Wednesday, December 21, 2011

प्रतिनायक का चेहरा क्यों लगता है नायक सा


नायक का चेहरा ज्यादा स्पष्ट करने की कोशिशों में प्रतिनायकों के चेहरे इधर कुछ ज्यादा अस्पष्ट हुए हैं या उनको स्पष्ट चिहि्नत करने के लिए जो रोशनी चाहिए थी वह धुंधलाती गयी है। भ्रष्टाचार की राष्ट्रव्यापी मुहिम के दौरान की स्थितियां इस बात की प्रत्यक्ष गवाह रही हैं। भूमाफिया, दलाल, भ्रष्टता के सिरमौर-कितने ही राजनीजिज्ञ और शासक-प्रशासक, लिंग, जाति और क्षेत्रीय भेदों को स्थापित करने में जुटे ताकतवर एवं समाजविरोधी लोगों की एक जुटता में प्रतिनायकों की कितनी ही छवियां धुंधलायी हैं। मीडिया, कारपोरेट जगत और एन।जी।ओ की भ्रष्टता तो भ्रष्टतंत्र की स्थापना के लिए अपने ही नक्शे की जिद के साथ नायकत्व के रूप्ा में मौजूद रही है। स्पॉन्टेनिटी के किसी ऐसे आंदोलन के दौरान जिसमें जनता का एक बड़ा हिस्सा आंदोलनरत हो जाता है, अन्यत्र भी ऐसी स्थितियों को बार-बार देखा जा सकता है। स्थितयों की ऐसी जटिलता जिसमें सही और गलत को स्पष्ट तरह से चिहि्नत न कर पाना संभव हो रहा हो उसको समझने के लिए रचनात्मक दुनिया का सहारा लिया जाये तो बहुत कुछ ऐसा है जो साफ साफ दिखने लगता है। 
दैवीय शक्तियों से सुसज्जित हिन्दी फिल्मों के नायकों की बहुत शुरू से लगातार बनी रही उपस्थिति में पुनरावृत्ति की कितनी ही मिसालें हैं जिन्हें फिल्म दर फिल्म गिनाने की शायद जरूरत न पड़े। सवाल है कि क्या इसे कहानी का फिल्मांकन मात्र माना जाये या कथा के मूल में ही इसकी उपस्थिति के चिह्न मौजूद हैं, ऐसा ढूंढा जाये ? हिन्दी कथा साहित्य की दुनिया से गुजरते हुए समकालीन कहानियों के हवाले से बात की जाये तो प्रतिनायकों या खलनायकों को ही नायकत्व देने की प्रवृत्ति कुछ आम हुई है। यानी मूल कथा के एक सूक्ष्म से बिन्दु को ही कैमरा अपनी तकनीकी विशेषताओं से विस्तार देते हुये है। सनसनीखेज खबरों के उत्स भी कथा साहित्य की दुनिया से ही जन्म लेते हुये हैं। फिल्मों में या डिजिटल खबरों की दुनिया में नायक के पीछे लगातार दौड़ता एक कैमरा है जो खांसने, छींकने और हाजत फरागत के दृश्यों में ही नायक की तस्वीर को बार बार पकड़ ही नहीं रहा है अपितु चेहरे पर उठते भावों को रेशा दर रेशा कई गुना करते हुए संवेदनशीलता का ऐसा पाठ रच रहा है जिसमें लगातार असंवेदनशील हो जाने की कथा जन्म लेती हुई है। 
फिल्मों और हिन्दी की कुछ कहानियों के हवाले से ऊपर उठे प्रश्नों के जवाब खोजना चाहें तो इधर आयी ''थैंक्स मां" इरफ़ान कमाल की पहली फिल्म है। यूं मात्र 7 मिनट के शुरूआती दृश्य में ही फिल्म मुंम्बइया समाज के उस अंदरुनी हिस्से का बयान होकर आती है जिसमें झोपड़ पट्टी के बच्चों का जीवन दिखायी दे जाता है। जीवन के संघ्ार्ष से निर्मित आपसी छीना झपटी और मारकाट से भरा उनका संसार बेहद निराला है। अपनी मां, यानी अपने अतीत को तलाशता म्यूनैसपैलिटी (एक पात्र) का एक नवजात शिशु को लेकर इधर उधर भटकना त्रासद कथा है। लेकिन समग्र प्रभाव में फिल्म उस तरह से असरदार नहीं हो पाती कि दर्शक की चिन्ताओं का हिस्सा हो जाये। यहां जफर पनाही की इरानी फिल्म 'द मिरर" का याद आ जाना कतई अस्वाभाविक नहीं।
''यह मेरा बस स्टाप नहीं।""
गलत जगह पर पहुंची हुई 'द मिरर" की नायिका मीना कठिन परिस्थिति के बीच भी आत्म विश्वास के सजग बिन्दु से भरी है। लेकिन थैंक्स मां की कथा में कथ्य की भिन्नता भारतीय समाज की भिन्नता के साथ है। गुम हो गये अपने बच्चे की स्मृतियों में विक्षिप्त हो गई मां की कातरता बेहद विचलित करने वाली है,
''यह मेरा बच्चा नहीं है। मेरा बच्चा चार महीने का है।""
