Tuesday, July 12, 2016

सर्दी देखूँ या सर्दी का बाज़ार देखूँ

कुमांऊनी चेली’ ब्लाग चलाने वाली शैफाली पाण्‍डे की ये कविताएं अपने ही तरह की हैं जिनका रंग स्थितियों से चुटकी लेते हुए खिला है। गम्भीर मिजाज की कविताओं से इनका रिश्ता इसी कारण कुछ जुदा है, वरना प्रतिरोध की आवाज यहां भी हर वक्ता सुनी जा सकती थी। शैफाली को पढ़ते हुए इस बात का एक सुखद अहसास मिलता है कि रोजमर्रा की बहुत सी स्थितियों पर चुटकी लेते हुए भी कविता के शिल्प में बात की जा सकती है । प्रस्तुतत हैं उनके प्रकाशनाधीन संग्रह से कुछ कविताएं।
वि.गौ.



खेल रंग की जंग

मत देख लंका, मत देख इटली
मत देख दंगा, मत ले पंगा
मत देख भूख, मत देख रसूख
मत देख गरीबी, मत देख फरेबी।

मत सुन कराह, मत सुन आह
मत सुन धमकी, मत सुन भभकी
मत सुन महंगाई, मत सुन काली कमाई
मत सुन भ्रष्टाचार, मत सुन व्यभिचार।

मत कह मेरी मर्जी, मत कह एलर्जी
मत कह शुगर, मत कह ब्लडप्रेशर
मत कह केमिकल, मत कह हर्बल
मत कह बुखार, मत कह अगली बार।

आज बस झूम झूम कर गाले होली
आज बस झूम-झूम कर सुन ले होली
आज बस झूम झूम कर देख ले होली
सखी-सहेली, पास-पड़ोसी या प्रियतम के संग
खेल रंग की जंग, बस तू खेल रंग की जंग।

सुगम बनाम दुर्गम

दुर्गम..........

साफ़-सुथरी आबो-हवा
मीठा-मीठा ठंडा पानी
शुद्ध है दूध दही यहाँ
लौट के आए गई जवानी|

घर-गृहस्थी का जंजाल नहीं
बीवी-बच्चों का मायाजाल नहीं
सब्जी लाने को मना कर दे
ऐसा माई का कोई लाल नहीं|

स्नेह प्रेम और मान मिलेगा
आँखों में सम्मान मिलेगा
आप पढ़ा रहे उनके बच्चे
हर दिल में यह एहसान मिलेगा|

अफसर की फटकार नहीं
छापों की भरमार नहीं
छुट्टी को अर्ज़ी की दरकार नहीं
एक दूजे के के करने में साइन
हम जैसा फ़नकार नहीं|

दूर पहाड़ों पर हम
चढ़ते और उतरते हैं
हर बीमारी को अपनी
मुट्ठी में रखते हैं
और जिस घर से जा गुज़रते हैं
डिनर के बाद ही उठते हैं|

यहाँ पढना क्या पढ़ाना क्या
जोड़ क्या घटना क्या
कहाँ की घंटी वादन कैसा
धेले भर का खर्च नहीं
खाते में पूरा पैसा|

सुगम.......................

मीडिया, पत्रकार, रिपोर्टर
एक टीचर हज़ार नज़र
अफसरों का सुलभ शौचालय
पिघलता नहीं कभी उनकी
शिकायतों का हिमालय|

हर आहट पर दिल
काँपता ज़रूर है
कुत्ता भी गुज़रे सड़क से
एक बार झांकता ज़रूर है|

कोई सफ़ेद गाड़ी
दूर से भी दे दिखाई
डाउन हो जाए शुगर
ब्लड प्रेशर हाई|

अभिभावक हैं अफसर
हर छुट्टी पर रखें नज़र
फ्रेंच की बात तो दूर रही
कैजुअल पर भी टेढ़ी नज़र|

पाई-पाई का हिसाब दीजिये
एक दिन की सौ डाक दीजिये
राजमा की जगह छोले
बच्चा कापी किताब ना खोले
दो-दूनी चार ना बोले
तब भी आप ही जवाब दीजिये|

रोज़-रोज़ नित नए प्रशिक्षण
सुबह से शाम की कार्यशाला
सिवाय पढ़ाने के बच्चों को
बाकी सब है कर डाला|

हर साल ट्रांसफर की तलवार
सिर में लटकती है
सुगम की नौकरी साथियों
सबकी आंख में खटकती है|

अतः ........................

सुगम के माने सौ - सौ ग़म, यह मान लीजिये
दुर्गम माने दूर हैं गम, यह  जान लीजिये|


सर्दी देखूँ या सर्दी का बाज़ार देखूँ .......

