Tuesday, December 8, 2015

नवजागरण…भारतीय अबलाओं का नवीनीकरण

नाज़िया फातमा

      19वी शताब्दी में भारतीय जन समाज में आई वैचारिक क्रांति का मूल अर्थ उस ‘नई चेतना’ से रहा जो समाज में हर स्तर पर धीरे-धीरे अपना प्रसार कर रही थी l सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक हर पहलू इससे प्रभावित हो रहा था l पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान से प्रभावित एक नया बुद्धिजीवी वर्ग तैयार हो रहा था l इस नये बुद्धिजीवी वर्ग की आकांक्षाएं पहले से काफी भिन्न थीं, जो कि हर तरफ कुछ बदलाव चाह रहा था l इस नए वर्ग को स्त्रियों की स्थिति में भी कुछ बदलाव की ज़रूरत महसूस हुई l इस नए वर्ग की आकांक्षाओं के अनुरूप स्त्रियों को ढालने के लिए, उनकी स्थिति में परिवर्तन करना आवश्यक था l परिवर्तन की इस लहर में ‘स्त्री’ और उसका जीवन बहस का केन्‍द्रीय मुद्दा होकर सामने आया। डॉ. राधा कुमार के शब्दों में “उन्नीसवीं शताब्दी को स्त्रियों की शताब्दी कहना बेहतर होगा क्योंकि इस सदी में सारी दुनियां में उनकी अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएं एवं उर्वरा गर्मागर्म बहस का विषय थेl”[1] 
समाज में स्त्री शिक्षा का मुद्दा हमेशा से ही विवादस्पद रहा हो ऐसा नहीं है अगर हम थोडा इतिहास में जाये तो पता चलता है कि प्राचीन समय में स्त्रियाँ शास्त्रसम्मत थीं l  प्राय: वह शास्त्रों का अध्ययन करती थीं  ये वो समय था जब इस्लाम का आगमन भारतवर्ष की भूमी पर नहीं हुआ था l मध्यकाल में इस्लाम का प्रवेश हुआ तब तक स्त्री शिक्षा की संख्या में थोड़ी गिरावट आई प्राय: उनका विवाह छोटी उम्र में ही कर दिया जाता था इसका कारण चाहे जो हो लेकिन स्त्री शिक्षा गायब नहीं हुई थी l लेकिन 19वीं शताब्दी तक आते- आते स्त्री शिक्षा का मुद्दा बड़े पैमाने पर विवादित रहा l स्त्रियों की शिक्षा पूरे परिवार और समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सकती है, इस तथ्य से सम्पूर्ण पुरुष समाज परिचित था इसलिए उसे शिक्षित करने का साहसपूर्ण कदम उठाया गया l लेकिन यहाँ स्त्री शिक्षा का अर्थ था ‘भारतीय अबलाओं का नवीनीकरण’ l इस नवीनीकरण का केवल एक ही उद्देश्य था और वह था  कि समाज में उदित हुए इस नये बुद्धिजीवी वर्ग के अनुरूप स्त्रियों को ढालना l यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है की इन स्त्रियों को शिक्षित करने का उद्देश्य इन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना या आत्मनिर्भर बनाना नहीं था l इन स्त्रियों का एक मात्र उद्देश्य केवल अपने पति की अनुगामिनी बनाना था l इस षड्यंत्र का साफ़-साफ़ उल्लेख हमे नवजागरण का अग्रदूत कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र के इस कथन में मिलता है “ऐसी चाल से उनको(स्त्री) शिक्षा दीजिये कि वह अपना देश और धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें l”[2]
भारतेन्दु के इस वक्तव्य से ही हमें तत्कालीन स्त्री शिक्षा की दशा समझ में आनी चाहिए l  तत्‍कालीन समाज में स्त्री शिक्षा की स्‍वीकार्यता नहीं थी। स्त्री शिक्षा का सवाल एक जटिल विषय की तरह था, जो धार्मिक  मान्‍यताओं से निर्धारित किया जाता था। धर्म के अनुपालन के लिए प्रतिबद्ध पुरुष वर्ग स्त्री की पवित्रता को लेकर भी उतना ही चिंतित था l प्राय: ये धारणा सर्वव्‍यापी थी कि स्त्री को पढ़ाने से वह पथ भ्रष्ट हो जाएगी या उसे विवाह उपरांत वैधव्य का सामना करना पड़ेगा(चोखेरबाली) l ऐसे में तथाकथित समाज सुधारों का रास्ता उसे शिक्षित करने को तो सहमत था लेकिन उस चाल से नहीं जैसे लड़कों को किया जा रहा था। पूरे नवजागरण में स्त्री को लेकर कमोबेश यही दृष्टि तत्‍कालीन समाज सुधारकों में दिखाई देती है l इस समय समाज में जो स्त्री शिक्षा दी जा रही थी वो उसे  केवल एक निपुण गृहिणी बनाने तक ही सीमित थी। प्राय: उनको रसोई में खाना बनाने और खर्च में मितव्‍यतता बरतने की शिक्षा दी जाती थी l

