Thursday, May 24, 2012

ब्या-काज के वे दिन

हिन्दी का रचनात्मक साहित्य ज्यादातर आपसी संबंधों या एक हद तक राजनैतिक आर्थिक ताने बाने के इर्द गिर्द ही सामाजिक सवालों का लेखा जोखा संजाये है। विज्ञान, खेल-कूद, शाखा दर शाखा बढ़ती ज्ञान विज्ञान की स्थिति के साथ-साथ बदलती हुई तकनीकी स्थितियां, जैसे इतर विषय हिन्दी लेखन के दायरे से बहुधा बाहर ही दिखायी देते हैं। विषयगत शुद्ध लेखन की अनुपस्थिति तो पूरी तरह देखी जा सकती है। शुद्ध साहित्य के अलावा किसी भी अन्य विषय की मौलिक पुस्तक ही नहीं, छोटे-मोटे आलेख भी मुश्किल से दिखायी देते हैं। मामले के विश्लेषण पर औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़े समाज को दर किनार नहीं किया जा सकता लेकिन साथ ही साथ लम्बे समय से अपने प्रभाव का विस्तार करती बाजारू संस्कृति के आरोपित प्रभाव को भी चिहि्नत किया ही जा सकता है। देश का मध्यवर्ग इस आरोपित प्रभाव की जद में पूरी तरह से है। बल्कि इसे यूं कहा जाये जीवन मूल्यों के आदर्श और गढ़ी जा रही नैतिकतायें भी इसी केे दायरे में तय कर रहा है। समझा जा सकता है कि इसी कारण उच्च शिक्षा का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी ही दिखायी देता है। देवेंद्र मेवाड़ी हिन्दी के ऐसे लेखक हैं जिन्होंने विज्ञान विषय को गल्प में शामिल करते हुए अपनी सक्रिय भागीदारी की है। बल्कि कहें सकते हैं कि हिन्दी में विज्ञान लेखन पर सक्रिय चंद रचनाकारों में वे शुमार है। अभी प्रस्तुत है उनका एक बेहद आत्मीय संस्मरण।
-वि.गौ.

  देवेंद्र मेवाड़ी
dsmewari@rediffmail.com,
dmewari@yahoo.com
 
किन---कि---क्यान् क्यान् क्यान्
घि---घ्यान्---घ्यान् घ्यान्
कि---क्यान् क्यान् क्यान्---
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्

