ही नहीं जाता।
हिंसा के खेल को बुद्ध की सहजता से पार पाने की युक्ति बेशक अतार्किक और अव्यवहारिक हो पर युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ जिस खूबसूरती से दृश्य रचती है उसमें खेल चरमोत्कर्स तार्किक परिणीति तक पहुँचता है। बाखती मृत्यु के आगोश में दुबक जाने को मजबूर है। हथियारबंद  तालिबानी गिरोह से मुक्ति आत्म समर्पण की युक्ति से ही संभव है। खास तौर पर ऐसे में जब चारों ओर एक घनीभूत तटस्थता छायी हो। चौराहे का सिपाही नियम के कायदे में बंधा बंधकों को छुड़ाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहा हो। बल्कि असमर्थता जाहिर करते वक्त भी उसके चेहरे पर जब कोई पश्चाताप या ग्लानी जैसा भाव भी मौजूद न हो। बस एक काम-काजी किस्म का व्यवहार ही उसको संचालित किये हो। मेहनतकश आवाम भी जब युद्धोन्मांद में फँसी लड़की की कातर पुकार पर तव्वजो देने की बजाय बहुत ही तटस्थता से बच्चों को दूसरी जगह जाकर खेलने को कह रहा हो। दूसरी जगह- जहाँ जारी खेल बेशक खूनी आतंक की हदों को पार कर जाए पर उनके काम में प्रत्यक्ष रुकावट डालने वाला न हो। मध्य एशिया में जारी हमले के दौरान अमेरीकी प्रतिरोध की दुनिया का कदम इससे भिन्न नहीं रहा है। और उसके चलते ही कब्जे की लगातार आगे बढ़ती कार्रवाई जारी है, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं।
एक मारक स्थिति से भरी कैद से निकल भाग स्कूल पहुँची लड़की को कक्षा में बैठने भर की जगह हासिल करने के लिए की जाने वाली मश्त अपने प्रतीकार्थ में व्यापक है। झल्लाहट और परेशनी के भावों को चेहरे पर दिखाये जाने की बजाय उदात मानवीय भावना से ताकती आंखों वाली बाखती अपने दृढ़ इरादों और खिलंदड़पन के साथ है। लिपिस्टिक पेंसिल की जगह नोट-बुक पर लिखे जाने के लिए प्रयुक्त होने वाली चीज नहीं, सौन्दर्य का प्रतीक है और इसी वजह से वह उस चुलबुली लड़की को अपनी गिरफ्त में ले लेती है जिसके नजदीक ठुस कर बैठी है बाखती। छीन-झपट कर हथिया ली गई लिपिस्टिक को बेशऊर ढंग से पहले वह अपने होठों पर लगाती है, फिर उतनी ही उत्तेजना के साथ बाखती के होठों को भी रंग देने के लिए आतुर है। उसके इस तरह झपटने से सौन्दर्य को उपजाने वाली चेतना खण्डित हो सकती है, मानवीय सरोकारों से भरी बाखती की अदायें इस बात का अहसास करा देती हैं। लिपिस्टिक बाखती की जरूरत नहीं, उसे तो एक अद्द पेंसिल चाहिए जो उन अक्षरों को नोट-बुक में दर्ज करने में सहायक हो जिसे अघ्यापिका दोहराते हुए बोर्ड पर लिखती जा रही है। बाखती लिपिस्टिक के उपयोग को भी जानती है और सौन्दर्य को कैसे सहेजता से उकेरा जा सकता है, वाकिफ है। तालीबानी अमेरीकी युद्ध खेलते बच्चों की कैद में फँसी सुंदर आँखों वाली लड़की के कागजी नकाब को उतार कर जिस अंदाज में उसने लिपिस्टिक के प्रयोग से उसकी सुदरता को और बढ़ा दिया था बिल्कुल उसी अंदाज में, चुलबुली लड़की के हाथ से लिपिस्टिक लेकर हौले-हौले वह उसके होठों पर, गालों पर सौन्दर्य की लाली के चकते छोड़ते हुए उसे सजाने लगती है। एक-एक कर कक्षा की हर लड़की को सजाकर सुंदरता का संसार रच देना चाहती है। बोर्ड पर अक्षर उकेरती अध्यापिका बेखबर है कि फैल जा रही लिपिस्टिक को थूक की लार से पोंछ-पोंछ कर तराश देने की कार्रवाई में जुटी बच्चियां अपने उस बचपन को छलांगती जा रही हैं जो दक्षिणपंथी उभारों से भरी तालीबानी दिनों के रूप में उनके जीवन का शुरूआती दौर है। तालीबानी विध्वंस के प्रतिरोध में यह दृश्य एक स्वाभाविक लय के साथ फिल्मांकित है।
तालिबानी बने बच्चों द्वारा अमेरिका के प्रतीक बना दिए अब्बास के प्रति बाखती की आत्मीयता बेहद मानवीय है। हाथ पकड़कर स्कूल पहुँचा देने का साथ भर। मुसीबत के वक्त मद्द की गुहार भर का। युवा फिल्मकार सचेत है और आत्मीय प्रेम के चालू मुहावरे में संबंधों को फिल्माने से बच निकलती है। जबकि उस तरह के संबंध पनपने की स्वभाविक गुंजाइश साफ-साफ हैं। यहां इस बात का उल्लेख इधर हाल के दिनों में आई उन हिन्दी की कहानियों के संबंध में करना मौजू है जिनमें कथा विन्यास को गूंथते हुए ऐसी स्थितियों तक पहुँचने की पकड़ में आ जाने वाली युक्तियां साफ दिखाई देती हैं। एक गम्भीर विषय को दैहिक विन्यास तक सीमित कर देने वाले विवरणों से भरे और लहराते पेटीकोटों की छायाओं से भरी ऐसी रचनाओं का संसार क्यों अराजक हो जाता है, युवा फिल्मकार मखमलबाफ की इस फिल्म से सीखा जा सकता है।           



विजय गौड़
  (jansandesh times में पूर्व प्रकाशित)