बच्चे को तलाशती थैंक्स मां की स्त्री और अपने घर को तलाशती 'द मिरर" की मीना की मानसिक बुनावट में ही कोई भिन्नता है या इसके इतर भी कोई कारण है ? जबकि स्थितियों की त्रासदी दोनों जगह कमोबेश एक है। इस अंतर का कारण क्या दो भिन्न समाजों की वजह है या दृश्य को संयोजित करती कैमरे के पीछे की आंख ?  
 'द मिरर" की कथा नायिका-बच्ची को अपना घर मिल जाता है पर थैंक्स मां के कृष को उसकी मां नहीं मिल पाती और न ही कृष को उठाये उठाये घूमने वाले म्यूनैसपैलिटी को उसकी मां मिल पाती है। कृष की मां को ढूंढने में यदि म्यूनैसपैलिटी कामयाब हो जाता तो उसे अपनी मां के भी मिल जाने जैसी खुशी होती। यह काव्यात्मकता थैंक्स मां को एक महत्वपूर्ण फिल्म बना देती है। लेकिन फिल्म का यह अंत नहीं। वह तो गैर सरकारी संस्थाओं का एजेण्डा है- भ्रूण हत्या जैसा ही कुछ। 
यूं "थैंक्स मां" को देखने का आनन्द बच्चों के आपसी रिश्तों के दृश्य में है। मसलन फिल्म का एक पात्र जिसका नाम सोडा है उस वक्त बेहद चालाकी भरा नजर आता है जब सबसे पैसे मांगता है और उन्हें दस गुना कर देने का लालच देता है। उन बच्चों के समूह में एक बच्ची भी है जो अपने साथियों के बीच बिना इस मानसिकता के कि दूसरों से लैंगिक रूप में भिन्न है, बहुत स्वाभाविक बनी रहती है। बच्चों की इस उपस्थिति को आकार देने में निर्देशक की भूमिका इसलिए गौण मानी जा सकती है कि जैसे ही कैमरे में रची गई कहानी के दृश्य और बहुत सजग किस्म के कलाकार नजर आते हैं तो मानवीय संबंधों की वह ऊष्मा जो तलछट का जीवन जीते बच्चों को कैमरे में कैद कर लेने पर दिखायी दी थी, गायब हो जाती है। जरूरत से ज्यादा लाऊड होते रघुवीर यादव एक स्वाभाविक कलाकार की स्थिति में भी नजर नहीं आते। जबकि गैर परम्परागत कलाकार बच्चे ज्यादा स्वाभाविक अभिनय करते हुए हैं। कलाकारों के अभिनय पर बहुत बात करने की जरूरत उस विचार बिन्दु को रखने के लिए ही है जिसमें समकालीन रचनाजगत के हवाले को तथ्यात्मक तरह से रखा जा सकता है। तथ्य बताते हैं कि न सिर्फ लेखन में बल्कि कला के अन्य क्षेत्रों में भी सक्रिय तमाम रचनाजगत ने प्रगतिशीलता के जो मानक गढ़े हुए हैं यूं तो उनके इर्द-गिर्द ही रचनात्मक दोलन की गति दिखायी देती है। पर गढ़ी गई प्रगतिशीलता के दायरे में दोलन की तरंग दैर्ध्य बढ़ जाने का वैसा अहसास संभव नहीं हो पाता जैसा प्रतिबद्धता के साथ संभव हो सकता है। प्रतिबद्धता के मायने जफर पनाही के मार्फत कहें तो "द मिरर" की नायिका मीना जिस गली को ढूंढ रही उसका नाम "विक्टरी एवेन्यू" अनायास नहीं। मीना उस चौक की पहचान बताने में बेशक असमर्थ है जहां से एक रास्ता विक्टरी एवेन्यू को जाता है लेकिन अनभिज्ञ नहीं। उस जगह पर पहुंचकर वह गाड़ी रुकवाती है, किराया चुकाती है और ड्राइवर को खुदा हाफिज कहते हुए दौड़ पड़ती है भीड़ भरे रास्ते को पार करती हुई। जफर पनाही का कैमरा बहुत लांग शॉट लेता हुआ होता है। पूरे तीन सौ साठ डिग्री में घूमता हुआ। कोई भी स्थिति उस लांग शॉट के भीतर किरदार नजर आती है और किरदार की उपस्थिति बेहद स्वाभाविक या, किरदार का किरदार होना नहीं बल्कि यथार्थ के बीच किसी का भी होना हो जाता है। दर्शक के लिए सहूलियत बनता हुआ कि वह खुद को भी उस स्थिति में देख सके। एक ऐसे ही अन्य दृश्य में मीना बस में है। पार्श्व में उभरती आवाजें हैं। कैमरा जब मीना को फोकस किये है आवाजें तब भी हैं और बेहद स्पष्ट। उन आवाजों का लब्बो लुआब है कि मीना मां के सहारे के असहसास के साथ है। आत्मीय सहारे की तलाश करती बूढ़ी स्त्री है और उम्र के कारण अकेले हो जाने का भय उसके भीतर व्याप्त है। दूसरी स्त्रियों की बातचीत में पति से संबंधों के विवरण हैं। समाज के भीतरी ढांचे को व्यक्त करने के लिए जफर पनाही किसी अलहदा चित्र का सहारा लेने के बजाय मूल कथा के विस्तार में ही बहुत चुपके से दाखिल होते हैं बावजूद इसके कि कैमरा अब भी ज्यादातर विक्टरी एवेन्यू को तलाश करती मीना पर ही फोकस रहता है।