 भारतेंदु हरिश्चंद्र के उपरोक्त वक्तव्य पर टिप्पणी करते हुए डॉ. वीर भारत तलवार लिखते हैं कि “भारतेंदु ने लड़कियों की शिक्षा के लिए आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की जगह चरित्रनिर्माण, धार्मिक और घरेलू प्रबंध के बारे में बतानेवाली किताबें पाठ्यक्रम में लगाने के लिए कहा...भारतेंदु के समकालीन और सर सैय्यद के साथी डिप्टी नज़ीर अहमद ने 1869 में स्त्री शिक्षा के लिए मिरातुल उरुस(स्त्री दर्पण) किताब लिखी जिसमें दो बहनों की कहानी के ज़रिये भद्र्वर्गीय स्त्रियों को माँ, बहन, बेटी और पत्नी के रूप में अपने परम्परागत कर्त्तव्यों को और भी कुशलता के साथ पूरी करने की शिक्षा दी गयी है l इसी तरह 19वीं सदी के मुस्लिम नवजागरण की सबसे महत्वपूर्ण संस्था देवबंद दारुल उलूम से संबंधित मौलाना अशरफ़ अली थानवी ने बहिश्ती ज़ेवर किताब लिखी जो एक ऐसा वृहद कोश था जिसमें  भद्र्वर्गीय मुस्लिम स्त्री को धर्म, पारिवारिक, कानूनों घरेलू संबंध, इस्लामी दवा-दारु वगैरह की शिक्षा दी गई थी l उर्दू में लिखी गई ये दोनों किताबें भद्र्वर्गीय मुस्लिम परिवारों में हर लड़की को उसके ब्याह के समय उपहार के रूप में दी जाती थी l”
  
