Saturday, June 30, 2018

ऐसी ज़िन्दगी किस काम की जो सिर्फ घृणा पर टिकी हो


कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति




मैं आपके इस तर्क को निराधार तो नहीं मान सकता कि एक लम्‍बे समय तक आपकी रचनाओं को स्‍थापित पत्र पत्रिकाओं में जगह न दिया जाना आपका दलित होना रहा होगा, लेकिन थोड़ा वस्‍तुनिष्‍ठ तरह से इस संभावना को रखना चाहूंगा कि हिंदी में पेशेवराना मिजाज न होने के कारण ही ऐसा हुआ होगा। पेशेवराना अभाव के कारण ही हिंदी आलोचना, आलोचकों की पहुंच की सीमा बनी हुई है। 1989 में प्रकाशित आपकी कविता पुस्तिका ‘सदियों का संताप’ भी उसी गुमानामी के अंधेरे में रहा होता यदि हिंदी में दलित साहित्‍य को पहचाना नहीं गया होता। इतिहास गवाह है कि ‘सदियों का संताप’ के प्रकाशन तक हिंदी में दलित साहित्‍य नाम की संज्ञा न होने के कारण रचनाओं के बाबत उस पुस्तिका में हम कहीं भी नहीं कह पाये थे कि ये दलित कविताएं हैं।
हिंदी में दलित साहित्‍य की आवाज तो ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव से हुई आपकी उस भेंट के बाद ही संभव हुई, जिस मुलाकात में तीखी बहस के बाद हंस संपादक ने आपसे हंस के लिए कविताएं भेजने को कहा था और मिलते ही उन्‍हें हंस में छापा भी था। बस इतना ही तो था हिंदी में दलित साहित्‍य के उभार का वह घटनाक्रम। जबकि बाद में तो आपकी रचनाओं को छापने वाले संपादकों के फोन और पत्रों की बाढ़ के हम आपके साथी गवाह रहे। उस वक्‍त आप अपने लेखन में ठीक ठाक व्‍यस्‍क हो चुके थे। यानी एक लेखक के रूप में आपकी पहचान आपके किशोर वय के दौरान की पहचान नहीं रही। इसी कारण हिंदी कविताओं को ‘इतिहास’ लिखने वाली आलोचना के पास आपकी पहचान को किसी ‘दशक’ में पहचानना मुश्किल ही बना हुआ है। जिस तरह कुछ लेखकों को किशोर वय में ही हाथों हाथ ले लिया जाता है, आप भी यदि उसी तरह एक लेखक के रूप में स्‍थापित हो गए होते तो यह आशंका जाहिर की ही जा सकती है कि हिंदी में दलित साहित्‍य के प्रणेता का दर्जा आपको शायद ही मिला होता। किसी आंदोलन का प्रणेता होने के लिए जिस वैचारिक तैयारी की जरूरत होती है, ‘तारीफ और तालियां’ आपको भी पता नहीं वैसा करने का मौका देती या नहीं। तालियों की गड़गड़ाहट यूं भी किसी को अपने में कहां रहने देती है। आप भी अपने करीब बने रहते, ऐसा न मानने के पीछे बस वे सामाजिक प्रवृत्तियां ही आधार हैं जो हिंदी में ‘अतिमहत्‍वाकांक्षा’ का कोहराम मचाए नजर आती हैं। आशंकाओं को निर्मूल न माने तो यह बात दृढ़ता से कही जा सकती है कि आप कवि, कहानीकार खूब कहलाए होते, लेकिन जिस तरह की वैचारिक जद्दोजहद आपने की, हिंदी की हमारी दुनिया उससे वंचित भी रह सकती थी।     

'जाति' आदिम सभ्यता का 
नुकीला औज़ार है 
जो सड़क चलते आदमी को
कर देता है छलनी 
एक तुम हो
जो अभी तक इस 'मादरचोद' जाति से चिपके हो 
न जाने किस हरामज़ादे ने 
तुम्हारे गले में 
डाल दिया है जाति का फन्दा
जो न तुम्हें जीने देता है
न हमें !   