इधर सचेत तरह से बनायी गयी इरानी फिल्मों की उल्लेखनीय विशेषता है कि मानवीय तकलीफों का ताना बाना उनमें बहुत साफ तरह से उभरा है। जीवन को दुर्लभ बनाते तंत्र को दर्शक उनमें बहुत अच्छे से पहचान सकता है। तकलीफों में जीते लोगों के भीतर हमेशा मौजूद रहने वाली आत्मियतायें उसे हिम्मत बंधाती हैं। रास्ता भटक गयी बच्ची को सही सलामत घर पहुंचा सकना उनकी सामूहिक चिन्ता का कारण है। खुद की परेशानियों के बावजूद मुसीबत जदा किरदार की परेशानियां उनकी प्राथमिताओं का हिस्सा हो जाती हैं। परेशानियों से घिरे होने के बावजूद खीझ, झल्लाहट या गुस्से के भाव उनके चेहरों पर कभी अपना अक्श नहीं बिखेरते। जफर की ही एक अन्य फिल्म "व्हाइट बेलून" में भी इसे देखा जा सकता है। मजीदी की "चिल्ड्रनस ऑफ हेवन", "पेराडाइज", हाना मखमलबाफ की "बुद्धा कोलेप्सड आउट ऑफ सेम" या अन्य बहुत सी फिल्में हैं जो इरानी अफगानी सिनेमा का एक बहुत आत्मीय और बेबाक संसार रच रही हैं। इनके बरक्स इधर हिन्दी सिनेमा की 'थैंक्स मां, "सल्मडॉग मिलेनियर", "थ्री इडियेट", नंदिता दास की "फिराक" या लोक प्रिय धारा की "ए वेडनस डे", "गुलाल" और दूसरी बहुत सी फिल्मों में देखते हैं कि यथार्थ की उपस्थिति आक्रामकता के पुन:सर्जन में बहुत प्रत्यक्ष होना चाहती है। यथार्थ के प्रत्यक्षीकरण में इन फिल्मों से जो कि ध्वनित हुआ है उसमें झूठे और अमानवीय तंत्र के प्रतिरोध की चेतना की बजाय पाठक हताशा और निराशा में घिर जाने को विवश है। हत्या, मारकाट और साजिशों का प्रत्यक्षीकरण इतना एकांगी है कि जीना ही मुश्किल लगने लगता है। समाजिक विद्रुपताओं के दुश्चक्र की बारम्बारता भयानक से भयानक दृश्य रचती है। एक क्षण को उनके प्रभाव इतने गहरे होते हैं कि वे दर्शक के भीतर बहुत स्थाई और संवेदना को ही पूरी तरह से कुंद कर देते हैं। जो कुछ परदे पर घट रहा होता है उसका घटना एक स्वाभाविक सी घटना हो जाता है। परिस्थितियां बेहद विकट होती हैं लेकिन विकटता के सर्जकों की कोई तस्वीर नहीं बन रही होती है और न ही उनसे बच निकलने की कोई आत्मीय गतिविधि नजर आती है। बेहद क्रूर तरह से बच्चों के अंग भंग के दृश्य और तमाम अमानवीय कार्यों को करवाने को मजबूर कर देने वाली निर्ममताओं के कितने ही दृश्य हैं जिन्हें ऊपर दर्ज फिल्मों में और इधर की अन्य फिल्मों में देखा जा सकता है। यहां अमानवीयता के दृश्य का एक चित्र हाना मखमलबाफ की फिल्म 'बुद्धा कोलेप्सड आउट ऑफ सेम" से याद किया जा सकता है। हाना की यह फिल्म तालीबानी आक्रमकता के बाद जीवन जीते अफगानी बच्चों के खेल के रूप में हैं। तालीबानी तालीबानी खेलते बच्चों के बीच बामियान की मूर्तियों को तोड़ने से लेकर स्त्रियों को दासत्व की स्थितियों तक पहुंचाती कथा के बीच 'मुक्तिदाता" अमेरिकी बम वर्षकों के दृश्य हैं। तालीबानी बने बच्चे अमेरिकी बम बारियों से बचते हुए अपने आक्रामक खेल को जारी रखना चाहते हैं। अमेरिकी सिपाहियों को अंधे कुओं में डूबो कर मार देने की साजिश रचते हैं। एक गढढा खोद कर बहुत गहरे तक उसमें पानी भर भूरभूरी मिटटी को ऊपर से डाल उसे दल दल बना देते हैं। कैद की हुई स्त्रियों का छुड़ाने आते अमेरिकी सिपाही को वे उस दल दल में धंस जाने को मजबूर कर देते हैं। दलदल से सना बच्चा, यह दृश्य बिल्कुल उस दृश्य की तरह जैसा स्लमडॉग मिलेनियर में संडास के गढढे में गिर गया बच्चा है और जिसे देखना बेहद उबाकई से  भर जाना है, बहुत ही मानवीय ओर बुद्ध नजर आने लगता है। दृश्य एक दम स्पष्ट हो जाता है कि मुक्ति के नाम पर विध्वंश का खेल रचती अमेरिकी चालाकियों से हाना न तो खुद इत्तफाक रख रही हैं और न अपने दर्शकों के बीच किसी भी तरह की