Sunday, May 15, 2011

विश्वास रखो, रास्ते में विश्वास रखो


पिछले साल 14 जुलाई, २०१० को जब बादल दा ८५ के हुए थे, हम में बहुत से साथियों ने  लिख कर और उन्हें सन्देश भेजकर जन्मदिन की बधाई के साथ  यह आकांक्षा प्रकट की थी कि वे और लम्बे समय तक हमारे बीच रहें . लेकिन परसों १३ जुलाई ,२०११ को वे हम सबसे अलविदा कह गए.  भारतीय रंगमंच के  क्रांतिकारी, जनपक्षधर  और अनूठे रंगकर्मी बादल दा को जन संस्कृति मंच लाल सलाम पेश  करता है.  उनके उस लम्बे, जद्दोजहद  भरे सफर को  सलाम पेश  करता है, जो १३ मई  को अपने अंतिम मुकाम को पहुंचा.  लेकिन हमारे संकल्प , हमारी स्मृति  और सबसे बढ़कर  हमारे कर्म में बादल दा का सफ़र कभी विराम नहीं लेगा. क्या उन्होंने ही नहीं लिखा था, "और विश्वास  रखो, रास्ते में विश्वास  रखो. अंतहीन रास्ता, कोइ मंदिर नहीं हमारे लिए. कोइ भगवान नहीं, सिर्फ रास्ता. अंतहीन रास्ता"  
     जनता का हर बड़ा उभार अपने सपनों और विचारों को विस्तार देने के लिए अपना थियेटर माँगता है. बादल दा का थियेटर का सफ़र नक्सलबाड़ी  को पूर्वाशित करता सा शुरू हुआ, जैसे कि मुक्तिबोध की ये अमर पंक्तियाँ जो आनेवाले कुछेक वर्षों में ही विप्लव की आहट को  कला की अपनी ही अद्वितीय घ्राण- शक्ति से सूंघ लेती हैं-
'अंधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि वह , बेनाम
बेमालूम  दर्रों के इलाकों में 
( सचाई के सुनहरे तेज़ अक्सों के धुंधलके में )
मुहैय्या कर रहा  लश्कर
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प्धर्मा चेतना का रक्ताप्लावित स्वर
हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट हो कर विकट हो जाएगा. 
  नक्सलबाड़ी के महान विप्लव ने जनता के बुद्धिजीवियों से मांग की कि वे जन -कला की क्रांतिकारी भूमिका के लिए आगे आएं.  सिविल इंजीनियर और  टाउन प्लैनर  के पेशे  से अपने वयस्क सकर्मक जीवन की शुरुआत  करने वाले बादल दा जनता की चेतना के  क्रांतिकारी दिशा में बदलाव के  किए तैय्यार करने के  अनिवार्य उपक्रम के  रूप में नाटक और रंगमंच को  विकसित करनेवाले अद्वितीय रंगकर्मी के रूप में इस भूमिका के  लिए समर्पित हो गए.  ”थर्ड थियेटर” की  ईजाद के साथ उन्होने  जनता और  रंगमंच, दर्शक और कलाकार की दूरी को  एक झटके  से तोड  दिया. नाटक अब हर कहीं हो सकता था. मंचसज्जा, वेषभूशा और  रंगमंच के  लिए हर तरीके  की विशेष ज़रूरत को उन्होंने  गैर- अनिवार्य बना दिया. आधुनिक नाटक गली, मुहल्लों ,चट्टी-चौराहों , गांव-जवार तक यदि पहुंच सका , तो  यह बादल दा जैसे महान रंगकर्मी की भारी सफलता थी. 1967 में स्थापित ”शताब्दी” थियेटर संस्था के  ज़रिए उन्होंने  बंगाल के  गावों में  घूम-घूम कर राज्य आतंक और गुंडा वाहिनियों के हमलों का खतरा उठाते हुए जनाक्रोश को  उभारनेवाले व्यवस्था-विरोधी  नाटक किए. उनके  नाटको  में नक्सलबाडी किसान विद्रोह का ताप था. 
     हमारे आन्दोलन  के नाट्यकर्मियों ने   खासतौर पर  १९ ८० के दशक में बादल दा से प्रेरणा  और प्रोत्साहन प्राप्त किया. वे  इनके बुलावे पर इलाहाबाद और  हिंदी क्षेत्र के दूसरे हिस्सों में भी बार बार आये, नाटक किए, कार्यशालाएं   कीं, नवयुवक  रंगकर्मियों  के साथ-साथ रहे , खाए , बैठे  और उन्हें  सिखाया.  जब मध्य बिहार के क्रांतिकारी किसान संघर्षों के इलाकों में युवानीति और हमारे दूसरे नाट्य-दलों पर सामंतों के हमले होते तो साथियों को जनता के समर्थन से  जो बल मिलता सो मिलता ही, साथ ही यह भरोसा और प्रेरणा भी मन को बल प्रदान करती कि बादल सरकार जैसे अद्वितीय कलाकार बंगाल में  यही कुछ झेल कर जनता को जगाते आए हैं.
    एबम इंद्रजीत, बाकी इतिहास, प्रलाप,त्रिंगशा शताब्दी, पगला घोडा, शेष  नाइ, सगीना महतो ,जुलूस, भोमा, बासी खबर और  स्पार्टाकस(अनूदित)जैसे उनके  नाटक भारतीय थियेटर को  विशिष्ट  पहचान तो  देते ही हैं, लेकिन उससे भी बडी बात यह है कि बादल दा के  नाटक किसान, मजूर, आदिवासी, युवा, बुद्धिजीवी, स्त्री, दलित आदि समुदाय के संघर्षरत लोगों के  साथी हैं, उनके  सृजन और संघर्ष में  आज ही नहीं, कल भी मददगार होंगे ,उनके  सपनॉ के  भारत के  हमसफर होंगे.
( प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी) 

Friday, May 13, 2011

अक्लांत कौरव



अरविंद शेखर
      ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित महाश्वेता देवी साहित्य-प्रेमियों के लिए कोई अनजाना नाम नहीं है। उत्पीडित, वंचित और शोषित लोगों के लिए सहानुभूति से भरा उनका लेखन स्वयं में एक मिसाल है। अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत जनता के संघर्ष को प्रमाणिकता के साथ, सटीक ढंग से प्रस्तुत करने में सफल रही है।
        अक्लात कौरव लघु उपन्यास उनकी अन्य प्रसिद्ध कृतियों जंगल के दावेदार, टैरोडिक्टल, 1084वें की मां, शालगिरह की पुकार पर, मास्टर साहब, श्रीश्री गणेश महिमा के क्रम में ही आता है। महाश्वेता देवी लगातार आदिवासी समाजों से जुडी रही है और उनके बीच कार्य करती रही हैं। उनके अन्य उपन्यासों की तरह अक्लात-कौरव के केंद्र मे पश्चिमी बंगाल का अत्यंत पिछडा इलाका चौबीस परगना और उसके आस-पास के क्षेत्र का आदिवासी समाज है।
