Tuesday, October 4, 2011

पहाड़ की जख्मी देह पर नर्म हरे फाहे



  महेश चंद्र पुनेठा 
                                                                                          
 युवा कवि सुरे्श सेन नि्शांत के कविता संग्रह " वे जो लकड़हारे नहीं हैं' को पढ़ते हुए मुझे लोकधर्मी  कवि केशव तिवारी की " मेरा गॉव' कविता की ये पंक्तियॉ बार-बार याद आती रही - मेरा गॉव मेरी वल्दियत / जिसके बिना ला पहचान हो जाऊंगा मैं /मित्र कहते हैं /पॉच सितारा होटल में भी / झलक जाता है मेरा देशीपन / मुझे लगता है झलकना नहीं/ साफ दिखना चाहिए / जब मैं धनहे खेत से आ रहा हूं /तो मुझे दूर से ही गमकना चाहिए। कवि की  जिस पहचान तथा दूर से गमकने की बात केशव तिवारी अपनी इन पंक्तियों में करते हैं वो सुरे्श सेन नि्शांत की कविताओं में साफ-साफ दिखाई देती हैं।  नि्शांत की कविताओं का कथ्य हो या भाषा उससे गुजरते ही उनका पहाड़ीपन गमकने लगता है । उनकी कविता पहाड़ की पूरी पहचान के साथ हमारे सामने आती है। पहाड़ का रूप-रंग -रस-गंध उनके इंद्रियबोध में उतर आता है। अपनी धरती और अपने लोग उनमें बोलने लगते हैं। एक आम पहाड़ी के दु:ख-दाह ,ताप-त्रास व मुसीबतें-मजबूरियॉ  उनकी कविता की अंतर्वस्तु बनती हैं। पहाड़ की प्रकृति और पहाड़ का समाज जीवंत हो उठता है।वहॉ के लोगों की निर्दोष आस्थाएं और मासूम विश्वास कविता में स्थान पाते हैं। देखिए ये पंक्तियॉ- चुपचाप गुजरो / इस वृक्ष के पास से / प्रार्थना में रत है यहॉ एक औरत / उसे विश्वास है / इस वृक्ष में बसते हैं देवता/और वे सुन रहे हैं उसकी आवाज । पहाड़ की हरी-भरी देह भी और पहाड़ की जख्मी देह भी इन कविताओं में देखी जा सकती है। सुरेश की कविता उन पथरीले पहाड़ो की कविता है जहॉ उगती है ढेर सारी मुसीबतें -ही -मुसीबतें/ जहॉ दीमक लगे जर्जर पुलों को / ईश्वर के सहारे लॉघना पड़ता है हर रोज / जहॉ जरा-सा बीमार होने का मतलब है / जिंदगी के दरवाजे पर / मौत की दस्तक ।


  उनकी कविताएं अपने जमीन से प्रेम करने वाली कविताएं हैं। इनमें अपने जड़ों से गहरा जुड़ाव दिखाई देता है।लोक की क्रियाशीलता का काव्यांकन इनका मूल है। वे पहाड़ को एक पहाड़ी की ऑख से देखते हैं। उनकी कविताओं में आंचलिकता का रंग है पर उनकी दृष्टि वैश्विक है। कहीं भी वे क्षेत्रवाद की संकीर्णता में नहीं फॅसते हैं। कवि की चेतना के केंद्र में है उनका जनपद लेकिन उसका विस्तार पूरी धरती तक है। पहाड़ के जिस जीवन-समाज-प्रकृति की बात वह अपनी कविताओं में करते हैं वे कमोबेश पूरी दुनिया के पहाड़ से साम्य रखती हैं। ये कविताएं कवि के देखे-सुने-भोगे गए जीवन से अनुस्यूत हैं। उनकी सर्जनात्मक कल्पना ने पहाड़ के यथार्थ को तरह-तरह से दीप्त किया है। साथ ही पहाड़ में बढ़ता माफियाराज और उसके चलते अपराधों में वृद्वि से उपजी चिंता जिसके कारण पहाड़ों की शांतवादियॉ अशांत होती जा रही हैं, इनकी कविताओं में व्यक्त होती है। वन माफिया किस तरह यहॉ की भोली-भाली जनता का उपयोग अपने हित में करते हैं तथा उनकी मजबूरियों का लाभ उठाते हैं वह हमें इन कविताओं में दृष्टिगोचर होता है। संसाधनों की लूट ,पर्यावरण का विनाश  तथा उनके कारण मानव के समक्ष पैदा संकट उनकी कविताओं की अंतर्वस्तु बनी है। " वे जो लकड़हारे नहीं है" संग्रह की शीर्षक कविता है। इस कविता में पहाड़ के आम आदमी की मजबूरी व्यक्त हुई है जो यह सब कुछ जानते हुए भी - कि जंगल और पेड़ जिस दिन / हो जाएंगे खत्म / सूखती हुई नदी के पानी सा / तिरोहित हो जाएंगे उनके गीत / उनके सपने ,उनके उत्सव और वे भी /ये कितनी विडंबना है / ये सब जानते हुए भी / पेड़ काटते हुए पकड़े गए हैं वे। प्रकृति से मनुष्य का केवल भौतिक संबंध ही नहीं है बल्कि एक सांस्कृतिक संबंध भी है। वन मनुष्य के शरीर से ही नहीं उसके मन से भी जुड़े हैं। यह बात इस कविता से निकल कर आती है। साथ ही अपराध के मनोविज्ञान का पता भी चलता है। यदि कोई अपराध कर रहा है तो उसके लिए केवल वह व्यक्ति वि्शेष जिम्मेदार नहीं है बल्कि उसके कारण समाज में मौजूद हैं। इसलिए यदि अपराध समाप्त करना है तो उसके लिए अपराध के कारणों को समाप्त करना होगा ,क्योंकि व्यक्ति से बड़ी है वह व्यवस्था जिसने मनुष्य को पतित करने में प्रमुख भूमिका निभाई है। ये कैसी विडंबना है पेड़ काटने के लिए वो लोग पकड़े जाते हैं जो मजदूर होते हैं जो यह नहीं जानते हैं कि ये पेड़ कहॉ जा रहे हैं ? वास्तविकता यह है कि वनों  को नुकसान वनों के नजदीक रहने वाले लोगों ने नहीं जो अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उनके पास जाते हैं बल्कि उन वन माफियाओं ,भू माफियांओं या बड़ी-बड़ी परियोजनाओं ने पहुंचाया है जो वनों को अपने लालच की पूर्ति  का माध्यम बनाते हैं। दुर्भाग्य है पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले असली अपराधी कभी नहीं पकड़े जाते हैं। हाथ आते हैं तो समान्य जन जो अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के हाथों मजबूर होते हैं जिनके बारे में ये बातें सत्य हैं- वे सचमुच नहीं काटते कोई पेड़ / अगर उनमें से एक को /नहीं लाना होता /बहिन के ब्याह का सामान /दूजे की पत्नी ने नहीं मॉगा है/ इन सर्दियों के लिए/ सस्ती सी ऊन का स्वेटर / तीजे को खरीदनी है/ बच्चों की किताबें /चौथे को ढॉख से गिरी /अपनी मॉ का कराना है /च्चहर में महंगा इलाज /पॉचवे के पास तो न्हीं है/ दो जून रोटी के लिए कोई और चारा ।  

