Thursday, April 13, 2017

अम्‍बेडकर को याद करते हुए

14 अप्रैल अम्‍बेडकर को याद करने का दिन है। जाति विषमता के विरूद्ध अम्‍बेडकर ने जो लड़ाई लड़ी है, उसे याद करने और आगे बढ़ाने का दिन है। इस मौके पर मार्टिन लूथर किंग की याद किसी भी तरह के विभेद के विरूद्ध जारी मुहिम को ही वैश्विक स्‍तर पर देखने की ही कोशिश है। भारतीय समाज में जाति की संरचना ने भी एक बड़े कामगार वर्ग को गुलामी की दास्‍ता में न सिर्फ जकड़ा बल्कि गुलामी का जीवन जीने वालों को उसे स्‍वीकारते रहने की मन:स्थिति में भी पहुंचाये रखा। 

मेरा एक सपना है 

                             मार्टिन लूथर किंग, जूनियर 

इस घटना के सौ साल बीत चुके पर आज भी नीग्रो  गुलामी से मुक्त नहीं हुआ....वह आज भी अलगाव और भेद भाव की बेड़ियों में जकड़ा हुआ जीवन जीने को अभिशप्त है.सौ साल बीत जाने के बाद भी नीग्रो आज भौतिक सुख सुविधाओं और समृद्धि के विशाल महासागर के बीच में तैरते हुए निर्धनता के एक टापू पर गुजार बसर कर रहा है...अमेरिकी समाज के कोनों अंतरों में नीग्रो आज भी पड़े पड़े कराह रहे हैं और कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि उनको अपने ही देश में निर्वासन की स्थितियों में जीना पड़ रहा है. हम आज यहाँ इसी लिए एकत्रित हुए हैं कि इस शर्मनाक सच्चाई पर  अच्छी तरह से  रौशनी डाल सकें.

इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि हम अपने देश की राजधानी में इसलिए एकत्र हुए हैं कि एक चेक कैश करा सकें. जब हमारे देश के निर्माताओं ने संविधान और आजादी की घोषणा का मजमून स्वर्णाक्षरों में  लिखा था तो वे दरअसल एक  रुक्का देश के हर नागरिक के हाथ में उत्तराधिकार के तौर पर थमा गए थे.इसमें लिखा था कि हर एक अदद शख्स -- चाहे वो गोरा हो या काला -- इस देश में जीवन, आजादी और ख़ुशी के लिए बराबर का हकदार होगा.

यह हम सबके सामने प्रत्यक्ष है कि पुरखों द्वारा दिया गया यह रुक्का आज इस देश के अश्वेत लोगो के लिए मान्य नहीं है...इसकी अवहेलना और बे इज्जती की गयी है. इस संकल्प की अनदेखी कर के नीग्रो  लोगों के चेक यह लिख कर वापिस लौटाए जा रहे हैं कि इसको मान्य करने के लिए कोश में पर्याप्त धन नहीं है.

पर हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि न्याय के बैंक की तिजोरी खाली होकर दिवालिया घोषित हो गयी है.हम ये कैसे मान लें कि अपार वस्रों वाले  इस देश में धन की  कमी पड़ गयी है?

इसको देखते हुए हमलोग आज यहाँ इकठ्ठा हुए हैं कि अपना अपना चेक भुना सकें-- ऐसा चेक जो हमें आजादी और न्याय की माँग करने का हक़ दिलवा  सके. हम इस पावन भूमि पर आज इसलिए आये हैं कि अमेरिका को अपनी समस्या की गंभीरता और तात्कालिक जरुरत का भान करा सकें.अब सुस्ताने या नींद की गोलियां खा के निढाल पड़े रहने का समय नहीं है.

अब समय आ गया है कि लोकतंत्र को वास्तविकता का जामा  पहनाया जाये...अब समय आ गया है कि अलगाव की अँधेरी और सुनसान गलियों से निकल कर हम रंग भेद के विरुद्ध सामाजिक न्याय के प्रशस्त मार्ग की ओर कूच करें... यह समय है चमड़ी के रंग को देख कर अन्याय किये जाने की नीतियों से इस देश को मुक्त कराने का जिस से हमसब भाईचारे के ठोस और मजबूत धरातल पर एकसाथ खड़े हो सकें....यही वो अवसर है जब ईश्वर के सभी संतानों को न्याय दिलाने के सपने को साकार किया जाये.

