Thursday, June 25, 2015

प्रेम, प्रकृति और मिथक का अनूठा संसार


हमारे द्वारा पुकारे जाने वाले नाम प्रीति को स्‍वीकारते हुए भी हमारी साथी प्रमोद कुमारी ने अब प्रमोद के अहमदपुर के नाम से लिखना तय किया है। अहमदपुर उनके प्रिय भूगोल का नाम है। प्रीति का वर्तमान भूगोल यद्यपि देहरादून है। डॉ शोभाराम शर्मा द्वारा अनुदित ओर संवाद प्रकाशन से प्रकाशित उपन्‍यास जब व्हेल पलायन करते हैं की समीक्षा प्रीति द्वारा की गयी है। रचनात्‍मक सहयोग के लिए प्रीति का आभार ।
वि गौ
 
प्रमोद के अहमदपुर 

प्रेम की ताकत पशु को भी मनुष्य बना सकती है। प्रेम की ताकत को दुनिया भर की आदिम जनजातियां भी सभ्यता का प्रकाश फैलने से पहले ही पहचान चुकी थीं जो उनकी दंतकथाआें में आज भी देखने को मिलता है। एेसी ही प्रेम की ताकत की कथा है यह उपन्यास। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मनुष्यता का इतिहास सदियों से संजोई गई एेसी ही दंतकथाआें में परतदर परत दर्ज हैजो बुद्ध की तरह प्रेम और करुणा से मनुष्य के मनुष्य हो जाने में विश्वास करती हैं। इन्हीं जीवन मूल्यों में रचा बसा प्रेम प्रकृति और मिथक का अनूठा संसार है उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं।' 
ऐसे समय में जब समूचा विश्व हिंसा से ग्रस्त हो। दुनिया के ताकतवर देश अपनी वस्तुआें के लिए बाजार पैदा करने के लिए अपने से कमजोर देशों पर अपने मूल्य लादने में जुटें हो और संकीर्णता व सनक के मारे कुछ लोग अपने ही इतिहास को नष्ट करने में जुटे होंसिर्फ इसलिए दूसरों की हत्या कर देते हों कि वे उनके जैसे नहीं दिखते। एेसे में डॉ. शोभाराम शर्मा द्वारा अनुदित उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं का प्रकाशन एकसुखद अनुभूति देता है। यह उपन्यास बताता है कि प्रेम की ताकत से ही मनुष्यता आज तक जीवित है। दरअसल प्रेम ही मनुष्य की जीवन शक्ति है। प्रेम उसके सभी क्रियाकलापों का केंद्र बिंदु है। जब भी मनुष्य इस सत्य को भुला देता है या उससे दूर हो जाता हैमानवता का खून बहने लगता है। 
जब व्हेल पलायन करते हैं साइबेरिया की अल्पसंख्यक चुकची जनजाति की अद्भुत कलात्मक दंत कथाआें व लोक विश्वासों पर आधारित उपन्यास है। वह दंतकथा जो साइबेरिया के चुकची कबीले के लोग ठिठुरती ध्रुवीय रातों में यारंगा (रेनडियर की खाल के तंबू) के भीतर चरबी के दीयों की हल्की रोशनी में न जाने कितनी सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सुनाते आ रहे हैं। चुकची जनजाति के लोगों का भोलासा विश्वास है कि वे व्हेलों के वंशज हैं। इस जनजाति के पहले लेखक यूरी रित्ख्यू की इस पुस्तक का ईव मैनिंग द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 19७7 में सोवियत लिटरेचर में प्रकाशित हुआ था। यह लघु उपन्यास या कहें आधुनिक दंत कथा मौखिक कथा कहने का एक बहुत ही सुंदर नमूना है। व्हेलों और इंसानों के बीच के रिश्तों की कवितामयी कहानी कहता यह लघु उपन्यास उन लोगों के लिए भी अहम है जो पुराने लोगों की कथाआें को हंसी में उड़ा देते हैं और मनुष्य के अनुभवजन्य ज्ञान की उपेक्षा कर मुनाफे और लालच के मारे अपने ही पर्यावरण का विनाश करते हैं।
मनुष्य के ह्वेल में बदल जाने और व्हेल के मनुष्य में बदल जाने की यह कथा मौजूदा दौर के एक चुकची व्यक्ति द्वारा आधुनिक संदर्भों में फिर से कही गई दंतकथा है। जो एक कथा वाचक की तरह अपनी लोक कथा को अपने समय के संदर्भ में पेश करता है। यह उपन्यास इस तरह से विकास के आधुनिक पश्चिमी विचार की भी तीखी मानवीय आलोचना करता है। यह दंतकथा मौजूदा लालच और मुनाफे की व्यवस्था पर भी प्रहार करती है और बिना किसी घोषणा के बताती है कि प्रकृति से मनुष्य का तादात्म्य कितना जरूरी है और यदि मनुष्य के हृदय में प्रेम न हो तो प्रकृति से तादात्म्य भी असंभव है। यूरी रित्ख्यू ने भी अपनी मूल भूमिका में लिखा है''जब एक पुस्तक लिखी जाती है तो कभी कभी वह एेसे पहलुआें और विशेषताआें को प्रदर्शित कर बैठती हैजिस पर लिखते समय लेखक ने सोचा तक न हो। मैं इस पुस्तक में कुछ एेसा ही पाता हूं।'' डॉ. शोभाराम शर्मा ने इस उपन्यास को अंग्रेजी से  हिंदी में प्रस्तुत किया है। पुस्तक की खास बात यह है कि इसमें उपन्यास की यूरी रित्ख्यू की मूल भूमिका के साथसाथ यूरी रित्ख्यू के दो लेख स्वर लहरी के संगसंग और सदियों की छलांग भी शामिल हैंजो उपन्यास लिखे जाने की पृष्ठभूमि समझने में पाठक की मदद करते हैं। अनुवादक की भूमिका और परिशिष्ट में उनके द्वारा दिया गया यूरी रित्ख्यू का साहित्यिक परिचय स्पष्ट कर देता है कि मनुष्य के मनुष्य बने रहने के लिए लोक विश्वासों व दंतकथाआें पर आधारित एेसी कृतियां कितनी जरूरी हैं। अनुवादक डॉ. शोभाराम शर्मा ने भी अपनी भूमिका में लिखा है—''यदि हमारे लेखक भी अपने लोक साहित्य और दंतकथाआें की बहुमूल्य थाती का उपयोग कर एेसी निर्दोष कलाकृतियां प्रस्तुत कर सकें तो कितना अच्छा हो।''