दूर किसी धार या मोड़ से आती हुई बाजे-गाजे की यह आवाज सुनते ही हम खाना छोड़ कर भागते हुए बाहर बट्या (सड़क)में आ जाते थे और सिर घुमा कर आवाज की दिशा में देखने लगते थे। हमारी आंख बर्यात देखने को बेचैन हो जाती थीं। कान बाजा की आवाज पर लगे रहते थे। 
तभी दूर से तूरी की आवाज आती---धूह्णह्ण तु  तु  तु तूह्णह्णह्ण हमारी उत्सुकता और बढ़ जाती। पंजा पर उचक-उचक कर उस तरफ देखते। बीच-बीच में हवा में शंख की लंबी आवाज गूंजती---पूह्णह्णह्णह्!
फिर अचानक धार के मोड़ से बारात निकल आती। ढोल-नंगारा की आवाज तेज हो जाती>---
किन---किन्---किन्---कि---किन्---किन्---किन्
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान!
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान!
ढोल-नगाड़े जैसे अपनी आवाज में बोल कर बताते थे-लो, हम ले आए हैं बरात। 
धीरे-धीरे बर्यात और नजदीक आ जाती। रंगीन छाता ओढ़े ब्यौला दिखाई देने लगता।
हमारी बाखली से भी कई बर्यात गईं। कई बर्यात बाखली में आईं। ददाओं की बर्यात जाती थी और वे ब्योली (दुल्हन) लेकर आते थे। जो बर्यात हमारे यहां आती थीं, वे किसी दीदी-बैनी को ब्योली बना कर ले जाते थे। दीदिया और बैनिया के जाने पर हम बहुत बुरा लगता था। लेकिन, ददाओं की बर्यात में सब खुश रहते थे।
बर्यात का दिन तय हो जाने पर ज्वेशिज्यू एक दिन पहले आकर हम बच्चों से गाय का गोबर, दूब और धूप देने के लिए "पाती" मंगाते। वैसे तो उसे "कुर्ज" कहते थे, लेकिन ब्या-काज और पूजा-पाठ में धूप देने के लिए पाती कहते थे। उसकी पत्तिया को घी में लटपटा कर जलते कोयलों पर रख देते। धूप का सुगंधित धुवां चारा ओर फैल जाता। कलश थापन करके, दिया जलाते, गणेश पूजा करते और वर के दांए हाथ की कलाई पर हल्दी रंग के पीले कपड़े में पिठियां, अक्षत और भेट (सिक्के) रख कर कंगन बांध देते।
घर में इष्ट-बिरादर आने लगते। दो-तीन लोग "पातों" (पत्तियों) के लिए भेज दिए जाते। वे सुबह ही गांव के पहाड़ के पार उतर कर जंगल से खूब मालू के पत्ते तोड़ते और पत्ता के गट्ठर लेकर शाम तक लौट आते। शाम को लोग बैठे-बिठाए बात करते-करते सिनके के टुकड़ा से जोड़-जोड़ कर पत्ता की दूनियां (दोने) और पत्तल बना देते। तिमिल के पत्ते मिल गए तो उनकी भी दूनियां बना लेते। दूनिया और पत्तला का ढेर जमा हो जाता। कमरे म हुक्का-चिलम और सुलपाई यानी हथेली में समा जाने वाली चिलम घूमती रहती। न्योतारे कश खींच कर, धुवां छोड़ते हुए उन्हें आगे बढ़ाते रहते। बीच-बीच में थाली में खूब मीठी गरमागरम चहा के गिलास घुमाए जाते। खाना तैयार हो जाने पर खाने का बुलावा आ जाता, "हं हौ, खान् हन उठा आब्।"
औरत, लड़कियां भीतर के कमरा में "त्यार सप्त दिदी" (तेरी कसम दीदी या "मैं खाली बैंनी" (मेरी प्यारी बहिन) कहते हुए अपने-अपने सुख-दुख लगी रहती। घर भीतर चूल्हे का गाढ़ा धुवां भरा रहता।
सुबह से ही झर-फर शुरू हो जाती। रश्यार (रसोइए) मकान की अगल-बगल में कहीं पर छप्पर के नीचे बड़े-बड़े पत्थर रख कर रसोई बना लेते। एक कमरे म सामल-पानी का भंडार बना दिया जाता। रश्यारा को वहीं से आटा, चावल, दाल, सब्जियां, घी, तेल, दूध, दही, चीनी, गुड़, मसाले छुहारे और किशमि्श वगैरह दिए जाते। बहू, बेटियां तांबे के फ्वांला (कलश), तौली और टीन के कंटरों में पानी भर देती। खा-पी कर बर्यात के जाने की तैयारी शुरू की जाती।
उधर ईजा, चाचियां, भाभियां और बहिन हल्दी-तेल का उबटन लगा कर ब्यौल (वर) को नहलाती। नहा-धोकर वह नए कपड़े पहनता। सफेद कुर्त्ता, पैजामा, टोपी। ऊपर से ब्यौले का झगुला पहनाया जाता। दोना कंधा और छाती पर से पीछे तक कस कर पट्टा बांधा जाता। कमर में कमरबंद और उसम खुकरी या तलवार। सिल पर चावल पीस कर सफेद और पिठियां घोल कर लाल घोल बनाया जाता था। फिर मुंह पर लिखाई की जाती। कपाल से गाला तक सफेद और लाल बिंदियां बनाई जाती थद्ध। माथे पर मुकुट बांधा जाता था। ब्यौल को रंगीन छाता ओढ़ाया जाता। इस सयानी फगारियां शकुन आंखर गा्तीं और हेलारियां उनके सुर में सुर मिला कर हेल देती रहती---
बट्यावाह्णह्णह्ण बट्यावाह्णह्णह्ण रामीचंदरह्णह्णह्ण
शकुना द्यालो, रामीचंदरह्णह्णह्ण
पैंलि शकुनो ध्यों-गूड़े को
फिरी दै-दूदै को---
पंचैनामा देबौ दैना ह्वै जायाह्णह्णह्ण
गोरखनाथ देबौ सुफल ह्वै जायाह्णह्णह्ण
तुमारा ऐ बेर ह्णह्ण हमरो काज
सुफल है जालो ह्णह्णह्ण
बट्यावाह्णह्णह्ण बट्यावाह्णह्णह्ण रामीचंदरह्णह्णह्ण
मां-बहिन आरती उतारती और अक्षत परखती। ईजा कहती, "द ज च्यला, भली-भलि सूनि (सुंदर) ब्यौलि लाए। भलि कै गए। द हिट ईजा---'' शकुन के लिए लोटे-गिलासा ्में पानी भर कर कलेश रखे जाते। कन्याएं पानी भरे कल्श लेकर खड़ी हो जा्ती। 
और, फिर बाजे गाजे के साथ बर्यात चल पड़ती।।।
क्यान्---कि---क्यान्---क्यान्---क्यान्,
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्।
जाने से पहले तूरी अपनी तेज आवाज में दो-चार बार 'धूह्णह्णतू---तू---तू---तूह्णह्णह्ण---धुह्णह्णतूह्णह्णह्ण की धाद लगती और शंख लंबी 'पूह्णह्णह्णह!" कह कर चलने के लिए कहता। तब तक मशकबीन भी "आं---आंह्णह्णह्ण" करके चलने की तैयारी करती। 
हम बच्चों को मशकबीन बड़ी मजेदार लगती थी। बर्यात चलने से पहले मशकबीन बजाने वाला उसकी पिपिरियां साफ करता। धागे से बंधी पतली पत्ती जैसी पिपिरी को जीभ पर गीला करके उसम फूंक मारता था। फिर बाएं हाथ के नीचे मशकबीन का थैला दबा कर उसकी काले डंडे जैसी नलियां कंधे और बांह के सहारे पीछे की ओर टिका लेता। हम अंदाज लगा कर एक-दूसरे के कान में कहते थे, "पता है-मशकबीन का थैला बकरी की खाल से बनता है बल?'' हम तो वह बगल में दबाई हुई बकरी जैसा ही लगता था। मशकबीन वाला पतली नली मुंह में दबा कर, गाल फुला-फुला कर हवा भरता। खूब हवा भरने पर थैला तन कर मोटा हो जाता और डंडे जैसी नलियां भी आंह्णह्णह्ण आंह्णह्णह्ण करने लगती। तब वह बीन को हाथा म बंयी की तरह पकड़ता। उसके आगे बड़ा गोल सामा जैसा लगा रहता था। गाला से हवा फूंकता, बाएं बाजू से मयकबीन के थैले को दबाता और बीन को बंशी की तरह बजाने लगता---
आं ह्णह्णह्णआंह्णह्णह्ण आं ह्णह्णह्ण
पि पी पी पी ह्णह्णह्ण
पी ह्णह्णह्णपी ह्णह्णह्ण
बर्यात में आदमी आगे-पीछे निशान (झंडा) भी लेकर चलते थे। ऊंचे डंडे पर कपड़े का लंबा तिकोना निशान बंधा रहता था। आगे-आगे हवा में फहराता लाल और बर्यात के पीछे सफेद निशान। "क्यान् कि क्यान्---क्यान्---क्यान्, घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्" की आवाज पर छ्वलैतिए अपनी ढाल-तलवार हवा में लहरा कर फिरकी की तरह घूमते हुए चलते रहते। मकानों के आसपास आकर बर्यात रुकती। वहां बाजे की लय-ताल बदल जाती:
ट्यांक्ड़---टिक्ड़---ड्यांग्ड़---ड्यांग्ड
ट्यांक्ड़---टिक्ड़---ड्यांग्ड़---ड्यांग्ड
डिंग्डि---डिंग्ड़ि---टिक्ड़---टिक्ड़
टिक्ड़---टिक्ड़---डिंग्डि---डिंग्ड़ि---