हमारा देश यदि इस मौके की फौरी जरुरत की अनदेखी करता है तो यह उसके लिए प्राणघातक भूल होगी. नीग्रो समुदाय की न्यायपूर्ण मांगों की  झुलसा देने वाली गर्मी की ऋतु  तब तक यहाँ से टलेगी नहीं जबतक आजादी और बराबरी की सुहानी  शरद  अपने जलवे नहीं बिखेरती.

उन्नीस सौ तिरेसठ किसी युग का अंत नहीं है...बल्कि यह तो शुरुआत है.

जिन लोगों को यह मुगालता था कि नीग्रो समुदाय के असंतोष की हवा सिर्फ ढक्कन उठा देने से बाहर निकल जाएगी और सबकुछ शांत और सहज हो जायेगा,उन्हें अब बड़ा गहरा  धक्का लगेगा...यदि बगैर आमूल चूल परिवर्तन  किये देश अपनी रफ़्तार से चलने की जिद करेगा.अमेरिका में तबतक न तो शांति होगी और न ही स्थिरता जबतक नीग्रो समुदाय को सम्मानजनक नागरिकता का हक़ नहीं दिया जाता.न्याय की  रौशनी से परिपूर्ण प्रकाशमान दिन जबतक क्षितिज पर उदित होता हुआ दिखाई नहीं देगा तबतक बगावत की आँधी इस देश की नींव  को जोर जोर से झगझोरती  रहेगी

पर इस मौके पर मुझे अपने लोगों से भी यह कहना है कि न्याय के राजमहल के द्वार पर दस्तक देते हुए यह कभी न भूलें कि अपने  अधिकारपूर्ण और औचित्यपूर्ण स्थान पर पहुँचने के क्रम में वे कोई गलत या अनुचित कदम उठाकर पाप के भागीदार न बनें. आजादी की अपनी भूख और ललक  के जोश में हमें यह निरंतर ध्यान रखना होगा कि कहीं हम कटुता और घृणा के प्याले को उठा कर अपने होंठों से लगाने लगें... हमें अपना संघर्ष शालीनता और अनुशासन के उच्च आदर्शों के दायरे में रहकर ही जारी रखना पड़ेगा.हमें सजग रहना होगा कि हमारा  सृजनात्मक विरोध कहीं हिंसा में न तब्दील हो जाये...बार बार हमें रुक कर देखते रहना  होगा कि यदि कहीं से भौतिक हिंसा राह रोकने के लिए सामने आती भी है तो उसका मुकाबला हमें अपने आत्मिक बल से करना होगा. आज नीग्रो समुदाय जिस अनूठे उग्रवाद के प्रभाव में है उसको समझना होगा कि सभी गोरे लोग अविश्वास के काबिल नहीं है...आज यहाँ भी अनेक गोरे लोग अपनी 
आज यहाँ भी कई गोरे भाई यहाँ दिखाई दे रहे हैं...जाहिर है उनको एहसास है कि उनकी नियति हमारी नियति से अन्योन्यास्रित ढंग से जुड़ी हुई है.वे यह अच्छी तरह समझने लगे हैं कि हमारी आजादी के बगैर उनकी आजादी कोई मायने नहीं रखती.