गलतफहमी को पनपने देती है। यह सवाल हो सकता है कि मुक्ति का रास्ता तो बुद्ध की करूणा में भी पूरा पूरा नहीं दिखता लेकिन इससे यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि जो भी संभावित सकारात्मकता है उसको तो चुना ही जाना चाहिए। और उस रास्ते पर ही फिल्म बेहद प्रभावशाली ढंग से उस तालीबानी आक्रमकता का विरोध दर्ज करती है जो स्त्रियों को गुलामी की स्थिति तक पहुंचा देना चाहती है। हिंसा के खेल को बुद्ध की सहजता से पार पाने की युक्ति बेशक अतार्किक और अव्यवहारिक हो पर युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ जिस खूबसूरती से दृश्य रचती है उसमें खेल चरमोत्कर्स तार्किक परिणति तक पहुँचता है। खास तौर पर ऐसे में जब चारों ओर एक घनीभूत तटस्थता छायी है। चौराहे का सिपाही नियम के कायदे में बंधा बंधकों को छुड़ाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहा है। बल्कि असमर्थता जाहिर करते वक्त भी उसके चेहरे पर जब कोई प्ाश्चाताप या ग्लानी जैसा भाव भी मौजूद नहीं हैं। बस एक काम-काजी किस्म का व्यवहार ही उसको संचालित किये है। मेहनतकश आवाम भी जब युद्धोन्मांद में फँसी लड़की की कातर पुकार पर तव्वजो देने की बजाय बहुत ही तटस्थता से बच्चों को दूसरी जगह जाकर खेलने को कह रहा हो। दूसरी जगह- यानी जहाँ जारी खेल बेशक खूनी आतंक की हदों को पार कर जाए पर उनके काम में प्रत्यक्ष रुकावट डालने वाला न हो। मध्य एशिया में जारी हमले के दौरान अमेरीकी प्रतिरोध की दुनिया का कदम इससे भिन्न नहीं रहा है। और उसके चलते ही कब्जे की लगातार आगे बढ़ती कार्रवाई जारी है, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं।
हिन्दी फिल्मों का यह जो ताना बाना दिखायी देता है उसे विश्वपूंजी द्वारा स्थापित की जा रही 'नैतिकता और आदर्श" के साथ देखा जा सकता है। मुनाफे की संस्कृति को जन्म देती और संसाधनों पर लगातार कब्जा करने की मंशा से भरी विश्वपूंजी की कार्रवाइयां अपने छल छद्म को छुपाये रखने के जो रास्ते अख्तयार करती है, वे बहुत साफ दिख रहे हैं। सिविल सोसाइटीनुमा अवधारणा में उसका चेहरा लोक की छवियों के जरिये न सिर्फ अपने कलावादी रूझानों को स्थापित करना चाहता है बल्कि तथाकथित उजले जीवन के बाजार के लिए लोक की विविधता को विज्ञापनी दुनिया का हिस्सा बनाता चल रहा है। दूर पहाड़ी पर एक कांछा (स्थानीय पहाड़ी बच्चा) से वह मारूती का सर्विस सेन्टर पूछता है। आदिवासी जनजीवन का पहनावा उसके उत्पाद को कन्ट्रास्ट देता है। बेहद संकरी गलियों के दृश्य बेजरूरत चीजों के प्रति आवाम की ललक पैदा करने का जरिया हैं। यथार्थ के प्रत्यक्षीकरण को प्रस्तुत करते दृश्यों में एक आक्रामक हिंसकता की ही झलक उसका मूल स्वर है। बहुत कोमल और आत्मीय किस्म के माहौल के प्रति उसके सरोकार मुनाफाखौर विज्ञापनी चालाकी वाले है। एक धोखा है। जिसमें विविधता से भरे स्थानिक दृश्यों की उपयोगिता उसके लिए मात्र अपने उत्पाद को उपभोक्ता के हाथों तक पहुंचाने के अवसर के रूप में है।
बहुत सचेत होकर देखें तो इधर आयी समकालीन हिन्दी कहानियों का संसार भी बहुत अलहदा नहीं बना है। समाजिक प्रतिबद्धता के प्रति आवश्यकता से अधिक क्लेम करता रचनाकार रचनात्मक विवरणों में विश्वसनीयता की हदों के पार भी छलांग जाता है। उदय प्रकाश की कहानी "मोहनदास" में बहुत साफ तरह से इसको परखा जा सकता है। विद्रुपताओं में ही बदलाव के चिह्न रचने की प्रवृत्ति बहुत आम हुई है। सामाजिक प्रवृत्ति के तौर पर गैर जरूरी नितांत व्यक्तिगत किस्म के अनुभवों से भरे विवरणों की भरमार में शिल्प के अनूठेपन का संसार प्रचारात्मक अलोचना में बहुत स्वीकार्य हुआ है। कथ्य की विभिन्नता के नाम पर इन्दरनेटिय सूचनाओं (योगेन्द्र आहुजा की कहानी खाना, पांच