नगाड़ा के बाजे पर छ्वलैतिए जोरदार नाच दिखाते। दो रुपए, पांच रुपए का नोट डाल देने पर तो उसे उठाने के लिए ऐसा नाच नाचते कि लोग देखते ही रह जाते। एक-दूसरे के हाठों में दबे नोट को छीनने के लिए भी जोरदार करतब दिखाते। छ्वलैतिए सफेद चोला, काला पट्टा और कमरबंद, काली भोटी, सफेद पगड़ी और चूड़ीदार पहने रहते थे।
घर के सभी लोग बर्यात को दूर किसी मोड़ पर ओझल होने तक टकटकी लगा कर देखते रहते। उसके बाद भी उस ओर कान लगाए रहते। ढोल, नंगारे, तूरी और यंख की आवाज काफी देर तक सुनाई देती रहती थी।
आदमिया के बर्यात में चले जाने के कारण घर में औरत और बच्चे ही रह जाते। बस, घर के दो-एक आदमी खाना पकाने और पहरा देने के लिए रोक दिए जाते थे। वह रत्याली की रात होती थी। औरता और छोटे बच्चा की रात। उस दिन वे खूब गातीं, भ्वैनी लगातीं। हंसी-ठिठोली करतीं। कोई औरत आदमी का भेष बना कर उनकी नकल उतारती। इसी तरह आंखों में रात बिता देतीं। अगले दिन सुबह से ही वे बर्यात की बाट जोहने लगतीं।
उधर, बर्यात बाजे-गाजे के साथ ब्योली के घर पहुंचती। घर के बाहर धूलिअर्ग की पूजा पूरा करके ब्योला और बर्याती घर म जाते। चाय-पानी के बाद गांव के रश्यारे खाने में पूरी, लगड़, हलुवा, साग, खटाई, रायता परोसते। खट्टी और मीठी दोना तरह की खटाई बनाने का रिवाज था। मीठी खटाई में छुहारे और किशमि्श भी होते थे। रात को लगन के समय विवाह कर दिया जाता। ब्योला-ब्योली को जीवन भर साथ निभाने का संकल्प कराया जाता था। उन्ह बाहर लाकर ज्वेशिज्यू सप्तऋव् की पूंछ में वसिष्ठ और अरुंधती तारे देखने को कहते थे। फिर बोलते, ""कहो, हम भी ऋषि वसिष्ठ और अरुंधती की तरह सदा साथ रहगे।''
बर्यात विदा करने से पहले सुबह या दिन में बर्यातियों को फिर जम कर खाना खिलाया जाता था-वही पूरी, लगड़, दाल, चावल, खटाई, छुहारे और गुड़ की मीठी खटाई, खूब राई पड़ा हुआ चरपिरा रायता और तली हुई लाल मिर्च! खा-पी कर, ब्योली को लेकर बर्यात वापस लौटती। ब्योली के जाते समय फगारियां फिर यकुनांखर गातीं:
---"बट्यावा---बट्यावा---शकुना द्यालो"---
और, मां-बहिन शक-शक् डाड़ मारते हुए बेटी को विदा करते बखत अपना आशीर्वाद दे रही होती थीं---द ईजा ज, भली कै जाए---(शक-शक्-शक्)। मेरि पोथी---सैनिक (औरत) जनम पायाक भै। जाना ही हुआ चेली। (शक्-शक्)
मैंने तुझे नौ महीने पेट में रखा, कारवी (गोद) में पाला पोथी---आज तू मुझे छोड़ कर जा रही है---(ओ ईजा! शक्-्शक्)---मैं कैसे रहूंगी? तुझे कोई कष्ट नहीं होने दिया मैंने---
(दूसरी औरत) क्या रुलाती है उसे? सभी को जाना हुआ एक दिन। हम नहीं आईं क्या मतिं (मायका) से? मन को समझा। अपने सौरास ही तो जा रही है बेटी---चल ईजू, चल। जल्दी फिर आएगी यहां मिलने। ठीक है?
(कोई और औरत) होई, किलै न? अपनी मयाड़ी (मां), अपने बाज्यू, ददा-भाई-बहना को जो क्या भूल जाएगी?---द, हिट चेली---आपन सौरास हन हिट--- शक्-्शक्
(तभी डाड़ मार कर बहिन) म क जन (मत) भुल्ये दिदी। आपनि बनि क जन भुल्यै!
पीछे से फगारियों के शकुनांखर---
बट्यावा---बट्यावा---
शकुना सुफल है जाओ, पंचनाम देबो
सुफल है जाओ, इष्टे भगबानो 
उस समय तो देख कर कठोर से कठोर कलेजे वाला के भी आंसू निकल आते थे।
बर्यात लौट आने पर ब्योली-ब्योला की आरती उतार कर, अक्षत परख करके उन्ह घर के भीतर ले जाते थे। ब्योली नई जगह और नए घर में अनजान लोगों के बीच सिकुड़ी-सिमटी बैठी रहती। नाक की टूकी से ऊपर पूरे कपाल तक पिठियां और अक्षत लगे रहते। औरत ओढ़नी उठा-उठा कर मुंह देखतीं और कहतीं, "ईजा, कतुक सूनि छ ब्योलि। अस्यानी छ। ईजु, नक जन मानेयां। हमरि ले चेली भई तू। तेरि सासु छों मैं।''
ब्योली को घर दिखाते। पानी की सीर (स्रोत) दिखाते। हम भी अपनी नई भौजी-ब्योलिया को धारे और डिग्गी पर ले जाते थे। वे देख लेती थीं कि पानी कितनी दूर से और किस धारे, नौले या डिग्गी से लाना है। ब्योल-ब्योली के चमकीले मुकुट हम पानी के शिराण में  रख देते थे। धीरे-धीरे भौजी अपनी नई घर-कुड़ि और गड़ि-भिड़ि देख कर पहचानने लगती थी। घर के लोगों और अपने गोरु-भैसा को भी पहचान लेती थी। गाय-भसिं भी उसे पहचानने लगतीं।