यह एक सच्चाई है कि हम अकेले आगे नहीं बढ़ सकते.इतना ही नहीं हमें यह संकल्प भी लेना होगा कि जब हमने आगे कदम बढ़ा दिए हैं तो अब  पीछे नहीं मुड़ेंगे..हम पीछे मुड़ ही नहीं सकते.
ऐसे लोग भी हैं जो नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं से पूछते है: आखिर तुम संतुष्ट कब होओगे?
जबतक एक भी नीग्रो पुलिस की अकथनीय न्रिशंसता का शिकार होता रहेगा, हम संतुष्ट नहीं हो सकते.
जबतक लम्बी यात्राओं से हमारा थकाहारा शरीर राजमार्गों के मोटलों  और शहरों के होटलों  में  टिकने का अधिकार नहीं प्राप्त कर लेता,हम संतुष्ट नहीं हो सकते.
जबतक एक नीग्रो की उड़ान एक छोटे घेट्टो से निकल कर बड़े घेट्टो पर समाप्त होती रहेगी, हम संतुष्ट नहीं हो सकते.जबतक हमारे बच्चे अपनी पहचान से वंचित किये जाते रहेंगे और "सिर्फ गोरों के लिए "लिखे बोर्डों की मार्फ़त उनकी प्रतिष्ठा पर आक्रमण किया जाता रहेगा, हम भला कैसे संतुष्ट हो सकते हैं.

जबतक मिसीसिपी में नीग्रो को वोट देने का हक़ नहीं मिलता और न्यूयोर्क में रहनेवाला नीग्रो यह सवाल पूछता रहे कि देश के चुनाव में  ऐसा क्या है कि वो वोट डाले...तबतक हम संतुष्ट नहीं हो सकते....नहीं नहीं,हम संतुष्ट बिलकुल नहीं हो सकते...तबतक संतुष्ट नहीं हो सकते जबतक इन्साफ पानी की तरह बहता हुआ हमारी ओर न आये...न्यायोचित नीतियाँ जबतक एक प्रभावशाली नदी की मानिंद यहाँ से प्रवाहित न होने लगे.

मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आपमें से कई लोग ऐसे हैं जो लम्बी परीक्षा और उथल पुथल को पार करके यहाँ आये हैं ...कुछ ऐसे भी हैं जो सीधे जेलों की तंग कोठरियों से निकल कर आये हैं... अनेक ऐसे लोग भी हैं जो पुलिस बर्बरता और प्रताड़ना की गर्म आँधी से लड़ते हुए अपने अपने इलाकों से यहाँ तक आने का साहस जुटा पाए हैं.

सृजनात्मकता से भरपूर यातना क्या होती है ये कोई आपसे सीखे...आप इस विश्वास से ओत प्रोत होकर काम करते रहें कि यातना अंततः मुक्ति दायिनी ही होती है

आप वापस यहाँ से मिसीसिपी जाएँ..अलबामा जाएँ.. साऊथ कैरोलिना जाएँ...जोर्जिया जाएँ...लूसियाना जाएँ...उत्तरी भाग के किसी भी स्लम या घेट्टो में जाएँ...पार यह विश्वास लेकर वापिस लौटें कि वर्तमान हालात बदल सकते हैं और जल्दी ही बदलेंगे.

हमलोगों को हताशा की घाटी में लुंज पुंज होकर ठहर नहीं जाना है...आज की  इस घड़ी में  मैं आपसे कहता हूँ मित्रों कि आज और बीते हुए कल की मुश्किलें झेलने के बाद भी मेरे मन के अंदर एक स्वप्न की लौ जल रही है...और यह स्वप्न की जड़ें  वास्तविक अमेरिकी स्वप्न  के साथ जुड़ी हुई हैं.

मेरे स्वप्न है कि वह दिन अब दूर नहीं जब यह देश जागृत होगा और अपनी जातीय पहचान के वास्तविक मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरेगा की " हम इस सत्य को सबके सामने फलीभूत होते हुए देखना चाहते हैं कि इस देश के सभी मनुष्य बराबर पैदा हुए हैं."

मेरा स्वप्न है कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब जोर्जिया के गुलामों के बच्चे और उनके मालिकों के बच्चे एकसाथ भाईबंदी के टेबुल पर बैठेंगे.

मेरा स्वप्न है कि वह दिन दूर नहीं जब अन्याय और दमन की ज्वाला में झुलस रहे मिसीसिपी राज्य तक में आजादी और इंसाफ का दरिया बहेगा.

मेरा स्वप्न है कि मेरे चारो बच्चे एक दिन ऐसे देश की हवा में साँस लेंगे जहाँ उनकी पहचान उनकी  चमड़ी के रंग से नहीं बल्कि उनके चरित्रों की ताकत से की जाएगी

आज के दिन मेरा एक स्वप्न है...

