Friday, October 19, 2012

करतब दिखाती लड़की





फांस २०११ में प्रकाशित मेरा पहला उपन्यास है। आज (१९/१०/२०१२) सड़क से गुजरते हुए उपन्यास के पात्रों से नये सिरे से मुलाकात हुई। कुछ तस्वीरें हैं जो नायिका की हैं। नायिका से संबंधित उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा यहां शेयर कर रहा हूं। तस्वीरें आज शाम की हैं।
तब से आज तक जीने के लिए जान को जोखिम में डालने वाली यह लड़की देखो तो कैसे इतरा रही है न!!
जब से साइकिल वाले ने मजमा लगाया, छोटे ने वहीं अपना अड्डा जमा दिया। सुबह और शाम के वक्त जब दर्शकों की बेतहाशा भीड़ होती और साइकिल वाला तरह-तरह के करतब दिखाता तो छोटे को बड़ा मजा आता।  
अनवरत, सात दिनों तक साइकिल चलाने वाला वह शख्स इसी कारण छोटे का प्रेरणा स्रोत बनता जा रहा था। स्कूल जाने की बजाय वह दिन भर ही वहीं मण्डराता रहता। सुबह घ्ार से निकल जाता और देर रात को, जब साइकिल वाला स्वंय, बड़े प्यार से-अपने अजीज छोटे और सागर को खुद घर के लिए रवाना करता, तब ही घर पहुँचता। शाम के वक्त जब साइकिल वाला करतब दिखा रहा होता तो उस वक्त साइकिल पर सवार उसकी बेटी रीना भी साथ-साथ होती। अपने पिता के जैसे वह भी तरह-तरह के करतब दिखाती। उस छोटी सी लडकी के करतब तो छोटे को आश्चर्य से भर देते और उकसाने लगते- 'जब इतनी पुच्ची-सी यह।।।ये सब कर सकती है।।। तो मैं क्यों नहीं ?"
लोहे के गाल रिंग को वह गले में डालती और मुश्किलों से, गर्दन भर की गोलाई बराबर, रिंग के घेरे को नीचे पाँवों तक पहुँचा देती। छोटा ही नहीं हर कोई अचम्भित होता। तनी हुई रस्सी पर संतुलन बनाकर चलते हुए उसके चेहरे पर जो मुस्कान बिखर रही होती, छोटा उसमें नहाने लगता। देखने वाले तालियां पीटते। पर तनी हुई रस्सी पर करतब दिखाती रीना को साक्षात देखना तो छोटे के लिए संभव ही न होता। यदि देख पाता और हाथ खुले होते तो खूब तालियां पीटता। वह तो उस वक्त कंधे का पूरा जोर लगाते हुए खम्बे को थामे हुए होता। निगाहें जमीन की ओर झुकी होतीं। शरीर की पूरी ताकत कंधें पर सिमट आने की वजह से माथे पर तनाव उभर आता। भौहों पर एकाएक उठ आया माँस ऊपर कुछ दिख जाने की संभावना को भी खत्म कर देता। उस वक्त तो  सिर्पफ दर्शकों की तालियों को से ही महसूस कर सकता था कि रस्सी पर छाता ताने चलती रीना गजब की खूबसूरत दिख रही होगी। 
खम्बा कंधे के जोर पर टिका होता और दोनों हाथ खम्बे को कसकर पकड़े होते।
रस्सी जिन खम्बों पर बंधी होती उन खम्बों को पकड़ने के लिए दो मजबूत आदमियों की जरूरत थी। मजबूती ऐसी कि जिनकी पकड़ में कसे हुए खम्बों पर जो रस्सी तनती, उस पर ही वह अदाकारा लड़की एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ती, ठुमके लगाती। खम्बे जमीन में गाड़े नहींं जा सकते थे। करतब दर करतबों की श्रंृखला को स्थायी तौर पर गड़े खम्बों के साथ जारी रखना संभव न था। गड़े हुए खम्बों को जल्दी से हटाना संभव नहीं। और हटा भी दें तो छुट जाने वाले गड्ढों को कैसे भरें !  मजबूत, बलिष्ठ कंधें के जोर पर ही करतब को संभव किया जा सकता था। साइकिल वाले ने साइकिल पर चढ़े-चढ़े ही गोल घ्ोरे में घ्ाूमते हुए गुहार लगायी।

- मेहरबानों, कद्रदानों ।।।! ।।।।मैं।।।अपना आज का खेल शुरू करने से पहले।।।आप लोगों की दाद चाहता हूं।।।।

दर्शकों की करतल ध्वनि  गूँज गई।

-।।।मित्रों आज दूसरा दिन है।।।।कल आपने मेरी बेटी रीना को रिंग से पार होते देखा। ।।।आज भी देखोगे।

