Tuesday, August 23, 2011

मेहरबानी करके हमारा कोयला न खरीदिये




           जान गोर्डन आस्ट्रेलिया के एक युवा पर्यावरण रक्षक कार्यकर्ता हैं जो इन्वायरमेंट इंजीनियरिंग पढ़ कर कुछ वर्षों तक खनन कंपनियों में काम करने के बाद इस बात से बेहद आहत हुए की खनिज सम्पदा के दोहन के नाम पर देख के पर्यावरण की अपूरणीय क्षति की जा रही है.इसके बाद उन्होंने आस्ट्रेलिया के पर्यावरण रक्षण के लोक चेतना जागृत करने वाले समूहों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया.पिछले वर्ष उनका लिखा और संगीत बद्ध किया हुआ आस्ट्रेलिया- दुनिया की वेश्या प्रतिरोध गीत बेहद चर्चित और विवादास्पद हुआ...यहाँ तक की आस्ट्रेलिया के अनेक रेडियो स्टेशनों ने इसके प्रसारण पर प्रतिबन्ध लगा दिया और बात कोर्ट तक जा पहुंची.इस साल के शुरू में इसी अभियान के प्रचार के लिए गोर्डन भारत भी आए थे.
सुदूर आस्ट्रेलिया के इस अभियान के पीछे के तमाम कारण अपनी पूरी कुरूपता और बेशर्मी के साथ आज के इस भारत में भी यहाँ वहाँ मौजूद हैं.इसी लिए मुझे यह अपने पाठकों के साथ साझा करने का मन हुआ.
यहाँ प्रस्तुत है उनके उसी गीत का अनुवाद: प्रस्तुति: यादवेन्द्र
आस्ट्रेलिया-- दुनिया की वेश्या 
                                        ---- जान गोर्डन 

आस्ट्रेलिया जैसे हो कोई ख़ासमख़ास वेश्या 
दरवाजे खोले प्रशस्त... बुलाती है खनिकों को 
धड़धड़ा कर चले आओ अंदर 
खोद डालो जितना चाहे बड़ा गड्ढा 
फिर आयेंगे आत्मा को भी ढ़ो कर ले जाने वाले लोग
और समंदर के रास्ते रवाना कर देंगे यहाँ वहाँ... 
ऐसे जहाजों को लाइन लगाये हुए  दूर दूर तक
मैं देख रहा हूँ, ऐ लड़की....

आस्ट्रेलिया...दुनिया की वेश्या
किसी सड़क छाप उदास लड़की की मानिंद
आती हुई दौलत को मना कर नहीं सकती
तुम उन्हें करने देती हो हजार मनमानी
और छिन्न भिन्न करने देती हो अपनी आत्मा को भी
समंदर के रास्ते वे भेजते रहते हैं जो चाहें
तुम तो ये भी नहीं जानती
कि किस किस जगह पहुँचाई  गई  तुम्हारी दौलत .

(कोरस)
मुझे यह सब इतना अश्लील  लगता है 
बहुत कोशिश के बाद भी बे मजा...
कैसे तुम करती हो उन्हें हाथ हिला हिला कर विदा
और अंदर जाकर धोती साफ़ करती हो अपने हाथ...
आओ चलो मेरे साथ
हम चलेंगे सागर पार
तब मैं तुम्हें दिखाऊंगा कैसे धधक धधक कर 
जल रहा है तुम्हारा यह काला सोना...

आस्ट्रेलिया किसी चीनी छिनाल  की तरह बन गया है... 
वे तुम्हारा मखौल उड़ा रहे हैं, ऐ लड़की 
पहले वे चुरा ले गए तुम्हारी  आत्मा
फिर उड़ाते हैं अब तुम्हारा ही माखौल 
तुम्हारे  नेता..उनकी तो  रीढ़ ही नहीं है
वे बनाये रखते हैं लोगों को मूढ़
और आदम जमाने की पार्टी लाइन पर चलते जाते हैं
बिलकुल लकीर के फकीर बने हुए..

 
(कोरस)
मुझे यह सब इतना अश्लील लगता है 
कि मैं इसको राष्ट्रीय अभिशाप कहता हूँ 
कैसे तुम करती हो उन्हें हाथ हिला हिला कर विदा
और अंदर जाकर धोती साफ़ करती हो अपने हाथ...
मुझे दिखाई देता  है मौसम का तेजी से बदलना
मुझे दिखाई देते हैं धरती पर छाये विनाश के काले बादल 
इतने सब कुछ के बावजूद
कैसे तुम करती रहती हो यह सब सहज
मैं समझ नहीं पाता ...
कैसे और क्यों कर करती रहती  हो यह सब?
 
(मुख्य गायक)
आस्ट्रेलिया..आओ हम मिलकर नाचें गएँ आनंद मनाएं
क्योंकि हम आजाद और जवान मुल्क हैं
और प्रकृति ने हमारी धरती  को बला की
खूबसूरती, दौलत और नायाबी बख्शी है. 



Sunday, August 21, 2011

आजादी के मायने

साहित्य और यथार्थ पर लिखे गये हावर्ड फास्ट के निबंध के हवाले से कहा जा सकता है, ''अगर यथार्थ की प्रकृति तात्कालिक और स्पष्ट समझ में आने वाली होती तो जीवन के प्रति सहज बोधपरक और अचेतन दृषिट रखने वाले लेखकों का आधार मजबूत होता।"
हावर्ड फास्ट का उपरोक्त कथन लेखकीय दृषिटकोण की पड़ताल करते हुए कुछ जरूरी सवाल उठाता है लेकिन आजादी की कल्पनाओं में डूबी देश की उस महान जनता के सपनों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, जो 1947 के आरमिभक दौर में आजादी के तात्कालिक स्वरूप को स्पष्ट तरह से पूरा देख पाने में बेशक असमर्थ रही। बलिक एक लम्बे समय तक इस छदम में जीने को मजबूर रही कि सत्ता से बि्रटिश  हटा दिये गए हैं और देश आजाद हो चुका है। आजादी उसके लिए एक खबर की तरह आर्इ थी। व्यवहार में उसे परखे बगैर कोर्इ सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता था। वैसे भी खबर के बारे में कहा जा सकता है कि वह घटना का एकांगी पाठ होती है। सत्य का ऐसा टुकड़ा जो तात्कालिक होता है। इतिहास और भविष्य से ही नहीं अपने वर्तमान से भी जिसकी तटस्थता, तमाम दृश्य-श्रृव्य प्रमाणों के बाद भी, समाजिक संदर्भों की प्रस्तुति से परहेज के साथ होती है। देख सकते हैं कि बहुधा व्यवस्था की पेाषकता ही उसका उददेश्य होती है।

तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थय की गारंटी  जनता के सपनों में उतरने वाली आजादी के दृश्य है
अपने इरादों में नेक और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य से बंधी जनता की समझदारी में आजादी, अवधारणा नहीं बलिक व्यवहार का प्रसंग रहा है और होना भी चाहिए ही। तकनीक के विकास और उसके सांझा उपयोग की कामना हमेशा ही उसके लिए आजादी का अर्थ गढ़ते रहे है। तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुकित, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थय की गारंटी  जनता के सपनों में उतरने वाली आजादी के दृश्य है। रोजी-रोजगार और दुनिया के नक्शे में अपनी राष्ट्रीयता को चमकते देखना उसकी चेतना का पोषक तत्व रहा है। संसाधनों का समूचित उपयोग और प्राकृतिक सहजता में सांस लेना, काल्पनिक नहीं बलिक वह आधारभूत सिथति हैं, जनतांत्रिकता के मायने जिसके बिना अधूरे हो जाते हैं। जीवन की प्राण वायु का एक मात्र तत्व भी कहा जाये तो अतिश्योकित नहीं। देख सकते हैं कि नियम कायदे कानून के औपनिवेशिक माडल पर देशी सामंतो और मध्यवर्ग के स्थानापन मात्र की प्रक्रिया ही आजादी कहलायी जाती रही। परिणमत: एक खास वर्ग के लिए, जिसमें नौकरी पेशा सरकारी कर्मचारियों का एक बड़ा तबका भी समा जाता है, और रोजी रोजगार से वंचित एक बड़े वर्ग के लिए, आजादी के मायने एक ही नहीं रहे हैं। नियम कायदों के अनुपालन के लिए जुटी खाकी वर्दियों का डंडा भी वर्गीय आधारों से संचालित है। जनतंत्र के झूठे ढोल के बेसुरेपन में कितने ही राडिया प्रकरण, बोफोर्स घोटाले, हर्षद मेहता कांड और हाल-हाल में बहुत शौर करते 2-जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ, आदर्श सोसाइटी घोटाले, कौन बनेगा करोड़पति नामक धुन के साथ मद मस्त रहे हैं। खेती बाड़ी और दूसरे लघु उधोगों को पूरी तरह से खत्म कर देने वाले राक म्यूजिकों ने जो समा बांधा है, देश का युवा वर्ग उसकी उत्तेजक धुनों में ज्यादा चालू होने के नुस्खे सीखने के साथ है। प्रतिगामी विचारों को यूरोपिय और पाश्चात्य संस्कृति के साथ फ्यूजन करने वाले, धार्मिक उन्मांद को भड़का कर, सत्ता की अदल बदल में ही अपनी चाल का इंतजार करते रहे हैं। विनिवेशीकरण और भूमण्डलीकरण के समानान्तर सस्वर मंत्र गायन से गुंजित होता पूंजी का विभत्स पाठ मंदिरों के गर्भ ग्रहों में वर्षों से छुपा कर रखे गये धन पर इठला रहा है। आर्थिक जटिलताओं के ताने बाने में औपनिवेशिक और आन्तरिक औपनिवेशिक अवस्थाओं ने मुनाफे की दृषिट से विस्तार लेती कुशल व्यवस्था के पेचोखम को अनेकों घुमावदार मोड़ दिये हैं। यह आजादी के अभी तक के दौर की ऐसी कथा-व्यथा है जिसमें व्यवस्था का मौजूदा ढांचा आजादी के वर्गीय आधार वाला साबित हो रहा है।   

अवधारणा के स्तर पर नियम कायदों की लम्बी फेहरिस्त में समानता बंधुत्व और छोटे-बड़े के भेद-भाव के बावजूद व्यवहार में उनके अनुपालन न करने वाली सरकारी मशीनरी के कारणों की पड़ताल बिना सामाजिकी को पूरी तरह से जाने और जनतंत्र को सिर्फ ढोल की तरह पीटते रहने से संभव नहीं है। सिद्धान्तत: ताकत का राज खत्म हो चुका है लेकिन व्यवहार में उसकी उपसिथति से इंकार नहीं किया जा सकता है। जनतंत्र का ढोल पीटते स्वरों की कर्कशता को देखना हो तो सुरक्षा की दृषिट से जुटी वर्दियों के बेसुरे और कर्कश स्वरों में कहीं भी सुनी और देखी जा सकती है। भ्रष्टाचार की बहती सरिता में डूबे बगैर हक हकूकों की बात कितनी बेमानी है, योजनाओं के कार्यानवयन में जुटे अंदाजों को परख कर इसे जाना जा सकता है। जनता की धन सम्पदा को भकोस जाने वाली व्यवस्था की खुरचन पर टिका सामान्य वर्ग का नौकरी पेशा कर्मचारी भी कैसे आम जन पर कहर बनता है, इसे सिविल सोसाइटीनुमा आंदालनों के जरिये न तो पूरी तरह से जाना जा सकता है और न ही उससे निपटने का कोर्इ मुक्कमल रास्ता ढूंढा जा सकता है। आजादी की वर्षगांठ का पर्व ऐसे सवालों से टकराये बिना नहीं मनाया जा सकता। रस्म अदायगियों की कार्यवाहियों में आजादी का कर्मकांड तो संभव है लेकिन आजादी के वास्तविक मायनों तक पहुंचना संभव नहीं। मुनाफे की दृषिट से संचालित व्यवस्था के सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को आजादी मानने की समझ को अब मासूमियत कहना भी ठीक नहीं।

1947 के बाद विकसित हुए औधोगिक ढांचे ने उत्पादन के केन्द्रों को शहरी क्षेत्रों में स्थापित कर विकास के चंद टापुओं का निर्माण किया है। कृषि आधारित उधोगों की अनदेखी के चलते विकास का जो माडल खड़ा हुआ है वह शहरी क्षेत्र के पढ़े लिखे वर्ग के लिए ही अनुकूल साबित हुआ। यधपि उसकी भी अपनी एक सीमा रही है। दलाली और ठेकेदारी उसके प्रतिउत्पाद के रूप में सामने हैं। शहरी क्षेत्रों में आबादी का बढ़ता घनत्व उसका दीर्घ कालीन परिणाम है, जो न सिर्फ पारिसिथतिकी असंतुलन को जन्म दे रहा है बलिक अविकसित रह गये एक बड़े भारत में निवास कर रही जनता को जो निराश और पस्त करता है। प्रतिरोध की आवाजों को जातीय और क्षेत्रीय पहचान के आंदोलनों की ओर धकेलने की राजनीति का सहयोगी हो जाने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। सूचना प्रौधोगिकी का बढ़ता तंत्र ऐसी ही राजनीति का प्रस्तोता हुआ है। मुनाफे की संस्कृति उसकी प्राथमिकता में रही है और इस अंधी दौड़ में अव्वल आ जाने की चाह में घटनायें सिर्फ खबरों का हिस्सा हो रही हैं। खबरों का कोलाहल मचाते हुए मूल मुददे को एक ओर कर देने की चालाकियां स्पष्ट दिखायी देने के बावजूद भी उस पर पूरी तरह से अंकुश लगाना जनता के हाथ में नहीं है। बलिक एक बड़े हिस्से के बीच यह सवाल बार-बार बेचैन करने वाला है कि क्या नैतिक, ईमानदार और कर्तव्यपरायण रहते हुए व्यवस्था के बुनियादी चरित्र में कोई बदलाव लाया जा सकता है ? उत्तराखण्ड राज्य की मांग के सवाल पर सामाजिक चिंतक पूरन चंद जोशी के विश्लेषण को दोहराना यहां ज्यादा न्यायोचित लग रहा है जिसमें वे स्पष्ट कहते हैं, ''....हमें यह  स्पष्ट रूप में स्वीकार करना चाहिए कि भारत का पिछले पाच दशकों का विकास स्थानीयता के विघटनकारी विकास क्रम ने क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर भयंकर असंतोष और आक्रोश को जन्म दिया है। जिसका विस्फोट हम आज देश के कर्इ भागों में देख रहे हैं। इस असंतोष और आक्रोश का मूल हमारे विकास क्रम की विकृतियों और हमारे विकास दर्शन और कार्यक्रम की अपूर्णता में है, इस कटु सत्य को न कभी हमारा शासक वर्ग ईमानदारी से स्वीकार करता है, न मुख्यधारा के आर्थिक और सामाजिक चिन्तक और विचारक।