रंग-बिरंगे स्वेटर
टोपी, जैकेट, मफलर
शाल, मोज़े, दस्ताने
गरम इनर, पायजामे
जूते और कोट से जगह जगह
पटा हुआ बाज़ार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

बकरे की जान
मुर्गे की टांग
मछली के पकौड़े
अण्डों की बिक्री ने
पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़े
सब्जी-फल गर्मी के हवाले
फल-फूल रहा सर्वत्र
मांसाहार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

गजक, रेवड़ी, लड्डू
मूंगफली, पकौड़ी, हलवा
जिसकी जेब में माल भरा हो
मौसम भी देखे उसका जलवा
दो दिन के इस मेहमान का
शाही स्वागत-सत्कार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

कॉफ़ी, सूप, चाय
अद्धी, व्हिस्की, रम
जितनी भी पी लो
लगती है कम
पानी की किल्लत
शराब की इफरात में
बह रहे देश के भावी
कर्णधार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

गठिया, दमा, जोड़ों के दर्द
जानलेवा बन गए दिल के सारे मर्ज़
हीटर, गीज़र, ब्लोअर, इन्हेलर
कम्बल, थुलमे, गर्म रजाई
ठंडक सीधी हड्डी तक घुस आई
खबर से ज्यादा इन दिनों
शोक वाले समाचार देखूँ।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

क्रीम की गहरी पर्तें हैं
सौन्दर्य की अपनी शर्तें हैं
होंठों की रक्षा, पैरों की सुरक्षा
रेशम सी चिकनी और मुलायम
त्वचा के पीछे
संवेदनाओं का सूख चूका
संसार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

ये सर्दी के मेले
मेले में कुछ लोग अकेले
इन लोगों का
रैन बसेरों में सिमटा
कम्बल में लिपटा
चौराहों के अलाव में
माँ की गोद में चिपटा
दूसरा ही संसार देखूँ
सर्दी देखूँ या सर्दी की धार देखूँ.......

मौसम की मार से ज्यादा
मौसम का कारोबार देखूँ

 
खेल रंग की जंग

मत देख लंका, मत देख इटली
मत देख दंगा, मत ले पंगा
मत देख भूख, मत देख रसूख
मत देख गरीबी, मत देख फरेबी।

मत सुन कराह, मत सुन आह
मत सुन धमकी, मत सुन भभकी
मत सुन महंगाई, मत सुन काली कमाई
मत सुन भ्रष्टाचार, मत सुन व्यभिचार।

मत कह मेरी मर्जी, मत कह एलर्जी
मत कह शुगर, मत कह ब्लडप्रेशर
मत कह केमिकल, मत कह हर्बल
मत कह बुखार, मत कह अगली बार।

आज बस झूम झूम कर गाले होली
आज बस झूम-झूम कर सुन ले होली
आज बस झूम झूम कर देख ले होली
सखी-सहेली, पास-पड़ोसी या प्रियतम के संग
खेल रंग की जंग, बस तू खेल रंग की जंग।

सुगम बनाम दुर्गम

दुर्गम..........

साफ़-सुथरी आबो-हवा
मीठा-मीठा ठंडा पानी
शुद्ध है दूध दही यहाँ
लौट के आए गई जवानी|

घर-गृहस्थी का जंजाल नहीं
बीवी-बच्चों का मायाजाल नहीं
सब्जी लाने को मना कर दे
ऐसा माई का कोई लाल नहीं|

स्नेह प्रेम और मान मिलेगा
आँखों में सम्मान मिलेगा
आप पढ़ा रहे उनके बच्चे
हर दिल में यह एहसान मिलेगा|

अफसर की फटकार नहीं
छापों की भरमार नहीं
छुट्टी को अर्ज़ी की दरकार नहीं
एक दूजे के के करने में साइन
हम जैसा फ़नकार नहीं|

दूर पहाड़ों पर हम
चढ़ते और उतरते हैं
हर बीमारी को अपनी
मुट्ठी में रखते हैं
और जिस घर से जा गुज़रते हैं
डिनर के बाद ही उठते हैं|

यहाँ पढना क्या पढ़ाना क्या
जोड़ क्या घटना क्या
कहाँ की घंटी वादन कैसा
धेले भर का खर्च नहीं
खाते में पूरा पैसा|

सुगम.......................

मीडिया, पत्रकार, रिपोर्टर
एक टीचर हज़ार नज़र
अफसरों का सुलभ शौचालय
पिघलता नहीं कभी उनकी
शिकायतों का हिमालय|

हर आहट पर दिल
काँपता ज़रूर है
कुत्ता भी गुज़रे सड़क से
एक बार झांकता ज़रूर है|

कोई सफ़ेद गाड़ी
दूर से भी दे दिखाई
डाउन हो जाए शुगर
ब्लड प्रेशर हाई|

अभिभावक हैं अफसर
हर छुट्टी पर रखें नज़र
फ्रेंच की बात तो दूर रही
कैजुअल पर भी टेढ़ी नज़र|

पाई-पाई का हिसाब दीजिये
एक दिन की सौ डाक दीजिये
राजमा की जगह छोले
बच्चा कापी किताब ना खोले
दो-दूनी चार ना बोले
तब भी आप ही जवाब दीजिये|

रोज़-रोज़ नित नए प्रशिक्षण
सुबह से शाम की कार्यशाला
सिवाय पढ़ाने के बच्चों को
बाकी सब है कर डाला|

हर साल ट्रांसफर की तलवार
सिर में लटकती है
सुगम की नौकरी साथियों
सबकी आंख में खटकती है|

अतः ........................