साथ-साथ चलती रीना के चेहरे पर उल्लास की रेखा खिंचती रही। छोटा नहाता रहा

- रीना आज आपके सामने वो करतब दिखायेगी।।।जिसे देखते हुए ।।। आपकी निगाह रुकी की रुकी रह जाएगीं।

दर्शकों की करतल ए"वनि के साथ-साथ गोल घेरे में चल रही रीना ने झटका देकर अपनी साइकिल के अगले पहिए को उसी तरह उठाया जिस तरह अक्सर, किशोर उठाता। पर वह उतनी कुशल नहीं थी कि पिता की तरह एक ही पहिये पर पूरा गोल चर काट सकती थी। बस एक सीमित दूरी तक ही साइकिल को साध् पाई। लड़खड़ाते हुए संभलने की कोशिश का वह क्षण ऐसा रोमंचकारी था कि पाँव जमीन पर टिकने की बजाय साइकिल के अगले रिम की किनारियों में पँफस गए। ठीक वैसे ही जैसे किशोर दोनों पाँवों को मात्रा एक इंच की चौड़ाई वाले रिम में में फंसा देता और एक हाथ से हैण्डल को थाम कर दूसरे हाथ से अगले पहिए को ढकेल कर आगे बढ़ा रहा होता। उसकी उम्र के घेरे में मौजूद दर्शकों की हथेलियां अनूठे अंदाज में करतब दिखाती अदाकारा के लिए यकायक खुल गईं। असपफलता का नहीं सफलता का वह बेहद मासूम क्षण था जिसने रीना को उत्साह से भर दिया। किशोर के चेहरे पर भी एक आश्चर्यजनक मुस्कराहट थी।

- हाँ तो दोस्तो।।।रीना जो करतब दिखायेगी ।।। उसके लिए मैं।।।दो मजबूत, बलिष्ठ आदमियों से दरखास्त करता हूँ ।।। वे आएं और मजबूती से इन खम्बों को पकड़क़र खड़े हो जाएं ।।। एक इध्र।।।और।।।दूसरा उध्र। ।।। अपने कंधें की ताकत पर यकीन हो तो चले आओ दोस्त। ।।। खम्बों पर तनी रस्सी पर ही रीना चलकर दिखायेगी।

कोई आगे न बढ़ा। मैदान के बीच जाकर, खम्बा पकड़ लेने का साहस, संकोच की चादरों में लिपटा रहा साइकिल वाले ने दूसरी बार गुहार लगायी। कोई सुगबुगाहट नहीं। हर कोई खेल देखना चाहता था, खेल का हिस्सा होना नहीं चाहता था। कंधें के जोर पर यकीन कैसे करें, सवाल मुश्किल था। कहीं भसक ही न जाए कंध ! क्यों बैठे ठाले ले लें पंगा। आशंकाएं चुप्पी की भाषा में तब्दील हो चुकी थी।
संकोच के लबादे को एक ओर पेंफक, छोटा आगे बढ़ा और अपने हर अच्छे-बुरे वक्त के साथी, सागर को भी खींच लिया था। सागर की देह ऐसी कि कमीज के टूटे हुए बटन से झांकता छाती का पिंजर। मनुष्य के शरीर की भीतरी संरचना के पाठ को पढ़ाने में भी उसकी मदद ली जा सकती थी। साइकिल वाला दोनों ही बालकों की कद काठी के कारण उनकी शारीरिक क्षमता का आकलन नहीं कर पाया। बल्कि उनको देखकर तो कुछ दर्शक भी खिलखिलाने लगे। लिहाजा साइकिल वाले ने एक बार पिफर गुहार लगायी।

- देखिए भाई लोगों ।।। इन दो होनहार बालकों ने अपना साहस दिखाया है।।।।।।। मैं दोनों ही बच्चों का सम्मान करता ।।।इनकी हिम्मत की दाद देता  ।।। पर भाईयों ये बच्चे इतने छोटे हैं कि खम्बे को अपने शरीर के जोर पर रोक न पायें।।।शायद ।।। मेरी गुजारिश है ।।। मजबूत कद-काठी के मेरे भाई ।।। अपने संकोच को छोड़कर ।।। आगे बढ़े ।।। और देखें कि मेरी बेटी रीना कैसे तनी हुई रस्सी पर।।।एक सीरे से दूसरे सीरे तक चलकर ।।।। आप लोगों को कैसे आनन्दित करेगी।