समाज में व्याप्त कुरीतियों को जड़ से मिटाने के लिए जो उपाय किये जा रहे थे उनमें स्त्री की दशा सुधारना एक महत्वपूर्ण काम था। साथ ही यह भी उल्‍लेखनीय है कि पितृसत्तात्मक अनुकूलन के कारण समाज सुधारकों – चाहें वह हिन्दू हों या मुसलमान उनकी दृष्टि एकांगी ही थी। वे यह तो जानते थे कि उन्हें कैसी स्त्री चाहिए लेकिन स्त्री को क्या चाहिए, इस पर उनका ध्यान नहीं था l इस बात पर आम सहमती थी कि स्त्रियों को शिक्षा देनी चाहिए लेकिन उस शिक्षा का स्वरुप कैसा हों, स्त्रियों को कैसी, कितनी शिक्षा दी जाए इस पर न वह एकमत थे और न ही इसकी कोई स्पष्ट योजना ही उनके पास थी l स्त्रियाँ पढ़ना तो सीखें लेकिन वह आत्मनिर्भर  न बने l इसीलिए इस दौर में स्त्री को शिक्षित करने का ये रास्ता निकाला गया जिसमें उनको उनके घरेलू दायरे में भी रखा जा सके और वे थोड़ा घर-गृहस्थी का ज्ञान भी प्राप्‍त कर सकें। शिक्षा की ये दोहरी नीति थी।
इसी उद्देश्य की पूर्ती हेतु इस समय पाठ्यपुस्तकों की आवश्यकता महसूस हुई जिसके फलस्वरूप  पहले उर्दू और फिर हिंदी में बड़े पैमाने पर पाठ्यपुस्तकें तैयार करवाई गयीं l जिसमें लड़कियों के पाठ्यक्रम के लिए अलग और लड़कों के लिए अलग थीं l सर्वप्रथम मुसलमान लड़कियों की शिक्षा के लिए उर्दू का पहला उपन्यास ‘मिरातुल-उरुस’ की रचना डिप्टी नज़ीर अहमद ने सन् 1869 में की यह अपने समय की प्रसिद्ध पुस्तक है l इसका महत्व इस बात से साबित होता है कि तत्कालीन समय में इसे अंग्रेज़ डायरेक्टर तालीमात ने एक हज़ार रूपए के पारिश्रमिक से नवाज़ा था l और इसी उपन्यास से प्रेरणा लेकर ही “मुंशी ईश्वरी प्रसाद और मुंशी कल्याण राय ने 224 पृष्ठों का 'वामा शिक्षक' (1872 ई.) उपन्यास लिखा। भूमिका में ईश्वरी प्रसाद और कल्याण राय ने लिखा कि 'इन दिनों मुसलमानों की लड़कियों को पढ़ने के लिए तो एक दो पुस्तकें जैसे मिरातुल ऊरूस आदि बन गई  हैं, परंतु हिंदुओं व आर्यों की लड़कियों के लिए अब तक कोई ऐसी पुस्तक देखने में नहीं आई जिससे उनको जैसा चाहिए वैसा लाभ पहुँचे और पश्चिम देशाधिकारी श्रीमन्महाराजाधिराज लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर की यह इच्छा है कि कोई पुस्तक ऐसी बनाए जिससे हिंदुओं व आर्यों की लड़कियों को भी लाभ पहुँचे और उनकी शासना भी  भली-भाँति हो l” आगे मिरातुल-उरुस की प्रेरणा लेकर ही “हिंदी में उस वक़्त हिंदी के कुछ लेखकों ने भी इसी ढंग की कुछ किताबें बनाई, जैसे देवरानी-जेठानी की कहानी और भाग्यवती l”[3]  
            उन्नीसवीं समय का भारतीय समाज स्त्री के प्रति विभेदपूर्ण नीति से ग्रसित था l पुरुषों को जहाँ पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान, दर्शन,गणित,अंग्रेज़ी आदि की शिक्षा पाने का पूरा अधिकार था l वहीं स्त्रियों को मात्र घर-गृहस्थी और आदर्श बेटी, पत्नी, बहू और माँ बनने की शिक्षा तक ही सीमित रखा जाता था l इस बात की पुष्टि लेखक द्वारा इस कथन से होती है “और किसी काम के लिए औरतों को इल्म की ज़रूरत शायद ना भी हो मगर औलाद की तरबियत(पालन-पोषण) तो जैसे चाहिए बेइल्म के होनी मुमकिन नहीं l लड़कियाँ तो ब्याह तक और लड़के अक्सर दस बरस की उम्र तक घरों में तरबियत पाते हैं और माओं की ख़ूबी उनमें असर कर जाती है l पस अय औरतों ! औलाद की अगली जिंदगी तुम्हारे अख्तियार में है l चाहो तो शुरू से उनके दिलों में ऐसे ऊँचे इरादे और पाकीज़ा ख़याल भर दो कि बड़े होकर नाम ओ नमूद पैदा करें और तमाम उम्र आसाइश में बसर कर के तुम्हारे शुक्रगुज़ार रहें और चाहो तो उनकी उफ्ताद को ऐसा बिगाड़ दो कि जूं-जूं बड़े हों, खराबी के लच॒छन सीखतें जाएँ और अंजाम तक इस इब्तदा का तस्सुफकिया करें l”[4] भारतेंदु  कि उक्ति की ‘लकड़ो को सहज में शिक्षा दी जाये’ इसी विभेदपूर्ण नीति को स्त्पष्ट करती है l