मिनट )या कारपोरेटिय जगत के बहाने उचछृखल संबंधों (गीत चतुर्वेदी की कहानी पिंक स्लिप डेडी) को लहराते पेटीकोटों वाली भाषा (कहानियों की एक लम्बी श्रृंखला है) में देखा जा सकता है। कलावादी कहलाये जाने के आरोपों से बचाव के रास्ते सामाजिक राजनैतिक प्रतिबद्धता के प्रदर्शन में इस कदर बढ़े है कि कविता तीन तीन कालमों में लिखी जाने का चलन रचनात्मक श्रेष्ठता के दावे करता हुआ प्रस्तुत होता है। बहुत सी रचनाओं में भाषा के स्तर पर नक्सलवाद, माओवाद, आदिवासी जैसे कितने ही शब्द बेवजह ठूंसने का चलन बना है। कवि देवी प्रसाद मिश्र की कविताऐं जिनका फलक पहल से लेकर इधर जलसा के पहले अंक तक दिखता है, ऐसी प्रवृत्ति का प्रतयक्ष गवाह है। कलात्मक युक्तियों का लगातार अन्वेषण जारी है। एक ही समय में शतकीय आंकड़ों (51 कहानियां ) का नायब अंदाज देवी प्रसाद मिश्र के यहां जलसा के नये अंक में भी देखा जा सकता है। लेकिन वैचारिक धरातल पर अस्पष्टता के बावजूद क्रान्तिकारी दिखने की चाह में वे कला और कला, कला और कला के अन्वेषक होते चले जाते हैं। ''छठी मंजिल" इस बात को तथ्यात्मक रूप से ज्यादा स्पष्ट करती है। वे जिस छठी मंजिल की चकाचौंध में आत्ममुग्ध होते हुए दिख रहे हैं, वहां खिलता हुआ सा बाजार है, चुंधियाती रोशनियां है। और बहुत कुछ ऐसा ही। हर एक के जीवन को उसी बाजार के बीच खुशहाल देखने का झूठ फैलाना उसी विश्वपूंजी का खेल है जिसका प्रतिरोध शायद कहानीकार भी करना चाहता होगा, लेकिन वहां पहुंचना और उसके बीच हो जाना रचनाकार को ललचा रहा है। मनोज रूपड़ा की कहानी रद्दोबदल, अरूण कुमार असफल की कहानी "कुकुर का भुस्स" अन्य ऐसी ही कहानियां जिनमें बहुत कुछ अलग कह जाने का कलावादी रूझान और आवश्यकता से अधिक आत्मसजग विशिष्टताबोध बोध वाली प्रवृत्ति उजागर होती है।
पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रूप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गणवत्ता को जांचना भी संभव नहीं  रह गया है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, इसे छुपाने के लिए भी मैटेरियल पर कोटिंग की नयी से नयी तकनीक के इस्तेमाल से ऐसा संभव हो रहा है। स्क्रेप मैटेरियल से तैयार उत्पाद में दर्ज पैबंदों को भी चमचमाती पैकिंग में आकर्षक बनाकर पेश किया जा रहा है। योगेन्द्र आहुजा की पांच मिनट एक ऐसी कहानी है जिसकी रचना के लिए उस स्पेशिफाईड मैटेरियल को ढूंढा गया है जिससे सिलिकॉन चिप बनाया जाता है। एक ऐसा मैटेरियल जो अपने से निर्मित उत्पाद के जोड़ कहीं दिखने भी नहीं देता। फिर भी यदि कहीं दिखने लगते भी हैं, तो खुलते चाकू की खटाक होती आवाज के कारण सहम जाने वाला समय दुनिया की घड़ियों की सुईंयों को स्थिर करके उन्हें छुपा  देता है। घड़ी की टिक-टिक से बेदर्द और दहद्गत फैलाने वाले समय की यथास्थिति का एहसास पाठक हर क्षण करता रहता है। मक्खी मूछों वाली आक्रामक फौजी कार्यवाही का विरोध करते हुए वैश्विक एकता की मिसाल और राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक सीकिंया बूढ़े का जिक्र करते हुए इतिहास की अनुगूंजों के साथ गुलामी के खिलाफ संघ्ार्ष को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने की अभिष्ट कामना कहानी के मूल में दिखायी देती है। गोपाल इस कहानी का ऐसा पात्र है जो मजदूर, चौकीदार, रिक्शे चलाने वाले, सब्जीफरोश, कबाड़िये और इसी तरह का छोटा-मोटा काम करते हुए जीवन के संघर्ष में जुटे तबके का प्रतिनिधित्व करता है।  