        इस उपन्यास की कथा जायज संघर्षो में हारे लोगों की कहानी है जो स्वयं को संघर्ष के लिए पुन: तैयार कर रहे हैं। कहानी का समय सत्तर के दशक के नक्सलवादी आंदोलन के बाद का है। जबकि आंदोलन के असफल होने का बाद पश्चिम बंगाल में सी।पी।एम। के नेतृत्व वाला वाममोर्चा सत्तारूढ हो चुका है। यह उपन्यास बताता है कि किस तरह सत्तारूढ होने के बाद वाममोर्चा अपने प्रमुख चुनावी वादे भूमि-सुधर को पूरा करने में असफल ही नहीं हो जाता बल्कि यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश भी करता है। यही नहीं जनदबाब बढ़ने पर वहां की भूमि सुधर के नाम पर सिपर्फ छोटी जमीन के मालिकों को ही छेड़ा जाता है। जबकि बड़े जमींदार क्योंकि पाला बदलकर अब सी।पी।एम। को चंदा देने लगे है अत: पार्टी नेतृत्व उन्हें पूरा-पूरा संरक्षण देता है। परिवर्तन के नाम पर चुनाव जीत कर सत्ता में आई सरकार के यहां ग्राम जीवन में भी कोई परिवर्तन नहीं होता है, बल्कि पुराने संपत्ति-शाली वर्ग की सत्ता ही कायम रहती है। बदलता है तो सिर्फ झंडा- तिरंगे के स्थान पर लाल। लेखिका के शब्दों में- ''चूड़ामणि जैसे लोग समाज के प्रतिष्ठित अंग है। सरकारें आती है, सरकारें जाती है, चूड़ामणियों का कुछ नही बिगड़ता ।" निर्वाचित प्रतिनिधि सामंत पर टिप्पणी करते हुए वह कहती हैं-''शासकदल के निर्वाचित नेता के तौर पर सामंत जागुला में सभी को दबा कर रख सकते है, कलकत्ता में वह संभव नहीं है। जागुला के विरोधियों से सामंत नहीं डरता। गुप्त समझोते में उन्होंने जागुला का बंटवारा उसके नाम पर कर दिया है। वास्तव में शहर, अभी उनके गुण्डे-मस्तान-ठेकेदार-व्यापारियों के कब्जे में है। इस शासन से सभी खुश है। मनमाना मुनाफा लूटा जा रहा है, मनमानी गुंडागर्दी चल रही है। मनमानी कीमतें बढाई जा रही है, कालाबाजारी जोरों पर है। इसके बाद भी इस शासन का पतन कौन चाहेगा, क्यों चाहेगा सामंत सोच भी नहीं पाता।"
        अक्लांत कौरव की कथा छोटी सी, परन्तु बहुत सी कड़वी सच्चाईयां उजागर करती है। इस कथा का नायक इंद्र सी।पी।एम। का एक ईमानदार कैडर है। वह पहले मजदूर संगठन में कार्य कर चुका है तथा अब ग्रामीण क्षेत्रा में कार्य करना चाहता है। लेकिन जब वह आदिवासी संथालों के बीच पहुंचता है तो पाता है कि भूमि सुधर का आपरेशन बर्गा लुंज-पुंज ढंग से चल रहा है। यहां तक कि उनकी पार्टी का निर्वाचित प्रतिनिधि सामंत भी आपरेशन बर्गा को सफल नहीं होने देना चाहता। और उसने भ्रष्ट पुलिस और प्रशासन से भी एक नापाक गठजोड़ कायम कर लिया है। इस सबके चलते अपने अधिकारों और मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित ग्रामीणों की हालात बद से बदतर हो गयी है। ये वे ही आदिवासी है जिनकी संघर्ष की एक लम्बी परंपरा रही है। विरसा मुंडा, सिंधु कानू के ये वंशज अपना संघर्षशील चरित्र छोड़ दें इसलिए उनके बीच एक अध्येता बुद्धिजीवी द्वैपायन सरकार को प्रवेश कराया जाता है। द्वैपायन सरकार दिल्ली में स्थित विदेशी देशों से धन लेकर चलने वाले एक फाउंडेशन से संबंद्ध है। द्वैपायन सरकार आदिवासियों को कायरता तथा संघर्ष से विरत रहने का पाठ ही नहीं पढ़ाना चाहता बल्कि वह सिद्ध कर देना चाहता है कि संथाल एक डरपोक व लालची कौम है। परन्तु अपने इस षडयंत्र में वह सफल नहीं हो पाता, भले ही उसे सत्ताधरियों का पूरा सहयोग प्राप्त होता है।
        इंद्र को अपने प्रवास के दौरान नक्सलवाडी के दिनों के ईमानदार नेता कालीबाबू  के विषय में पता चलता है कि जिनकी सामंत की शह पर पुलिस ने निगर्म हत्या ही नहीं कर दी थी बल्कि इस तथ्य को छुपाने की पूरी कोशिश आज भी जारी है। इंद्र को इस पर सहसा विश्वास नहीं होता और व काफी समय तक वह सही गलत के अंर्तद्वन्द का शिकार रहता है। एक तरफ पार्टी के सिद्धांत और दूसरी तरफ नेतृत्व की काली करतूतें। पर अंत में उसका विश्वास गहरा होता जाता है। जब सामंत और पार्टी नेतृत्व उसे व उसके साथियों को संघर्ष से दूर रहने के लिए शांति का पाठ पढ़ाता है। यहां तक कि जब वह भूमिहीन मजदूरों के लिए मजदूरी की सरकारी दरें लागू करवाने हेतु आंदोलन करता है तो इस भटकाव कहा जाता है। और उसे उत्पीड़क पुलिस प्रशासन से सहयोग करने को कहा जाता है। इतना ही नहीं वरन जायज हकों की बात करने पर उस पर नक्सली होने जाने का आरोप लगाया जाता है। इस तरह वह अपने अंर्तद्वन्द से मुक्त होता जाता है और सच्चाई की राह पर अग्रसर होता जाता है। आदिवासी भी उस पर आसानी से विश्वास नहीं करते पर उसकी ईमानदारी तथा उत्पीडितों के प्रति पक्षधरता के कारण वे उसे पहचान लेते है, और जान लेते हैं कि वह उनका सच्चा हितैषी है।
        यही अक्लांत कौरव की कथा है जो धीरे-धीरे पश्चिमी बंगाल के बहुप्रचारित भूमि-सुधरों के ढोल की पोल खोलते हुए, सत्ताधरियों के चरित्र की बखिया उधेडते हुए आगे बढती है। बांग्ला से अनुदित होने के कारण संभवत: यह मूल उपन्यास का सा आनन्द न दे परन्तु अपने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तेवरों के कारण यह पठनीय ही नहीं अपितु संग्रहणीय है।