मेरा स्वप्न है कि रंगभेदी दुर्भावनाओं से संचालित अलाबामा जैसे राज्य में भी-- जहाँ का गवर्नर अड़ंगेबाजी और पूर्व घोषणाओं से मुकर जाने के लिए बदनाम है -- एकदिन नन्हे अश्वेत लड़के और लड़कियां गोरे बच्चे बच्चियों के साथ भाई बहन की तरह हाथ मिला कर संग संग चल सकेंगे

यह सब हमारी आशाएं हैं...अपने दक्षिणी इलाकों में मैं इन्ही विश्वासों  के साथ वापिस लौटूंगा.. इसी विश्वास के बल पर हम हताशा के ऊँचे पर्वत को ध्वस्त कर उम्मीद के एक छोटे पिंड में तब्दील कर सकते हैं...इसी विश्वास के बल बूते हम अपने देश में व्याप्त अ समानता का उन्मूलन कर के भाईचारे की खूबसूरत संगीतपूर्ण स्वरलहरी  निकाल सकते हैं... इस विश्वास को संजो कर हम कंधे से कन्धा मिला कर  काम कर पाएंगे..प्रार्थना कर पाएंगे...संघर्ष कर पाएंगे...जेल जा पाएंगे...आजादी के आह्वान के लिए सिर ऊँचा कर खड़े हो पाएंगे...इन सबके बीच सबसे बड़ा भरोसे का संबल यह रहेगा कि हमारी मुक्ति  के दिन आखिरकार आ गए.

यही वो दिन होगा..जिस दिन खुदा के सब बन्दे इस गीत के  नए अर्थों को उजागर करते हुए साथ मिलकर गायेंगे.." मेरा देश...प्यारी आजादी की भूमि... इसके लिए मैं गाता हूँ...यही   धरती है जहाँ मेरे पिता ने प्राण त्यागे ... तीर्थ यात्रियों की शान का देश...इसके तमाम पर्वत शिखरों से आती है...आजादी की समवेत  ध्वनि...

और यदि अमेरिका को महान देश बनना है तो मेरी ऊपर कही बातों को सच होना पड़ेगा...सो न्यू हैम्पशायर  के गगन चुम्बी शिखरों से आनी चाहिए आजादी की पुकार...न्यू योर्क के पर्वत शिखरों से आना  चाहिए आजादी का उद्घोष..पेन्सिलवानिया से आनी   चाहिए आजादी की गर्जना..

आजादी का उद्घोष होने दो...जब ऐसा होने लगेगा और हम इसको सर्वत्र फैलने देंगे..हर गाँव से और हर बस्ती से... तो वह दिन सामने खड़ा दिखने लगेगा जब खुदा के बनाये सभी बन्दे...चाहे वे गोरे हों या काले...यहूदी हों या कोई और...प्रोटेस्टेंट हों या कैथोलिक.. हाथ से हाथ जोड़े एकसाथ पुराने नीग्रो गीत को गाने के लिए मिलकर स्वर देंगे.." अंततः हम आजाद हो ही गए...आजाद हो ही गए...'

सर्व शक्तिमान ईश्वर का शुक्रिया अदा करो कि अंततः हम आजाद हो ही गए...  

 प्रस्तुति-  यादवेन्द्र 


                             

Tuesday, April 4, 2017

पतरोल


(यह कहानी यू के की है। ओह उत्‍तराखण्‍ड की, जो कभी उत्‍तर प्रदेश का एक हिस्‍सा था। उत्‍तराखण्‍ड के एक छोटे से शहर के बहुत मरियल नाम वाले मोहल्ले की। )    