पहाड़ के संघर्ष का उल्लेख हो और यदि वहॉ की स्त्री की बात न हो तो यह जानिए कि आधा पहाड़ छूट गया। स्त्री  यहॉ की अर्थव्यवस्था की रीढ़  है। पहाड़ की बात करने वाला कोई कवि वहॉ की स्त्री की बात किए बिना नहीं रह सकता। पहाड़ और स्त्री एक दूसरे के पर्याय है। पहाड़ को सुदंर बनाए रखने का श्रेय भी पहाड़ की बेटी को ही है । उसने यहॉ की हरियाली को बचाये रखने में अपना अप्रतिम योगदान दिया है- जब सब काटने में /मशगूल थे पहाड़ की देह /वे रोप रही थी / पहाड़ की देह पर नन्हें पौधे / रख रही थी / पहाड़ की जख्मी देह पर /नर्म हरे फाहे। पहाड़ी औरत का संघर्ष एक सामान्य औरत के संघर्ष से अलग तरह का है। यह संघर्ष दोहरा है जहॉ वह एक ओर समांती समाज के प्रतिबंधों से लड़ती है वहीं दूसरी ओर प्रकृति से । कब कौनसी ढॉग , कौनसा पेड़ तथा कौनसा जंगली जानवर उसे निगल जाय कहना मुश्किल है। पहाड़ में घास-लकड़ी लेने गई औरत के किसी चट्टान या पेड़ से गिरकर  मरने की बात आए दिन सुनाई दे जाती है। घरेलू काम-काज  का बोझ उसके ऊपर इतना अधिक होता है कि जीते जी वह चैन की नींद कभी नहीं सो पाती है ,इसलिए "ढॉक से फिसल कर मृत हुई अपनी सखी से विलाप करती एक स्त्री " कहती है- सोई रहो सखी /बहुत सालों के बाद /हुई है नसीब तुम्हें यह/ इतनी गहरी मीठी नींद। पहाड़ की स्त्री के इस दर्द को वही जान-समझ सकता है जिसने मॉ-बहन-पत्नी के रूप में उसे नजदीक से देखा हो। कवि निशांत स्त्रियों का बहुत सम्मान करते हैं। उनके संघर्ष को सिद्दत से महसूस करते हैं। वह "उपले" के माध्यम से भी औरत के संधर्ष को पढ़ते -देखते हैं - धूप में सूखते हुए / इन उपलों के चेहरों पे/पढ़ी जा सकती है/ उस औरत के संघर्ष भरे /दिनों की कथाएं/ खुरदरी हथेलियों का /प्यार भरा स्पर्श / कठुआई ऊंगलियों की थकान / पिछले दिन चुभे / कॉटों का दर्द भी / देखा जा सकता है / सूखते हुए इन उपलों के चेहरों पे। उपले पर केदारनाथ सिंह की भी एक कविता है परंतु यह कविता उससे अधिक यथार्थपरक कविता है । यहॉ उपले से स्त्री तक पहुंचा जा सकता है और स्त्री से उपले तक । उपला स्त्री के जीवन में ढॉढस की तरह है। उपले के बहाने औरत के दर्द को स्वर को प्रदान किया गया है।