अपनी जाँघों के दम पर साइकिल के हैण्डल को थामे, आदमकद लम्बाई के बावजूद किशोर की आवाज में एक दयनीय पुकार थी-दर्शकों से की जा रही गुहार। कहीं कोई प्रतिक्रिया न हुई। खामोशी चारों ओर व्याप्त हो गई। पिता के साथ गोल घेरे में चक्कर काट रही रीना की आँखों में करतब दिखाने की चंचलता थी। साइकिल वाला वैसे ही गोल चर लगाता जा रहा था, जैसे उसे अगले पांच दिनों तक अनवरत लगाने थे।
साइकिल वाले की बार-बार लगायी गई गुहार पर भी कोई आगे न बढ़ा। साइकिल वाला सागर और छोटे के कंधें की ताकत और खम्बों पर उनकी पकड़ पर अपना विश्वास जमा नहीं पा रहा था। उसकी हर अगली गुहार पर छोटा अपने को और छोटा महसूस करने लगा। उसे साइकिल वाले का व्यवहार बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। गुस्सा उसके भीतर था पर मन ही मन वह बड़बड़ाता रहा- 'एक बार मौका तो दे के देख ।।। मजाल है खम्बा अपनी जगह से एक सूत भी खिसक जाए।'
अनेकों पुकारों के बाद भी जब कोई आगे न बढ़ा तो छोटा और सागर ही विकल्प के रूप में बचे रह गए। करतब तो दिखाना ही था। दोनो ही बच्चों की मदद से साइकिल वाले ने करतब दिखाने की ठान ली। लेकिन एक आवश्यक सावधनी उसने ले लेनी चाही, जो वैसे भी उसे लेनी ही थी। छोटे और सागर को एक पफासले पर आमने-सामने खड़ा होने की हिदायत देते हुए उसने जमीन पर उन जगहों को चिहि्नत कर-जहाँ लकड़ी के खूँटे गाड़े जाने थे, निशान मार देने को कहाँ

- मेरे बहादुर बच्चों।।।वहाँ दो लकड़ी के खूंटे रखे हैं ।।। उठा लाओ।

गोल घेरे के बाहर, जहाँ साइकिल वाले का सामान रखा था, छोटे और सागर वहाँ उलझे सामानों के बीच रखे, एक ओर से नुकीले, लकड़ी के दो भारी-भारी खूंटे उठा लाए।

- बहादुर बच्चों।।।जहाँ तुमने निशान लगाये हैं।।।वहीं पर दोनों को गाड़ दो। ।।। लकड़ी के इन खूँटों के सहारे ही तुम्हे खम्बे को टिकाना है और अपने कंधें के जोर पर उन्हें थामना है ।।। यह खूँटे तुम्हे मदद पहुँचायंेगे।।।।

सागर दौड़ कर गया और सामानों के साथ ही रखे एक भारी भरकम हथौडे को उठा लाया और खूँटों को ठोकने लगा। दोनों का ही उत्साह देखने लायक था। किसी प्रकार का संकोच उनके भीतर न था। लकड़ी के खूँटों को मजबूती से गाड़ दिया गया। मजबूती ऐसी कि भैंसे को बांध् दिया जाए तो पूरे जोर लगाने के बाद वह भी न उखाड़ सके। करतब के लिए मैदान तैयार हो गया। छोटे और सागर ने अपने-अपने खम्बों को खूँटों के सहारे टिका दिया। दोनों खम्बों के शीर्ष पर बंधी रस्सी खम्बों के एकदम सीधे होते ही खिंच गई। खूँटों के सहारे खम्बों को टिका दिया गया। दोनों ने ही अपनी पकड़ को मजबूत किया। जाँघ से लेकर कंधे तक का जोर लगाकर खम्बों को सीध किया। खम्बों के शीर्ष पर बंधी रस्सी पूरी तरह से तन गयी। अब किसी प्रकार का भी झोल उसमें दिखायी नहीं दे रहा था। रस्सी पर करतब दिखाने से पहले रीना ने उसके तनाव और खम्बों पर सागर और छोटे की पकड़ की मजबूती जांचनी चाही। साइकिल पर चलते हुए ही उसने दूसरी रस्सी में लंगड़ बांध् ऊपर को उछाल दिया। तनी हुई रस्सी पर फंदा डालने का उसका अंदाज निराला था। सागर और छोटे बेखबर थे। उनका सारा ध्यान तो इसी पर टिका था कि कब और कैसे रीना तनी हुई रस्सी पर चढ़ती है। तनी हुई रस्सी के दूसरी ओर निकल आए लंगड़ का पंफदा बना उसने जोर का झटका दिया। झटके के साथ ही कांप रस्सी ने दोनों ही ओर के खम्बों समेत छोटे और सागर भी लड़खड़ा दिया। हँसी का ऐसा फव्वारा छूटा, जिसमें रीना की हँसी की खनक भी शामिल थी। साइकिल वाला भी मुस्कराने लगा।