Monday, May 9, 2011

सार्वभौमिक-आंचलिकता का परिवेश से क्या संबंध है


दांये या बांए बेला नेगी की पहली फिल्म है। हिन्दी फिल्म होते हुए भी उसमें एक खास किस्म की आंचलिकता बिखरी हुई है। उसे आंचलिक फिल्म कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। न सिर्फ उत्तराखण्ड की भौगोलिक पृष्ठभूमि में रचा गया उसका विन्यास अपनी विशिष्टता के साथ है बल्कि गढ़वाली और कुमांउनी लहजे में बोली जाती हिन्दी भाषा में रचे गये संवाद उसे दूसरी हिन्दी फिल्मों से अलग किए दे रहे हैं। यहां यह सवाल बेशक हो सकता है कि हिन्दी की प्रकाशित रचनाओं में आंचलिकता के पैमाने तो पात्रों के संवाद को कथा पृष्ठभूमि की भाषा में होने पर भी उसे हिन्दी की रचना ही मानने वाले हैं तो माध्यम का फर्क भर होने से दांये बांऎ को सिर्फ हिन्दी फिल्म क्यों नहीं माना जा सकता ? वैसे यहां रेणु के उपन्यास मैला आंचल को आंचलिक उपन्यास कहने वाले तथ्य भी हैं। अपने कथ्य और भाषा से ही नहीं बल्कि एक विशिष्ट भूगोल के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से जूझते रचनाकार की प्रतिबद्धता की स्पष्टता रेणु के मेला आंचल को आंचलिकता का एक तर्क देती है। यहां आंचलिकता अपने अन्तर्निहित अर्थों का निषेध करते हुए ज्यादा व्यापक और सार्वभौमिक हो उठती है। वैसे दांये या बांए फिल्म को प्रथम दृष्टया एक निश्चित भू-भाग से भरे दृश्य में देखना तो फिल्म के प्रभाव को सीमित कर देने वाला भी लग सकता है या फिर फिल्मकार का अपने भूगोल के प्रति अतिश्य मोह भी उसे कहा जा सकता है। उपभोक्तावाद से ग्रसित सम्पूर्ण समाज को उत्तराखण्ड की खिलंदड़ी भाषा और बेढब भूगोल तक सीमित मानते हुए पारम्परिक अर्थतंत्र की वकालत तो वैसे भी संभव नहीं है, इसमें दो राय नहीं। पर सवाल फिर भी है कि उसी विशिष्ट भूगोल पर केन्द्रित हिन्दी फिल्म राम तेरी गंगा मैली और बेला नेगी की दांये या बांए में वह मूलभूत अंतर क्या है जो दोनों ही फिल्मों में पहाड़ी उबड़ खाबड़ रास्तों पर समान रूप से दौड़ते कैमरे को भिन्न बना देता है ? स्पष्ट है कि राम तेरी गंगा मेली में झरनों और पहाड़ों की उपस्थित एक ऐसा सौन्दर्य रचती है जो जीवन के उबड़-खाबड़पन को ढक देता है। लेकिन दांये या बांए में उसका सौन्दर्य चक्करदार रास्तों पर दौड़ती मोटर में बैठी सवारी को हो जाने वाली "कै" को न सिर्फ यथावत रखता है बल्कि शहरी बुनावट में विकसित हुई मानसिकता पर व्यंग्य भी करता है। दृश्यों की जीवन्तता और संवादो की मारक भाषा में वह विशिष्ट भूगोल पूरी फिल्म का कथ्य ही हो जाता है।
मुम्बई के लिए आज भी बम्बई उच्चारित होते उस भूगोल में लौट कर स्कूल की अध्यापकी कर रहे रमेश मांजिला पर व्यंग्य करती छात्रों की पहाड़ी लटकन वाली भाषा में कहा गया संवाद- पेट अन्दर सीना बाहर, तन कर बैठो, एक मात्र उदाहरण नहीं है बल्कि बहुत सी ढेरों स्थितियां हैं, जहां उस कथ्य को पकड़ा जा सकता है जो फिल्म को आंचलिक बना दे रहे हैं। अंचल विशेष के समाज के भीतर व्याप्त वर्तमान चुंधियाती दुनिया की तस्वीर पूरी फिल्म में बहुत स्पष्ट है। प्रतिरोध की भाषा का व्यंग्यात्मक रूप दृश्यों को जीवन्त बनाने वाला है। संवादों की भाषा का वह लालित्य जो गढ़वाली और कुमांउनी लहजे में बोली जाती हिन्दी के साथ शायद किसी अन्य भूगोल में मिस्फिट हो जाता, उत्तराखण्डी भाषा के उस रूप को रख देता है जो जन के बीच ज्यादा स्वीकार्य और एकेडमिक बहसों से बाहर है। हाल ही में उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा आयोजित तीन दिवसीय लोकभाषा कार्यक्रम में हुई चर्चाओं के दौरान उभरी राय के आधार पर कहना पड़ रहा है कि उत्तराखण्ड की लोक भाषाओं को गढ़वाली कुमांउनी तक सीमित कर देने की मानसिकता एक अतार्किक जिद्द है। दांये या बांये की भाषा का लोक तत्व ज्यादा प्रभावी और प्रचलित रूपों के साथ है। अभिव्यक्ति में ज्यादा ग्राहय उस भाषा को हाल में हुए लोकभाषा के आयोजन के बीच शुद्धिकरण की मानसिकता ने बेशक हिकारत के साथ रखने की चेष्टा की है पर अपने वक्तव्यों के प्रस्तुतिकरण में वक्ता स्वंय उसके उपयोग से खुद को भी बचा न पाये। उत्तराखण्ड में निर्मित हुई अभी तक की आंचलिक फिल्मों में भाषा के स्तर पर यह अनूठा प्रयोग उल्लेखनीय है। आंचलिकता के नाम पर शुद्ध रूप से गढ़वाली भाषा में निर्मित फिल्मों में, सिर्फ पहली गढ़वाली फिल्म जग्वाल को यदि हटा कर देखें, तो पात्रों की वेष भूषा और चाल ढाल ही नहीं उनके बनावटी ठसाव में एक असंगत किस्म का बेमेल रहा है। हाल-हाल में प्रदर्शित याद आली टिहरी भी, जिसे यूं तो काफी लोकप्रियता मिली, इस तंग दायरे से बाहर न रह पायी जबकि उसमें भी मुख्य पात्र वैसी ही शहरी मानसिकता के साथ है जैसा कि दांये या बांये का पात्र रमेश मांजिला। भाषायी आग्रहों की जिद्द में एक पिलपिले किस्म की भावुकता अभी तक की उत्तराखण्डी आंचलिक फिल्मों की एक कमजोरी रही है जिसे दांये या बांये पाटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। सामाजिक स्तर को परिभाषित करने में उसके संवाद ज्यादा स्वभाविक हैं जो लिखे जाते हुए तो खड़ी बोली हिन्दी के करीब दिखायी देते हैं पर पात्रों के मुंह से सुनते हुए जिनका लोकरंग स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है। ठेठ पहाड़ी स्त्रियों की आपसी बातचीत के संवादों की एक बानगी कुछ इस तरह है-
शहर की जिन्दगीी भागा दौड़ी की ठहरीीी।
यहां "ठहरी" का किया गया उच्चारण उस स्वाभाविक लय में है कि उसे कहीं से भी खड़ी बोली हिन्दी का संवाद नहीं कहा जा सकता।
यहां तो खाना बनायाऽऽ, घास काटाऽऽऽ फिर खाना बनायाऽऽऽऽ।
कहानी के स्तर पर फिल्म में उन सभी स्थितियों पर व्यंग्य बहुत गाढ़ा है जो सैलानी मानसिकता से पहाड़ की समस्या को देखने जानने और उसके निदान के लिए किये जाते प्रयासों के रूप् में दिखायी देते हैं। एन0जी0ओ0 किस्म की आर्थिक गतिविधियों से संचालित उद्यमिता भी निशाने पर है। फिल्म की खूबसूरती इस बात में है कि सब कुछ बहुत ही स्वाभाविक और बिना वाचाल हुए प्रकट होता है। बाज दफा तो इतना सहज कि दर्शक सिर्फ दृश्य की स्वाभाविकता में ही टिका रह जाता है और अन्य अर्थों तक जाने की जरूरत ही नहीं समझता। पहाड़ का भूगोल सिर्फ काव्य रचना के ही अनुकूल है यह मिथ रमेश मांजिला की मानसिकता में भी है। सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना के लिए उसकी हवाई बातों के इर्द-गिर्द ही फिल्म की कहानी आकार लेती है। चलताऊ मुहावरे में- पहाड़ो में यदि यहां का पानी और जवानी ठहर जाए तो पहड़ो का नक्शा बदल जाएगा, रमेश मंाजिला भी अपने तर्कों के साथ है और पहाड़ो के पीछे से एक नया सूरज उग रहा है जैसी आशावादी बातों से भरा उसका व्यक्तित्व जमीनी हकीकतों से दूर रह कर सोचने वाले बुद्धिजीवियों की छवी जैसा ही है। कक्षा में पूछे गये सवाल पर कि उसकी बातों का छात्र-छात्राओं पर क्या प्रभाव है ? एक छात्रा का बहुत ही स्वभाविक जवाब- स्ार आप बम्बई से आए हो, दर्शकों को गुदगुदाने लगता है। पेट अन्दर, सीना बाहर, तन के बैठो दोहरा-दोहरा कर छात्रों द्वारा बोला जाने वाला रमेश मांजिला का संवाद क्या सिर्फ बच्चों की स्वाभाविक चंचलता का नमूना है ? इससे व्यंजित होता वह अर्थबोध जो व्यापक शहरी मध्यवर्गीय मानसिकता में इस दौर में ज्यादा घ्ार करता गया, क्या इसके निशाने में नहीं? योग और ध्यान से गम्भीर किस्म के रोगों की चिकित्सा की सीमाएं दरवाजे की चौखट से टकरा जाते रमेश मांजिला को सिर पकड़ लेने को मजबूर करते दृश्य में दिखायी दे जाती है।     

भौर का सांझ का आग उमंग
आस का प्यार का लाल है रंग

ईंट का पान का भी लाल है रंग।

गाड़ी आ गयी तो जंगल जाने वाली स्त्रियों के दिन फिर गये।
बकरियां ले जानी है तो गाड़ी पर लादा जा सकता है उन्हें।


there are miles to go before we sleep

एक लड़का है जो घर के आगे से आती जाती गाड़ी पर पत्थर फेंकता है।

बछड़ा तो पत्थरों में अटका है और लाल गाड़ी का एक सही उपयोग होता है उस चोटी तक पहुंचने के लिए होता है। फिल्म यदि यहीं पर खत्म हो जाती तो ज्यादा व्यापक अर्थ देती। तमाम उपभौकतावद के विरूद्ध पारम्परिक उद्योग पर यकीन के साथ। क्यों यहीं पर वह दीपा दिखायी देती है जिसे अपने जीता यानी रमेश माजिला की उस जिन्स पर शर्म आती है जिस पर उसकी सहेलियां हंसती है और उसके जीजा का मजाक बनाती है। उससे आगे कांडा कला केन्द्र को दिखाने का कोई अर्थ फिल्म में दिखता नहीं। और न ही कोई ऐसा संकेत ही उभरता है जिससे वह खिलंदड़ पन जो पूरी फिल्म में बिखरा हुआ था कोई व्यंग्य पैदा करे।
विजय गौड़  
जनसंदेश टाइम्स( लखनऊ) में ८ मई २०११ को प्रकाशित

Sunday, May 8, 2011

पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है


मानव जीवन और पशु जीवन के बीच के आपसी रिश्तों के असंगत व्यवहार वाली पर्यावरणीय मानसिकता को जन्म दिया है। जंगलों और उसके आस-पास निवास करने वाले ग्रामीणों के लिए जंगल और पशु उनके आर्थिक आधार हैं, इस बात को ऐसे स्थानों पर रह रहे ग्राम वासी वर्षों से जानते हैं। लेकिन पर्यावरण की एकांगी समझ ने न सिर्फ मानवीय जीवन को ही दूभर बनाया हुआ है बल्कि जंगली पशुओं के प्रति एक झूठे प्रेम का ढकोसला रचा हुआ है। जंगलों के आस-पास निवास कर रहे ग्रामीणों का किस तरह से ऐसी ही मानसिकता से बने कानून के दायरे का शिकार होना पड़ जाता है इसका ताजा उदाहरण उत्तराखण्ड के रिखणीखाल इलाके में घटी हाल की घटना है। कानूनी दायरे ने मामले को इस कदर पेचीदा बना दिया है कि उत्तराखण्ड के विभिन्न इलाकों में पुलिस प्रशासन के खिलाफ आवाजें हर ओर सुनायी दे रही है। धरने प्रदर्शनों के लिए मजबूर जनता गिरफ्तार किये गये ग्रामीणों की रिहाई के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर हो रही है। विस्तृत सूचना के लिए विभिन्न पत्रों की रिपोर्ट की तस्वीरें यहां दी जा रही है। पर्यावरणीय मामले की पड़ताल करता डॉ सुनिल कैंथोला का आलेख एक सचेत नागरिक की चिन्ताओं के साथ है।
डा. सुनील कैंथोला