कवि निशांत पहाड़ी जीवन के ही नहीं ,पहाड़ी मन के भी चितेरे हैं । वह बाहर का ही नहीं भीतर का चित्र भी उकेरते हैं। एक ठेठ पहाड़ी बाहर की दुनिया को किस उत्सुकता से देखता है इसको " डूबी हुई दिल्ली के बारे में " शीर्षक कविता में देखा जा सकता है। साथ ही यह कविता आजादी से मोहभंग की कविता भी है । आजादी के बाद देश के विकास की जो आशा आम आदमी के मन में जागी थी ,जो स्वप्न वह देख रहा था उसकी अभिव्यक्ति इस कविता में है- मॉ को लगता था / मानसून के बादलों की तरह / आजाद भारत के हर शख्स की खु्शियॉ / दिल्ली से चलती हुई करेंगी/ अपना सफर तय / देश के हर गॉव ,घर ,बीहड़ तक--- बहुत विश्वास था मां को /नेहरू और दिल्ली पर /बहुत विश्वास था मॉ को / अपने सपनों के सच हो जाने पर ।  यह विश्वास कितना विलक्षण था कि अपने घरेलू कामकाज में व्यस्त रहने वाली एक औरत नहीं जाना चाहती थी तीर्थाटन के लिए  पर  जाना चाहती थी वह अवश्य एक बार दिल्ली देखने। किसी तीर्थ से बड़ी थी जिसके लिए कभी दिल्ली। आश्चर्य ! जब वह सुनती है कि - दिल्ली में पैदा हुए आदमी को /नहीं मिल रही दिल्ली /नहीं मिल रहा है न्याय। दरकता जाता है उसका विश्वास । धीरे-धीरे खत्म होता जाता है दिल्ली देखने का उसका सारा उत्साह और उसके प्रति सारा प्रेम । वह परहेज करने लगी दिल्ली का नाम लेने से भी- जैसे दिल्ली,,दिल्ली न होकर /लुटेरों की नगरी हो । इस कविता के माध्यम से कवि सत्ता के चरित्र और उसकी हकीकत को अच्छी तरह व्यंजित कर देता है। सत्ता के इस चरित्र को और अच्छी तरह उघाड़ती है उनकी एक अन्य कविता " देश कोई रि्क्शा तो है नहीं " । एक लोककल्याणकारी राज्य का काम जनता को शिक्षा ,स्वास्थ्य ,पेयजल ,यातायात जैसी आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराना है ग्लोबलाइजेशन के चलते सरकारें इससे अपने हाथ पीछे खींच रहीं हैं । श्रम आधारित अर्थव्यवस्था के स्थान पर पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था को अधिक महत्व दिया जा रहा है । तथाकथित लोककल्याणकारी सरकार का काम देच्च में पूंजी के पक्ष में अनुकूल परिस्थितियॉ तैयार करना मात्र रह गया है। गरीब के बारे में सोचने और उसके लिए कुछ करने की सरकार के पास फुर्सत नहीं है। इस स्थिति पर निशांत की उक्त कविता करारा व्यंग्य करती है- सरकार के पास नहीं है फुर्सत/ हर गरीब आदमी की /चू रही छत का / रखती रहे वह खयाल /और भी बहुत से काम हैं / जो करने हैं सरकार को । वह काम क्या है कविता में आगे देखिए - भेजनी है वहॉ सेना / जहॉ लोग बनने ही नहीं दे रहे हैं/ सेज । कविता से यह बात निकलकर आती है कि सरकार पैंसे वाले लोगों के हित के लिए है - क्योंकि देश कोई रि्क्शा तो नहीं / जो फेफड़ों की ताकत के दम पे चले / वह तो चलता है पैसों से ।

कवि निशांत वैश्वीकरण-निजीकरण-उदारीकरण के फलस्वरूप हमारे समाज और समय में आ रहे परिवर्तनों को पकड़ने की कोशिश भी करते हैं। कवि मानता है कि इसने जितना बाहर बदला है उतना ही मनुष्य के भीतर भी बदला है । भीतर-बाहर के इस बदलाव को कवि ने - " गोपी ढाबे वाला " के माध्यम से लक्षित किया है । वै्श्वीकरण के चलते जहॉ उच्च या मध्यम तबके के जीवन में बहुत कुछ बदल गया है वहीं गरीब वर्ग के जीवन की स्थितियॉ लगभग वैसी ही बनी हुई हैं - कुछ भी नहीं बदला है / नहीं बदली है गोपी ढाबे वाले की / वही पुरानी सी कमीज / कॉधे पे पुराना गमछा ---कुछ भी नहीं बदला / यहॉ तक की ग्राहकों की शक्लें/उनकी बोल-चाल का ढंग/ढाबे के बाहर खड़े सुस्ता रहे/खाली रि्क्शों की उदासी तक । कवि जैसे जोर देकर कहना चाहता है बदल गया हो चाहे बहुत कुछ लेकिन आम आदमी के हालात नहीं बदले हैं- इस बीच बहुत कुछ बदल गया / इस शहर में / बड़े-बड़े माल सेंटरों ने /दाब लिया है / बड़े-बड़े लोगों का व्यापार / बड़ी-बड़ी अमीर कंपनियॉ / समा गई हैं बड़ी विदे्शी / कंपनियों के पेट में। कवि हैरान है पहाड़ की स्थितियों पर कि विकास की दौड़ में दुनिया के कुछ हिस्से कहॉ से कहॉ पहुंच गए हैं लेकिन वहॉ अब भी ढेर सारी मुसीबतें ही मुसीबतें हैं पर  वह इस बात पर खुश है कि शहरों में अब भी  गोपी जैसे लोग हैं जिनके भीतर आत्मीयता बची हुई है। पुराने दोस्त तो मिलते हैं इतना भर -जैसे पूछ रहा हो कोई अजनबी उनसे / अपना गंतव्य का पता ,दूसरी ओर गोपी ढाबे वाला है जो नहीं भूला है कुछ भी । वह मिलता है आत्मीयता से पूछता है " घर परिवार की सुख सांद" । कितनी प्रीतिकर बात है कि वह अब तक भी अपने ग्राहकों की रूचि और पसंद को नहीं भूला है। अभी भी एक वर्ग ऐसा है जिसके भीतर बचा है बहुत कुछ जो नहीं भाग रहा है  पैंसों के पीछे । पैंसे के अलावा भी बहुत कुछ है उनके लिए इस दुनिया में । उन्हीं के कारण बची है अभी रिश्तों की गरमाहट। सुरेश की कविताएं आत्मीयता को बचाने के संघर्ष की कविताएं हैं । इन कविताओं में यह बात दिखाई देती है कि जहॉ एक ओर उच्च- मध्यवर्ग में शुष्कता बढ रही है वहीं श्रम करने वालों के भीतर वह अभी भी बची है।