यह कविता बाद के दौर की कविता है। उस दौर की, जब एक रचनात्‍मक स्‍वीकारोक्ति ने आपको आत्‍मविश्‍वास से भरना शुरु कर दिया था। शुरुआती दौर की कविताओं से इस मायने में भिन्‍न हैं कि वहां जो गुस्‍सा था, असहायता की क्षीण सी रेखा खींचता देता था, इनमें वह चुनौति प्रस्‍तुत करने लगा था। बानगी के तौर पर शुरूआती दौर की आपकी एक कविता का स्‍वर  कुछ यूं था,

मैंने दुख झेले
सहे कष्‍ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने
फिर भी देख नहीं पाए तुम
मेरे उत्‍पीड़न को
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको ।

इतिहास यहाँ नकली है
मर्यादाएँ सब झूठी
हत्‍यारों की रक्‍तरंजित उँगलियों पर
जैसे चमक रही
सोने की नग जड़ी अँगूठियाँ ।

कितने सवाल खड़े हैं
कितनों के दोगे तुम उत्‍तर
मैं शोषित, पीड़ित हूँ
अंत नहीं मेरी पीड़ा का
जब तक तुम बैठे हो
काले नाग बने फन फैलाए
मेरी संपत्ति पर ।

मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूँ
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्‍कासित हूँ
प्रताडित हूँ ।

इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जर हूँ
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको । (अक्‍टूबर 1988)

निश्चित ही यह बदलाव इस बात के गवाह हैं कि अब आप अपने रास्‍ते, जो यू तो पहले से तय था, उस पर पूरी शिद्धत से बढ़ना शुरु कर चुके थे। यह विकास ही आपको आत्‍मविश्‍वासी बनाता रहा और यह आत्‍मविश्‍वास ही आपको उदात भी बनाता चला गया,

ऐसी ज़िन्दगी किस काम की
जो सिर्फ़ घृणा पर टिकी हो
कायरपन की हद तक
पत्थर बरसाये
कमज़ोर पडोसी की छत पर!

...जारी

  स्‍मृति

Saturday, June 23, 2018

मुझसे बातें करती जाती है

भिन्नता का सम्मान करना और उसके बीच बने रहना, सहज मानवीय गुण हैं। इस ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति-जो प्रकृति के रूप में हमारे इर्द गिर्द बिखरी है, हमारे भीतर और बाहर है, कहीं हमशक्ल तक भी दिखती नहीं, उसके अदृश्य गुणों की भिन्नता की बात तो क्या ही की जाए। सभ्यता के विकासक्रम में भिन्नता के संग साथ सतत बनी रहने वाली प्रकृति की प्रेरणा ने ही जनतांत्रिक मूल्य एवं नैतिकता के मानदण्ड रचे हैं। 

यह सुखद अहसास है कि अनीता सकलानी, जिनके कवि होने की घोषणाएं शायद ही सुनी गई हों, अपनी डायरी में भिन्नता का कोहराम मचाये हैं। उनकी कविताओं का मिजाज भिन्नता के यशोगान में ही आप्लावित है। कहें कि भिन्नता का काव्य उत्सव मनाते रहना उनकी कविताओं का ध्येय होता हुआ है। व्याकरण सम्मत कसाव में उनके कहन की सहज स्पष्टता, मजबूर कर रही है कि उनके कवि होने की घोषणा कर दी जाये।

 वि.गौ.