‘‘लामा जी उवाच’’
 ‘पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है।’ 
लामा जी अभी सिर्फ ढाई साल के हैं और रंग-बिरंगे चित्रों से भरपूर अपनी किताब से बारहखड़ी सीखने के खेल में जुटे रहते हैं। ये किताब लामाजी को दुनियां भर का ज्ञान बटोरने का अवसर प्रदान करेंगी, परन्तु यदि वे इस किताबी ज्ञान का ही सच मान लेंगे और अपने सामान्य ज्ञान को नजर अंदाज करेंगे, तो यह उनके लिए घातक भी हो सकता है। जैसे किताबें कहेंगी कि भोजन चक्र के अनुसार बाघ का भोजन वनों के शाकाहारी प्राणी हैं, तो यह लामाजी व उनकी किताबों के लिए एक क्रूर मजाक ही होगा। क्योंकि उत्तराखंड में बाघ बच्चे भी खाता है और उनकी माताओं को भी। ऐसा बहुत पहले से होता आ रहा है। तार्किक आधार पर यह भी कह सकते हैं कि ऐसा तो उस समय से होता आ रहा है, जब जंगलों में बाघ के प्राकृतिक आहार की कोई कमी न थी और भोजन चक्र में बाघ के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध हुआ करता था। ’’मैन ईटर आॅफ रुद्रप्रयाग’’ में जब जिम कार्बेट उस बाघ का किस्सा लगाते हैं, जो तीर्थयात्रियों से भरी एक झोपड़ी के भीतरी कक्ष से एक स्थानीय महिला को उठाकर ले जाता है, तो क्या यह ये इंगित नहीं करता कि उत्तराखंड के बाघों के भोजन चक्र का हिस्सा यहां की महिलाएं बन चुकी थी।
वन्यजीव शास्त्री संभवतः इसे हंसी में उड़ा दें, किन्तु वन्यजीव शास्त्र अभी इतना परिपक्व भी नहीं हुआ है। फिर इसे साबित करने के लिए मात्र वन्यजीव शास्त्रियों के पुस्तकालयों और शोधपत्रों को खंगालने मात्र से ही समस्या का समाधान नहीं होने जा रहा है। निश्चित रूप से वन्यजीव शास्त्र को इस विवाद में शामिल किए जाने की आवश्यकता है, किंतु समग्र रूप में यह सवाल राजनैतिक है।

मैं अपना तर्क इस स्थापना ;हाइपोथीसीस से शुरू करता हूं कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ के भोजन चक्र में स्थानीय महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। इसके पक्ष में मुझे आंकड़े प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं लगती, क्योंकि यह सर्वविदित है कि बाघ लगातार हमारे बच्चों और महिलाओं को दबा रहा है। ऐसा तब से है, जब वनों में उसके लिए प्रचुर आहार मौजूद था। ऐसा कहा जा सकता है कि बूढ़ा अथवा घायल बाघ ही नरमांस का भक्षण करता है। तब भी बात वहीं की वहीं रहती है, क्योंकि हर बाघ यदि घायल न भी हो तो बूढ़ा तो होगा ही अर्थात् बाघ जब बच्चा होता है, तो मां का दूध पीता है, जवानी में हिरन वगैरह खाता है और बुढ़ापे में हमारे बच्चों और महिलाओं को अपना निवाला बनाता है। ऐसा संभवतः इसलिए भी हो कि विकट पहाड़ में हिरन का शिकार मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अधिक श्रमपूर्ण हो, अन्यथा न लिया जाए तो मैदानी तथा पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ द्वारा हिरन के आखेट में कुल ऊर्जा ;कैलोरी व्यय पर तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी कोई बुरी बात न होगी।
बहरहाल! मैं पुनः बाघ के भोजन चक्र में शामिल हो चुके अपने पहाड़ों के बच्चों तथा महिलाओं के प्रश्न पर आता हूं। समाचार पत्रों में नरभक्षी बाघों के आंतक की घटनाएं लगातार छपती आ रही हैं। इन्हें नरभक्षी ;मैन ईटर कहना भी उचित न होगा, क्योंकि उत्तराखंड के बाघ नर का भक्षण नहीं करते। वे अपने भोजन चक्र को लेकर बहुत ही चूजी हैं। उन्हें सिर्फ महिलाएं और बच्चे ही चाहिए। चंूकि पहाड़ के अर्थतन्त्र की रीढ़ कहे जाने वाली महिला और भविष्य कहे जाने वाले बच्चे राजनैतिक रूप से हाशिए पर हैं। अतः देश में बाघ के  संरक्षण के नाम पर उनका बाघों का भोजन बन जाना कोई बड़ा सवाल पैदा नहीं करता।
इन्हीं क्षेत्रों में हमारे भाई लोग भी तो शाम को झूमते हुए निकलते हैं। कभी ज्यादा हो जाए, तो कहीं थोड़ा बहुत आराम भी कर लेते हैं। रसोई में खाना बनाती महिला के सामने से उसके बच्चे को उठा ले जाने के तो अनेक किस्से मिल जाएंगे, पर ऐसा नहीं सुना कि रास्ते में टुन्न पड़े अपने किसी भाई पर बाघ ने हमला कर दिया हो। शायद बाघ उसे सूंघ कर या उस पर कुछ कर के चला जाए, पर उसे हानि नहीं पहुंचाएगा। इससे कुछ लोग यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बाघ संभवतः शराब विरोधी आन्दोलन के सदस्य होते हों।
किन्तु इस विषय पर चर्चा करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है। यहां तो मैं मात्र अपने महान देश के विकास और संरक्षण के लिए अर्पित अपने समुदाय की बात निम्न बिन्दुओं के आधार पर रखने का प्रयास कर रहा हूं। 

1. उपलब्ध आंकड़े और ज्ञात इतिहास यह इंगित करते हैं कि महिलाएं और बच्चे बाघ के भोजन चक्र का हिस्सा बन सकते हैं।

2. अपना उत्तराखंड बन जाने के बाद भी हमारे सैकड़ों बच्चे और महिलाएं बाघ का शिकार बनी हैं। किसी गांव में आक्रोशित जनता द्वारा पिंजड़े में कैद बाघ को जलाया जाना निश्चित रूप से गैर कानूनी है, पर महानगरों में बैठे पर्यावरण प्रेमियों के बच्चे और महिलाएं बाघ के आतंक से महफूज हैं और पर्यावरण प्रेमी, पहाड़ की महिलाओं और बच्चों की त्रासदी से अनजान हैं।

3. बाघ नरभक्षी नहीं अपितु महिला एवं बालभक्षी होता है। कम से कम उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में तो यह तथ्य स्वीकार करना ही पड़ेगा, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि नरभक्षी बाघ होते ही नहीं हैं। हमारे यहां वे भी पाए जाते हैं, किन्तु मनुष्य के रूप में। ये संख्या में कम हैं, पर दबंग हैं। इन पर अभी हाल ही में कुलानन्द घनसाला ने ’मनखी बाघ’ के नाम से एक नाटक भी खेला था। ये कई रूपों में और व्यवसाय में मिल जाएंगे। ये अभी हाल ही में बड़ी तेजी से फले-फूले हैं। इन पर उंगली उठाना अपने को ‘विनायक सेन’ बनाना है। इनकी कचहरी में बाघों का आंतक कोई मुद्दा नहीं है। इसीलिए उत्तराखण्ड की महिलाओं और बच्चों का बाघ से मुक्ति का फिलहाल कोई रास्ता नहीं है।