देश के तमाम क्षेत्रों में किसान और ज़मीन के सवाल खड़े हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के नाम पर वैशिवक पूंजी की पैरोकारी ने जो अफरा तफरी मचायी है, उसने जनतंत्र को लूट तंत्र में बदल दिया है। नंदीग्राम का मामला अभी कोर्इ बहुत पुरानी बात नहीं। उड़ीसा में पास्को परियोजना के दुष्प्रभावों के विरुद्ध आदिवासियों के विरोध प्रदर्शन पर गोली-बारी की घटना एकदम ताजा ही है। गुजरात में कच्छ का समुद्र तट, मैसूर की परियोजना, हरियाणा में रिलायंस परियोजना और गाजियाबाद का मामला तो बहुत ही ताजा है। ढेरों उदाहरण हैं जो कहीं से भी देश के तमाम नागरिकों को आजाद देश का नागरिक होने के सबूत नहीं छोड़ रहे हैं। हां एक खास वर्ग की आजादी को यहां भले तरह से देखा जा सकता है। बलिक प्रतिरोध की बहुत धीमी सी पदचाप पर भी हिंसक आक्रमणों की छूट वाली उस वर्ग की आजादी का नजारा तो कुछ और ही है। उसके पक्ष में ही तमाम प्रचार तंत्र माहौल बनाना चाहता है। सरकारी अमला उसके हितों के लिए ही कानूनों की किताब हुआ जाता है। जनतांत्रिकता का तकाजा है कि कानून के अनुपालन में सीट पर बैठे व्यकित की कलम से निकला कोर्इ भी वाक्य कानून है। किसी एक ही मसले पर लागू होते कानूनों की भिन्नता सीट पर बैठे व्यकित की समझदारी ही नहीं बलिक आग्रहों का भी नतीजा है। भिन्नताओं का आलम यह है कि हर बेसहारा व्यकित के लिए अपने पक्ष को सही साबित करने की लम्बी कानूनी प्रक्रिया का थकाऊपन झुनझुना हुआ जा रहा है। सूचना के अधिकार अधिनियमों या कितने ही लोकपाल अधिनियमों के आजाने पर भी जो वास्तविक लोकतंत्र को परिभाषित करने में अधूरा ही रह जाने वाला है। जो कुछ भी दिखायी दे रहा है वह उसी वैशिवक पूंजी के इशारों पर होता हुआ है जो मुनाफे की अंधी दौड़ में इस कदर फंसती नजर आ रही है कि आज अपने संकटों से उबरने के लिए सैन्य बलों के प्रयोग के अलावा कोर्इ दूसरा विकल्प जिसके पास शेष न बचा है। उसका अमेरिकीपन अहंकार की काली करतूत के रूप में तीसरी दुनिया के नागरिकों पर कहर बन रहा है। पूंजीवादी लोकतंत्र के आभूषणों (राजनैतिक पार्टियां) की लोकप्रिय धाराओं की नीतियां कुछ दिखावटी विरोध के बावजूद ऐसे ही अमेरिका को रोल माडल की तरह प्रस्तुत कर रही हैं। सारा परिदृष्य इस कदर धुंधला गया है कि विरोध और समर्थन की अवसरवादी कार्रवार्इयां, किसी भी जन पक्षधर मुददे को दरकिनार करने के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रही है। उसी साम्राज्यवादी अमेरिका के आर्थिक हितों के हिसाब से चालू आर्थिक और विदेश नीति ने एक खास भूभाग में निवास कर रहे अप्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता का दरवाजा खोला है और आजादी के एक वर्गीय, धार्मिक एवं जातीय रूप को सामने रखा है। आंतक के देवता, विश्व पूंजी के स्रोत, हथियारों के सौदागर, अमेरिका की प्रशसित में, बड़े-बड़े विस्थापनों को जन्म देने वाली नीतियों के पैरोकार डालर पूंजी की जरुरत पर बल देते हुए अंध राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर रहे हैं। आम मध्यवर्गीय युवा के भीतर, उसी अमेरीकी आदर्शों स्वीकार्यता को भी ऐसी ही अवधारणाओं से बल मिल रहा है और आतंक की परिभाषा अपना आकार गढ़ रही है। संपूर्ण गरीब पिछड़े देश वासियों के सामने एक भ्रम खड़ा करने की यह निशिचत ही चालक कोशिश है कि विदेशी धन संपदा से लदे फदे अप्रवासियों का झुंड आयेगा और देश एवं समाज की बेहतरी के लिए कार्य करेगा।

झूठे जनतंत्र की दुहार्इ देते विश्व बाजार का सच आज की वास्तविकता है जो घरेलू उधोगों और उनके विकास में संलग्न बाजार को भी अपनी चपेट में लेता जा रहा है। उसके इशारों पर दौड़ती किसी भी व्यवस्था को आज आजाद व्यवस्था मानना, मुगालते में रहना ही है। आजादी का जश्न मनाते हुए सदइच्छा और सहानुभूतियों के प्रकटिकरण भर से उसके क्रूर चेहरे को नहीं देखा जा सकता। तीसरी दुनिया के देशों को गुलाम बनाने के लिए लगातार आक्रामक होती विश्व पूंजी की गति इतनी एक रेखीय नहीं है कि किसी एक सिथति से उसके सच तक पहुंच सके। उसके विश्लेषण में खुद को भी कटघरे में रखकर देखना आवश्यक है कि कहीं अपने मनोगत कारण की वजह से, उसे मुक्कमल तौर पर रखने में, वे आड़े तो नहीं आ रही। देशी बाजार का मनमाना पन भी कोर्इ छुपी हुर्इ बात नहीं। यह सोचने वाली बात है कि तमाम चौकसियों के लिए सीना फुलाने वाली व्यवस्था क्यों उत्पादों के मूल्य निर्धारण की कोर्इ तार्किक पद्धति लागू नहीं करना चाहती। मनमाने एम आर पी मूल्यों के अंकन की छूट क्या एक खास वर्ग को उपभोक्ता सामानों में भी अघोषित सबसीडी की व्यवस्था नहीं कहा जाना चाहिए (?), जबकि किसानों और आम जनों को सबसीडी के सवाल पर यही वर्ग सबसे ज्यादा नाक भौं सिकोड़ने वाला है। दो पेन्ट खरीदने पर दो शर्ट मुफ्त बांटते इस बाजार की आर्थिकी क्या है ? यह सवाल आजादी के दायरे से बाहर का सवाल नहीं। दिहाड़ी मजदूरी करने वाले कारीगर और नौकरीपेशा आम कर्मचारियों को उपभोक्ता मानकर निर्धारित उत्पादकता लक्ष्यों के बाद के अतिरिक्त उत्पादन की मार्जिनल कास्ट का लाभ एक खास वर्ग को देता यह बाजार आजादी के वास्तविकता को ज्यादा क्रूरता से प्रस्तुत करता है। उत्पाद को खरीदने की स्वतंत्रता भी अधिकाधिक पूंजी वालों के लिए ही अवसर के रूप में है। ऐसे मसले पर आजादी जैसे शब्द को उचारना भी मखौल जैसा ही हो जाता है। 
 
पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रुप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र हुआ है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गुण़वत्ता को जांचने की आजादी की भी जरूरत को नजर अंदाज कर दिया जा रहा है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, छुपाने के लिए नयी से नयी तकनीक की कोटिंग के प्रयोगों को चमकीली गुलामी ही कहा जा सकता है।

