Tuesday, October 25, 2016

वस्तुनिष्ठता की मांग अपराध नहीं

कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए
केदारनाथ सिंह

मेरे बेटे
कुँए में कभी मत झाँकना
जाना
पर उस ओर कभी मत जाना
जिधर उड़े जा रहे हों
काले-काले कौए

हरा पत्ता
कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे
कि पेड़ को जरा भी
न हो पीड़ा

रात को रोटी जब भी तोड़ना
तो पहले सिर झुकाकर
गेहूँ के पौधे को याद कर लेना

अगर कभी लाल चींटियाँ
दिखाई पड़ें
तो समझना
आँधी आने वाली है
अगर कई-कई रातों तक
कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज
तो जान लेना
बुरे दिन आने वाले हैं

मेरे बेटे
बिजली की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ो
तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना

कभी अँधेरे में
अगर भूल जाना रास्ता
तो ध्रुवतारे पर नहीं
सिर्फ दूर से आनेवाली
कुत्तों के भूँकने की आवाज पर
भरोसा करना

मेरे बेटे
बुध को उत्तर कभी मत जाना
न इतवार को पच्छिम

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि लिख चुकने के बाद
इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना

ताकि कल जब सूर्योदय हो
तो तुम्हारी पटिया
रोज की तरह
धुली हुई
स्वच्छ
चमकती रहे


 बेनाम दास की कविता 

मेरे बच्चे
स्पैम में कभी मत झाँकना
देखना पर उस ओर कभी मत देखना
जिधर फैलते जा रहे हों
अश्लील वाइरल विडियोज़ ।

लिखा कमेंट
कभी मत डिलीट करना
और अगर करना तो ऐसे
कि मॉडरेटर को ज़रा भी
न हो पीड़ा ।

रात को लिंक जब भी खोलना
तो पहले आँख-कान खोल कर
पोस्ट करने वाले को याद कर लेना ।

अगर कभी ढेरों लाइक्स
दिखाई पड़ें
तो समझना
कोई अफवाह आने वाली है
अगर कई कई दिन तक सुनाई न दे
कमेंट-शेयर की आहट
तो जान लेना
पोस्ट फ्लॉप होने वाली है ।

मेरे बेटे
हैकर की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ना
तो क्रैकर की तरह फट पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना ।

कभी बहस में
अगर खो बैठो अपना विवेक
तो प्रतिक्रियाओं पर नहीं
दूर से इनबॉक्स में आते मेसेज़ेस पर
भरोसा करना ।

मेरे बेटे
मंगल को लॉग-इन कभी मत करना
न शुक्र को लॉग-आउट ।

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि स्टैटस अपडेट के बाद
सारे टैग्स रिमूव कर देना

ताकि कल जब फेसबुक खोलो
तो तुम्हारी टाइमलाइन
रोज की तरह
स्पैम-फ्री
टैग-फ्री
दमकती रहे ।


 

हिन्दी की लोकप्रिय कविताओं का प्रतिसंसार भी हिन्दीं की समकालीन कविता का एक चेहरा बनाता है। बहुप्रचलित अंदाज में लिखी जाने वाली लोकप्रिय कविताओं का मिज़ाज थोड़ा बड़बोला होता है और सूंत्रातमकता के आधार स्तम्भों पर खड़ी ये कविताएं पंच लाइनों से अपना महत्व साबित करवाती है। हिन्‍दी में ऐसी बड़बोली कविताएं अक्सर स्थापित कवियों की कविता की पहचान है। अकादमिक बहसों में उनकी पंच लाइनों को कोट करने और दोहरा दोहरा कर रखने से ही उनका महत्व स्थापित हुआ है। 

ये विचार, पिछले दिनों एक कवि के पहले संग्रह को पढ़ते हुए आए। लेकिन यह बात मैं जिस कविता को पढ़ते हुए कह रहा हूं, उस कवि और उस कविता का जिक्र करने की बजाय मैं हाल में लिखी बेनाम दास की उस कविता का जिक्र करना ज्या दा उपयुक्त समझ रहा हूं, कवि नील कमल ने जिसे अपनी फेसुबक पट्टी पर साया किया। बेनाम दास की उस कविता पर नील कमल की टिप्पणी उसे केदार-स्टाइल की कविता के रूप में याद करती है। यहां उस कवि और कविता का, जिसे पढ़ते हुए यह कहने का मन हुआ, जिक्र न करने के पीछे सिर्फ इतनी सी बात है कि उस कवि की कुछ कविताओं के अलावा अन्य कविताओं के बारे में यह बात उसी रूप में सच नहीं है कि वे लोकप्रिय कविताओं का प्रतिभास हो। फिर दूसरा कारण यह भी कि लोकप्रिय कविताओं का प्रतिभास कराती दूसरे कवियों की भी कई कई कविताओं के साथ वह कविता भी समकालीन कविता के उस खांचे में डाल देना ही उचित लग रहा, जिनके बहाने यह सब लिखने का मन हो पड़ा। 