4. ऐसा नहीं कि बाघों को संरक्षण की आवश्यकता नहीं। वे उत्तराखण्ड की जैव विविधता का अभिन्न अंग हैं, किन्तु इनको बचाने की प्रक्रिया में कहीं तो कोई खोट है। इस बारे में सूचना के अधिकार का उपयोग करके बहुत कुछ सामने लाया जा सकता है कि कहीं सर्कस के बाद तो यहां नहीं छोड़े या नरभक्षी की समस्या को सरकारी विशेषज्ञ किस स्तर पर देखते हैं। शायद कभी कोई सिरफिरा सवाल पूछने की हिम्मत करे वरना ज्यादातर संस्थाएं तो पर्यावरण संरक्षण में ही जुटी हैं, क्योंकि फिलहाल पैसा उसी के लिए आ रहा है।

5. टाईगर बचाने के लिए टास्क फोर्स बन सकता है, तो हमारे बच्चे बचाने के लिए क्यों नहीं? यहां तात्पर्य वन कर्मियों को तोप तमंचे से लैस करने का नहीं, अपितु नरभक्षी होने के कारणों पर विशेषज्ञ समिति के गठन से है।

5. इस लेख के माध्यम से मैं उत्तराखण्ड पुलिस का हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहता हूं, जिन्होंने धामधार गांव की श्रीमती बिल्ला देवी को तब तक गिरफ्तार नहीं किया, जब तक वे जंगल से घास काट कर नहीं लाई और अपने पशुओं के चारे का इंतजाम कर सकी। श्रीमती बिल्ला देवी भी बाघ को जलाने की आरोपी हैं। भाईसाब, ऐसी दरियादिली और मानवता तो अपने देवभूमि उत्तराखण्ड की पुलिस में ही हो सकती है। उत्तर प्रदेश की बात होती, तो आसपास के 5-7 गांव के लोग गिरफ्तार कर लिए जाते और वो सब कबूल भी कर लेते कि ’ हां साब बाघ हमने जलाया है’। ये हुआ अपना प्रदेश बनाने का फायदा।

रीजनल रिपोर्टर से..

Tuesday, May 3, 2011

आदत हो चुके ढकोसले



अपने लिखे या कहे की सत्यता पर तर्क करना, दृढ़ रहना एक बात है लेकिन उसे अन्तिम सत्य मान लेना, दूसरी बात। यह दूसरी बात ही है जो विवादों को जन्म देती है। आरोप और प्रत्यारोप का मैदान इसी की चौहद्दी में फलता फूलता है। यह बात मैं उस कविता पर बात करने के लिए कह रहा हूं जिसे पिछले दिनों अशोक ने फेस बुक पर लगाया। कवि बोधिसत्व की कविता- अब जबकि जान गया हूं।  कविता के प्रस्तुतिकरण का शीर्षक और उस के पक्ष में दर्ज अशोक की टिप्पणी के आधार पर कविता के पाठ में आ रही दितों को असहमति के रूप में दर्ज करने का मन हुआ था। इधर हिन्दी साहित्य की बिगड़ैल प्रवृति में जो खतरा दिखाई देता है, उसका शिकार हो जाने की आशंकाओं ने बहुत संभलकर लिखने की हिदायत दी थी, जिसका अक्षरस: पालन न कर पाने का खामियाजा भुगतना ही पड़ा। टिप्पणी पर रचनाकार बोधिसत्व की व्यंग्योक्ति से भरी प्रतिक्रिया का जवाब फेस बुक में दिया जाना संभव न लगा।
 

चींटियों को पिसान्न डालने से मोक्ष का कोई द्वार नहीं खुलता
(कवि अग्रज बोधिसत्व की यह कविता मैंने असुविधा पर भी लगाई थी...इस कविता में मुझे जो खास लगा वह यह कि कोई प्रगतिशीलता मनुष्यता के बिना सम्पूर्ण नहीं. जो मानवीय गुणों और व्यवहार से च्युत है वह किसी समाज के लिए आधुनिक या क्रांतिकारी नहीं हो सकता. अक्सर परम्परा को आधुनिकता के नाम पर खारिज कर दिया जाता है...लेकिन यह कविता कबीर के सार-सार को गहि रहे वाले विवेक से परम्परा के मानवीय पक्षों को बचा ले जाने की वकालत करती है)
अब जबकि जान गया हूँ
 

जबकि जान गया हूँ
चींटियों को पिसान्न डालने से मोक्ष का कोई द्वार नहीं खुलता
तो क्या चींटियों को पिसान्न डालना रोक दूँ।

जबकि जान गया हूँ
बाझिन गाय को चारा न दूँ
खूंटे से बाँध कर रखूँ या निराजल हाँक दू दो डंडा मार कर
वध करूँ मनुष्य का या पशु का
कोई नर्क नहीं कहीं
तो क्या उठा लूँ खड्ग

जबकि जान गया हूँ कि क्या गंगा क्या गोदावरी
किसी नदी में नहाने से
सूर्य को अर्ध्य देने से
पेड़ को जल चढ़ाने से
खेत में दीया जलाने से कुछ नहीं मिलना मुझे
तो गंगा में एक बार और डूब कर नहाने की अपनी इच्छा का क्या करूँ
एक बार सूर्य को जल चढ़ा दूँ तो
एक बार खेत में दिया जला दूँ तो
एक पेड़ के पैरों में एक लोटा जल ढार दूँ तो


जबकि जान गया हूँ आकाश से की गई प्रार्थना व्यर्थ है
मेघ हमारी भाषा नहीं समझते
धरती माँ नहीं
तो भी सुबह पृथ्वी पर खड़े होने के पहले अगर उसे प्रणाम कर लूँ तो...
यदि आकाश के आगे झुक जाऊँ तो
बादलों से कुछ बूँदों की याचना करूँ तो

जबकि जान गया हूँ
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ
देवता तो क्या मनुष्य भी नहीं बचे हैं अब
तो भी यदि अपनी पत्नी को देवी मान कर पूजा कर दूँ तो
अपनी माँ को जगदम्बा कह दूँ तो

जबकि जान गया हूँ
अन्न कोई देव नहीं
उसे धरती को जोत-बो कर उगाते हैं लोग
किंतु यदि कौर उठाते शीश झुका दें तो

ऐसा बहुत कुछ है
जो न जानता तो पता नहीं क्या होता
लेकिन अब जो जान गया हूँ तो
क्या करूँ..... पिता
क्या करूँ गुरुदेव
क्या करूँ देवियों और सज्जनों
अपने इस जानने का
vijay: "क्या करूँ देवियों और सज्जनों
अपने इस जानने का" yahi tou sankat hai is duniya ka ki ek vaigyanik jo jaan raha hota hai ki chhoda ja raha upgrah yadi kinhi karano se apni kasha tak nahi pahunch paayega tou zaroor koi kharabi aajane ki wajah... se hi esa hua par use chhode jane se pahle nariyal phodne ka anushthan karte hue wah apni asfalta ke prarambh ke maafiname ke liye juta hota hai. mareej ka ilaj sirf marj ki pahchan aur sahi aushdhi se ho sakta hai yah jaane wale bhi upar wale ke bharoshe ki baat karta hai, na jane kitne uddaharna hai. aapka janna unse alag kahan hai bodhi ji, dekh nahi paa raha hu. sirf kavita me kah dene bhar se mukat ho jaana ek suvidha se jyada kuchh nahi. kavita ek kharab awdharna ko bhi pusht kar ahi hai, mujhe tou yahi lag raha hai. ummeed hai itni tareefo ke beech is ek asahamati ko anytha nahi lenge. jo laga kaha.