       मिरातुल उरुस का कथानक इस प्रकार है कि अकबरी और असगरी दो बहने हैं जिसमे अकबरी बड़ी और असगरी छोटी बहिन है अकबरी बचपन से ही अपनी नानी के घर  बड़े लाड़-दुलार से पली है जिसके कारण वह जिद्दी और मुहजोर हो गई है लेकिन असगरी इसका बिलकुल उलट है वो माँ-बाप की हुक्म की तामील करती है, घर में सबका ख्याल रखती है, घर के सब काम जानती है, घर की ज़िम्मेदारी बखूबी निभाती है l दोनों बहनों का ब्याह एक ही घर में तय  किया जाता है जिसमे अकबरी घर कि बड़ी बहु और असगरी छोटी बहु बनती है l अकबरी अपने बदमिजाज और गुस्से के कारण उपेक्षित पात्र घोषित होती है जबकि असगरी अपनी खूबियों के कारण घर-परिवार में सराहनीय पात्र बनकर उभरती है l पूरे उपन्यास का मूल्य बिंदु है कि अशिक्षित स्त्री घर को सँभालने में कुशल नहीं होती जबकि शिक्षित स्त्री ही सर्वश्रेष्ठ होती है l  उपन्यास की भूमिका में सैय्यद आबिद हुसैन लिखते हैं कि “मिरातुल-उरूस, जो इस वक़्त आप के सामने है, नज़ीर अहमद का एक छोटा सा नावेल है जो उन्होंने छपवाने के लिए नहीं बल्कि अपनी लड़की के पढ़ने के लिए लिखा था  इत्तिफ़ाक से इसका मसौदा अंग्रेज़ डायरेक्टर तालीमात की नज़र से गुज़रा l वह इसे पढ़ कर फड़क उठा l उसी की तवज्जो से यह किताब छपी और इस पर मुसन्निफ़ को हुकूमत की तरफ से एक हज़ार रुपया इनाम मिला l”[5]
 आगे  नज़ीर अहमद अपना मंतव्य स्त्पष्ट करते हुए  लिखते हैं कि “मुझको ऐसी किताब की जुस्तजू हुई जो इखलाक ओ नसायह से भरी हुई हो और उन मामलात में जो औरतों की जिंदगी में पेश आते हैं और औरतें अपने तोह्मात और जहालत और कजराई की वजह से हमेशा इनमें मुब्तिलाए-रंज ओ मुसीबत रहा करती है, इनके ख़यालात की इस्लाह और उनकी आदात की तहज़ीब करें और किसी दिलचस्प पैराये में हो जिससे उनके दिल न उकताय, तबीयत न घबराय l मगर तमाम किताब खाना छान मारा ऐसी किताब का पता ना मिला l तब मैनें इस किस्से का मनसूबा बाँधा l” [6]
 ‘मिरातुल उरुस’ की नायिका ‘असगरी’ एक शिक्षित  स्त्री के रूप में चित्रित की गई है जो बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक रखती है इसीलिए लेखक कहता है “उसने छोटी सी उम्र में ही कुरान-मजीद का तर्जुमा और मसायल की उर्दू किताबें पढ़ ली थी l लिखने में भी आजिज़ न थी .... हर एक तरह का कपड़ा सी सकती थी और अनवाआ और अकसाम के मजेदार खाने पकाना जानती थी l”[7] अपने हुनर के कारण ही वह विवाहोपरांत अपनी ससुराल में सबकी  आँख  का तारा  बनती है l अपनी समझदारी के कारण वह, हिसाब में हुई गड़बड़ी का पता लगाती है l पूरे उपन्यास में स्त्री शिक्षा के लाभ  बताए गए हैं l पूरा उपन्यास इस बात का प्रमाण है कि किस प्रकार एक स्त्री गृहस्थ धर्म की शिक्षा लेकर उसका अपने जीवन में उपयोग कर सकती हैं या किस प्रकार एक शिक्षित स्त्री ही निपुणता से अपने गृहस्थ जीवन को सुखमय बना सकती है l
वस्तुतः उर्दू का यह पहला उपन्यास नवजागरण के दौर में मुस्लिम समुदाय में स्त्री-शिक्षा की स्थिति की यथार्थ अभिव्यक्ति करता है l स्त्रियों की शिक्षा पूरे परिवार और समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सकती है इसे डिप्टी नज़ीर अहमद अच्छी तरह जानते थे l अत: मुस्लिम स्त्री शिक्षा की आदर्श स्थिति हेतु ‘मिरातुल-उरुस’ की रचना की गई l
       



[1]स्त्री संघर्ष का इतिहास १८००-१९९० – राधा कुमार  अनुवादएवं संपादन – रमा शंकर सिंह ‘दिव्यदृष्टि’ पृ सं.23
[2][2]रस्साकशी – वीरभारत तलवार पृ. सं. 39
[3]  रस्साकशी – वीरभारत तलवार पृ.सं.39
[4] मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ सं. 22
[5] मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ सं. 6
[6]मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद,टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ.सं10
[7]मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ.सं36

नाज़िया फातमा जामिया, नई दिल्‍ली में शोधार्थी है। अपने विषय से बाहर जाकर भी हिन्‍दी लेखन की समाकालीन दुनिया में हस्‍तक्षेप करना चाहती है। प्रस्‍तुत आलेख उसकी बानगी है। 
उर्दू के पहले उपन्यास मिरातुल-उरुस’ के बहाने भारतीय नवजागरण दौर में मुस्लिम समुदाय में स्त्री-शिक्षा की स्थिति की पहचान करती नाज़िया फातमा की यह कोशिश उललेखनीय है। 
- वि.गौ.  

1 comment:

Unknown said...

NYC try keep it up.. And best of luck for or future