इस चमकीली गुलामी के असर से बचना भी आजादी को बचाने का ही सवाल है। यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि औधोगिकरण की ओर बढ़ती दुनिया ने भारतीय समाज व्यवस्था को अपने खोल से बाहर निकलने को मजबूर किया है। बेशक उसके बुनियादी सामंती चरित्र को पूरी तरह से न बदल पाया हो पर सामाजिक बुनावट के चातुर्वणीय ढ़ांचे को एक हद तक उसने ढीला किया है। लेकिन दलित आमजन की मुकित के लिए वैशिवक पूंजी की दुहार्इ देने का औचित्य दलित चेतना के संवाहक अम्बेडकर द्वारा चलाये गये मंदिर आंदोलन या दूसरे चेतना आंदोलन की राह फिर भी नहीं बन पा रहा है। स्त्री विमुकित का स्वप्न भी आजादी की चमकीली तस्वीर में जकड़बंदी के ज्यादा क्रूरतम रूप का पर्याय हुआ है। चंद कागजी कानूनों से व्यवस्था के वर्तमान स्वरुप को अमानवीय तरह के कारोबार के खिलाफ मान लेना उस असलियत से मुंह मोड़ लेना है जिसमें निराशा, हताशा में डूबी बहुसंख्यक आबादी को निकम्मा और नक्कारा करार देने का तर्क गढ़ लिया जाता है।
1947 से आज तक का भारतीय समय जिन कायदे कानूनों की व्यवस्था में पोषित और विकसित हुआ है, उसके विशलेषण को दुनिया के दूसरे मुल्कों से निरपेक्ष मानकर मूल्यांकन किया जाये तो ही आजादी के वास्तविक अर्थों तक पहुंचा जा सकता है। देख सकते हैं कि आजाद भारत में भी 1947 से पहले के सामंती शोषण और उसकी संस्कृति को पूरी तरह से नष्ट नहीं किया जा सका है। बलिक उसी वजह से विश्व पूंजी का पिछलग्गू बनने को ही एक मात्र रास्ता स्वीकार करने की मानसिकता को आधार मिला है और संवैधानिक स्वीकार्यता के बावजूद समाजवाद सिर्फ सपना ही बना हुआ है।  