अनीता सकलानी










अदभुत


उड़ती हूं बादलों में
रोम-रोम पुलकता है
स्‍नान करती है आत्‍मा
अपसृत धाराओं में
सितारों संग, बिखरी पड़ी है, शरद पूर्णिमा
आकाश में

चांदनी से नहायी पृथ्‍वी में
विभोर होती है मीरा गलियों में
कबीर एक तारा बजाते हैं
सूर के कृष्‍ण नृत्‍य करते हैं
पेड़, पर्वत, नदी, एक नीली झीनी चादर ओढ़े
हवा के साथ करते ठिठोली हैं

एक धरती
एक लोग
भेद नहीं कहीं भी
इस धरती पर मैं समायी
अदभुत है 
  

आकाश


हवा मुझे ले जा रही आकाश में
नीचे मेरी प्‍यारी धरती

कभी पहाड़ कभी जंगल कभी चट्टानें
घुमड़ कर बादल आवेग में,
हृदय की लहरों की तरह

गहराई में छोटे-छोटे मकान
जैसे बच्‍चों ने खेल में बनाए हुये

शायद पाकिस्‍तान शायद अफगानिस्‍तान
कोई देश मेरे अनजाने
खुशी से ठाठे मारता समुद्र,
रात,
चांद पर रीझती रात
यहीं कहीं रहती है मेरी बेटी
थक कर सोई बिछौने में,
एक स्‍वप्‍नमयी नींद