गुड्डी दीदी, जगदीश जीजू से प्रेम करती थी। जब तक हमें यह बात मालूम नहीं थी, जीजू हमारे लिए जगदीश सर ही थे। जगदीश सर, गुड्डी दीदी के घर किराये में रहते थे और ट्यूशन पढ़ाते थे। गुड्डी दीदी भी जगदीश सर से ट्यूशन पढ़ती थी। यह बात किसी को भी पता नहीं थी कि गुड्डी दीदी, जगदीश सर से प्रेम करती है। स्‍वयं गुड्डी दीदी को भी शायद ही पता रहा हो। वे इतना भर जानती थीं कि चश्‍मूदीन होने के बावजूद जगदीश सर बड़े सुन्‍दर है, बहुत अच्‍छे से पढ़ाते हैं। लम्‍बाई भी अच्‍छी है और जब हँसते हैं तो होंठों के ऊपर उगी हुई उनकी मूँछें भी हँसती है। ये सब बातें गुड्डी दीदी हमको उस वक्‍त बताती थीं, जब जगदीश सर आसा पास भी नहीं होते। मूँछों के हँसने वाली बात पर हम खूब खुश होते थे और जोर-जोर से हँसते थे। कई बार हमें सामूहिक रूप से हँसते हुए देख जगदीश सर आ भी जाते तो बस इतना ही कहते, ‘’अरे भाई हमें तो बताआो क्‍या बात है, हँसने का हक तक तो हमें भी है।‘’ उनको देखते ही बंद हो चुकी हमारी हंसी का फव्‍वारा एक बार फिर से फूट पड़ता था। लेकिन हम जगदीश सर को अपने उस आनंद का हिस्‍सा नहीं बनाते थे, जिसका रहस्‍य उठ जाने पर न मालूम वह उसी प्रकार बना रहता या नहीं।

जगदीश सर किराये का कमरा लेकर अकेले ही रहते थे। वे किसी सरकारी विभाग में मुलाज़िम थे और खाली वक्‍त में अपने कमरे में पढ़ते रहते थे। यदा-कदा मौसी, यानी गुड्डी दीदी की मां, जब अपने लिए भी चाय बनाती तो जगदीश सर के लिए भी भिजवा देती थी। कभी खाना खाने के लिए भी बुलवा लेती। गुड्डी दीदी ही दौड़-दौड़कर जाती- चाय पहुंचा देती या खाने के बुला लाती। प्रेम क्‍या होता है, हम में से कोई नहीं जानता था। हो सकता है जगदीश सर जानते रहे हों, बहुत सी बातों के जानकार होने के कारण ही वे हम सबके सर थे।  


जगदीश सर को शुक्रगुजार होना चाहिए मोहल्ले  क के दबंगों का कि उन्‍हें इस बात की भनक उस वक्‍त नहीं लग पायी कि गुड्डी दीदी और उनके बीच प्रेम पनप रहा है। इस बात की खबर उन्‍हें तब लगी, इतने बाद में कि तब जगदीश सर को मोहल्ले का ही निवासी मान लिया गया था। वरना, वह किस्‍सा तो आज तक मशहूर है- सुशीला दीदी, दीवान जी की बेटी जो मोहल्ले  क की पहली लड़की हुई जिसका किसी सरकारी नौकरी में चयन हुआ, घर लौटते हुए एक लड़के के साथ उसकी साइकिल में बैठकर आती थी। मोहल्ले की सरहद पर वह लड़का सुशीला दीदी को साइकिल से उतार देता था और वहां सुशीला दीदी पैदल-पैदल, बार-बार ढलक जाते अपने दुपट्टे को संभालते हुए घर तक पहुँचती थी। लड़का अपनी साइकिल पर पैडल मारकर कोई मधुर गीत गाते हुए निकल जाता था। मोहल्ले के दबंगों को यह बात चुभनें लगी थी कि कोई अनजान लड़का उनके मोहल्ले  क की लड़की को रोज साइकिल पर बैठाकर छोड़ने आता है। एक दिन उन्‍होंने मंत्रणा की और सुशीला दीदी के चले जाने के बाद भी उतर गयी साइकिल की चैन को चढ़ाने में व्‍यस्‍त उस लड़के पर हमला बोल दिया। जमकर उसकी कुटाई की। उसकी साइकिल तोड़ दी। लड़के की नाक से खून निकलने लगा। खून से लथपथ हो चुके चेहरे को देख दबंगों ने उस अकेले लड़के को धक्‍का दिया और वहां से रफू-चक्‍कर हो गये।