"बीज" कविता से भी वैश्वीकरण के प्रतिरोध की ध्वनि निकलती है । आज जब बीज भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले हो चुके हैं। परम्परागत बीजों का स्थान जी।एम।बीज लेते जा रहे हैं । ऐसे में यह कहना कि- बीज हूं मैं /मुझे मत बिसराना /किसी लालच में पड़कर /गिरवी मत रखना /मैं तुम्हारा ईमान हूं। काव्यात्मक तरीके से इस प्रक्रिया का प्रतिरोध है। बीज है जब तक किसान के पास अपना तब तक बची है उसकी स्वायत्तता । बचा है वह महाजन की टेड़ी नजर से । सीधी है उसकी रीढ़। पर आज जिस तरह हमारी सरकार "मोनसेंटो" जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बी।टी। बीजों को खरीदने के लिए बेताब दिख रही है, यह कहना कठिन है कि किसान की स्वायत्तता कब तक बची रहेगी ? कवि को उदारीकरण के फलस्वरूप होने वाली छॅटनी सालती है  तथा पच्चीस की उम्र में आत्महत्या करते हुए युवाओं की स्थिति वेचैन करती है। छॅटनी के कारण जनता में पनप रहे आक्रोच्च को भी कवि महसूस करता है । वह देख पा रहा है कि इसका कितना खौफ शासक वर्ग में है - हमारी तेज ऑच से डरकर / अपने चहुं ओर / लगा लिया है उन्होंने सख्त पहरा।

"सेब" कविता में जीवन को सेब की तरह मीठी बनाने की ललक व्यक्त होती है। सेब को कवि पसीने की स्याही से "खुरदरे हाथों" द्वारा लिखी चिट्ठी के रूप में देखता है। सेब को देखने का उनका यह एकदम नया अंदाज है- उकेरे हैं इस चिट्ठी में हमने / धरती के सबसे प्यारे रंग / भरी है सूरज की किरणों की मुस्कान / दुर्गम पहाड़ों से / हर बरस भेजते हैं हम चिट्ठी /संदेशा अपनी कुशलता का / सेब नहीं --- खुरदरे हाथों का जिक्र कवि त्रिलोचन के यहॉ भी आया है-मानव की सभ्यता / तुम्हारे खुरदरे हाथों में नया रूप पाती है। फिर केशव तिवारी के यहॉ और अब सुरे्श सेन के यहॉ भी। यह लोकधर्मी काव्यपरम्परा से कवि का जुड़ाव है। लोक की अंतर्धारा है जो निरंतर प्रवाहमान है । यह इस बात का प्रमाण है कि लोक से जुड़ा कवि खुरदरे हाथों को देखे  और उनके दर्द को व्यक्त किए बिना नहीं रह सकता है। नि्शांत " खुरदरी हथेलियों का /प्यार भरा स्पर्श / कठुआई ऊंगलियों की थकान " महसूस करने वाली काब्य परम्परा के संभावनाशील कवि हैं। उनके ही शब्दों में उनके बारे में कहना चाहुंगा -एक कवि जो - एक -एक द्राब्द को लाएगा / गहन अंधेरों में ढूंढकर ---तपेगा दु:ख की भट्ठी में /कितने ही रतजगे होंगे उसके।

सुरेश की कविता उन लोगों की कविता है जिनकी ऑखें जिंदा सपनों से सजी हैं जो् शहद बॉटते हैं अपने मेहनत का और धरती को अपने मजबूत इरादों से उर्वरा बनाते हैं । जिनके चेहरों में देखी जा सकती है पसीने से भीगे सावन की खुशी  जो उगती है खेतों में । भुट्टे की सौंधी-सौंधी महक से भरा रहता है जिनका संसार। श्रम से नहाई-नहाई सी रहती है जिनकी देह । कवि इन लोगों के  बीच रहना चाहता है कभी बीज बनकर, तो कभी कर्ज में डूबे किसान के बेटे का मनीऑर्डर ,कभी फल की मिठास ,कभी अंधेरे घर में ढिबरी में पड़े तेल सा ,तो कभी बरसों बंजर धरती में हलवाहे के पॉव और बैलों के खुर सा। कवि हर हमेशा उनकी मदद में रहना चाहता है । हर सुख-दु:ख में उनके साथ बना रहना चाहता है। जिस कवि को जनता से सच्चा प्रेम हो उसी की चाह हो सकती है ऐसी। उनके पात्र स्वर्ग और नरक के यकीनों से दूर इसी संसार में विश्वास एवं कर्म करने वाले हैं। आम जन में घुल-मिल जाने तथा उनका हो जाने की तीव्र लालसा इन कविताओं में बार-बार लक्षित होती है। कवि अपने-आप को उनसे अलग नहीं रखना चाहता है। कवि को उन साधारण मनुष्यों की ताकत में विश्वास है जो अपने श्रम से इस सुंदर संसार का निर्माण करते हैं। कवि श्रम करने वालों के पास जाना चाहता है - मुझे उनके पास जाना चाहिए / नमक की तरह / घुल जाना चाहिए / उनकी दोस्ती की संगम भरे जल में / पर मेरे मध्यवर्गीय संस्कार / हो जाते हैं मेरे रास्ते में खड़े/बनकर मुझसे बड़े /बस इन्हीं संस्कारों से है / मेरी लड़ाई /दुशमनों से तो बाद में लड़ लूंगा। यहॉ कवि खुद को कटघरे में खड़ा करता है । वह मानता है कि उनके सुख-दु:ख से एकाकार नहीं हुआ - एक दूरी है / जो पाटी नहीं गई मुझसे  जबकि कवि जानता है उनके बिना अधूरा है उसका जीवन।निशांत उन कवियों में से है  जिनकी मान्यता है कि कवि को ईमानदार होना चाहिए तथा कविता को होना चाहिए- अंधेरे में कंदील भर रोशनी/धूप में पेड़ भर छॉव / प्यास में घूंट भर जल । वे सच्चाई से दूर और तानाशाह के दरबार में चारण गीत गाने वाले कवि को खतरनाक मानते हैं। वे मजदूर-किसानों  से प्रेम करने वाले कवि हैं। इसीलिए तो  कवि उनकी ओर से कहता है - ध्यान रहे हम/ डंक भी मारते हैं/ जहर बुझा डंक/ कोई यूं ही हमारे छत्ते पे / मारे पत्थर अगर कोई। किसान-मजदूर का जीवन तथा उनसे जुड़ी चीजें निशांत की कविताओं के विषय बनी हैं।