दिलचस्प है कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ सिंह की कविता ‘कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए’ के एक अंश पर एक टिप्पणी भी नील कमल ने अपनी फेसबुक पट्टी पर लिखी थी। इससे पहले भी नील कमल कविताओं पर टिप्प्णियां करते रहे हैं, जिनमें उनके भीतर के आलोचक को कविता में वस्तुनिष्ठता की मांग करते हुए देखा जा सकता है। नील कमल को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, एक जिम्मेदार रचनाकार हैं। उनसे पूर्ण सहमति न होते हुए भी रचना में एक तार्किक वस्तुनिष्ठता हो, मैं अपने को उनसे सहमत पाता हूं। रचना में वस्तुनिष्ठ ता की मांग करना कोई अपराध नहीं बल्कि उस वैज्ञानिक सत्य को खोजना है जो तार्किक परिणति में सार्वभौमिक होता है। मुझे हमेशा लगता है कि गैर वस्तुरनिष्ठतता की प्रवृत्ति में ही कोई कविता जहां किसी एक पाठक के लिए सिर्फ कलात्मक रूप हो जाती है वहीं किसी अन्य के लिए भा भू आ का पैमाना। कविता ही नहीं, किसी भी विधा, यहां तक कि कला के किसी भी रूप का, गैर-वस्तुनिष्ठता के साथ किया जाने वाला मूल्यांकन रचनाकार को इतना दयनीय बना देता है कि एक और आलोचक को गरियाते हुए भी लिखी जा रही आलोचनाओं में अपनी रचनाओं के जिक्र तक के लिए वह फिक्रमंद रहने लगता है। उसके भीतर महत्वाकांक्षा की एक लालसा ऐसी ही स्थितियों में ही अति महत्वाकांक्षा तक पेंग मारने को उतावली रहती है। यह विचार ही अपने आप में अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि कविता का तो अपना विज्ञान होता है। अभी तक ज्ञात हो चुके रहस्यों की पहचान कविता का हिस्सा होने से उलट नहीं सकती है। यही वैज्ञानिकता है और जो हर विषय एवं स्थिति के लिए एक सार हो सकती है। यहां यह भी कह देना उचित होगा कि जब तक प्रकृति के समस्त् रहस्यों से पर्दाफाश नहीं हो जाता कोई ज्ञात सत्य भी अन्तिम और निर्णायक नहीं हो सकता। संशय और संदेह के घेरे उस पर हर बार पड़ते रहेंगे और हर बार उसे तार्किक परिणति तक पहुंचना होगा, तभी वह सत्य कहलाता रह सकता है। 

अकादमिक मानदण्डों को संतुष्ट करती रचनाओं ने गैर वस्तुनिष्ठता को ही बढ़ावा दिया है। बिना किसी तार्किकता के कुछ भी अभिव्यक्त‍ कर देने को ही मौलिकता मान लेने वाली अकादमिक आलोचना की अपनी सीमाएं हैं। तय है कि कल्पतनाओं के पैर भी यदि गैर भौतिक धरातल से उठेंगे तो निश्चित ही गुरूत्वाकर्षण की सीमाओं से बाहर अवस्थित ब्रहमाण्ड में उनका विचरण भी बेवजह की गति ही कहलायेगा, बेशक ऐसी कविताओं का बड़बोलापन चेले चपाटों की कविता में कॉपी पेस्ट होता रहे। देख सकते हैं बेनाम दास की कविता केदारनाथ सिंह जी कविता का कैसा प्रतिसंसार बनाती है। निसंदेह यह प्रतिसंसार होती कविता तो मूल से ज्यादा तार्किक होकर भी प्रस्तुत है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि कहन के कच्चेपन और परिपक्वता के अंतर वाली बड़बोली कविता का स्तरबोध बेशक भिन्न हो, पर तथ्यात्मकता और अनुभव की वैयक्तिकता में भी, उनकी सूत्रात्मक पंच लाइने उन्हें कॉपी पेस्ट से अलग होने नहीं देती। 


1 comment:

HindIndia said...

बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)