Monday, June 20, 2016

जिस मंगलवार का अापने वायदा किया था, वह बीत गया



आप मुझसे किसी मद्द की कोई रिक्‍वेस्‍ट करें और मैं हामी भरकर आपको आश्वंस्त कर दूं। कई बार आपके जानकारी मांगने वाले फोन कॉल्स को इग्‍नोर करूं और फिर किसी एक दिन फोन कानों में संभाल लेने के बाद कहूं कि मैं तो अपका काम पहले ही कर चुका हूं, लेकिन असलियत आप जान रहे हों कि काम नहीं हुआ। आप दुबारा कॉल करें। मैं फिर कई बार के नो रिप्लािई के बाद आपकी सूचना पर आश्चर्य व्यक्त करूं कि अरे क्या नहीं हुआ वो काम आपका, और फिर से आश्‍वस्‍त करूं कि अच्छा‍ मैं देख कर बताता हूं, लेकिन कभी अपने से न बताऊं। बल्कि किसी भी तरह का जवाब देने से बचते हुए या तो फोन ही न उठाऊं, या कहूं कि अभी बिजी हूं, बाद में बात करता हूं और वह बाद कभी न आये तो भी आपको यह छूट नहीं मिल जाती कि आप मेरे व्‍यवहार की तुलना बिल्डहर, भूमाफिया, दलालों से करें।

ऊपर जो कुछ व्यक्त हुआ है वह आज के मध्य वर्गीय जमात की आम तस्वीक जैसा है। लेकिन देहरादून के किंवदंत हो चुके तीन पात्रों के बारे में जब बात की जाए तो पाएंगे कि उनमें से किसी ने भी मध्यवर्गीय जीवन का वरण नहीं किया। लेकिन अराजक तरह से अविश्वसनीय बने रहने की प्रवृत्ति के शिकार रहे। अवधेश, हरजीत एवं अरविन्दे शर्मा। दिलचस्प‍ है कि कविताएं लिखना और स्केेच बनाना तीनों के शौक रहे। संभवत: प्रेरणास्रोत अवधेश ही रहे हों। अवधेश चित्रकार थे। हरजीत लकड़ी पर दस्तकारी में माहिर और अरविन्दव शर्मा फोटोग्राफर।

अवधेश एवं हरजीत असमय ही इस बेरहम दुनिया को छोड़कर चले गये। अरविन्‍द अब देहरादून में नहीं है और अब भी अपने तरह से कला साहित्य की दुनिया का हिस्सा है। अरविन्द तीनों में ही सबसे कम महत्वाकांक्षी व्‍यक्ति रहा। शायद इसीलिए ज्‍यादा अराजक भी। इस कदर अराजक कि न तो अपनी कविताओं को ठीक से संभाला और न ही उन तस्वीरों को जिनमें कुछ लोग ही नहीं बल्कि देहरादून इतिहास बोलता था। आज के दौर में वे तस्‍वीरें साक्ष्य हो सकती थी। लेकिन लापरवाह अरविन्‍द के पास उनका होना आश्‍चर्य की बात ही होगी।

तमाम अराजकता के बावजूद अवधेश में अपने काम के प्रति एक खास किस्‍म का लगाव था। कथाकार सुरेश उनियाल की मद्द से अवधेश को दिल्ली में एक ठौर मिली हुई थी। सुरेश उनियाल 'सारिका' में थे। अवधेश सारिका के लिए स्‍केच बना रहा था और पुस्तकों के कवर डिजाइन भी करता था। अरविन्द का कहना रहा कि अवधेश अरविन्द को एक कवि के रूप में महत्व देने को तैयार नहीं था। अवधेश को याद करते हुए अरविन्द् अवधेश की अराजकता का बयान करता है-

एक बार अवधेश ने बड़े तपाक से कहा, अरविन्द इस बार तुम्हारे लिए एक अनुबंध लाया हूं। तुम ओर मैं सोमवार को दिल्ली जा रहे हैं। पैसों की चिन्ता मत कर। मैं इंतजाम कर चुका हूं। तुम्हें केवल कैमरा लेकर मेरे साथ चलना है। अगले दिन मेरे उठने से पहले ही गुरू अपना छोटा सा थैला कंधें पर लटकाएं मेरे घर पहुंच गये- जैसे कि देवलोक से कोई देवता किसी भक्त का कल्याकण करने के लिए प्रकट हुआ हो।
जमनापार लक्मीनगर में अवधेश ने एक किराये के कमरे में डेरा बनाया हुआ था। पहली बार मुझे अवधेश के महान गुण से मेरा साक्षात्कार हुआ। मैंने जाना कि वह एक अच्छा मेहमान नवाज भी है। तरल-गरल सब सरलता से उपलब्ध कराया गया। दूसरे दिन सुबह हम एक कार्यालय के लिए रवाना हुए। बड़े सम्मान के साथ मुझे और अवधेश को वहां जलपान कराया गया। हम काफी देर तक यूंही बैठे रहे। अवधेश की बेचैनी बढ़ने लगी। कार्यालय बाबू ने काम की कोई बात ही नहीं छेड़ी।
अन्तत: अवधेश को ही कहना पड़ा, आज मंगलवार है और मैं वायदे के साथ देहरादून से अपने छायाकार मित्र को ले आया हूं।
दूसरी तरफ से उत्तर आया- हां, आज मंगलवार है लेकिन जिस मंगलवार का अापने वायदा किया था, वह बीत गया पिछले हफ्ते। अब तो धर्मवीर जैन को उस काम के लिए रख लिया गया है।

अवधेश को इस अंदाज में याद करने वाला अरविन्द आजकल कोलाज कला को साधने की कोशिश में है। कोलाज बनाने में अवधेश तीनों में ही सबसे कुशल था। पुरानी पत्रिकाओं के रंगीन ग्लेजी कागजों को काट काटकर उन्हें रचनात्मक रूप देता था। अरविन्द में इधर ठहराव आया है। उसके कोलाज किसी भी पेंटिंग से कम असरकारी नहीं। बहुधा पेंटिग ओर फोटोग्राफी का भ्रम देते हैं। प्रस्तुत हैं अरविन्द के कुछ नये कोलाज। 

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