" वे दस जन " कविता  समीक्ष्य संग्रह की एक महत्वपूर्ण कविता है । इस कविता को पढ़ते हुए काम की तलाच्च में पहाड़ आए नेपाल या बिहार के मजदूर याद हो आते हैं। उनकी पूरी दिनचर्या ऑखों के सामने  घुमने लगती है। काम के प्रति उनके समर्पण और ईमानदारी को देख मन सम्मान से भर जाता है- छोटे से छोटे काम को भी / हाथ मे ले लेते थे दस जन / उसे इस तरह करते / जैसे कुम्हार मगन होकर/ बनाता है घड़े / जैसे लुहार एकाग्र मन से चढ़ाता है/ दराती या कुल्हाड़ी पे सान/जैसे नहलाती है बहुत प्यार से / अपनी कोख के जाए को / कोई मॉ / जैसे कोई कवि बड़े मनोयोग से चुनता है/ छॉट-छॉट कर कविता के लिए शब्द / उसी तरह मेहनत और कु्शलता से/उसी तरह मेहनत और कुशलता से /भरते रंग अपने काम में / निखारते उसका रूप/उनके किए काम / बार-बार याद दिलाते उनकी।  अपने काम के प्रति एसी तन्मयता केवल मजदूर या किसान वर्ग में ही देखी जा सकती है पर दुर्भाग्य है इनके इस श्रम की ,श्रम के प्रति समर्पण की इस पूंजी केंद्रित समय में कोई कद्र नहीं - इज्जत जो पिता की मेहनत में रही/नहीं मिली जो जिंदगी भर मेहनती पिता को। सम्मान तो छोड़िए उनका शोषण अलग से है। इसी कविता में देख लीजिए कैसे कंपनी का ठेकेदार अपना काम निकल जाने के बाद उन दस जनों को काटकर नदी में फेंक देता है । कितना वीभत्स और अमानवीय है श्रम के प्रति यह व्यवहार - कोई मुआवजा नहीं/ कोई रिपोर्ट नहीं /बुझ गए दस घरों के दीए/पर कोई उदासी नहीं /खिले-खिले हैं बहुत / पुलिस और कंपनी के /अफसरों के चेहरे / जैसे कुछ हुआ ही नहीं। इस कविता में जहॉ एक ओर श्रमिक वर्ग की श्रम के प्रति समर्पण तथा श्रम की महत्ता के दर्शन होते हैं वहीं दूसरी ओर धनी वर्ग की संवेदनहीनता और स्वार्थपरता के भी। कवि का विश्वास है कि मानव के सपनों को पूरा करना है तो वह श्रम के द्वारा ही संभव है । अंधेरे का अंत श्रम करने वाले लोग  ही करेंगे और -वे पूछेंगे कि क्या /ये धरती सभी के लिए नहीं बनी है। मजदूरों पर इतनी सुंदर कविता वही लिख सकता है जिसके मन में वास्तव में श्रम के प्रति श्रद्धा हो।

सुरेश सेन की कविताओं में प्रकृति और मनुष्य के बीच जीवंत साहचर्य उदघाटित होता है। उनकी प्रकृति निर्जन प्रकृति नहीं है। वे कविताओं के अधिकांश बिंब प्रकृति से लेते हैं जिसके कारण उनकी कविताओं में सरसता बची हुई है । इस तरह के ताजे और सुकोमल बिंब प्रकृति के नजदीक रहने वाले कवि के पास ही हो सकते हैं- जरा स्नेह से /भीग जाते थे जिनके मन / महकने लगती थीं रातरानी सी/जरा से स्पर्श से / छूने लगती थीं आसमान / जरा सी बारिश में भीग कर /लहलहाने लगती थीं फसलों सी /बिखेरने लगती थीं हरापन /जीवन की खुच्ची । आज की कविता में जिस तरह से प्रकृति के दृ्श्य या बिंब गायब होते जा रहे हैं कविता शहरी होने लगी है ऐसे में जब भी किसी कविता में इस तरह प्रकृति के चित्र आते हैं बहुत अच्छा लगता  है। उनकी कविताओं के जन बदलते हुए पर्यावरण को देख दुखी हैं। ये वे जन हैं जिनकी आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं। उनका दु:ख केवल अपना दुख नहीं है बल्कि प्राणि मात्र का दु:ख है । उनकी चाहतें भी छोटी-छोटी हैं- बहुत बड़ी नहीं है /हमारी प्यास /बीजों के जिंदा रहने भर से / पेड़ों के मुस्कराने भर से / चिड़ियों की खुशनुमा चहचाहट से / मिट जाती है हमारी प्यास /खिल जाती है हमारी खु्शी।