- कोई बात नहीं जवानों।।।कोई बात नहीं । बस ।।।एकदम सावधन रहो मेरे बच्चों ।।। तुम्हारे कंधें की ताकत पर ही मेरी बेटी रीना।।।या तो हुनरमंद करतबबाज कहलायेगी।।।या अनाड़ी। चलो अबकी बार पिफर से तय्यार हो जाओ ।।।। खम्बों को मजबूती से पकड़ लो ।।। कीलड़ों का सहारा नहीं हटना चाहिए ।।। रीना एक बार फिर से रस्सी को खींचकर देखेगी। खम्बे जरा भी हिले ।।। या झुके ।।। तो रस्सी का तनाव कम हो जाएगा। ।।। बस।।।समझ लो मेरे बहादुर बच्चों।।।वही क्षण हवा में झूलती रीना को नीचे पटक देगा ।।। तुम्हारे हाथों में मेरी इज्जत है मेरे बच्चों।।।!! ।।। चलो एक बार पिफर तय्यार हो जाओ और अपने शरीर के जोर पर रोको खम्बें।

रीना ने एक बार पिफर वैसे ही जोर का झटका दिया। छोटे और सागर अबकी बार मुस्तैद थे। अपने जिस्म की पूरी चेतना के साथ खम्बों को उन्होंने थामा हुआ था। कैसा भी झटका उनकी पकड़ को ढीला नहींं कर सकता था। रस्सी का तनाव ज्यों का त्यों बना रहा तालियों की जोरदार आवाज स्वाभाविक ही थी। छोटा भीतर ही भीतर गर्व से भर गया। सागर भी। रीना ने एक और अप्रत्याशित प्रयास थोड़े अंतराल में पिफर किया, यह जांचने के लिए कि कहीं सागर और उसका साथी छोटा पिफर से लापरवाह तो नहीं हो गए। पर खम्बों पर पकड़ पहले से भी मजबूत थी। आश्वस्त हो जाने के बाद साइकिल को एक ओर छोड़, लम्बे-लम्बे बाँस के डण्डों में बने कुंडों में दोनों पाँव पँफसा रीना डण्डों के सहारे खड़ी होने लगी। छटांक भर की लड़की पलक झपकते ही आसमान को छूने लगी। लम्बे-लम्बे बाँसों पर खड़ी वह हवा में चलती हुई सी लग रही थी। उसके चेहरे पर उल्लास था। दर्शकों को उसका चेहरा देखने के लिए अपनी-अपनी गर्दन को इस कदर उठाना पड़ रहा था कि एक बार को भ्रम हो सकता था कि वे तो आकाश को ताक रहे हैं। छोटे और सागर चाहकर भी गर्दन नहींं उठा सकते थे। खम्बों के लचक जाने का भय उन्हें छूट नहीं दे रहा था। वे तो बाँसों पर चढ़ी आदमकद ऊँचाई को छूती रीना का होना, बस गोल घेरे में चक्कर काटती दो बल्लियों के रूप में ही महसूस कर सकते थे- वह भी तब, जब वह साइकिल पर चर लगाते अपने पिता के साथ-साथ बाँसों के सहारे चलती हुई उनके एकदम नजदीक से गुजर रही थी।
बाँस के डण्डे जो उसके पाँवों में पँफसे थे, न जाने कब हटे कि वह तनी हुई रस्सी पर खड़ी हो गयी। हाथों को शरीर से बाहर की ओर पूरा खोलकर एक कुशल करतब बाज की तरह वह तनी हुई रस्सी पर चल रही थी। दर्शक झूम रहे थे और जिनकी करतल ध्वनियों से पूरा माहौल गूँज रहा था। लड़की अपना संतुलन बनाये हुए जितनी एकाग्र थी, छोटे और सागर की एकाग्रता को उससे उन्नीस नहीं कहा जा सकता था। हवा में उछलकर जब लड़की जमीन पर कूद गई तो छोटे और सागर की तनी हुई माँस-पेशियाँ अपनी सामान्य स्थितियों में लौटने लगी। उनके शरीर पसीने से भीग चुके थे। साइकिल वाला दोनों ही लड़कों के प्रति कृतज्ञ हो रहा था। लड़की फिर से साइकिल पर चढ़कर अपने पिता के साथ-साथ गोल चर काटने लगी। उसके करतब से प्रभावित हुए पहले से ही ढीली जेबों वाले दर्शक, अपनी उन जेबों को पूरी तरह से उलट कर ढीला कर देना चाहते थे। लड़की के हुनर का सम्मान करने के लिए अपनी भावनाओं का प्रदर्शन वे इसी तरह कर सकते थे। भारी जेब वालों की उंगलियां उनकी जेबों में फंसकर रह जा रही थी। 
(उपन्यास अंश- फांस)

 

2 comments:

Ashok Kumar pandey said...

जन के लेखक को उसके नायक-नायिका यूं ही मिलते रहते हैं...अभिजन के लेखक को दर्शन होते हैं अपने नायक-नायिकाओं के..

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लगा उपन्यास अंश।