-विजय गौड़

Saturday, August 13, 2011

सतह के नीचे' की हलचल

   - महेश चंद्र पुनेठा   09411707470
  कविता आसपास के जीवन की जिंदा रची तस्वीर है। जीवन में भावों की यथासिथति को जो तोड़े वह जीवंत कविता है। कविता एक जीवन-साधना है। निरंतर साधना से ही कवित्व अर्जित किया जा सकता है।कवि का परिवेश और उसका अध्यवसाय उसके कवि व्यकितत्व का विकास करता है। इसे पूरी तन्मयता और सावधानी से करना होता है। इसके लिए किसान-सा धैर्य और विश्वास जरूरी होता है। यह बात सही है जिस प्रकार अपने परिवेश और मिटटी को समझे बिना सफल खेती नहीं हो सकती उसी प्रकार अपनी परपंरा के जीवन तत्वों की पहचान , अपनी धरती ,अपने लोग , अपने परिवेश व जातीयता से जुड़ाव और अपने युग के अंतर्विरोधों को समझे बिना एक बड़ी रचना संभव नहीं है।.एक बड़ा कवि अपनी काव्य संवेदना में  जीवन,प्रकृति और विशाल संसार की समग्रता तथा प्रचुरता को आत्मसात करते हुए अपनी ऐतिहासिक परिसिथतियों के साथ जातीयता  तथा परंपरा का गहरा बोध व उसे विकसित करने की इच्छा रखता है। उसमें  भाषा को विकास के छोर तक ले जाने की बेचैनी और विश्वदृषिट तथा संकल्प की दृढ़ता होती है।यथार्थ को गहरार्इ तक पकड़ने के लिए सामान्य जन की भाषा को अपनाना होता है।  भाषा कि्रयाशील मनुष्य से सीखनी पड़ती है। उसकी संगत करनी पड़ती है। उसे बोलते व व्यवहार करते हुए देखना होता है। इस साधना के लिए पूरा जीवन समर्पित करना पड़ता है। कवि को त्रिआयामी संघर्ष करना होता है -पहला , वर्ग चेतन समाज में अपने वर्ग शत्रु से। दूसरा, समाज में व्याप्त विसंगतियों ,विडंबनाओं और तीखे अंतर्विरोधों से । तीसरा , अपने अंदर के अंतर्विरोधों से । पाँचों इंदि्रयों से अनुभव  ग्रहण करने पड़ते हैं जिसके लिए उसके भीतर एक भूख  होनी चाहिए। एक कवि को यह सब करना पड़ता है। अगर वह अपने समय की नब्ज को समझना चाहता है तो इंदि्रयों को खुला और चौकन्ना छोड़े । चेतना को सदा बुद्धि संगत बनाए । संवेदना का सदा पुनर्गठन करे । अनुभवों का बड़ा संसार ही रच लेना काफी नहीं है -बलिक हर अनुभव को एहसास बना के उसके कण को फोड़ पाना यह भी कवि को करना होता है।बहुत दमदार एहसास पाने को आदमी के करीब आना जरूरी है। ऐसा आदमी जो कि्रयाशील है। कवि को हर समय बड़े अनुशासन में जीना पड़ता है। जीना चाहिए। जीवन में और रचना कर्म करते समय। सृजन कर्म न तो बंधन समझ कर न थोपी हुर्इ शर्त समझ कर करना चाहिए।
  कवि जो कुछ भी मनुष्य जाति को देता है वह पूरी तरह बोधगम्य हो। रमणीय भी हो। वह हमारी इंदि्रयों को असर दे सके। वह हमें उददीप्त कर सके। वह प्रतिफल प्रीतिकर लगे। यह सब हमारे मन को उदवेलित करके भी हमें मन के संतुलन बनाए रखने में मदद करे। हम आतंरिक शांति का अनुभव करें। एक बार को लगे कि हम अपनी सीमाओं से ऊपर उठ रहे हैं। यानी हम ने मनुष्यता की उच्चभाव भूमि पा ली है। हमारी चेतना को उन्नत और विकसित करे। कवि को चाहिए वह अपनी संवेदना को सघनतर बनाकर उसका पुनर्गठन करे। तभी वस्तुगत सिथतियों का यथार्थपरक चित्रण हो पाएगा। एक कवि को पहले अयस्क उत्खनित करना पड़ता है । फिर जीवन की धधकती भटटी में उसे तपाना पड़ता है। यह प्रकि्रया खनिज को पकाने से भी ज्यादा लंबी और कठिन है। कष्टदायक भी। कवि को मनुष्य रूप में भी बहुत कुछ खो देना पड़ता है। यह ऐसा तप है जिसकी कोर्इ समय सीमा नहीं है। कवि का सारा खनिजदल प्रत्यक्ष ज्ञान से ही अर्जित नहीं होता । उस ज्ञान का तीन-चौथार्इ ज्ञान उसे परोक्ष अनुभव से भी अर्जित होता हर्ै यानी सुनकर ,पढ़कर ,जानकर ,समझ कर। अपने इतिहास और अपनी प्राचीन संस्कृति से। उस ज्ञान के बिना प्रत्यक्ष ज्ञान अधूरा और अधकचरा है। कवि को अपनी इंदि्रया सजग रखने -बहुत ही सहज ,सकि्रय तथा निसर्गोन्मुखी जीवन जीना ही बेहतर है।  
     कविता और कवि कर्म के संदर्भ में उक्त बातें कविवर विजेंद्र की सध प्रकाशित डायरी  सतह से नीचे ' को पढ़ने के बाद सार रूप में निकलती हैं। ये बातें केवल किसी उपदेश या दर्शन के रूप में नहीं कही गर्इ हैं बलिक विजेंद्र जी ने स्वयं अपने जीवन में इन्हें पोषित किया है। अपने कवि को बचाए रखने के लिए वे खुद से और समाज से निरंतर संघर्ष करते रहे हैं जो आज भी जारी है। उनकी डायरी के पन्नों में इस बात को देखा-समझा जा सकता है। यहाँ कविता ,कवि कर्म ,सौंदर्यशास्त्र ,काव्य भाषा , कवि की तैयारी तथा उसके सामाजिक दायित्व आदि के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। कवि के रूझान ,रूचियों ,चिंताओं और आस्वाद का पता चलता है। उनका व्यकितत्व सामने आता है। कवि की प्रतिबद्धता एवं सरोकारों का पता चलता है। भाषा को लेकर डायरी में बहुत सारी बातें कही गर्इ हैं। यहाँ भाषा के संकट , भाषा के गठन , भाषा के सीखने ,काव्य भाषा की ताकत को लेकर महत्वपूर्ण बातें आर्इ हैं। उनकी निगाह में भाषा मनुष्य जाति की सबसे अच्छी और सबसे ऊँची रचनात्मक उपलबिध है। यह हमारे सांस्कृतिक उन्नयन में सदा सहायक है। लेकिन हम अपनी भाषा से कितना प्यार करते हैं-यह कहने से नहीं वरन उसे रचने ,समृद्ध करने से -बलिक उसे हर वक्त जीवन देने से व्यक्त करना चाहिए । भाषा का उपयोग हम सिर्फ परस्पर संवाद को ही नहीं करते बलिक उससे हम यथासिथति की जड़ता भी तोड़ते हैं। लेकिन यह जड़ता हम निर्जीव भाषा से नहीं तोड़ सकते। इसके लिए बहुत जीवंत ,वेगवान और रचनाशील भाषा चाहिए । ऐसी भाषा संघर्ष धर्मिता से आती है। .....श्रमिक ,खेतीहर ,मजदूर ,छोटे किसान , कारीगर ,मिस्त्री ,लुहार ,बुनकर ,बढ़र्इ मोची ,पत्थर तोड़ा और रात-दिन शहर की सफार्इ में लगे इंसान ही इसके रचियता है। .....श्रमवान लोगों की भाषा में तेज और तप दोनों घुले-मिले रहते हैं।
 भाषा पर अपने विचार व्यक्त करते हुए वे आगे कहते हैं कि इस तरह के कवि भी होते हैं जो जनता के हितों को झुठलाने के लिए दिग्भ्रम फैलाते रहते हैं । वह यथार्थ को एक चमकदार भाषा और शब्दों के खेल से ढक देते हैं। उसे विकृत करते हैं। ......भाषा का इस्तेमाल कवि वैसे ही करता है जैसे किसान अपने बीजों को उर्वर धरती में बोकर इंतजार करता है। दरअसल सबसे कठिन काम है आम आदमी की भाषा में जीवन के औदात्य और उसकी संशिलष्टता को बड़ी सहजता से कविता में रच पाना। .....जो लेखक -वे चाहे किसी भाषा के हों जीवन और प्रकृति से दूर रहते हैं -वे एक अनुदित भाषा लिखने के अभ्यासी बन जाते हैं। भाषा के प्रति विजेंद्र जी का यह दृषिटकोण सबसे अलग और विशिष्ट है। यह व्यावहारिक ,वैज्ञानिक एवं जनपक्षीय दृषिटकोण है।साथ ही कवि को लोक से जोड़ने वाला है। इससे रचना में ताजगी और जीवंतता का संचार होता है।  वे अपनी कविताओं में जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं वह उनके द्वारा लोक के संपर्क से खुद अर्जित भाषा है ,जिसमें उनकी अपनी लय और भंगिमा है। जो भाषा के प्रति उनके इस दृषिटकोण को प्रमाणिक साबित करती है। 