बोधिसत्वमैं क्या कह सकता हूँ.....विजय भाई. कमप्यूटर की दूकान का उदघाटन अगरबत्ती के धुएँ और आरती के बीच करनेवाले लोग हैं समाज में। गोर्की ने लिखा है कि ढाई हजार हार्सपावर का जहाज पादरी के आशीष और पूजादि के बाद पानी पर चलाया गया। यह कैसी वैज्ञानिकता ...है। और व्यक्तिगत रूप से मैं भी जानता हूँ कि भुना हुआ गेहूँ चाहे आप कहीं भी बो दें नहीं उगेगा। अगर कविता एक खराब अवधारणा को पुष्ट करती है तो बहुत अच्छा नहीं करती। आगे कोशिश करंगे कि किसी क्रांतिकारी अवधारणा की पुष्टि करने वाली कोई कविता लिख पाऊँ। आप का काव्यास्वाद इस कविता ने बिगाड़ा यह अपपराध क्षमा करें। आगे गलती न करने की कोशिश करूँगा....
बोधिसत्व: "आगे कोशिश करंगे कि किसी क्रांतिकारी अवधारणा की पुष्टि करने वाली कोई कविता लिख पाऊँ।" 
vijay:  jwab shraratpurna hai bodhi bhai, lagta hai dostana rai aapko pasand na aayi. Khair.
बोधिसत्व: सचमुच अच्छा लगा विजय भाई लेकिन खराब अवधारणा को पुष्ट करने वाली बात को थोड़ा सा समझा दें....मुझे सचमुच नहीं समझ आया....
मैं राह देख रहा हूँ...देखूँगा.....बिना नाराज हुए....
vijay:  kya zaroori hai abhi hi darj karu ? yadi kahenge tou vistar se likhunga
kavita ko save kiye le raha hu, dusri any rachnao par jinse asahmati ubharti rahi hai, baat karte hue jikar karne ki koshish karunga, aalekh aapko bhi mail kar dunga. kab likh payunga abhi nahi kah sakta, haa likhunga zaroor

 

बोधिसत्व: अगली गलती करूँ कि उसके पहले कुछ समझा दो भाई...यहाँ कुछ संक्षेप में ही कह दो...कौन जीता है तेरी जुल्फ सके सर होने तक...
vijay: "सूर्य को अर्ध्य देने से
पेड़ को जल चढ़ाने से
खेत में दीया जलाने से कुछ नहीं मिलना मुझे...

तो गंगा में एक बार और डूब कर नहाने की अपनी इच्छा का क्या करूँ
एक बार सूर्य को जल चढ़ा दूँ तो
एक बार खेत में दिया जला दूँ तो
एक पेड़ के पैरों में एक लोटा जल ढार दूँ तो" is tou ke baad ka rth
hai tou kya ho jayega, yahi na. yahi kya ho jayega tou wahan bhi hai ki "कमप्यूटर की दूकान का उदघाटन अगरबत्ती के धुएँ और आरती के बीच करनेवाले लोग हैं समाज में।" kahir aapke wyangy ko mai kinhi any artho me nahi le raha hu . wyangy se parhej nahi yadi usme wyaktigat aham aur dusre ko dhool chatane ki sweekarokti na ho tou. aapka wyangy dhool chatata hua. afsos hai mujhe jo tippni dene ki himakat ki. yah aap akele ki dikkat nahi hai bodhi bhai. apr mera aasay kabhi bhi vivad paida karne ka nahi raha hai. aapko lutf aaye tou bhi ab aage mujhe yahan kahna uchit nahi lag raha.
बोधिसत्व: मैं आपकी पहली बात से सहमत हूँ....वह व्यंग नहीं आपके कथन का समर्थन था....अगर आप कुछ न कहना चाहें तो बात अलग है....उसके लिए आप कोई भी राह चुन सकते हैं....

''मात्र आदत हो चुके ढकोसलों में लगभग विलुप्त हो चुकी भावना का सतर्क शोध करती" यह कविता जिस बिन्दु से शुरू होती है वहां स्पष्ट एक चुनौति है। एक ऐसी चुनौति जिसमें हुंकार है, गर्जना है और दम्भ। ये तीनों क्यों हो ? गर्वोक्ति से भरी इन पंक्तियों के उत्स क्या हैं ? उनके निहितार्थ क्या हैं ? ये कुछ सवाल हैं जिनके दायरे में ही पाठ को खोला जाना संभव हो सकता है।

जबकि जान गया हूं
चीटिंयों को पिसान्न डालने से मोक्ष का द्वार नहीं खुलता
तो क्या चीटिंयों को पिसान्न डालना रोक दूं।


कविता के उत्स का जो अपना तर्क शास्त्र है, स्पष्ट है कि जो कुछ आदत हो चुके ढकोसलों में किया जा रहा था, उसकी निरर्थकता को जान भी लिया है तो भी उसे दुनिया के बदलाव की किसी भी गतिविधि को आगे बढ़ाते रहने में क्या फर्क पड़ने वाला है। वैसे "क्या" यहां प्रश्न के रूप में नदारद है, बल्कि कहें कि निरर्थक कार्रवाइयों को जारी रखते हुए ही गतिविधियों का आगे बढ़ाते रहने की सैद्धान्तिकी की जिद्द है। कविता में जिस पड़ने वाले फर्क की बात हो रही है, संभवत: किन्हीं खास सकारात्मक स्थितियों की ओर इशारा जैसा ही कुछ होना चाहिए, ऐसा मान रहा हूं। कविता के प्रस्तोता अशोक की टिप्पणी भी ऐसे ही अर्थ तक पहुंचने की राह दिखाती है। बावजूद इसके कविता में तर्क की जगह एक कुतर्क मुझे क्यों दिखायी दे रहा है ? यदि कुतर्क न भी कहूं तो जो तर्क है उसमें दम्भ, हुंकार और गर्जना क्यों सुनायी दे रही है ? यानी एक ऐसा तर्क जो किसी तरह के अन्य तर्क की गुजांइश से परे मानने की अवधारणा को साथ लिए चलता है। तर्क वही जो अक्सर सुनायी देते हैं कि क्या फर्क पड़ता है यदि एक मंदिर और बन जाये तो। ईश्वर तरंग हैं और मंदिर रेडियो स्टेशन। ब्रहमाण्ड रूपी ब्रॉड कास्ट स्टेशन से छूटने वाली तरंगे हर रेडियों में उतर जाएंगी। बनाओ, बनाओ, खूब बनाओ मन्दिर। लड़ो उन सब खाली पड़ी जगहों के लिए, मचाओ मार-काट, जो मानवता की जरूरत के लिए भी इसलिए उपयोग में नहीं दी जा सकती कि उस पर किसी न किसी पुरखे का अधिकार है।

यह कहना उपयुक्त लग रहा है कि सिद्धान्त और व्यवहार की अस्पष्टता के चलते ही हावी होते मनोगतवाद से कवि संचालित दिखाई दे रहा है। स्पष्ट है कि मनोगतवाद जब हावी होने लगता है तो स्थितियों का समूचित मूल्यांकन इतना भ्रामक होता है कि दिखाई दे रही स्थितियों से निपटने के लिए कर्ता अनायास ही व्यवहार की उस चपेट में होता है जिसको सिद्धान्त: अस्वीकारे हुए हो। यानी सिद्धान्त और व्यवहार की भिन्नता में प्रतिक्रान्ति का भाष्य हो जाना एक प्रवृत्ति हो जाती है। बेशक क्रान्ति को बेहद स्थूल अर्थों में इस्तेमाल करते हुए कवि बोधिसत्व ने प्रतिक्रिया के जवाब में उस व्यंग्यात्मकता का सहारा लिया हो जिसमें क्रान्ति का मखौल उड़ाया जाना निहित हो, पर कविता के भाष्य में निहित शब्द "क्रान्ति" तो वहां मौजूद ही है। हां सिद्धान्त और व्यवहार की भिन्नता में "प्रतिक्रान्ति" का वाहक हो जाना उसकी स्वाभाविकता है। कविता में मौजूद गड़बड़ी जिसको इशारे में खराब अवधारणा को पुष्ट करती हुई है, कहकर, मैंने सिर्फ एक छोटी सी टिप्पणी भर करनी चाही थी। आशय बिल्कुल स्पष्ट था कि कविता के मूल विचार से सहमति नहीं बन रही है।