ब्याह के बाद भौजिया का घर में आना जितना अच्छा लगता था, उतना ही बुरा लगता था दीदिया और बहिना का जाना। बहुत नियाय लगता था। दीदी आती तो हम सब बहुत खुश हो जाते थे। लेकिन, जिस दिन मेरी सीता दीदी जाने वाली होती थी, उससे पहली रात को ईजा और दीदी तो सोती ही नहीं थीं। रात भर सुख-दुख लगी रहतीं। बीच-बीच में शक्-्शक् करके रो पड़्ते। मुंह अंधेरे ही ईजा, पूरी, हलुवा, कोश्योल (मीठा भुना चावल) और बड़े बना कर छापरी (टोकरी) में संभाल कर रख देती। धोती या ओढ़नी लपेट कर उसे चारा ओर से कस देती। रास्ते में खाने के लिए अलग से बांध देती। हमारा गला गगलसा उठता। दीदी के आंसू बहते रहते।
"द हिट ईजा, तू चेलि भई। सौरास जान्वे भै। मैं खाली इजू, हिट---'' दीदी की आंखा के भुमके (सोते) फूट पड़ते। चड़ी डाड़ मार देती। बाज्यू, ददा, को ढोक देकर पैंलाग कहती। मेरे गालों पर, माथे पर भुकी (चुंबन) ले-लेकर छाती से चिपटाती। और, फिर हम दीदी को दूर धार तक छोड़ने चल पड़ते। कभी भिना (जीजा) आए होते तो उनके साथ जाती या फिर किसी और चेलि-बेटी की संगीत (साथ) होती। दूर तक साथ जाकर ईजा छापरी उसे सौंपती। वह गले से लिपट-लिपट कर रोती। हमारे मुंह से भी बोल नहीं फूटते थे। कुछ कहने की कोशिश ्में गगलसाए हुए गले से रुलाई फूट पड़ती।
आखिर, जाना ही पड़ता था। दीदी सौरास को चल पड़ती। पांच-दस कदम चलती। फिर पलट कर हमारी ओर देखती। हर मोड़ से मुड़ कर देखती। फिर किसी धार से ओझल हो जाती। ईजा अब रो रही होती थी, ""चेलिकि जुहुनि में पैद भैछ, ईजा, जान्वे भै।'' फिर भारी कदमा से मुझे लेकर घर लौट आती। उदास होकर कहती थी, ""चेलि-बेटि चाड़ां जसि ह्व छ च्यला। आज हमारि कुड़ि में भैरी, भ्वल उड़ि बेरि दुसरि कुड़ि में न्हें जानीं।'' यानी, बेटियां तो चिड़िया की तरह होती हैं  बेटा। आज हमारे मकान में बैठी हैं, कल उड़ कर दूसरे के मकान में चली जाती हैं।  
"तू ले चड़ींकि परि उड़ि बेर ऐछी ईजा?''
"होई। यां आछा, ये कुड़ि में। फिरि तू भछै, तेरि दिदि-दाद् भईं।''
चेलि-बेटियां दूर-दूर के गांवा में ब्याही जाती थीं। वे त्यों-त्यारों या सुख-दुख में ही मायके आ पाती थीं। मेरी दीदी घने जंगलों, पहाड़ों के पार, हमारे गांव से करीब तीस-बत्तीस किलोमीटर दूर डांड़ा गांव में ब्याही गई थी। इसलिए दो-चार साल बाद ही आ पाती थी। हमारे और उसके गांव के पहाड़ा के बीच जंगला म श्यूं-बाघ् भी रहते थे। मैंत आने का इतना उत्साह होता था कि जंगल, जानवर, गाड़-गधेरे कुछ नहीं दिखाई देते थे। एक बार दीदी अपनी बेटी भगवती को लेकर उसी रास्ते से बिना संगीत के अकेली चली आई। रास्ते की उसकी बात सुन कर हम कांप गए---
दीदी ने बताया, "यहां घर के बारे में सोचते-सोचते लमालम चली आ रही थी। आगे से यही भगवती चल रही थी। दोना ओर कुरी की घनी झाड़ियां। उनके भीतर तो कुछ भी हो सकता था। ईजा, जमीन ्में जो देखूं तो श्यूं क तात् गोबर! भाप उठ रही थी। उसी समय निकला होगा। मैंने सोचा, आज हम मां-बेटी को खा जाता है। लेकिन, क्या करती? चलती रही---कुंडल गांव के आसपास पहुंची तो घनी झाड़िया के बीच खम्म से एक जोगी मिल गया। गेरुवा चोला, हाथ में कमंडल और लाठी। बोला-बेटी अकेले जा रहे हो। साथ में कोई नहीं है? मैंने हाथ जोड़ कर सिर हिलाया। कहा, मैत जा रही हूं बाबा। उन्हाने आर्शीवाद दिया। कहा-बेटी तू बड़ी हिम्मती है। ईश्वर तेरी मदद करेगा। तुझे कुछ नहीं होगा। डरना मत---आर्शीवाद देकर जोगी बाबा चले गए। हम मां-बेटी र की ओर चलते ही रहे।''
चेलि-बेटियां इसी तरह लंबे-लंबे रास्ते पार करके दूर अपने मैत या सौरास जाती ्थईं। दीदी कहती थी, उसे सदा अपना घर, ईजा-बाज्यू, ददा-भाई, मकान, पेड़-पौधे, गोरु-भैंसें सब याद आते रहते ह। घुघुती और कफुवा बोलते हैं तो मन घर पहुंच जाता है। कौवा बोलता है तो लगता है, मेरे मैत से कोई आने वाला है।
ब्याह से बहुत पहले या फिर ब्याह के एक दिन पहले जनेऊ या बर्तबंध (यज्ञोपवीत) किया जाता था। जिन लड़कों का बर्त हो जाता था, वे जनेऊ पहनते थे। सुबह-शाम कसौंड़ीं (लोटा) या गिलास में पानी लेकर आचमन करते। मंतर बुदबुदा कर संध्या-पूजा करते थे। वे तो शौच के लिए जाते समय कान में जनेऊ भी लपेट लेते थे। वे ब्या-काज के मौका पर, धोती पहनते और बड़ा के साथ पंगत म बैठ कर दाल-भात खा सकते थे। घर में भी वे सयाने लोगा के साथ रसोई में धोती पहन कर दाल-भात खाते। हम लगता था, अचानक वे हमसे सयाने हो गए हैं। हम पंगत में नहीं बैठने दिया जाता था। अलग बैठ कर खाना पड़ता था। उन दिना तो हम से उम्र में बहुत छोटे बच्चा का भी बर्त कर दिया जाता था।
एक बार जैंतुवा के साथ गजुवा के बर्त म गांव से 19-20 किलोेमीटर दूर गौन्यारो गया था। वहां खाना तैयार होने पर म "उठा, खान् तैयार छ" की आवाज आई। घर के सामने खेत में गए तो देखा धोती-जनेऊ पहने छोटे-छोटे बच्चा की लंबी लाइन लगी है। हम शरमाते-सकुचाते खड़े हो गए। हम देख कर कुछ लोग हंसने लगे, "है, तन क्व छ? कौन है ये? अभी तक बर्त नहीं हुआ है?'' औरत और लड़कियां भी मुंह दबा कर हंसने लगीं। हम चुपचाप फिर भीतर कमरे में चले गए। हम थाली में दाल-चावल डाल कर वहीं दे दिया गया।
जिस बच्चे का बर्त होता था, उसे देखने में बहुत आनंद आता था। उसके बालों में सिर पर चार तरफ जुटिका बांधी जाती थी। फगारियां मंगल गीत गातीं और धीरे-धीरे उस्तरे से बाल उतारे जाते। बीच में मोटी-सी चुली (चुटिया) छोड़ दी जाती। बर्त्यिया बच्चे के आंग में हल्दी-तेल का उबटन लगा कर मां-बहिन नहलाती थीं। फिर उसे धोती पहनाई जाती। कंधे पर जनेऊ पहनाया जाता। हाथ की अंगुलिया पर लपेट कर आचमन करने, संध्या पूजा करने और जल चढ़ाने की विधि बताई जाती। उसके कंधे पर धोती का फेट बनाया जाता। हाथ में लाठी दे दी जाती। ज्वैशिज्यू कहते, "बटुक, अब तुम काशी पढ़ने जा रहे हो। माताओं से भिक्षा मांग लाओ।'' सामने माताएं चावल लेकर खड़ी रहतीं। ज्वैशिज्यू बटुक से कहते, ""मेरे साथ कहो-भो गुरो, इदम भिक्षाम, मया लब्ध---माई भिक्षा दे। मैं हनले दे, म्यार गुरु हन ले दे---'' मेरे लिए भी दो, मेरे गुरु के लिए भी दो! मां-बहिन धोती के फेट में भिक्षा डाल कर आशीष दे्तीं, "खूब पढ़ि बेर आए।'' 
फिर वह काशी पढ़ने के लिए निकल जाता। हम उसके पीछे-पीछे दौड़ते। दरवाजे से बाहर जरा-सा चर लगा कर वह फिर भीतर लौट आता। सब लोग खुश हो जाते। मां कहती, ""ऐ गौ म्यर पोथि, का्शि पढ़ि बेर ऐगो।'' फिर बाकी काम संपन्न होता। उतरे हुए बाल दाड़िम के बोट की जड़ में डाल दिए जाते। बच्चा कई दिन तक जनेऊ हाथ पर लपेटने और संध्या-पूजा करने का अभ्यास करता रहता। फिर धीरे-धीरे घर भीतर या खेतों के काम में उलझे रहने के कारण कभी ध्यान रहता, कभी नहीं भी रहता था। हां, गांव के बड़े बुजुर्गों को हम जब भी रात्ते-ब्यान (सुबह) कान में जनेऊ लपेटे देखते तो जरूर समझ जाते, वे झाड़-पिशाब जा रहे हैं। उसके बाद वे हल-बैल या आंसी-कुटला लेकर खेति-पाति के काम के लिए निकल जाते। खेति-पाति भी कोई आज की जैसी जो क्या हुई?
सुन रहे हैं?
"अँ'' 
     