एक ऐसी उम्र जो खेलने-कूदने,गाने-बजाने,पढ़ने-लिखने और तितलियों या परियों के स्वप्न देखने ,गुड़िया-गुड्डे बनाने  की उम्र मानी जाती है ,यदि उस उम्र में किसी बच्चे को काम पर जाना हो ,वह भी ऐसी अवस्था में जबकि वह अस्वस्थ हो वास्तव में इससे बड़ी दु:ख और शर्म की बात क्या हो सकती है एक "सभ्य " समाज के लिए । ये भी तब जबकि सबकुछ है हस्बेमामूल । बिल्कुल सही कहते हैं वरिष्ठ कवि राजेश जो्शी अपनी एक कविता में - बच्चे काम पर जा रहे हैं / हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह/भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना / लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह/ काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?। आखिर वह कौन सी स्थितियॉ हैं जो एक बच्चे को काम पर जाने को मजबूर करती हैं ? निशांत की  "काम पर लड़की " और "पीठ" कविताएं इसकी पड़ताल करने की कोशिश करती हैं। उन मजबूरियों की ओर संकेत करती हैं जिसके चलते दस साल की छोटी सी उम्र में बच्चों को काम पर जाना पड़ता है। ये कविताएं पाठक को विचलित कर देती है। हमारे समाज की संवेदनहीनता पर करारी चोट करती हैं । "काम पर लड़की " कविता की अंतिम पंक्तियॉ हैं -कोई नहीं कहता उसे /सो नहीं पाई तुम /रात भर खॉसी से / तपा हुआ है अब भी तुम्हारा माथा / रह जाओ घ्ार पर / आज तनिक । कितनी भयावह है यह स्थिति कि लड़की बीमार है फिर भी काम पर जा रही है। यह कैसी विवश्ता है उस दस वर्षीय लड़की की ? यह पंक्तियॉ सोचने को मजबूर करती हैं । आखिर कौन है जिम्मेदार इस स्थिति के लिए। कुछ यही बात "पीठ" कविता में है। यह किसी एक दस वर्षीय लड़के की पीठ नहीं बल्कि एक पूरे वर्ग विशेष की पीठ है जो हमेशा किसी दूसरे के चढ़ने के लिए बनी है । यह पीठों का एक पूरा सिलसिला है जिसे जब चाहा जैसे चाहा दूसरे वर्ग ने रौंदा है।केवल इसमें चढ़े ही नहीं हैं बल्कि इसकी खाल भी उधेड़ी है। हमारा पूरा वर्गीय समाज तथा उसकी हृदयहीनता इस कविता में दिखाई देती है। कवि को इन कामकाजी बच्चों की दच्चा कितने गहरे तक  कचोटती है वह इन पंक्तियों से पता चलता है- अभी बसंत उतरने को ही था /पतझड़ ने उतार दिए पत्ते सारे/टूट गई नींद /उदास है पीला उजैला/कुम्हलाए हैं/चेहरे फूलों के भी । इन बच्चों के भीतर के दर्द को कवि महसूस करता है तभी तो वह कहता है- इस पीठ पर / प्यार से हाथ फेरो / तो कोई भी सुन सकता है/दबी सिसकियॉ । निशांत की "पीठ " कविता को पढ़ते हुए चंद्रकांत देवताले की कविता "थोड़े से बच्चे और बहुत सारे बच्चे" याद आ जाती है।


हर कवि के लिए जरूरी होता है कि वह अपने कवि समय को पहचाने । वस्तुसत्य और आत्मसत्य का संतुलन बनाए। निशांत अपने समय को कुछ इस तरह से पहचानते हैं- आततायी हैं खुश कि / धवल हैं उनके वस्त्र सफल हुए हैं वे / लहलहा रही है खूब/ उनके अनाचार की फसल/धर्म भी है खु्श / फल-फूल रहा है दिन दूना /उसका भी कारोबार / झूठ के सिक्के का भी /निखरा हुआ है रंग खूब/इस कृशकाय रंग उड़ी/सत्य की देह को देख। पर कवि को इस बात का सकून है कि भले ही झूठ का सिक्का अपनी चमक-दमक के साथ चल रहा हो बावजूद इसके बची है ईमानदारी । अभी भी लोग झूठ के सिक्के के चलने को अच्छा नहीं समझते । घ्रणा है लोगों में उसके प्रति। यह कवि की मानवीय मूल्यों के प्रति गहरी आस्था का प्रतीक है। सभ्य हुए हम इस तरह/सिमटते गए अपने ही खोल में। यह है आज के समय का कटु सत्य।जिसकी कवि आलोचना करता है। कवि जीवन की ऊॅच-नीच को समझाते हुए कभी थपथपाता है उदास कंधा तो कभी बॉटते हुए दुख को उतारता है मन का बोझ। ये कविताएं हमारे समय के बारे में हमसे बातचीत करती हैं । हालातों के बारे में भी बताती हैं। सचेत करती हैं उस संकट के प्रति जिसे हम आज किसी दूसरे का संकट मानकर चुप बैठे हैं कल वह  हमारा संकट भी हो सकता है -मैं कह रहा हूं उनसे/मेरी और आपकी छाल में/नहीं है कोई फर्क / एक सी है हमारी देहें/एक सा झरता है उनसे पसीना/उन्हें नहीं मिलूंगा जब मैं/ तो रानी तुम्हारी ओर उठाएगी ऊंगली । साथ ही  उनको बचाने की अपील भी करती हैं जो धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं जिनका बचाय जाना सुंदर व स्वस्थ समाज के लिए जरूरी है। विपद में पड़े लोगों या प्रकृति के प्रति सहानुभूति और करूणा उनकी कविता की प्राथमिक भूमिका है। वे जड़ प्रकृति में भी गहरी मानवीय संवेदना की स्थिति देख लेते हैं और उसे सरलता से व्यक्त कर देते हैं। इन कविताओं में नमक और नींबू का रस लगे भुट्टों का स्वाद हमें मिलता है।