इस दृष्टिकोण से यदि कहानी को देखें तो न सिर्फ हाशिये पर रह रहे लोगों के प्रति लेखकीय पक्षधरता स्पष्ट होती है बल्कि पुरजोर तरह से इस बात को स्थापित करने की कोशिश साफ दिखती है कि कि आधुनिक तकनीक की विकासमान दुनिया को सम्भव बनाने में ऐसे ही लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण है। एक सामन्य, लेकिन हुनरमंद घड़ीसाज के लम्पट और उच्चके बेटे का होनहार बेटा जब अंतरिक्ष की घड़ियों को दुरस्त कर लेने की दक्षता हांसिल कर पा रहा है तो इससे एक हद तक जनतांत्रिक होती जा रही दुनिया का पक्ष भी प्रस्तुत होता है। लेकिन उस ठोस वस्तुगत यथार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती जिसमें ज्ञान-विज्ञान पर कब्जा करती बाजारू दुनिया का होना दिखायी देता है। जरूरी है कि वस्तुगत यथार्थ की सही समझदारी के साथ रचना का सत्य उस  चिन्तन पर केन्द्रित हो जिससे सचमुच की राष्ट्रीय चेतना और अन्तरराष्ट्रीय बिरादराना के तत्वों को पकड़ने में पाठक सहूलियत महसूस कर सके। व्यक्तिगत रुप से उपलब्धियों को हांसिल करने वाले किसी एक महान  व्यक्ति की सक्रियता के इंतजार में बदलावों के संघर्ष को स्थगित नहीं किया जा सकता है, योगेन्द्र शायद इससे अनभिज्ञ न हो और न ही कोई भी संघर्ष ऐसे एक व्यक्ति की उपस्थिति मात्र से अन्तिम निर्णय तक पहुंच सकता है, यह समझ बनना भी जरूरी ही है। 
पूंजीवादी लोकतंत्र के आभूषणों (राजनैतिक पार्टियां) की लोकप्रिय धाराओं की नीतियां कुछ दिखावटी विरोध के बावजूद अमेरिका को रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत करते हुए उसके ही ईशारों पर जारी है। जिसके चलते पूरा परिदृद्गय इस कदर धुंधला हुआ है कि विरोध और समर्थन की,, उनकी अवसरवादी कार्यवाहियां, किसी भी जन पक्षधर मुद्दे को दरकिनार करने के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रही है। उसी पूंजीवादी अमेरिका के आर्थिक हितों के हिसाब से चालू आर्थिक और विदेश नीति ने ही एक खास भूभाग में निवास कर रहे अप्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता का दरवाजा खोला है। आंतक के देवता, विश्व पूंजी के स्रोत, हथियारों के सौदागर, अमेरिका की प्रशस्ति में सदी के सबसे बड़े विस्थापन को जन्म दिया जा रहा है। तीसरी दुनिया के आला दिमाग  यूंही नहीं विश्व पूंजी की चाकरी करने को उतावले हैं! ऐसी ही नीतियों के पैरोकार शासक जिस तरह से सीधे तौर पर डालर पूंजी की जरुरत पर बल देते हुए अंध राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर रहे हैं उसके चलते ही आम मध्यवर्गीय युवा के भीतर उसकी स्वीकार्यता को भी बल मिल रहा है। गरीब और पिछड़े देश वासियों के सामने एक भ्रम खड़ा करने की यह निश्चित ही चालक कोशिश है कि रोजी रोटी के जुगाड़ में सात समुन्द्र पार की यात्रा पर निकले ऐसे नागरिक जब माल असबाब जमाकर वापिस लौटेगें तो देश एवं समाज की बेहतरी के लिए कार्य करेगें। यहां इस सवाल से आंख मूंद ली गयी है कि कितना तो बचा होगा उनके भीतर देद्गा और कितनी देद्गा सेवा। योगेन्द्र आहुजा की कहानी पांच मिनट भी ऐसे ही ब्रेन ड्रेन की कहानी है और इम कहानी में भी इसी मुगालते की स्थापना है।  अपनी कहानी के अंत में योगेन्द्र भी ऐसे ही युवका से उम्मीदों का ख्याल पालते हैं।
यूं युवा रचनात्मक गतिविधियों के समुचित मूल्यांकन के लिए हिन्दी कला साहित्य और फिल्म की दुनिया के यहां दर्ज तथ्य मेरी सीमा ही है। वरना बहुत सी दूसरी रचनाऐं हैं जिनके पाठ मुझे प्रभावित करते रहे हैं। या ज्यादा साफ करते हुए कहूं तो जिनसे बहुत असहमति नहीं उपजी है। महेशा दातानी की फिल्म "मार्निंग रागा", बेला नेगी की फिल्म "दांये या बांये" अमोल गुप्ते की "स्टनली का डब्बा" और हिन्दी कहानियों में कैलाश बनबासी की "बाजार में रामधन", अरूण कुमार असफल की "पांच का सिक्का", योगेन्द्र आहुजा की "मर्सिया", नवीन कुमार नैथानी की "पारस" आदि बहुत सी रचनाऐं हैं जिनको देखना-पढ़ना एक अनुभव से गुजरना हुआ है।