Thursday, May 17, 2012

कितनी बाते हैं जिनको लिखा जाएगा खुलकर


संकुचन और विरलन की घटनायें प्रकृति की द्वंद्वात्मकता का इजहार है। जिसके प्रतिफल भौगोलिक संरचना के रूप्ा हो जाते हैं। खाइयां और पहाड़, समुद्र और वादियां, मैदान और पठार न जाने कितने रूपाकारों में ढली पृथ्वी अपने यथार्थ में अन्तत: एक रूपा है। भूगोल की दूरी पैमानों पर दर्ज होती हुई दूरी ही है लेकिन सभ्यता, संस्कृति और मनुष्यता के हवाले से विकास की हर वह कोशिश जो ब्रहमाण्डीय सीमाओं के साथ सामंजस्य बैठाते हुए जारी रही है, एक रूपा होने की अवश्यम्भाविता के साथ है। युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य के सद्य प्रकाशित संग्रह पृथ्वी पर एक जगह में भी ऐसे ही विचार यात्रा के पड़ावों पर रुका जा सकता है-
समन्दर को पुकारने लगते थे पहाड़
और समन्दर पहाड़ों को
हालांकि दोनों के बीच बहुत लम्बा फासला था।   
कविता पुस्तक का शीर्षक है ''पृथ्वी पर एक जगह"। उसे दो तरह से पढ़ पा रहा हूं। एक, पृथ्वी पर एक -जगह और दूसरा पृथवी पर एऽऽक जगह।  कौन सा पाठ ज्यादा उपयुक्त है ? कह सकता हूं कि यह तो कविताओं को पढ़ने के पाठ पर निर्भर है। 'पृथ्वी पर एक -जगह", पढ़ता हूं तो भीतर की कविताओं के मंतव्य किसी निश्चत भू-भाग के बारे में रचे गए होने का भान देता हैं लेकिन यदि पृथवी पर एऽऽक जगह पढ़ता हूं तो इस पृथ्वी के बहुत से भू-भाग जो किन्हीं खास वजहों से समानता रखते हो सकते हैं, दिखने लगते है। दो भिन्न अर्थों से भरे इस पदबंध में अपने-अपने तरह से स्थानिकता की पहचान की जा सकती है। बहुधा स्थानिकता को परिभाषित करते हुए शीर्षक का पहला पाठ लुभाने लगता है और उस वक्त जो स्थानिकता उभरती है वो इतनी एकांगी होती है कि उसे क्षेत्रियततावाद की गिरफ्त मेंे फंसे हुए देखा सकता है। स्थानिकता का दायरा किसी निश्चित भू-भाग तक ही हो तो कविताओं की व्यापप्कता चूक सकती है। हां किसी देखे जाने गये भूगोल के इर्द-गिर्द होती हुई भी यदि वे अन्य स्थितियों के विस्तार में भिन्न भूगोल को भी स्थानिक बना देने की क्षमता से भरी हों तो उनकी सार्वभौकिता पर संदेह नहीं किया जा सकता। शिरीष कविता स्थानिकता की पड़ताल में ज्यादा साफ और सही रूप्ा से सार्वभौमिक होने के ज्यादा करीब है -
पृथ्वी में एक जगह भूसा है।
पृथ्वी में एक जगह जहां हल हैं, दोस्त हैं।
सार-सार को गही रहे, थोथा देई उड़ाय वाला दर्शन आज उपभोक्तावाद ने हथिया लिया है। यूज एण्ड थ्रो जैसा नारा उसके गहराते संकट से उबरने की चालाकी है, जिसके कारण एक ऐसी संस्कृति जन्म लेती जा रही है जिसमें व्यक्ति खुद को ही हीन समझने के लिए मजबूर है। उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसी ? हर अगले दिन पैदा होता उसका उत्पाद पिछले दिन पैदा किये अपने ही उत्पाद को कमतर बताने के साथ है। उसका दर्शन सिर्फ मुनाफे पर टिका है। आपसी रिश्तों की ऊष्मा से उसका कोई लेना देना नहीं। इसीलिए वहां रिश्तों के अपनापे में संबंधों को परिभाषित करने की कोई कोशिश भी संभव नहीं हो सकती। वस्तु के उपयोग और उसकी सार्थकता को भी भिन्न तरह से परिभाषित करते किसी भी वैज्ञानिक चिंतन से उसे चिढ़ होती है। शिरीष की कविताएं भिन्नता के उस दर्शन के साथ हैं जिसमें दानेदार फसल और उन दानों को मौसम के थपेड़ों से बचाये रखने में भूसा हो गयी बालियों, दोनों की महत्ता स्थापित हो सकती है।
पृथ्वी में एक जगह हैं ये सब। पर पृथ्वी में वह एक ही जगह नहीं है जहां हैं, ये सब। स्थानिकता का सार्वभौमिकीकरण इनके एक ही जगह मात्र होने पर, हो भी नहीं सकता है। विभिन्न रूपाकारों में ढली पृथ्वी को उसकी भिन्नता से प्रेम करके ही जाना जा सकता है। शिरीष की कविताओं में भिन्न्ता का यह भूगोल उस सांस्कृतिक भिन्नता की पड़ताल करता हुआ भी है जो एक सीमित लोक का विस्तारीकरण करने के लिए आवश्यक तत्व है। उनके पाठ पदबंध के दूसरे पाठ के ज्यादा करीब से गुजरते हैं। लोक के सार्वभौमिकीकरण में ही शिरीष काव्य तत्वों को गुंथता है और उनको बचाये रखने की सुसंबद्ध योजना का आधार तैयार करता जाता है-
छोटे शरीर में भी बड़ी आत्माएं निवास करती हैं
छोटे छोटे पग भी
न्ााप सकते हैं पूरी धरती को
उस अपने तरह की सार्वभौमिकता के गान, जो शब्दों में बहुत वाचाल और व्यवहार में संकीर्ण एवं लुटेरी मानसिकता का छलावा बन कर सुनायी दे रहा है, कवि शिरीष कुमार मौर्य की उससे स्पष्ट नाइतफाकी है। स्थानिकता की एक परिभाषा जिस तरह से आज दक्षिणपंथी उभारों तक जाने को उतावली दिखायी देती है ठीक उसी तर्ज पर बहुत चालाकी बरतने वाली सार्वभौमिकता का नारा भी हर ओर सुनायी दे रहा है। यूं दोनों की उपस्थिति से भी दुनिया के दो ध्रुव बनने चाहिए थे लेकिन देख सकते हैं अपने अपने छलावे में दोनों की साठगांठ एक ऐसी मूर्तता को उकेर रही है जिसमें निर्मित होता वातावरण  लगभग एक ही ध्रुव की ओर बढ़ता जा रहा है। आंधियों की तरह आती यह सार्वभौमिकता, भौगोलिकरण का दूसरा नाम है, उसमें एक स्वांग है मिलन का। धूल और गर्द उड़ाती, छप्परों को उजाड़ती उसकी आवाज़ का शौर इतना ज्यादा है कि चाहकर भी उदासीन बने रहना संभव नहीं है। एक सचेत रचनाकार की भूमिका उसकी उस प्रवृत्ति को भी उजागर करना है जो हमारी स्थायी उदासीनता का कारण बनती जा रही है और इस स्थायी उदासीनता में वह जिस तरह की खलबली मचाना चाहती है, उसके प्रति भी सजग रहने की कोशिश एक रचनाकार का दायित्व है। शिरीष की कविताओं में दोनों ही स्थितियों से मुठभेड़ करने की कोशिश के बयान कुछ यूं हैं कि आखिर साधो हम किससे डरते हैं? नींद तो केवल अपनी ही बनाई सुरंगों में घ्ाुसे मेढ़कों को आती है।
पृथ्वी पर उस जगह को, जहाँ स्थायी किस्म की उदासी के बावजूद जगर-मगर दुनिया है, एक चिहि्नत भूगोल की स्थानिक रंगत से भरने की एक खास जिद्द इसीलिए शिरीष के यहां भी मौजूद है। कविताओं में जगहों के नामों की उपस्थिति कवि की सायाश कोशिशों की वजह है।
इस पृथ्वी पर एक जगह है
जिसे मैं याद करता हूँ
आक्षांश और देशान्तर की सीमाओं में बांधे बगैर
जीवन की यात्रा के ढेरों पड़ाव भी शिरीष की कविता में दर्ज पाये जा सकते हैं। उनका संग-साथ अतीत से आती हवाओं में देखा जा सकता है, मित्रों की उपस्थितियों के साथ उनका होना महसूसा जा सकता है और हमेशा एक विनम्र किस्म की, बहुत भीतर तक से उठती, बेचैन हूक में उसे सुना जा सकता है। आत्मीयजनों को समपर्ण के भाव कविता के शीर्षक के साथ गुंथे हुए देखे जा सकते हैं। पर आत्मीयजनों को समर्पित होते हुए भी मात्र उनके लिए ही नहीं हैं वे। उनका दायरा चिहि्नत आत्मियताओं से होता हुआ अचिहि्नतों तक पहुँचता है। कवि चन्द्रकांत देवताले को समर्पित एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं-
मेरे पास
बहुत पुराने दिनों की हवाँए हैं
इतिहास से आती इन हवाओं में भावुक मोहकता नहीं बल्कि पूर्वजों की महान विरासत का स्मरण है। लोक तत्वों की पुष्टी भी बिना ऐतिहासिक चेतना के कहां संभव हो सकती है ? भीतर की धूल को उड़ा देने वाली उस इतिहास चेतना की तीव्रता इतनी ज्यादा है कि बहुत चालाक होकर छुपायी जा रही 'आधुनिकता" भी उसकी चपेट में आने से बच नहीं पा रही। वातावरण को नरम और मुलायम बनाने वाली, अतीत से आती, इन हवाओं का संग-साथ युवा कवि की काव्य चेतना में इस कदर रचा बसा है कि बहुत हताशा के क्षणों में भी वह गुस्से के इजहार के साथ अपनी ऊर्जा को समेट लेना चाहता है। नर्वस एनर्जी एक शब्द है, जिसका प्रयोग उस भाव को व्यक्त करने में मेरे प्रिय कवि राजेश सकलानी करते हैं, जो बहुत मुसीबतों के समय अचानक से व्यक्ति को कुछ भी अप्रत्याशित कर देने की ताकत दे देती है और मुसीबत में फंसा व्यक्ति उसके ही बल पर बाहर निकल आता है। कवि कुमार विकल की स्मृतियों में रची गयी कविता की पंक्तियां शिरीष को भी उसी नर्वस एनर्जी से सवंद्र्धित कर रही हैं-
ओ मरे पुरखे!
आखिर क्या हो गया था ऐसा
कि अपनी आखिरी नींद से
पहले तुम दुनिया को
सिर्फ अपनी उदासियों के बारे में बताना चाहते थे।
आज का रचनाकार अतीत से भविष्य तक की अपनी यात्रा में अपने वर्तमान की उपस्थिति से, बेखबर नहीं रहना चाहता है। रास्ते में पड़ने वाले दोस्तों के डेरे शिरीष के भी पड़ाव हैं। ऐसे ही डेरों में शाम बिताते हुए उन अवसरों को तलाशा जा सकता है जो आत्म मंथन के लिए जरूरी भी हैं।
जैसे आटे का खाली कनस्तर
जैसे घ्ाी का सूना बरतन
जैसे पैंट की जेब में छुपा दिन का
आख्ािरी सिा।
मित्रों के इन अड्डों पर ही वे बेपरवाह टिप्पणियां सुनी जा सकती हैं जिन में आत्मालोचना करना जरूरी लगने लगता है-
जैसे तालाब को खंगाले उसकी लहर
जैसे बादल को खंगाले उसकी गरज
हमने खंगाला खुद को।
खुद को खंगालना इतना आसान भी नहीं होता। बहुत पीड़ादायक होता है अक्सर उससे गुजरना भी। टूटन होती है ऐसी कि जिसको व्याख्यायित करने की कोई भी कोशिश अधूरी ही रह जाती है। कई बार आपसी रिश्तों की टूटन की आवाज़ों को सुनना होता है। अवसाद भरी नाजुकताएं इच्छाओं की भीत पर इस कदर असर डालने वाली हो जाती है कि नींद और जाग की मनोदशाओं मेंं डूबता मन अस्वस्थता का कारण होने लगता है।
हम जहाँ से कहीं जाते
वहाँ से
कोई नहीं आता हमारे पास।
यकीन भरी आत्मीय पुकार के ये अड्डे शिरीष के यहां बहुत भरोसे के साथी के रूप्ा में दर्ज है। उनमें रुकना सिर्फ भौतिक रूप्ा से रात काटना भर नहीं बल्कि बहुत कुछ को बचा लेने की संभावनाओं का तलाशना जाना है- 
बचे रहे हम
जैसे आकाश में तारों के निशान
जैसे धरती में जल की तरलता
जैसे चट्टानों में जीवाश्मों के साक्ष्य।
'पोस्टकार्ड" इस संग्रह की एक बहुत ही महत्वपूर्ण कविता है। दुनियादारी को निभाने में आज के संचार की ढेरों युक्तियां आज हमारा समाज संजोता जा रहा है। ऐसे में पोस्टकार्ड के खुलपेन को याद करना न सिर्फ एक संदेश को पहुंचाने की युक्ति को याद करना है बल्कि उस झूठ का पर्दाफाश करना भी है जो एक तरह से ज्यादा पारदर्शी होने का भ्रम पैदा कर रही है।
कैसा है मेरा रंग
हल्का भूरा धूसर पीला मटमैला
कुछ
कहा नहीं जा सकता