   डायरी, किसी कवि की रचना प्रकि्रया को जानने का सबसे उपयुक्त माध्यम है । कोर्इ रचना जो पाठक तक पहुचती है वह उससे पहले किन-किन पड़ावों से होकर गुजरती है ?इसका पता चलता है। वस्तु के अंतर्वस्तु बनने की पूरी प्रकि्रया की जानकारी मिलती है। मुकितबोध कला के जिन तीन क्षणों की बात करते हैं उन तीन क्षणों का पता चलता है। रचना से कम रोचक नहीं होती है उसकी रचना प्रकि्रया और उससे गुजरना । इससे रचना की तैयारी ,उसकी पूर्व पीठिका ,रचनाकार की बेचैनी और उसके आत्मसंघर्ष का पता चलता है। एक रचना को पूरी तरह समझने के लिए यह जरूरी भी है। कविता की रचना-प्रकि्रया ही नहीं कवि बनने की प्रकि्रया का भी पता चलता है। कवि संवेदना के रचे जाने के  स्तरों का भी पता चलता है। प्रस्तुत कृति कवि विजेंद्र के संदर्भ में इन सारी बातों को जानने का अवसर प्रदान करती है। पाठक को पता चलता है कि  विेजेंद्र जी ने निरंतर साधना से अपने कवित्व को अर्जित किया है। वे हमारे समय के विलक्षण चिंतक हैं । तथ्यों की गहरार्इ में जाकर अपने पूरे तर्कों के साथ उन्हें विश्लेषित करते हैं। जीवन के प्रति रागात्मकता के साथ-साथ विचार के प्रति सजगता एवं सतर्कता ने उनके कवि को जिंदा रखा है। माक्र्सवाद में उनकी आस्था आज भी दृढ़ बनी हुर्इ है। इस विचारधारा के प्रति वे कहीं भी सशंकित नहीं दिखते हैं।जबकि उनके तमाम साथी विचारधारा से दूर जा चुके हैं । कुछ यदि जुड़े भी हैं तो केवल नाममात्र के लिए।  माक्र्सवाद में गहरी आस्था के बावजूद  वे मानते हैं- केवल विचारधारा से चिपक कर -उसका ढोल पीटकर ही कुछ नहीं हो सकता । उसके लिए बेहतर आचरण ,उच्च सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति सजगता और सहज मानवीय गुण भी चाहिए । वामपंथी युवक -चाहे वे राजनीति में हों या साहित्य में -ज्यादातर आचरण से हमें अपनी तरफ आकर्षित नहीं करते । उन्होंने विरासत में बड़े जीवन मूल्यों को हासिल न कर शार्टकट तिकड़मों पर ज्यादा ध्यान दिया है। ......दरअसल कोर्इ भी विचारधारा जीवन के बड़े संकल्प का रचनामूलक अनुशासन है। दूसरे ,प्रतिबद्ध शब्द का अर्थ साहित्य में  बधना' नहीं वरन किसी दर्शन से संबद्ध होना है। उससे लगाव-जुड़ाव होना है। .....प्रतिबद्धता एक दिशा ही तो है। जहाँ दिशा नहीं वहाँ अराजकता होती है। या फिर हताशा।.....हम अनेक विचारों या विचारधाराओं में किसी एक को चुनते हैं। जो हम चुनते हैं जरूरी नहीं कि दूसरों को वह स्वीकार्य हो -तो फिर सच्ची विचारधारा कौनसी है?इसके लिए वाद-विवाद जरूरी है। यह एक वैचारिक संघर्ष है जो बराबर चलता  रहना चाहिए जब तक हम किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष पर नहीं पहुचें। 
   प्रस्तुत कृति में यत्र-तत्र वैचारिक सूत्र फैले हैं जो पाठक को समृद्ध करते हैं। बीच-बीच में कविताएं भी हैं यह डायरी लेखन का विजेंद्र जी का अपना निराला अंदाज है। बीच-बीच में कविताओं का आना गध की एकरसता को भंग करने में  सफल रहा है वैसे डायरी इतनी रोचक है कि कहीं भी एकरसता का भान कम ही होता है। एक कथा सी रोचकता इसमें निहित है। हाँ ,इतना अवश्य कहना पड़ेगा कि जिसने उनका समग्र साहित्य पढ़ा हो उसे यहाँ कुछ बातों का दुहराव लगेगा। मुझे लगता है यह दोहराव स्वाभाविक भी है क्योंकि विजेंद्र जी कविता ,कवि-कर्म तथा एक मनुष्य के लिए जिन बातों को जरूरी मानते हैं उन्हें वे बार-बार उलिलखित करते हैं। उनके प्रति उनका विशेष आग्रह रहता है। उनके लिए लेखन रचनाकार कहलाने मात्र का माध्यम नहीं है बलिक मनुष्यता को बचाए रखने का औजार है।
  विजेंद्र जी डायरी के गध को अपने लिए कविता का अनिवार्य 'वर्कशाप जैसा मानता है। एक तरह का रियाज। कविता रचे जाने के बाद जो बेचैनी बच जाती है उसकी रचनात्मक अभिव्यकित।  कवि को जो कुछ स्पंदित करता रहा वह सभी है इस डायरी में है ।
   इस कृति में  प्रकृति के विविध रंग विखरे हैंं। वे प्रकृति की बारीक से बारीक कि्रयाओं को भी अपनी कविताओं की तरह यहाँ भी दर्ज करते हैं । पाँचों इंदि्रयों से प्रकृति का रसास्वादन करते हैं।प्रकृति के रूप ,रंग ,गंध , स्वाद को कवि ने नजदीक से अनुभव कर व्यक्त किया है। राजस्थान के घना और भरतपुर अंचल की प्रकृति इस डायरी में भरपूर आयी है। फाग उमड़ने ,सूर्योदय जैसे दृश्यों का चित्रण बहुत सुदंर तरीके से हुआ है। वे डायरी में एक जगह लिखते भी हैं - मैं अपने यहाँ की धरती से गहरा परिचय कराने की गरज से यहाँ खड़ा हू। इस डायरी में आए प्रकृति के सूक्ष्म चित्रों और उसकी विस्तृत परिचय से समझा जा सकता है कि विजेंद्र जी को प्रकृति से कितनी रागात्मकता है। वह अपने आसपास की एक-एक वनस्पति , जीव-जंतु ,फूल-फल आदि की जैसी जानकारी रखते हैं वैसी जानकारी केवल किसान ही रख सकता है। कभी-कभी उनकी जानकारी चमत्कृत करती है कि एक कलम चलाने तक सीमित व जीवनभर अध्यापकी करने वाले व्यकित को इतनी गहरी जानकारी! किसी किसान से कम नहीं है यह । उनकी यह विशेषता नए और मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि वाले हम जैसे कवि-रचनाकारों को सीखने को प्रेरित करती है।  न केवल प्रकृति बलिक अपने आसपास श्रम करने वालों की गतिविधियों को भी वे बहुत बारीकी से चित्रित करते हैं। उनके आसपास के  अनेक चरित्र यहाँ आए हैं जिनका जीवंत चित्रण हुआ है। लगता है जैसे किसी कविता की पंकित पढ़ रहे हाें। उन्होंने ,अपनी आँखों से देखे हैं अपने आसपास के फूल ,पेड़ ,लताएं , घास ,मिटटी , लोगों की कि्रयाएं ,उनकी आकृतियाँ ,कीचड़-गडढे ,नहर , भरा हुआ पानी , फूलते कासों की लंबी-लंबी कतारें .....और छोटी सी लोहे की सिल्ली से बनती पतली सरिया । सूघी है यहा के फूलों की खुशबू ,मछुआरों के बदन से आती मछरियांद ' और किसान ,हलवाहों ,पत्थरतोड़ाओं और लावों के जिस्म से आती पसीने की  खटियाद'। गढि़या लुहार , खलासी , गैंगमैन , मिस्त्री ,मोची ,डाकिया जैसे अनेकों छोटे-मोटे श्रम करने वालाें को वे भूलते नहीं हैं। इनका केवल नामोल्लेख ही नहीं बलिक उनके जीवन की कि्रयाओं , भावनाओं ,संवेगों ,संघर्षों का भी वर्णन किया है। यह इस बात का प्रतीक है कि वे इन लोगों को कितनी सम्मान की नजर से देखते हैं तथा जीवन में उनके महत्व को कितनी शिददत से महसूस करते हैं। इससे पता चलता है कि विजेंद्र जी अपने जन और जमीन से कितनी गहरार्इ से जुड़े हैं। यही अपेक्षा वे दूसरे कवियों से भी किया करते हैं । नए रचनाकारों को लिखे पत्रों में वे हमेशा उनको अपने जन और समाज को पहचानने की सीख देते रहते हैं। विजेंद्र जी अपने आसपास को जानने के लिए सचेत रूप से प्रयास करते हैं। कविता की तरह रूपक और बिंबों का प्रयोग यहाँ दिखार्इ देता है। वैचारिक सूत्र हर जगह हैं। इस डायरी से विजेंद्र की कवि विजेंद्र में बदलने की पूरी प्रकि्रया का पता चलता है। पता चलता है उन्होंने इसके लिए कितनी सचेत तैयारी की है।
   विजेंद्र जी , मजदूर-किसानों के सामने अपने काम को छोटा मानते हैं । उनके काम को अधिक मान देते हैं। हमेशा उनसे सीखने का प्रयास करते हैं। किसान के भीतर एक विश्वास तथा धैर्य होता है तूफान , वर्षा ,आँधी ,सूखा ,बाढ़ ,शीत और अन्य व्याधियाँ सहते हुए भी खेती करना नहीं छोड़ता हैं । उनकी कविताओं में श्रम करने वालों के प्रति जो सम्मान और प्रेम हमें दिखार्इ देता है वह यहाँ और अधिक खुलकर सामने आता है। एक सच्चा कवि ही गरीबी ,भूख ,उत्पीड़न , शोषण को देख इतना संवेदनशील हो सकता है। अपने अभिजात्यपन को लेकर उनके मन में जो अपराधबोध है , वे मनोभाव भी इस डायरी में दर्ज हुए हैं। कवि की बेचैनी-तड़फ-अंतर्मन की पीड़ा डायरी में शुरू से अंत तक महसूस की जा सकती  है । यही है जिसने उन्हें एक बड़ा कवि बनाया है। उनकी पीड़ा-बेचैनी को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरल नहीं है एक कवि होना ।कवि के मन को समझने के लिए यह डायरी महत्वपूर्ण है।
   इसमें कवि की आत्मस्वीकृतियाँ भी हैं और पति-पत्नी के बीच का प्रेम भी । लगभग आधी सदी के वैवाहिक जीवन के बाद भी पति-पत्नी के बीच जो प्रेम यहाँ दिखार्इ देता है वह मनमोह लेने वाला है और दुर्लभ है।इस डायरी में विजेंद्र जी के केवल कवि रूप के ही नहीं बलिक एक पिता ,एक पति ,एक अध्यापक  रूप के दर्शन भी होते हैं। इन सारे दायित्वों को विजेंद्र पूरी र्इमानदारी से निभाते हैें। अत: एक रचनाकार के रूप में ही नहीं बलिक एक इंसान के रूप में भी उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।   