गम्भीर दुर्घटनाओं के परिणाम कई बार किसी व्यक्ति विशेष को जीवन पर्यन्त अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं और मानसिक अवसाद का गहरा कारण बन जाते हैं। बहुत नितांत तौर पर एक अकेले व्यक्ति की समस्या को सामाजिक दायरे के प्रश्न में देखने से ही रचना की प्रासंगिकता बनती है। महेश दातानी की फिल्म मार्निंग रागा ऐसे ही विषय के इर्द गिर्द एक ताना बाना रखती है और एक गम्भीर दुर्घटना में अपने प्रियों को खो देने के कारण अवसाद की गहरी छाया में डूबे पात्रों की मुक्ति का मार्ग संगीत की स्वर लहरियों में तलाश करती है। चूंकि बदलाव के किसी बहुत बड़े दावे की अनुगूंज फिल्म के पाठ में ही मौजूद नहीं इसलिए उन अर्थों को ढूंढने का कोई तुक नहीं जिनके आधार अन्य रचनाओं पर बात हो रही है। इस लिहाज से देखें तो बहुत ही साफ सुथरे कथ्य के साथ संवेदना के उन बिन्दु को जाग्रत करने में अहम रोल अदा करती है जिससे मानवीय तकलीफों के ज्यादा करीब पहुंचा जा सकता है। न ही किसी तरह की अलौकिकता ओर न ही इधर के दौर में बहुत उछृखंल प्रेम का प्रदर्शन बल्कि मानवीय अनुभूतियों की रागात्मकता का बहुत ही स्वाभाविक आख्यान पूरी फिल्म में जीवन्तता के साथ है। मार्निंग राग की बात करते हुए कथाकार योगेन्द्र आहुजा की कहानी मर्सिया का याद आ जाना स्वभाविक है। योगेन्द्र की कहानी का कथ्य यूं मार्निंग राग से जुदा है और उसके आशय भी, पर यह स्पष्ट है कि शास्त्रीय संगीत की रवायत के बरक्स पीपे, परात और तसलों के संगीत वाला बिम्ब ज्यादा प्रभावी और महत्वपूर्ण बिन्दु है जबकि महेश दातानी के यहां शास्त्रीय संगी का यह फ्यूजन बहुत सीमित होकर आता है। दांये या बांए बेला नेगी की पहली फिल्म है। हिन्दी फिल्म होते हुए भी उसमें एक खास किस्म की आंचलिकता बिखरी हुई है। उसे आंचलिक फिल्म कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। महेश दातानी की फिल्म भी यूं भारीतय अंग्रेजी और कन्नड़ भाषा के साथ एक आंचलिकता को ही पकड़ रही है। बल्कि कहा जा सकता है कि दोनों ही फिल्मों में आंचलिकता का यह बिन्दु ठीक उसी तरह का है जैसे हिन्दी या किसी भी दूसरे साहित्य की रचनायें, जिनमें पात्रों की भाषा भौगोलिक पृष्ठभूमि की प्रमाणिकता वाली होती है। लेकिन बेला की फिल्म की विशेषता सिर्फ भाषायी ही नहीं अपितु विशिष्ट भूगोल के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से जूझते रचनाकार की प्रतिबद्धता का भी प्रश्न बनती है। यूं बेला नेगी की फिल्म बहुत खिलंदड़ भाषा में उत्तराखण्ड के भूगोल को पकड़ती है लेकिन उत्तराखण्ड के बौद्धिक जगत की उस सीमा को भी चिहि्नत कर दे रही जिसमें एन जी ओ किस्म की मानसिकता का विस्तार होता है और बेला भी उससे बच न पायी है। समय के हिसाब से सबसे निकट की रचना इसी वर्ष मई माह में आयी अमोल गुप्ते की पहली ही फिल्म स्टनली का डिब्बा है जो आत्मीयता और सामाजिक वंचनाओं के उन बिन्दुओं को आधार बना रही है जिनकी अनुपस्थिति में एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण की पूरी प्रक्रिया कैसे बाधित हो जाती है, इसको समझा जा सकता है। कथा पात्र बच्चे, स्टनली का प्रतिरूप स्कूल मास्टर वर्मा बार-बार बहुत खाऊ दिखता है। न सिर्फ साथी मास्टरों के खाने के डिब्बे उसे ललचाते हैं बल्कि बहुत छोटे छोटे स्कूली बच्चों के टिफिन पर भी उसकी ललचायी निगाहें हैं। उसके व्यक्तित्व के इस कमजोर पक्ष का खुलासा करने से बच जाने में निर्देशक ने बेहद सूझ बूझ का परिचय दिया है जिससे कहानी एक काव्यात्मक अंत की ओर आगे बढ़ जाती है। और आत्मीयता और व्यक्तित्व के विकास के अवसरों की अनुपस्थिति में जीवन जीते स्टनली के जीवन के बहुत अंधेरे कोनो में ले जाते हुए मास्टर वर्मा के बचपन से साक्षात्कार करा देती है।      