लेकिन कहा जा सकता है
क्या लिखा जाएगा मुझ पर

आख्ािर दुनिया में बातें ही कितनी हैं
जिनको
लिखा जाएगा खुलकर ?
वर्तमान दुनिया ने ख्ुाशियोंे को चंद मुटि्ठयों में दबोचा हुआ है और दु:ख और संताप से भरी एक भीड़ को जन्म दिया है।
हम बाहर हैं इस समूचे संसार से
जो लोगों से नहीं सूचनाओं से बना है।
लेकिन अफसोस इस बात का है कि दु:ख और संताप में डूबी उस बड़ी भीड़ का हर व्यक्ति इतना अकेला है कि अपनी बेचैनी, तकलीफें और अपनी खुशियों को बहुत सामूहिक तौर पर शेयर करने की स्थितियां भी उसके पास नहीं हैं।
तुम्हारे भीतर एक उलझा हुआ जाल है
धमनियों और शिराओं का
और वे भी अब भूलने लगी हैं तुमहारे दिमाग तक
रक्त पहुंचाना
इसीलिए
तुम कभी बेहद उत्तेजित
तो कभी
गहरे अवसाद में रहते हो।
निराशा और पस्ती के ऐसे वक्त में एक सचेत रचनाकार की भूमिका सिर्फ इतनी ही नहीं हो सकती कि वह स्थितियों का जिक्र मात्र करके मुक्त हो जाए। यथास्थिति को तोड़ने की कोशिश और वैकल्पिक दुनिया की तस्वीर की कल्पना के बिना रचना की सार्थकता तय नहीं हो सकती है। शिरीष एक जिम्मेदार रचनाकार की भूमिका में दिखाई देते हैं। अपने पाठक को निराशा में डूबने नहीं देना चाहते-
अब तुम
अपने भीतर के द्वार खटखटाओ
तो तुम्हें सुनाई देंगी सबसे बुरे समय की मुसलसल
पास आती पदचाप