    कविवर विजेंद्र रूढि़यों को तोड़ने वाले कवि हैं । यहाँ भी विधा के रूप में उन्होंने यह रूढि़ तोड़ी है परम्परागत रूप में उनकी यह रचना डायरी नहीं लगती है। उनकी डायरी में नितांत निजी स्तर पर घटित घटनाओं और तत्संबंधी बौद्धिक-भावनात्मक प्रतिकि्रयाओं का लेखा-जोखा मात्र नहीं है। यह बोझिल रोजनामचा नहीं है। यह जीवन और जगत के प्रति अनुराग पैदा करने तथा जीवन में भावों की यथासिथति को तोड़ने वाली कृति है, जिसमें कविताएं भी हैं संस्मरण भी ,यात्रा वृतांत भी ,पत्र भी ,आलेख भी और टिप्पणिया भी। कुछ पृष्ठ  तो  साहित्य और समाज पर टिप्पणियों सा आस्वाद प्रदान करते हैं। कहीं-कहीं उन्होंने विभिन्न साहितियकों द्वारा उनके नाम लिखे गए पत्रों को भी शामिल किया है। उनकी डायरी में जीवन-सार जगह-जगह उदघाटित होता है। जीवन-वर्णन ही नहीं जीवन-निष्कर्ष भी हमको मिलते हैं जो पाठक को एक नया आलोक प्रदान करते हैं। जीवन-वर्णन के दौरान विजेंद्र जी कब अचानक बाहर से भीतर चले जाते हैं पता ही नहीं चलता है। उनकी भीतर-बाहर की यह यात्रा निरंतर चलती रहती है। इसके चलते कभी-कभी डायरी की क्रमबद्धता भी बाधित होती है।ऐसा ही कविता संबंधी बातों पर भी होता है। जीवन-प्रसंगों की बातें करते-करते अचानक कविता और कवि कर्म पर बातें शुरू हो जाती है।  प्रकृति के प्रतीकों से कविता की गहरी से गहरी बातों को समझा देते हैं। इससे लगता है कि उनके लिए कविता जीवन से और कवि-कर्म जीवन-कर्म से अलग नहीं हैं । दोनों एक-दूसरे में गुँथे हैं। इसलिए तो वे कवि को उसके व्यकित से अलग करके नहीं देख पाते ।
       डायरी में उन्होंने अपने दोस्तों से मुलाकात के विवरण भी दिए हैं । इस दृषिट से दिल्ली की डायरी' बहुत रोचक है। दिल्ली के तमाम रचनाकारों तथा साहित्य के माहौल के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। साहित्य के लोग एक दूसरे से कैसी र्इष्र्या और द्वेष रखते हैं इसका भी खुलासा होता  है। यह डायरी साहित्य की राजनीति का चिटठा खोलती है। इस रूप में विजेंद्र जी के पूरे कालखंड को जानने का अच्छा अवसर उपलब्ध कराती है। त्रिलोचन , शमशेर , विष्णु चंद्र शर्मा ,रामकुमार कृषक ,नामवर सिंह ,केदारनाथ सिंह ,भगवत रावत , जीवन सिंह ,रमाकांत शर्मा ,नरेश सक्सेना ,विश्वंभर नाथ उपाध्याय ,वाचस्पति मोहन श्रोत्रिय , नंद भारद्वाज , नंद चतुर्वेदी , अशोक वाजपेयी ,कर्ण सिंह चौहान ,मैनेजर पांडेय , रमेश उपाध्याय , अरूण कमल ,सुधीश पचौरी ,उदय प्रकाश , एकांत श्रीवास्तव सहित तामम आलोचकों और कवियों के बारे में लेखक की बेबाक राय पता चलती है। यहाँ उनकी बेवाक टिप्पणियाँ विशेष रूप से प्रभावित करती हैं।जिसके बारे में जो लगा उसे उन्होंने बिल्कुल साफ-साफ लिखा है। उसमें यह नहीं देखा कि वह उनके कितने करीब या दूर है। इस बात की परवाह नहीं कि कौन इस बात से खुश होगा और कौन नाराज। ऐसा साहस बहुत कम लोगों में दिखार्इ देता है। इसी साफगोर्इ के चलते वे आज अलग-थलग हैं। उनके इस स्वभाव ने उनके अनेक दुश्मन खड़े किए हैं। इस डायरी को पढ़े जाने के बाद बहुत सारे और  लोग उनसे नाराज हो जाएंगे। पर उन्हें इस बात की कोर्इ परवाह नहीं है । उन्हें तो केवल सच्चे लोग चाहिए। वे कहते हैं - जो जीवन और रचना को समर्पित हैं -सरल-सहज जन चाहे कितने ही सामान्य क्यों न हों -मैं उनके लिए नतमस्तक हू।  एक ऐसे दौर में जबकि साहितियक जगत में सहिष्णुता छीजती जा रही है। व्यकितगत आलोचना तो छोडि़ए रचना की सीमाओं की ओर संकेत मात्र भी किसी को सहन नहीं होता है। युवा से युवा रचनाकार तक अपनी आलोचना सुनने को तैयार न हों। थोड़ी सी बात पर भड़क उठते हों तब  विजेंद्र जी का इस तरह अपने समकालीनों को लेकर बेवाक और दो टूक राय व्यक्त करना साहित्य के प्रति विश्वास बढ़ाता है। उनकी यह डायरी उनके साहस  के लिए विशेष रूप से जानी जाएगी। यहाँ तक कि उन्होंने खुद को भी नहीं छोड़ा है। यह बहुत बड़ी बात है। बहुत कम होते हैं जो अपनी निर्मम आलोचना कर पाते हों।इसे एक कवि की र्इमानदारी ही कहा जा सकता है कि कवि इतनी निर्ममता से अपने आप को कटघरे में खड़ा कर देता हैै। अपनी स्वयं की आलोचना इस डायरी को एक अतिरिक्त गरिमा प्रदान करती है। युग समाज ,व्यकित तथा साहित्य के प्रति लेखक की गहरी प्रगतिशील निष्ठा और आकांक्षा को सूचित करती है।  इससे उनके लिखे की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। 
   यहाँ प्रकाशकों की बेर्इमानी और उनके साथ शिखरस्थ साहित्यकारों का गठजोड़ भी सामने आया है। बड़े-बड़े कहे जाने वाले प्रकाशक कितने कूढ़मगज और मूर्ख हैं पता चलता है- प्रकाशक की निगाह में एक अच्छा लेखक वह है जिसकी किताब एक मुश्त खरीदी जाए ,जो खरीद करवा सके ,वह उसे सबसे बड़ा लेखक .....उसका कूड़ा भी छापने को बड़े-बड़े प्रकाशक तैयार हो जाते हैं। विजेंद्र जी की यह बात बिल्कुल सही है। बड़े-बड़े प्रकाशनों की पुस्तक सूची उठाकर देख लीजिए उसमें आपको ऐसे-ऐसे नाम मिल जाएंगे जिनके बारे में एक लेखक के रूप में आपने कभी सुना भी नहीं होगा। उनकी पहचान एक लेखक की बजाय बड़े मंत्री या अधिकारी के रूप में अधिक होती है। साहित्य की जिस दुनिया को हम साफ-सुथरी दुनिया मानते आए हैं वहाँ भी कितनी गंदगी व्याप्त है इसमें देखा जा सकता है-  साहित्य के हालात से मन क्षुब्ध रहा। इधर बड़े-बड़े अफसरों ने साहित्य पर एकाधिकार जमाने के प्रयत्न किए हैं। धन की ताकत से वे अनेक लेखकों को पथभ्रष्ट कर रहे हैं।.....साहित्य अब कोर्इ पवित्र चीज नहीं रह गर्इ है। साहित्य में कामयाबी के लिए शार्टकट अपनाए जा रहे हैं। तिकड़में और जोड़-तोड़ हमारी आचार संहिता का हिस्सा बन गया है। नैतिक आचरण की बात पर लोग हसते हैं।.....साहित्य का हाल बुरा है । उस पर भी भ्रष्ट राजनीति और पूजीवाद की विकृतियाँ हावी है। ''   एक बात और यहाँ केवल कवि की रचना-प्रकि्रया ही नहीं बलिक किसी रचना के छपने की स्वीकृति तथा संपादक की सकारात्मक टिप्पणी से पैदा हुर्इ खुशी भी है। रचना का बनना , स्वीकृत होना ,छपना तथा पाठकों की प्रतिकि्रया पाना एक रचनाकार को कितना सुख प्रदान करती है ,इस भाव को यहाँ महसूस किया जा सकता है। यहाँ पता चलता है कि यह सुख केवल नए रचनाकार को ही नहीं बलिक वरिष्ठों को भी समान रूप से प्रफुलिलत करता है। सृजन का आनंद नि:संदेह अदभुत होता है। 
    यह कृति कविता और इंसान के रिश्तों को बताती ही नहीं बलिक मजबूत भी करती है तथा एक सच्चे इंसान की पहचान भी उजागर करती है।समाज में गिरते मूल्यों की चर्चा भी यहाँ मिलती है। कवि का संकल्प भी यहा व्यक्त हुआ है। यह कृति एक नए कवि के लिए जरूरी मार्गनिर्देशिका जैसी है । कुल मिलाकर इस डायरी में सीखने-समझने और अपने संवेदनात्मक ज्ञान के विवेक सम्मत पुनर्गठन के लिए बहुत कुछ है। ब्लर्ब में लिखी यह बात सही है , किसी भी रचनाकार या सामान्य पाठक को यह डायरी रूचिकर लगेगी। एक बार प्रारंभ करने के बाद शायद व इसे उपन्यास की तरह पढ़ना चाहेगा।''इसमें कोर्इ दो राय नहीं डायरी बाँधने वाली है। जैसा कि विजेंद्र जी स्वयं कहते हैं यह डायरी त्रिविध संवाद है। अपने से ,अपने समय से तथा अपने सुधी पाठकों से। इसमें कोर्इ संदेह नहीं ।  जहाँ तक डायरी के लिखने का कारण है उसके बारे में बताते हुए वे लिखते हैं, गध हमें जूझने का यकीन देता है। बिना जूझे न जीवन है और न कददावर रचना। डायरी उसी सिलसिले में शुरू की।बाद में वह मेरी कविता की पूरक .....एक बेहतरीन रुहानी  दोस्त ।'' कविवर विजेंद्र 1968 से अटूट रूप से डायरी लिख रहे हैं । अभी तक दो हजार से अधिक पृष्ठों में फैली उनकी डायरी में से कुछ पृष्ठ तीन पुस्तकों के रूप में आ चुकी हैं। पहली  कवि की अंतर्यात्रा  दूसरी ' धरती के अदृश्य दृश्य ' तथा तीसरी  सतह से नीचे'। आशा की जानी चाहिए कि आगे यह सिलसिला जारी रहेगा ।