नोट: यह आलेख परिकथा के नये अंक में प्रकाशित है

4 comments:

Mahesh Chandra Punetha said...

bahut hi sargarbhit aalekh hai mehanat se taiyar kiya gaya. tarkik or vishleshanparak....cinema ke bahane aapane poore samay or samaj par gahan vimarsh...is tarah dekhe jane ki jaroorat hai.

Mahesh Chandra Punetha said...

bahut hi sargarbhit aalekh hai mehanat se taiyar kiya gaya. tarkik or vishleshanparak....cinema ke bahane aapane poore samay or samaj par gahan vimarsh...is tarah dekhe jane ki jaroorat hai.

विजय गौड़ said...

इस लेख पर मेरी प्रतिक्रिया मुझे भी स्पष्ट नहीं है.. पहला कारण तो यह कि उल्लेखित फिल्मों/रचनाओं में से ज्यादातर मैंने देखी/पढी भी नहीं है. लेकिन दो-तीन चीज़ों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया एक तो - अति-क्रांतिकारिता में कलावादी हो जाना. दूसरा एक ऐसे यथार्थ की रचना जो निराश-हताश कर देता है, जहां 'स्लमडॉग ...' एक पूरी तरह पलायनवादी फिल्म है जिसमे नायक अपने आस-पास के कठोर यथार्थ से किस्मत से 'बच' जाता है, वहीं थ्री इडियट्स तो आज कि शिक्षा व्यवस्था से उपजी गहरी खीज उबाऊपण और हताशा को महज 'करियर च्वाइस' का खेल बताती है.
ज्यादातर बातों पर आपसे सहमत होते हुए भी मेरी राय में 'मोहनदास' अपनी समकालीन रचनाओं में अच्छी है.. और गुलाल भी अच्छी लगी. आलोचना करना तो दूर, पढ़ना भी अभी कुछ दिनों से शुरू किया है.. मुझे ऐसे लेख पसंद हैं जो रचनाओं के सन्दर्भों की चर्चा करते हैं. धन्यवाद !
iqbal abhimanyu
प्रकाशन की दिक्कतों के कारण टिप्पणी ब्लाग पर दिखायी नहीं दे रही थी। -वि. गौ.

विजय गौड़ said...

Anonymous

8:13 PM (13 hours ago)

to me
Anonymous has left a new comment on your post "प्रतिनायक का चेहरा क्यों लगता है नायक सा":

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