अब तुम्हारा बोलना कहीं ज्यादा अर्थपूर्ण
और मंतव्यों से भरा होगा।
गहन उदासी की रुलाई में भी नमक के खारेपन पर शिरीष का यकीन है। समुद्र के अथाह पानी में अपने आंसुओं को मिलाती मछलियों और दूसरे जलचरों से ली जाती प्रेरणा एक अनूठी युक्ति है उस चेतना के प्रकटीकरण की जो पाठक को निराशा और पस्ती में घ्ािरने नहीं देती। शिरीष की कविताओं की एक उल्लेखनीय विशेषता है कि वस्तुगत यथार्थ की उपस्थिति के साथ वहां उम्मीदों को बांधे रखने वाला एक संगत स्वर लगातार मौजूद है
उसमें बैलों की ताकत है और लोहे का पैनापन
हल के बारे में कही गयी यह पंक्तियां उस अनूठी कोशिश का एक नमूना है। इसके पाठ के साथ ही एक दृश्य खुलने लगता है और जमीन में खुंपे, ढेलों को पलट पलट देते हल की मूंठ पर थमी हथेली और बैलों को हांकती आवाजों के साथ खेत को उपजाऊ बनाने में जुटे किसान के चेहरे से उत्कट मानवीय इच्छा रूपी पसीने को बहते देखा जा सकना संभव हो रहा होता है। वही हल जिसका गायब हो जाना किसी उन्नत यंत्र से अपदस्थ होती प्रक्रिया का प्रतिफल नहीं है बल्कि गायब कर दिये जाने की एक साजिश है। कर्ज के बोझ से दबे, उन्नत बीजों के नाम पर हाईब्रीड फसलों को उगाने के लिए मजबूर कर दिये गये और चौपट होती फसल के कारण आत्महत्या करने को मजबूर किसानों की बदहाली के चलते भी उसका गायब हो जाना स्वभाविक ही है। शिरीष के यहां उसके गायब होने की कथा ऊंचे ढंगारों वाले पहड़ों पर सीढ़ीदार खेतों की उत्पादक सीमाओं के साथ छूट जा रही खेती भी एक कारण के रूप्ा में मौजूद है। खेती किसानी की दुनिया से लगाव शिरीष की कविताओं में इतना गहरा है कि फसल के साथ काट कर सहेजे जाना वाला भूसा तक वहां उम्मीदों की फसल बन जाता है।
बहरहाल इतना तो साफ है कि इसे भी सहेज रहे हैं लोग
दानों के साथ
इस दुनिया में वे सार भी बटोर रहे हैं
और थोथा।
सार-सार को गही रहे, थोथा देई उड़ाय वाला दर्शन आज उपभोक्तावाद ने हथिया लिया है। यूज एण्ड थ्रो जैसा नारा उसके गहराते संकट से उबरने की चालाकी है, जिसके कारण एक ऐसी संस्कृति जन्म लेती जा रही है जिसमें व्यक्ति खुद को ही हीन समझने के लिए मजबूर है। उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसी ? हर अगले दिन पैदा होता उसका उत्पाद पिछले दिन पैदा किये अपने ही उत्पाद को कमतर बताने के साथ है। उसका दर्शन सिर्फ मुनाफे पर टिका है। आपसी रिश्तों की ऊष्मा से उसका कोई लेना देना नहीं। इसीलिए वहां रिश्तों के अपनापे में संबंधों को परिभाषित करने की कोई कोशिश भी संभव नहीं हो सकती। वस्तु के उपयोग और उसकी सार्थकता को भी भिन्न तरह से परिभाषित करते किसी भी वैज्ञानिक चिंतन से उसे चिढ़ होती है। शिरीष की कविताएं भिन्नता के उस दर्शन के साथ हैं जिसमें दानेदार फसल और उन दानों को मौसम के थपेड़ों से बचाये रखने में भूसा हो गयी बालियों, दोनों की महत्ता स्थापित हो सकती है।      


-विजय गौड़



पुस्तक का नाम :  पृथ्वी पर एक जगह
लेखक का नाम: शिरीष कुमार मौर्य
प्रकाशक: शिल्पायन, दिल्ली


  





