Sunday, July 13, 2014

पसंद से ज्यादा नापसंद का इज़हार

                                      ---  यादवेन्द्र 
सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति वाला गोपाल सुब्रहमण्यम मामला अभी ठण्डा भी नहीं हुआ था कि वर्तमान शासन की सोच से मेल न खाती एक फ़िल्म के प्रति नापसंदगी को ज़ाहिर करता अधैर्य सामने आ गया।  
एक छोटी सी लगभग अचर्चित ख़बर यह है कि 2013 के 61 वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों से सम्मानित फ़िल्मों के जून के अंतिम दिनों में संपन्न दिल्ली समारोह की पूर्व घोषित प्रारंभिक फ़िल्म हंसल मेहता की शाहिद थी पर बदले हुए राजनैतिक परिदृश्य में बगैर कोई तार्किक कारण बताये इसके स्थान पर मराठी की सुमित्रा भावे निर्देशित अस्तु दिखला दी गयी। सभी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फ़िल्मों को दिखलाना ही था सो शाहिद  को अगले दिन प्रदर्शित किया गया।इस बदलाव से पूर्ववर्ती कार्यक्रम के लिए स्वयं उपस्थित रहने की अपनी औपचारिक सहमति दे चुके हंसल मेहता ने न सिर्फ़ दुखी और अपमानित महसूस किया बल्कि उन्हें इसमें राजनैतिक रस्साकशी की बू भी आयी। 
  
ध्यान रहे कि 61 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की जूरी के अध्यक्ष अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है और नसीम जैसी अविस्मरणीय फ़िल्में बनाने वाले सईद अख़्तर मिर्ज़ा थे और एम एस सथ्यु ( गर्म हवा जैसी मील का पत्थर फ़िल्म के निर्देशक )और उत्पलेंदु चक्रवर्ती( सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार पाने वाली बांग्ला फ़िल्म चोख के निर्देशक ) समिति के सदस्य थे --इसी जुड़ी ने शाहिद को श्रेष्ठ निर्देशन और अभिनय  के लिए पुरस्कृत किया गया तो अस्तु को श्रेष्ठ संवादों और सहायक अभिनेत्री के लिए इनाम दिया गया। यहाँ तक तो हिसाब किताब बराबर पर सृजनात्मक कृतियों को तुलनात्मक तौर पर वैसे बिलकुल नहीं तोला जा सकता है जैसे तराजू पर कोई सामान रख कर डंडियों का झुकाव देख लिया जाता है -- ज़ाहिर है अपने अपने तरीके और दृष्टिकोण से शाहिद और अस्तु नाम से दो अलहदा फ़िल्में बनायीं गयी हैं और उनको डंडी वाले तराजू पर सामान की माफ़िक तोला नहीं जा सकता। पहली फ़िल्म मानवाधिकारों की रक्षा और निर्दोष गरीबों को इन्साफ़ दिलाने के लिए अपनी जान तक जोखिम में डाल देने वाले वकील शाहिद काज़मी के जीवन की वास्तविक घटनाओं पर आधारित बायोपिक फ़िल्म है जबकि दूसरी फ़िल्म डिमेंशिया से ग्रसित एक वृद्ध संस्कृत विद्वान और पिता की चिंता में दिन रात एक किये हुए उनकी बेटी के आपसी रिश्तों की बारीक और आम तौर पर ओझल रहने वाली परतों की मार्मिक कथा है जिसमें बेटी कभी बेटी तो कभी माँ की भूमिका में नज़र आती है। इन दोनों की तुलना कैसे की जा सकती है ?

आहत हंसल मेहता जब यह कहते हैं कि किन्हीं कारणों से यदि मेरी फ़िल्म को प्रारम्भिक फ़िल्म के गौरव से वंचित करना ही था तो उसकी जगह आनंद गांधी की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार जीत चुकी शिप ऑफ़ थीसियस का प्रदर्शन किया जा सकता था …  हाँलाकि वह अगली साँस में ही बतौर एक फ़िल्म अस्तु की प्रशंसा करना भी नहीं भूलते।बेशक किसी भी कलाकार का अपनी कृति के साथ गहरा भावनात्मक लगाव और आग्रह जुड़ा होता है पर उसके स्थानापन्न के चुनाव में "अ" बनाम "ब" का मापदण्ड अपनाना उचित और नैतिक नहीं होगा। 

पर हंसल मेहता ने इस घटना के सन्दर्भ में जिन प्रश्नों को उठाया है उनसे मुँह मोड़ना चिंगारी देख कर भी धुँए से इंकार करने सरीखा होगा। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि फिल्म के प्रदर्शन में बदलाव के कारण सिनेमा से परे हैं -- उन्होंने अनौपचारिक तौर पर बतलाये गए कारणों (शाहिद की  विषयवस्तु  के कारण कम दर्शकों की उपस्थिति की आशंका और अस्तु के कास्ट और क्रू का समारोह स्थल पर उपस्थिति होना ) को सिरे से नकार दिया। पर उनको समारोह के पहले दिन 29 जून को फ़िल्म के साथ आमंत्रित करने की तारिख ( 15 मई ) पर गौर करें तो सबकुछ शीशे की तरह एकदम साफ़ हो जाता है --- अगले दिन देश का राजनैतिक नक्शा पूरी तरह से बदल जाता है। ऐसे में सम्बंधित अफ़सरान की निष्ठा इधर से उधर हो जाये तो इसमें अचरज कैसा ?
हंसल इस बर्ताव से गहरे तौर पर आहत हुए हैं और कहते हैं कि शाहिद को पुरस्कार मिलने पर कई लोगों ने इसकी सृजनात्मक श्रेष्ठता को नहीं बल्कि एक समुदाय विशेष का पृष्ठपोषण करने को रेखांकित किया … पर यह फिल्म भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर व्याप्त गैर बराबरी चाहे वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय की हो के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है।गहरी पीड़ा के साथ वे आगे कहते हैं कि वे पिछली सरकार की आडम्बरपूर्ण तुष्टिकरण की नीतियों का विरोध करते थे और शाहिद इन्हीं विचारों का प्रखर दस्तावेज़ है।वैसे ही वे बदले हुए माहौल में देश के ऊपर मँडरा रही अराजक बहुसंख्यावादी शक्तियों का भी अपनी कला के माध्यम से भरसक विरोध करेंगे। उन्होंने आयोजनकर्ताओं को सिनेमा को सिनेमा रहने देने की नसीहत दी और आग्रह किया कि वे अपने राजनैतिक बाध्यताएँ सिनेमा के ऊपर न थोपें।

अच्छे दिनों की यह गला घोंटने वाली कैसी आहट है ? 

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।