इस कविता पर बात करने के लिए एक सवाल मन में उठ रहा है कि रचनाकार का भौतिक जीवन और सास्कृतिक जीवन क्यों एक नहीं होना चाहिए ? रचनाकार के जीवन की सम्पूर्ण पदचाप क्यों उसकी रचनाओं में सुनायी नहीं देनी चाहिए ?
व्यवहार ज्ञान से बढ़कर है। यह मेरा कथन नहीं महान विचारक लेनिन कह गये। क्योंकि मानते थे कि उसमें न सिर्फ सर्वव्यापकता का गुण होता है बल्कि प्रत्यक्ष वास्तविकता का गुण भी होता है। प्रत्यक्ष वास्तविकता की व्याख्या के लिए आस-पास के आन्तरिक अन्तर्विरोधों की पड़ताल जरूरी होती है। तभी देखी-जानी स्थितियों से प्राप्त ज्ञान से उस सिद्धान्त का प्रतिपादन हो सकता है जो उन्न्त से उन्न्त की ओर अग्रसर होता है। व्यवहार और सिद्धान्त का संक्षिप्तिकरण या एकमेव हो जाना इससे अलग नहीं हो सकता। बोधिसत्व की कविता में वे अपने अपने जुदा रास्तों के साथ है।

जबकि जान गया हूं
जहां स्त्रियों की पूजा होती है वहां
देवता तो क्या मनुष्य भी नहीं बचे हैं अब
तो भी यदि पत्नी को देवी मान कर पूजा कर दूं तो
अपनी मां को जगदम्बा कह दूं तो

बहुत स्पष्ट श्ब्दों में जो स्वीकारोक्ति है वह सिद्धान्त के साथ है, जिसमें अभी तक के ज्ञान विज्ञान से बनी समझ के प्रति कोई संदेह नहीं लेकिन व्यवहार में उसके लागू करने के सवाल पर जो द्विविधा और असमंजस है वह एक तर्क बन जा रहा है- यदि ऐसा कर दूं तो
और इस "तो" से जो ध्वनी उठती है वह एक चुनौति भी है कि तो क्या हो जाएगा ?

यहां कहना पड़ रहा है कि अप्रत्यक्ष अनुभव से प्राप्त ज्ञान व्यवहारिक दिक्कतों का कारण हो जाता है। ज्ञान प्रत्यक्ष का दर्शन है। प्रत्यक्ष ही रूप की समस्या को हल करने में सहायक होता है और विषय वस्तु का सवाल सिद्धान्त से हल किया जा सकता है। लेकिन इन दोनों समस्याओं को व्यवहार से अलग कतई हल नहीं किया जा सकता। पर कविता व्यवहार के सवाल पर ही एक गलत समझ के साथ हो जाने की चुनौतियों को रख रही है। स्पष्ट है कि यह दम्भ भरी चुनौति अप्रत्यक्ष ज्ञान से ही हासिल हुई समझ का नमूना है। यह अप्रत्यक्षता कहां से आती है ? तय है कि इसका उत्स फेशन में मौजूद प्रगतिशीलता के मानक हैं जबकि भीतर जड़ जमायी संकीर्णता अवचेतन के बहाव में आ जाती है। यही कारण है कि उसका बहुत प्रकट रूप वहां ज्यादा साफ दिख रहा होता है जब रचनाकार के निजी जीवन और रचना से उदघाटित होते सत्य स्पष्ट होते हैं और साथ-साथ दिखाई देते हैं। अप्रत्यक्ष ज्ञान की यह दिक्कत ही है कि जब चाहे उस पर यकीन किया जा सकता है और जब मन हो भाषायी घुमेर देकर उस से हटा जा सकता है। विचलन की इस अवस्था को कई बार व्ववहार में लचीलेपन की संज्ञा वाली शब्दावली कह दिया जा रहा होता है। यहां लचीलेपन की वह प्राकृतिक व्याख्या अट नहीं पा रही होती है जो शहतूत की टहनी-सा मजबूती वाला वास्तविक लचीलापन होता है। व्यवहार में वास्तविक लचीलापन सिद्धान्त पर दृढ़ रहते हुए ही संभव हो सकता है। कला में वही यथार्थ को परिभाषित करता है, वहां यथार्थ की पूर्णता के लिए यथार्थ की जरूरत होती है। जोखिम उठाने की ललक होती है। विश्व के रूपान्तर में सक्रिय सहयोग का निर्धारण होता है। महज ज्ञान प्राप्त कर लेने और अमल में लाये बिना उसका जाप करते रहने से दुनिया के रूपान्तर की प्रक्रिया का एक भी कदम नहीं बढ़ सकता।
क्रांति सिर्फ मारकाट की कार्रवाइयां नहीं, जैसा कि बोधिसत्व जी की टिप्पणी इशारा करती है। सिद्धान्त और व्यवहार की सही समझ के साथ चरण बद्ध प्रक्रिया में अपनी निश्चित भूमिका के साथ मौजूद रहना भी क्रांति का हिस्सा हो जाना होता है। एक रचनाकार की भूमिका उसकी रचना के सत्य से ही निर्धारित होती है। सत्य को लागू करने में आ रही दितों को बेचारगियों की तरह जाहिर करने से सत्य कहीं अंधेरे कोनों में खो जाता है। व्यवहारिक दिक्कतों को ठीक से समझकर, लागू करने की अस्पष्टता को, बहस का हिस्सा बना देना कहीं ज्यादा सार्थक है। रही बात सामंती मूल्यों की, दक्षिपंथी मान्यताओं की, तो दुनिया के कई हिस्सों में आगे बढ़ चुके समाजों के अनुभव आज हमारे सामने हैं। उनकी सत्यता के सवाल पर संदेह न रहा है। उन्हें फिर-फिर परखने की कार्रवाइयां एक झूठ को स्थापित करने की चालाक कोशिशें हैं। मनोगत कारणों से उपजा एकांगीपन। वस्तुगत यथार्थ के आगे बढ़ जाने की स्थितियों से पिछड़ जाने पर ही कटटरपंथी मान्यताएं लुभाने लगती हैं। रचना के सत्य और जीवन के सत्य को अलग-अलग मानने की हठधर्मिता व्यवहार का हिस्सा हो जा रही होती है। रचना में कलावाद को इससे अलग नहीं माना जा सकता।

समाज को बदलने की प्रक्रिया और उसे बेहतर देखने की उम्मीदों भरी हमारी रचनाओं की पड़ताल की जाए तो देखेंगे कि उसकी सीमाएं वैज्ञानिकता और तकनालॉजी की सीमा भर नहीं है, बल्कि वस्तुगत यथार्थ से हमारे आत्म साक्षात्कार की श्रेणीबद्धता उसका एक कारण है। सामाजिक बदलाव में दर्शन की विशिष्टता आध्यात्मिक और भौतिकवादी अन्तर्विरोधों पर निर्भर होती है। विशिष्टता के इस पहलू के आधार पर ही दोनों की परस्पर निर्भरता तथा विरोधपूर्ण समग्र मूल्यांकन पर ही रचनात्मक कृति की वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार होती है। अन्तर्विरोधों की विशिष्टता और जटिलता पर विचार किए बगैर रचना के किसी एक धुर छोर तक पेंग मार जाने की अवस्था से बचा नहीं जा सकता। भाववादी रचनाओं के साथ यही दिक्कत होती है कि विशिष्टता से बचकर वे नितांत निजीपन की स्थितियों को सर्वोपरी मान लेने के साथ होती हैं। व्यवहार में एकांगीपन भी इन्हीं स्थितियों में जन्म लेता है। सिर्फ परम्परा और आधुनिकता का जिक्र भर कर देने से अन्तर्विरोधों की विशिष्टता उभर नहीं पाती है। मनोगत आग्रहों से मुक्त होकर ठोस धरातल पर टिका हमारा आत्म खुद की आलोचना का आधार दे सकता है। आत्म से साक्षात्कार की उन्नत अवस्था में ही स्वंय की रचना पर आलोचनात्मक टिप्पणी हमें तिलमनाने की बजाय फिर से पुनर्विचार करने का अवसर दे सकती है। तर्क की जमीन पर खड़े होकर तभी हम दोस्ताना संघर्ष के रास्ते को चुन सकते हैं।
 

विजय गौड़