 " राजधानी की सड़क " कविता के माध्यम से कवि विकास के पूंजीवादी मॉडल पर प्रश्न खड़ा करता है । उसका मानना है कि यह मॉडल आम आदमी के हित में नहीं है। विकास सही अर्थों में विकास है जब वह समाज के अंतिम पायदान में खड़े आदमी तक पहुंच सके। विकास जरूरी है पर इससे अधिक जरूरी है कि विकास के चलते हुए ,समाज और समय की क्रूरता में कमी आए । दुनिया अधिक मानवीय हो । शोषण -उत्पीड़न समाप्त हो। कवि अपने समय की विषमता तथा मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन का आलोचक है। उनकी कविता समाज के निम्नतम पायदान में खड़े लोगों की पीड़ा और संघर्ष को स्वर प्रदान करती है तथा सामाजिक सरोकारों और जीवन मूल्यों को प्रतिबिंबित करती है। इनकी कविताओं के नायक समाज के साधारण से साधरण आदमी हैं जो समाज में अधिकांशत: उपेक्षा और तिरस्कार झेलने के लिए अभिच्चप्त हैं। इस तरह वे उस सौंदर्य परम्परा को आगे बढ़ाते हैं जिसके दर्शन हमें निराला,नागार्जुन ,त्रिलोचन ,केदार आदि जनकवियों में होते हैं। नि्शांत लोकरंग और जीवनराग के कवि हैं । कविता को जीवन के समीप ले जाते हैं। जीवन में आ रहे मानवीय मूल्यों की गिरावट कवि की चिंताओं में शामिल है। उनकी कविताएं मासूम और निष्कपट हैं।पर ये अपने समय के विरूप को बखूबी व्यक्त करती हैं। कवि निच्चांत अंधेरे से उजाले तक का सफर तय करना चाहते है। वे अंधेरे को तो उदघाटित कर पाते हैं  लेकिन उन कारणों को पूरी तरह चिह्नित नहीं कर पाते है जो इस अंधेरे के लिए जिम्मेदार हैं।यह कवि की सीमा है  अंधेरे के खिलाफ जो प्रतिरोध है उसे कविता में दर्ज नहीं कर पाए है। इनमें भावना की सधनता और अनुभवों की प्रबलता है पर कहीं -कही द्वंद्वात्मकता की कमी भी है।

अपने समकालीन कवि मित्रों पर कविता लिखने की एक लंबी परम्परा रही है । दरअसल यह कवि मित्रों को याद करना या कृतज्ञता व्यक्त करना मात्र नहीं बल्कि इस बहाने पूरे कवि-समय को देखना होता है । उन प्रवृत्तियों को जानना-पहचानना और व्यक्त करना है जो किसी को कवि व्यक्तित्व प्रदान करती है। इस संग्रह में निशांत ने अपने मित्रों को अनेक कविताओं में याद किया है।उनके लिए ईश्वर से बढ़कर है मित्रों का दर्जा। वे मित्रों से जीने की नई उर्जा ग्रहण करते हैं। ऐसे समय में जब लोग दोस्ती भी किसी स्वार्थ के चलते करते हैं । हर रि्श्ता लाभ-हानि के गणित पर निर्भर होते जा रहा है कवि का मित्रता पर इतना गहरा विश्वास  दुनिया को मित्रवत बनाने की उनकी आकांक्षा का परिचायक है। यह अपने तरीके से उपभोगवाद का निषेध भी है।यहॉ मित्रों पर लिखी कविताओं में एक अलग तरह की आत्मीय तरलता है। एक ऐसी तरलता जिसमें कठोर से कठोर दिल पि्घल जाए। दोस्ती करने को मन ललचाए। एक दूसरी की ताकत बनते हैं दोस्त । कविता इस दोस्ती को पुष्पित-पल्लवित करने का काम करती है। एक कविता में वे कहते हैं- दूर थे हमारे घर/अलग-अलग सूबों में /पर इतने नजदीक /एक ही छाता था कविता का / जिसके नीचे खड़े थे हम भीगते हुए/ दु:ख की इस बारि्श में । दे्शकाल परिस्थिति की सीमाओं से बाहर है उनकी मित्रता। त्रिलोचन की तरह वे देवता नहीं मनुष्य खोजते हैं।दूसरों के दिलों में बैठकर जिंदा रहने वाले इंसान हैं सुरे्श इसलिए उनकी कविताओं में इतनी गहरी रागात्मकता है। उनके जो दोस्त हैं जिनका जिक्र उनकी कविताओं में आया उन्हीं की तरह के हैं- जो दूसरों की  ऊंगली में लगी चोट का दर्द और दूसरों के खामोशी का अर्थ समझते हैं। जो बुझे चूल्हों के लिए आग और उदास होंठों के लिए ईमानदार हॅसी मॉगते हैं। जिनके दोस्त वे खुरदरे हाथ हैं जो सुबह से शाम तक काम में मशगूल रहते हैं।