सतह के नीचे ( डायरी) : विजेंद्र । प्रकाशक - वाड.मय प्रकाशन इ-776/7 लालकोठी योजना ,जयपुर-15
 मूल्य- तीन सौ रुपए

Tuesday, August 9, 2011

जहाँ कभी हमारे गहरे रंगों वाले बच्चे खेला करते थे

       1920 में कैथरीन जीन मेरी रुस्का के नाम से जनमी उद्जेरू नूनुक्कल ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के अधिकारों के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता,कवि कलाकार थीं.तेरह वर्ष की उमर में उन्होंने स्कूल त्याग दिया और घरेलू नौकरानी का काम भी किया.दूसरे विश्व युद्ध के दौरान आस्ट्रेलियन सेना में भरती हो गयीं,यहीं इन्होने टाइपिंग सीखी और लेखन की ओर प्रवृत्त हुईं.पर यहाँ रहते हुए उन्होंने जातिगत और रंग भेद के कटु अनुभव किये.बाद में आस्ट्रेलिया की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयीं पर वहाँ भी भेदभाव की संस्कृति देख निराश हुयीं.1964 में उनका पहला कविता संकलन प्रकाशित हुआ जो आस्ट्रेलिया में किसी मूल निवासी कवि की पहली प्रकाशित पुस्तक थी.इसको घनघोर सफलता मिली तो अनेक स्थापित आलोचकों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि ये कवितायेँ उनकी नहीं बल्कि किसी और की लिखी हुई हैं.बाद में उनके अनेक संकलन प्रकाशित हुए...देश विदेश के प्रतिष्ठित सम्मान,पुरस्कार और अलंकरण उन्हें मिले.उनपर फिल्म भी बनी और उनको केंद्र में रख कर नाटक भी लिखे गए.मूल निवासियों को गोरे देश वासियों के बराबर संवैधानिक अधिकार दिलाने की लड़ाई में वे शीर्ष भूमिका निभाती रहीं. आस्ट्रेलिया के दो सौ साला समारोह में उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दिया गया सबसे बड़ा अलंकरण देश में मूल निवासियों की दुर्दशा पर विरोध दर्ज कराने के लिए लौटा दिया.आस्ट्रेलिया में मूल निवासियों की अस्मिता की राष्ट्रीय प्रतीक उद्जेरू नूनुक्कल ने 1993 में अंतिम साँसें लीं. 

प्रस्तुति:: यादवेन्द्र
तोहफा
                                        -उद्जेरू नूनुक्कल

"मैं तुम्हारे लिए लेकर आऊंगा ढेर सारा प्यार"...जवान प्रेमी ने कहा...
"साथ में तुम्हारी उदास आँखों में
भर दूंगा मैं ख़ुशी की रौशनी का सैलाब...
सफ़ेद हड्डियों से बना पेंडेंट लाऊंगा तुम्हारे लिए
और उल्लसित तोते के पंख लाऊंगा
कि उनसे सजा सको तुम अपनी लटें ."

पर वह थी कि सिर्फ अपना सिर हिलाकर रह गयी.

"तुम्हारी गोद में ले आऊंगा मैं एक नवजात"...उसने आगे कहा...
"जो बनेगा अपने कुनबे का सरदार
और बारिश का आह्वान करने वाला मशहूर गुणी
मैं ऐसे गीत रचूंगा कि तुम उनसे हो जाओगी नाशमुक्त
जिन्हें अथक सारा कुनबा
गाता रहेगा अनंत काल तक."

वह थी कि फिर भी नहीं रीझी.

"मैं इस टापू पर सिर्फ तुम्हारे लिए
ले आऊंगा शीतल चांदनी की नीरवता
और चुरा चुरा कर इकठ्ठा करूँगा दुनिया भर के परिंदों की कूक
जन्नत में जगमग करने वाले सितारे तोड़ लाऊंगा
और हीरों की चमक वाला इन्द्रधनुष
ला कर रख दूंगा तुम्हारी हथेली पर."

"इतने सब की दरकार नहीं"...उसके होंठ हिले...
"तुम बस ला दो मेरे लिए पेड़ों की जड़ों में पैदा नरम नरम कंद."

तब और अब

अपने सपनों में मैं सुनती हूँ अपने कबीले की आवाज
कैसे हँसते हैं वे जब करते हैं शिकार..या तैरते हुए नदी में
पर यह स्वप्न ध्वस्त कर देती है धक्के मारकर तेजी से बीच में पहुँचती
दनदनाती हुई कार,धकेलती हुई ट्राम और फुफकारती हुई ट्रेन.
अब मुझे दिखते नहीं हैं कबीले के बूढ़े बुजुर्ग
जब मैं अकेले निकलती हूँ शहर की सड़कों पर.

मैंने देखी वो फैक्ट्री
जो दिन रात उगलती रहती है काला धुंआ
लील गयी है वह उस स्मृतियों में बसे पार्क को भी
जहाँ कभी कबीले की स्त्रियों ने खोदे थे गड्ढे शकरकंद के लिए:
जहाँ कभी हमारे गहरे रंगों वाले बच्चे खेला करते थे
अब वहाँ पसरा हुआ है रेल का यार्ड
और जहाँ हमारे ज़माने में हम लड़कियों को
ललकारा जाता था नाचने और नाटक करने को
अब वहाँ ढेर सारे आफिस हैं ...निओन लाइटों से पटे हुए
बैंक हैं..दुकानें हैं..इश्तहारी बोर्ड लगे हुए हैं..
ट्रैफिक और व्यापार से भरा पूरा शहर.

अब न तो वूमेरा* हैं , न ही बूमरैंग*
न खिलंदड़ी के साधन , न पुराने तौर तरीके.
तब हम प्रकृति की संतानें थे
न घड़ियाँ थीं न ही भागता ही रहने वाला भीड़ भक्कड़.
अब मुझे सभ्य बना दिया गया है,गोरों के ढब में काम करने लगी हूँ
खास तरह का ड्रेस पहनती हूँ..जूतियाँ चमक दमक वाली
"कितनी खुश नसीब है , देखो तो अच्छी सी नौकरी है ".
इस से बेहतर तो तब था जब
मेरे पास ले दे के एक ही पिद्दी सा बैग हुआ करता था
कितने अच्छे थे वे दिन जब
मेरे पास कुछ नहीं था सिवाय ख़ुशी के.

* आदिवासी आस्ट्रेलियन लोगों का देसी हथियार