सुगम के माने सौ - सौ ग़म, यह मान लीजिये
दुर्गम माने दूर हैं गम, यह  जान लीजिये|

उसका बलात्कार होगा....


वह आकाश में उडती है। पानी में तैरती है| उसने पर्वतों पर जीत की पताकाएँ फहराईं हैं। अन्तरिक्ष ने उसके हौसलों की गाथाएं गाईं हैं। भीग गया पर फिर भी परवाज़ किया उसने। टूट गया दम फिर भी आगाज़ किया उसने।
उसका भी होगा बलात्कार….

वह कायदों पे चलती है। नियम - -क़ानून से रहती है। उसूलों पर कड़क रहती है। हिम्मत के इतिहास में नित नया अध्याय लिख रही है। सही को सही, गलत को गलत कह रही है। जब पडी ज़रुरत, रणचंडी सा रूप धरा उसने। किसी कीमत पर भी समझौता किया उसने। आज उसके आगे सिर झुकाना मजबूरी है| घर हो या बाहर, उसकी उपस्थिति हर हाल ज़रूरी है।
उसका भी होगा बलात्कार....

उसके हाथों में स्कूटर, मोटरसाइकिल, जहाज और कार है| ऊँचे से ऊँची नौकरी, बड़े से बड़ा व्यापार है| बैंक बैलेंस तगड़ा है, घर है कोठी है, बँगला है। पुरुष के वह कंधे से कन्धा मिलाती है। उसका सहारा लेकर उससे भी आगे बढ़ जाती है। हर बड़े पद पर उसकी सूरत दिख जाती है। रात-दिन जी तोड़ काम करती है। मेहनत को उसकी सारी दुनिया सलाम करती है।
उसका भी होगा बलात्कार...

उसने अकेले बच्चों को पाला। माँ-बाप, भाई-बहिन को सम्भाला| सास-ससुर को मान दिया। रिश्तेदारों को सम्मान दिया। सबके सुख-दुःख में काम आती है। सारे रिश्ते, सारे नाते अकेले निभा ले जाती है। अब उसका भी अपना एक नाम है। कहीं -कहीं तो पत्नी का नाम ही पति की पहिचान है।
उसका भी होगा बलात्कार...

वह इतनी मगरूर है। पिट जाने पर भी बोलती ज़रूर है| उसके मुंह पर जुबां गयी है। समझने और सोचने की अक्ल गयी है| खुद पर उठते हाथों को रोक लेती है| गलत हो कोई तो भरी सभा में टोक देती है| अधिकार की बात करती है| काम के बदले पगार की बात करती है। हर बात पर तर्क करती है। अच्छे-बुरे पर खुद फर्क करती है। 
उसका भी होगा बलात्कार....

वह लजाती, शर्माती, सकुचाती नहीं है| चूहे, कॉकरोच, छिपकली से भय खाती नहीं है| खाट की तरह अब बिछती नहीं है। दबी, कुचली, डरी, सहमी दिखती नहीं है| अपने शरीर पर अपना हक़ मांगती है। गंदी से गंदी नज़र को झेलती है। तेज़ाब से जब जल जाती है, शक्लो--सूरत तक गल जाती है, फिर भी जुल्मो-सितम की दास्ताँ दुनिया को बतलाने बाहर निकल जाती है।
उसका भी होगा बलात्कार....

पढ़ाई को शादी पर अब कुर्बान नहीं करती। नौकरी की कीमत पर समझौता नहीं करती।  आए पसंद तो रिश्ता वापिस कर देती है| दहेज़ नहीं मिलेगा, पहिले ही साफ़ कर देती है। भरे मंडप से बारात को लौटा देती है। लोभियों को हथकड़ी पहना देती है। पैर किसी के अब पड़ती नहीं है। उठाकर सिर, बना कर राह अपनी, शान से निकल पड़ती है।
उसका भी होगा बलात्कार...

उसे समाज का डर नहीं रहा। अलगाव का भय नहीं रहा| अपने दम पर घर चलाती है। लेना हो तलाक ज़रा सा भी हिचकिचाती नहीं है। घुट-घुट कर जीना किसी हाल भी अब चाहती नहीं है। लोगों की नज़रों से लड़ना उसको गया। कितने भी कठिन हों ज़िंदगी के सवाल, अकेले हल करना गया।

बता फिरक्यूँ हो उसका बलात्कार? क्यूँ हो उसकी इज्ज़त तार-तार?


2 comments:

कविता रावत said...

शैफाली जी को ब्लॉग पर तो पढ़ते रहते हैं लेकिन अच्छा लगता है जब कहीं कोई चर्चा होती है..

Onkar said...

सुन्दर रचनाएँ