जब व्हेल पलायन करते हैं : मूल लेखक यूरी रित्ख्यू
अनुवाद : डॉ. शोभाराम शर्मा
संवाद प्रकाशन, आई-499 शास्त्रीनगर मेरठ-250004 (उ.प्र.)
संवाद प्रकाशन, ए-4, ईडन रोज,वृन्दावन एवरशाइन सिटी वसई रोड (पूर्व)
ठाणे (महाराष्ट्र.) पिन-401208

Thursday, June 11, 2015

घुसपैठियों से सावधान


प्रिय मित्र यादवेन्‍द्र जी से मुखातिब होते हुए

हम, जो दुनिया को खूबसूरत होते हुए देखना चाहते हैं-  किसी भी तरह के शोषण और गैर-बराबरी के विरूद्ध होते हैं, चालाकी और षड़यंत्र की मुनाफाखोर ताकतों का हर तरह से मुक्कमल विरोध करना चाहते हैं । यही कारण है कि अपने कहे के लिए उन्‍हें  ज्‍यादा जिम्मेदार भी माना जाना चाहिए, या उन्‍हें खुद भी इस जिम्मेदारी को महसूस करना चाहिए । ताकि उनके पक्ष और विपक्ष को दुनिया दूरगामी अर्थों तक ले सके और उनकी राय से व्‍युत्‍पन्न होती नैतिकता, आदर्श को विक्षेपित किया जाना संभव न हो पाये। पर ऐसा अक्सर देखने में आता नहीं। खास तौर पर तब जब प्रतिरोध के किसी मसले को  शासक वर्ग द्वारा भिन्‍न अंदाज में प्रस्तुत कर दिया गया हो। ऐसे खास समय में प्रतिरोध का हमारा तरीका कई बार इतना वाचाल हो जाता है कि खुद हमारे अपने ही मानदण्‍डों को संतुष्‍ट 0कर पाना असंभव हो जाता है । कई बार ऐसा इस वजह से भी होता है कि शासकीय चालाकियों को पूरी तरह से पकड़ पाना हमारे लिए मुश्किल होता है और उसका लाभ उठाकर शासक वर्ग के घुसपैठिये भी प्रतिरोध का नकाब पहनकर अपनी भूमिका को बदल चुके होते हैं ताकि हमारे हमेशा के वास्‍तविक प्रतिरोध को अप्रसांगिक कर सके । उस वक्‍त उनके प्रतिरोध की आवाज इतनी ऊंची होती है कि एकबारगी वे हमें जनता के पक्षधर नजर आते हैं जो हमारे ही मन के प्रिय भावों को प्रकट करने में साथ दे रहे होते है। उनकी इस भूमिका पर हम उन पर कोई सवाल नहीं उठा सकते बल्कि उनके ही नारों, उनके ही तर्कों के साथ खुद प्रतिरोध में जुट जाते हैं। लेकिन एक दिन जब वे पाला बदलकर फिर से अपने पूर्व रंग में होते हें तो पाते हैं कि उनके अधुरे तर्कों के कारण और उनके ही पीछे पीछे डोलने के कारण हम खुद ही अप्रसांगिक हो चुके हैं।

घुसपैठियों के तर्कों में बहने की बजाय हमें प्रतिरोध की अपनी भूमिका को स्पष्ट रखते हुए  निशाना ठीक से साधना आना चाहिए। मैगी के समर्थन में आ रहे विचारों के मद्देनजर बात न भी की जाये तो ओसामा बिन लादेन की हत्‍या के समय को देखिये जब एक वैश्विक पूंजी के विरोध में किया जा रहा हमारा प्रतिरोध हमें अप्रसांगिक बना दे रहा था । हम लादेन के पक्षधर नहीं हो सकते पर अनायास वैसा दिख रहे थे। हाना मखमलबॉफ की फिल्‍म एक बार फिर याद आ रही है