Monday, May 7, 2012

कहानी-पाठ और परिचर्चा

२८ अप्रैल २०१२  को इलाहबाद शहर में प्रसिद्ध  कहानीकार  अल्पना मिश्र का  कहानी-पाठ तथा उनके तीसरे नवीनतम कहानी-संग्रह  "कब्र भी कैद औ' जंजीरें भी " पर परिचर्चा का आयोजन किया गया . यह आयोजन जन संस्कृति मंच तथा हिंदी विभाग ,इलाहबाद  विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में विभाग के सभागार में संपन्न हुआ  . परिचर्चा का प्रारंभ जन संस्कृति मंच के सचिव व आलोचक  प्रणय कृष्ण के  स्वागत -व्यक्तव्य से हुआ . उन्होंने कहानीकार अल्पना मिश्र का परिचय दिया  और  उन पर लिखित हिंदी के मुख्य कथाकारों  कृष्णा सोबती, चित्र मुद्गल और ज्ञानरंजन के विचार पढ़ कर सुनाये . इस प्रकार अल्पना मिश्र के कहानियों के वृहत्तर परिदृश्य का परिचय उपस्थित विद्वान्  श्रोताओं को दिया . अपने आत्म-व्यक्तव्य में अल्पना मिश्र ने आज के समय और समस्याओं की ओर संकेत करते हुए कहा, " जीवन पहले भी इकहरा नहीं था , पर आज  जटिलताए बढ़ी हैं  . आज के समय में दो तरह की सामानांतर दुनिया  है, एक तरफ  चमकती हुई दुनिया है , भौतिकता की प्रतिस्पर्धा है जो की पैदा की गयी है , स्वाभाविक नहीं है . दूसरी तरफ अन्धकार की दुनिया है जिसमें शोषण , दमन, विस्थापन ,गरीबी ,जन-असंतोष और जनांदोलनों का उभार है . एक लेखक की जिम्मेदारी है कि वह इन दोनों के बीच के परदे को खींच कर असल दुनिया सामने लाये . वह सच सामने लाये जो दरअसल बेदखल तो कर दिया गया है पर अपनी अनुपस्थिति में भी उपस्थित है . मेरा लेखन इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है ." आत्म-व्यक्तव्य के बाद उन्होंने नए संग्रह की पहली कहानी 'गैर हाज़िर में हाज़िर' का पाठ किया . परिचर्चा का प्रारंभ करते हुए  अनीता गोपेश ने अल्पना मिश्र को स्पष्ट सरोकारों का कहानीकार बताया . उन्होंने कहा ."अल्पना जी की कहानियां बहुत तेजी से ऊपर से गिरता हुआ प्रपात नहीं है जिसके छींटे आपको भिगों दें, बाढ़ में उफनती नदी नहीं है जो आपको बहा ले जाए बल्कि एक ऐसी शांत नदी है जो अपने सतत प्रवाह में चलती है आपको आह्वान करती हुई की आओ मेरे साथ चलो और समय की गति को पकड़ो , देखो दोनों कूलों पर क्या घटित हो रहा है . अल्पना जी की कहानियों में स्त्री-विमर्श की जगह सशक्तिकरण है. परिचर्चा  के क्रम में आलोचकीय वक्तव्य देते हुए  प्रणय कृष्ण ने तीनों संग्रहों को क्रमानुसार नहीं बल्कि समानांतर देखने की बात कही . उन्होंने कहा ,'ये तीनों संग्रह २१ वीं शताब्दी के हैं और इसलिए २० वीं शताब्दी में  जो कुछ हुआ और नया कुछ जो इस शताब्दी में होना है उन दोनों के जंक्शन पर लिखी हुई ये कहानियां हैं .' उन्होंने कहानियों के शिल्प के बारे में बताते हुए कहा कि 'जो लोग आतंरिक विवशता से लिखना शुरू करते हैं वो शिल्प से आक्रांत नहीं होते और जो ऐसा नहीं करते उनकी चिंता शिल्प पे ही टिकी रहती है . चित्रा मुद्गल इसिलए इनकी कहानियों के बारे में लिखती हैं कि ये शिल्पाक्रांत नहीं हैं.'  परिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कहानीकार शेखर जोशी ने अल्पना मिश्र की पूर्व की लिखी कहानियों के साथ इस संग्रह की सभी कहानियों पर क्रमशः अपनी बात रखी . अपने व्यक्तव्य में उन्होंने कहानीकार के साधारण जीवन के असाधारण और सूक्ष्म पर्यवेक्षण की प्रशंसा की और बल  देते हुए  कहा कि अल्पना की कहानियां जमीन से जुडी हुई कहानियां हैं . कार्यक्रम का कुशलता पूर्वक सञ्चालन डॉ सूर्यनारायण ने किया तथा  डॉ लालसा यादव ने धन्यवाद ज्ञापित किया . कार्यक्रम में  राम जी राय,  राधेश्याम अग्रवाल , हरिश्चंद्र पाण्डेय ,  विवेक निराला ,संतोष कुमार चतुर्वेदी  , विवेक कुमार तिवारी , पद्मजा ,  चन्द्रकला जोशी , नीलम शंकर , विभागाध्यक्ष डॉ मीरा दीक्षित  तथा हिंदी विभाग के सभी प्राध्यापक एवं छात्र उपस्थित थे . 
- सुशील कृष्णेत                                                                                                          
                                                                                            

Wednesday, May 2, 2012

न तो किसी के ऊपर हंसे और न ही गुस्सायें

                             

किसी के ऊपर हंसना, यानी हंसी उड़ाना, बुरी बात है। बेवजह गुस्साना और भी बुरा। हंसने वालों से तो फिर भी निपटा जा सकता है- बिना उनकी हंसी के कारणों की पड़ताल किये, बिना उन पर ध्यान दिये। लेकिन गुस्सा थूकने को उतारूओं का क्या किया जाये। वह भी ऐसे में जब कि वे गुस्से के संक्रमण को रोग की तरह फैलाने पर भी आमादा हों। गांधी पार्क ऐसी ही जगह है जो उत्तराखण्ड, खास तौर पर देहरादनू, के नक्शे में गुस्सा जाहिर करने का एक ऐतिहासिक स्थल रहा। जिसके गेट पर दरी बिछा कर अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए इस जनपद के कितने ही गुस्सालू हमेशा जुटते रहे हैं और बहुत बच-बचाकर चल रहे तमाम नौकरीपेशा जनपदवासियों के भीतर तक अपने गुस्से का संक्रमण करते रहे हैं। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौर में तो हमेशा के गुस्सालुओं ने हमेशा के बचने बचानेवालों तक को गुस्से की चपेट में ले लिया था। तत्कालीन उत्तर-प्रदेश सरकार और लखनऊ में बैठे उसके आला अफसर, गांधी पार्क जैसी इस बेहद साधारण सी जगह से वाकिफ न थे। निपटने के लिए रामपुर तिराहे पर घ्ोरा डालना पड़ा। रात के अंधेरे में गन्ने के खेतों में दौड़ा दौड़ा कर खदेड़ा गया। यकीन जानिये कि यदि वे इस जनपद की धड़कन कहे जा सकने वाले गांधी पार्क की हकीकत से वाकिफ होते तो हर रोज वहां इक्ट्ठे हो कर देहरादून की सड़कों में ''आज दो अभी दो-उत्तराखण्ड राज दो"", का कोहराम मचाने वाले आंदोलनकारियों की भीड़ को चारों ओर से घ्ोर कर लाठियां गोलियां बरसाने के लिए उन्हें अलग से पुलिस गारद का बंदोबस्त करने की जरूरत न रहती।
राज्य बने हुए लगभग एक दशक बीत गया। बेशक अभी तक की सरकारों को उनकी निकम्मई के लिए कोस लें लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि राज्य की मांग के साथ जिस एक छोटी प्रशासनिक इकाई का सपना जनता ने देखा था, उसे अनेकों तरह से पूरा करने की कोशिश अभी तक की सभी सरकारों की रही है। देहरादून को स्थायी जैसी अस्थायी राजधानी बना दिये जाने के कारण बेचारे राजनेताओं और आला अफसरोंे को यहां रहने को मजबूर होना पड़ा है। इसका सीधा फायदा उन्हें तो शायद ही कुछ मिला हो लेकिन गांधी पार्क की असलियत उनसे छुपी न रह सकती थी और न ही रही भी। इसीलिए उन्होंने गांधी पार्क को गुस्से का पीकदान बनने देने की बजाय उसका सौन्दर्यकरण करने की ठानी है। किसी भी तरह के धरने प्रदर्शन के लिए गांधी पार्क को प्रतिबंधित करके जो बड़ा काम किया गया उससे साफ हो गया है कि अब न तो वहां किसी को गुस्सा थूकने की इजाजत है और न ही गुस्से का संक्रमण करने की कोई स्थितियां रहने वाली हैं। जनतंत्र की पारदर्शिता का मायने ही स्पष्ट है कि कोई किसी पे न तो हंसे और न ही गुस्साये। सरकार के इस उल्लेखनीय कार्य की सरहाना की जानी चाहिए। पर शहर भर के गुस्सालुओं को भी कहां तो दिख रहा है सरकार का यह उल्लेखनीय कर्म। उन्हें तो फुर्सत ही नहीं। मेले ठेलों के लिए आबाद परेड मैदान की बहुत अंधेरी सी किसी आड़ में जाने तो वे क्या करने लगे हैं।  

- विजय गौड़