निशांत की कविता अपने मूलवर्त्ती रूप में बहुत ही सादी और सहज हैं । ये बोलचाल के गद्य में लिखी गई है जिसमें लय भी सामान्य बोलचाल की ही है। इन्हें सच्चे अर्थों में जनता की कविता कहा जा सकता है। जनता के लिए लिखी जाने वाली कविता ऐसी ही होनी चाहिए। वाग्वैदग्धता से दबी कविता , और किसी की हो भले जनता की नहीं हो सकती । इनकी कविता सीधे पाठक के मन में उतरती हैं । सहज संप्रेष्य और बोधगम्य हैं ये कविताएं । वे कविता को रहस्य नहीं बनाते हैं।यह कवि अन्य बहुत सारे कवियों की तरह सूक्तियों में बात नहीं करता । न कहीं उलझाता या भरमाता है। आवरणधर्मी और अमूर्त कविताओं पर सुरेश का वि्श्वास नहीं लगता क्योंकि उनकी कविता कुलीन और धापे-धींग वर्ग के लिए नहीं है उनकी कविता तो है उनके लिए -चिंतित रहे जो /दूजों की प्यास और थकान को लेकर । वे जो कहते हैं सच्चे सीधे ढंग से और दो टूक शैली में कहते हैं। वे कविता के लिए जीवन का रस जीवन से खींचने वाले कवि हैं।  जो वह स्वयं महसूस करता है उसी रूप में दूसरों को महसूस कराने का सफल प्रयास करता है। यह सरलता और सादगी यूं ही नहीं आ जाती इसके लिए कड़ी मश्क्कत करनी पड़ती है। अपने स्व को त्यागना पड़ता है। सरलता की साधना कठोर साधना होती है। जन से गहरे जुड़ने से ही इस तरह की सरलता संभव होती है। जन की संवेदनाओं से तादात्म्य स्थापित करना पड़ता है। नागार्जुन ,त्रिलोचन ,केदार सरीखे कवियों के यहॉ हमें यह दिखाई देता है। इस तरह निशांत अपने को लोकधर्मी परम्परा से जोड़ते है। निशांत में यह जनसंपृक्ति बनी रही तो वे एक कवि के रूप में बहुत आगे जाऐंगे। उनकी कविताओं में और अधिक गहराई एवं संश्लिष्टता आएगी । बस कवि को अपना पथ और अपना पक्ष नहीं छोड़ना है।
                         
पुस्तक: वे जो लकड़हारे नहीं हैं (कविता संग्रह)
रचनाकार:  सुरेश सेन नि्शांत
मूल्य: 200 रुपए
प्रकाशक: अंतिका प्रकाशन
               सी-56/यूजीएफ-4च्चालीमार गार्डन एक्सटेंशन-2
               गाजियाबाद -201005
                                             

5 comments:

कविता रावत said...

सुरेश सेन निशांत जी की पहाड़ी प्रष्टभूमि को लेकर लिखी " वे जो लकड़हारे नहीं हैं " में पहाड़ का संघर्ष साफ़ दृष्टिगत होकर अंतर्मन से महसूस किया जा सकता है. आपकी समीक्षा पढ़कर साफ़ जाहिर होता है की कवी ने बहुत ही गहराई और करीब से उन दर्द को समझा ही नहीं अपितु जिया भी है और इसमें कोई संदेह नहीं की जो भी रचना खुद जी कर रची जाती है वह एक अमिट छाप छोड़ने में कामयाब तो होती ही है अपितु वह कठिन हालातों में जीने वाले लोगों को एक नया रास्ता भी दिखलाने में सहायक होती है ....
संग्रह की सार्थक समीक्षा प्रस्तुति के लिए आपका आभार..
नवरात्री के साथ ही दशहरा और संग्रह की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनायें!

अजेय said...

अपने समय के एक सच्चे कवि को समझने समझाने की एक ईमानदार और निर्दोष कोशिश.
*पहाड़ को पहाड़ की आँख से देखना *

महत्व पूर्ण पोस्ट

स्वप्नदर्शी said...

अच्छा होता कि आपने ४-५ कवितायें, सीधे पाठकों के सामने रखी होती. कुछ सीधा संवाद बनता. इतनी लम्बी समीक्षा पढने के बाद भी लगता है, कवि कहीं दूर खड़ा है. कविता उससे भी दूर. लेख में बीच में कविता के जो अंश है, उन्ही के बीच कुछ जगह छोड़कर उन्हें पठनीय बनाया जा सकता है.

leena malhotra said...

महेश पुनेठा जी कि समीक्षाओं को पढना एक अनुभव से गुज़रना होता है.. जिस तरह उन्होंने कवि की एक एक कविता, भाव और प्रकृति को परत धर परत उकेरा है वह कोई आसान काम नही है.. बल्कि कवि के मन में चल रहे राग विराग अन्तर्विरोध और द्वंदों को पढने जैसा है. .. उन पात्रों की झेली हुई मुसीबतों और कठिनईयों का दर्द अपने सीने में महसूस करने जैसा है...इस तरह की समीक्षाए एक ऐसे पाठक को विशेष रूप से लाभान्वित करती हैं जो स्वयम कवि नही हैं. सुरेश सेन निशांत जी कि पुस्तक 'लकडहारे .. को पढने कि उत्कंठा बढ़ गई है..प्रकृति के साथ हमारा सिर्फ भौतिक नही बल्कि सांस्कृत रिश्ता है... और वाही मजदूर पेड़ों को काट रहे हैं.. यह दुःख मेरे भीतर तक प्रवेश कर गया है... यह एक सफल कविता और उस पर लिखी हुई एक सफल समीक्षा का ही प्रभाव है.. निशांतजी को शुभकामनाएं और महेश जी आपको बहुत बधाई और सलाम.

Unknown said...

तब मैं बी.ए.कर रहा था किसी पत्रिका में निशांत जी की एक कविता पढ़ता हूँ और इतना प्रभावित होता हूँ कि कवि को फोन करता हूँ बात होती है अभावों का दौर था कवि की और कवितायेँ पढ़ने की इच्छा व्यक्त करता हूँ एक दिन यह संग्रह हमारे पते पर आता है बहुत खुशी होती है डाक से प्राप्त हुई पहली पुस्तक थी |पुस्तक पढ़ कर कवि को अपनी प्रतिक्रिया भेजता हूँ सच बहुत अच्छा लगा था