Sunday, September 18, 2011

नहर वाली गली




नहर वाली गली का किस्सा
सचमुच घंटों का किस्सा है हुजूर

कहां है नहर ?

नहर नहीं सड़क है हुजूर,
आप जहां खड़े हैं
क्यों छेड़ रहे हो नहर का इतिहास
छपाक-छपाक गोते खा-खाकर तैरने के लिए
पानी की जरूरत होने लगेगी, पर पाईएगा नहीं।

क्यों, कहां गया पानी ?

सूख गयी नहर,
सूखा दी गयी हुजूर
छपाक-छपाक तैरने के लिए
वो हौदी भी न बची
धारा बनकर जहां गिरती थी नहर
और पूरी लय के साथ जहां से बढ़ जाती थी आगे
एक ओर भैंसे गर्दन-गर्दन डूबकर नहा रही होतीं
और उनके बीच ही, या उनकी पीठ पर भी
वे बदमाश छपाक-छपाक तैर रहे होते जो
घाट पर कपड़ा फींचते धोबी को धोने ही नहीं देते कपड़े

बेचारा धोबी सुबह तड़के
जब चाकू की धार सी ठंडक के साथ
बह रहा होता था पानी
साईकिल के कैरियर पर लादकर
ले आता था गठरी कपड़ों की
उतर जाता था घुटनों-घुटनों
फच --- फच ----हश्श् -----हश्श्
फींचते कपड़ों के साथ ही चढ़ता था सूरज
वे बदमाश तो उछल-कूद मचाते हुए जब तक पहुंचते
साबुन का झाग भी बह चुका होता पानी बनकर

अब कहां, हुजूर अब तो बची ही नहीं है नहर
नहर वाय विभाग में हैं ही कहां अब बेलदार
जो समय से खोलते और बन्द करते थे पानी की धार
धारा पर गोता लगाने वाले भी तो नहीं रह गये
भैंसे! उनकी न पूछिये हुजूर
जब बैल ही नहीं रहे तो भैंसे कैसे पाले -
मंदिर के पीछे रहने वाले उन तैलियो से पूछे हुजूर
जिनकी लड़कियां भैसों को लेकर नहर पर पहुंचती थी
उनको नहलाने
कि भैस क्यों नहीं पालते हैं
टूटती हुई मटर के बाद
बर्सिम बोने के लिए जब बचे ही नहीं खेत
तो क्या खाक खिलायेगें हरा चारा
बिना हरे चारे के कितना तो देगी दूध -
किलो दो किलो
जानते हैं हुजूर भैंस की खिलायी
पॉंच किलो दूध की रकम है रोज

आप तो कुत्ता पालते हैं
सुबह शाम घुमाते भी होंगे ही
उसके चूतड़ों पर समय बे समय
बीमारियों से बचाव के इंजेक्शन भी ठोंकते ही हैं
पर इस नहर वाली गली में बैठे
उस मोची से मिल लीजिए हुजूर -
फटे हुए जूतों की मरम्मत करते हुए,
आंख से ठीक न दिखने के कारण
कितनी ही बार जिसकी उंगलियों में
घुस जाती है सुम्मी की नोंक और घाव कर देती है
गरम हल्दी तेल ही भरता है वो तो
हल्दी तेल भी कहां तो ठीक से भर पाता है अब वो हुजूर
तेल का सुना नहीं, ऐसा चढ़ा है रेट
कि बिना खाये ही धमनियों में जमने लगा है
कैसा तो आघात पड़ा है, अस्पताल में है बेहोश

नहरवाली सड़क पर आपने
मेरी इस छोटी सी दुकान का पता खोज लिया
तो नहर भी खोज ही लेगें, पूछते रहिये
आप नहर वाली सड़क पर आये, अच्छा लगा
संभल कर उतरिये,
बहाव तेज है हुजूर
वो वो देखिये हुजूर उधर,
नहर वाली गली जहां उस चौड़ी सड़क से मिल रही है
हां हां वही जिस पर अभी हाल ही में बने है मॉल,
उधर ही से बहता चला आ रहा है कुछ
ठहर जाईये थोड़ी देर ऊपर ही,
अभी ऐसा लबालब नहीं है कि यहां तक पहुंच पाये
ठहर जाईय,  ठहर जाईये
ढलान तेज है, निकल जायेगा
मैं तो वर्षों से ऐसे ही कर रहा हूं हंजूर
चिन्ता न कीजिए
कितना ही लबालब हो जाये और रुके ही न
तो भी दुकान बढ़ाकर मुझे भी तो निकलना ही है
आप साथ रहेगें तो मैं भी हिम्मत रख पाऊंगा
मेरे पास एक लम्बा डंडा है
उसी के सहारे डगमगाते हुए भी
एक दूसरे को हिम्मत बंधाते हो जायेगें पार
आप नहर वाली गली में हैं हुजूर
ऐसा हो ही नहीं सकता
कि नहर वाली गली का ग्राहक मुसिबत में हो
और दुकानदार ---
आरम से बैठिये हुजूर वैसे भी इस बाढ़ में कोई ग्राहक तो आना नहीं 
आप आये स्वागत है आपका
लीजिए मैं आपको ये आम का अचार खिलाता हूं 
अपना ही बनवाता हूं हुजूर
ये चटनी ! लहसुन की है हुजूर, खाकर देखिये न!     


4 comments:

Mahesh Chandra Punetha said...

ek pura chitra anakhon ke samane utar aata hai. keval bahar ka hi nahni bhitar ka bhi. kavita is daur ke bare main bina kuchh kahe bahut kuchh kah jati hai. jivanadharmi kavita.....

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्पी ओर तल्खी दोनों मौजूद है......

अजेय said...

बहुत सुन्दर विजय भाई ! इस शैली को खूब *रम* कर पढ़ता हूँ... दिल से ! बहुत रस होता है इस शैली में . और वह रस जैसा कि पुनेठा जी ने कहा है; *जीवनधर्मी* ! इस जीवनधर्मिता से हे वोह रस पैदा होता है. जहाँ रचना कार की अपनी वैचारिकता , उस का अपना स्व ; बजाए रचना पर हावी होने के , तनिक दूर से * वाच * करता हुआ प्रतीत होता है! अद्भुत ! मज़ा आ गया .... मैंने भी कोशिश की है. कुछ कविताएं इस शैली में.

chandramani vatas said...

Vijay ji,

Apki rachna ek chalchitra jai dikhne lagti hain.

bahut khub.