मुझसे बातें करती जाती है
यह पृथ्‍वी


Friday, June 22, 2018

विलोम के अतिरेक सुंदर नहीं हो सकते हैं


डा. रश्मि रावत 













स्त्री को तो सदा से उसके मन को समझने वाला, उसके क्रियाकलापों से साझा करने वाले साथी की जरूरत रही है। पता नहीं किसके लिए अतिरिक्त प्रोटीन ले कर जिम जा कर कुछ पुरुष ‘माचौ’ मैन बनने, मसल्स बनाने में लगे रहते हैं। समझना चाहिए कि शारीरिक बल व्यक्तित्व का निर्धारक तत्व नहीं है, व्यक्तित्व का समूचा विकास अधिक महत्वपूर्ण है। लड़कियों का जीरो फिगर और लड़कों का सिक्स पैक्स दोनों अतिचार है, जिसकी भविष्‍य में कोई जरूरत नहीं रहने वाली है। अपने आस-पास निगाह डालें तो दिखाई देगा कि पिछले पाँच-सात सालों से शिशु को गोदी में लिए पिता मेट्रो या बस में दिखने लगे हैं। पहले एक वर्ष तक के बच्चे के साथ माँ का होना अवश्यम्भावी लगता था। किंतु अब पूरे आत्मविश्वास से पुरुष बच्चे को, उसके सामान को सम्भालते, भीड़ में जगह बनाते दिखते हैं। उनके लिए सीट खाली करना, उनका सहज भाव से लेना ...बहुत सुंदर लगते हैं ऐसे पुरुष। गोद में बच्चा लिया हुआ पुरुष किसी के लिए खतरा नहीं हो सकता। उनकी उपस्थिति में तो बोतल फोड़ बाहर आई हँसी की खनखनाहट भी कुंठित नहीं होगी। बल्कि ऐसे दृश्य अपने कोमल संस्पर्श से परिवेश में मुलामियत ला देते हैं।
सामाजिक गतिकी पर उसके प्रभाव को परखने के लिए अपने आस-पास के परिवेश पर नजर डालें तो कुछ सुख विभोर करने वाली अनुगूँजें सुनायी दे सकती हैं। कुछ साल पहले तक लड़कियों का खुल कर हँसना भी सहज सम्भव नहीं था। महानगरों में मेट्रो के लेडीज कोच में, कैंटीन या कहीं भी जहाँ लड़कियाँ बहुसंख्य हों। ‘हँसी तो फँसी’ जैसे शब्द-युग्म अपना अर्थ खो बैठे हैं। लड़कियों की हँसी की खनक से पूरा डिब्बा ऐसे गुलजार रहता है जैसे किसी ने हँसी की बोतल का डाट खोल दिया। आस-पास के माहौल से बेखबर बेबात पर ऐसी चहचहाहट, खिलखिलाहट अक्सर सुनाई पड़ती है, ये बेपरवाही, ये बेवजह का खिलंदड़पन, खुशनुमाई अकुंठ व्यक्तित्व में ही सम्भव है। संतोष होता है कि कहीं तक तो पहुँचा कारवाँ।
बदलते समय के साथ विकसित जिन नवीन अध्ययन दृष्टियों ने ज्ञान की एकांगी प्रणाली पर सवाल उठाए हैं, स्त्री-विमर्श सहित अन्य अस्मिता मूलक विमर्श उनकी बानगी भर हैं। स्त्री विमर्श के उभार के बाद से दुनिया भर में जेंडर अध्ययन केंद्र विकसित हुए हैं। नयी समावेशी दृष्टि से खंगाली गई वास्तविकता से ज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ी शिफ्ट आई है। स्त्री-पुरुष दोनों समान रूप से ज्ञान के लक्ष्य एवं केंद्र हैं। दलित, आदिवासी जैसी अन्य हाशियाकृत अस्मिताएँ भी अपने नजरिए से दुनिया को देखने और उसमें अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही हैं। स्त्री समाज ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और वंचनाग्रस्त समाज से ममता और स्नेह का मानवीय सम्बंध स्थापित करता है। वरना सभ्यता के अब तक के इतिहास ने दुनिया को स्त्री-पुरुष, देह-मस्तिष्क, प्रकृति-संस्कृति के विलोम द्वय में विभाजित करके ग्रहण करने की ज्ञान-सरणियाँ ही विकसित की हुई थी। यदि वे सरणियां यूंही कायम रहें तो निश्चित ही जीवन-जगत में कई तरह की विसंगतियाँ जन्‍म लेंगी। द्वित्व बोध से देखा गया सत्य कभी पूरा नहीं हो सकता। स्‍पष्‍ट है कि विलोम की मानसिकता से उत्पन्न सत्य केवल खंडित ही नहीं होता अपितु एक पक्ष को महत्वपूर्ण आयामों से वंचित कर देता है। पुरुष को केंद्र में रख कर पुरुष के नजरिए से विकसित समाज में स्त्री की स्थिति तो दोयम नागरिक की ही रही है। इतिहास एवं ज्ञान के अन्य अनुशासनों का निर्माता पुरुष ही बना रहा है।
यूं भी स्त्री-पुरुष का सम्बंध एक ऐसा अनिवार्य सम्बंध है जिसके बिना समाज एक कदम भी नहीं चल सकता। इसमें फाँक सम्बंध को बेहद जटिल बना देती है।
गत कुछ दशकों में शेष आधी दुनिया का नजरिया और आधी दुनिया का यथार्थ पत्र-पत्रिकाओं, गोष्ठियों, वाद-विवादों, साहित्य-सिनेमा, सोशल मीडिया, सामाजिक संगठनों से लेकर गली-गली ..हर जगह फैले नुक्कड़ नाटकों, रैलियों सब जगह अपनी पैठ बनाता भी गया है।
दुनियावी बदलावों के ऐसे प्रयोगों के परिणाम बताते हैं कि संवादधर्मिता से मानवीय गुणों का प्रशिक्षण सम्भव हो सकता है। प्रतीकात्मक रूप से यही संकेतित होता है कि उदात्त मानवीय गुणों की उच्च भूमि में आसीन होने के लिए स्त्री जैसी सह्दयता, संवेदनशीलता, वर्तमानता होनी जरूरी है। रोजमर्रा के जीवन में भी निर्णायक भूमिका में इन गुणों का समायोजन आवश्यक है।
किसी भी तरह के अतिरेकों से युक्त समाज स्वस्थ और सुंदर नहीं हो सकता। परम्परा के अनुसार वीरता, शौर्य, नियंत्रण, दमन, न्याय प्रिय, सबल, समर्थ इत्यादि गुण पुरुषोचित माने गए। स्नेह, ममता, सहनशीलता, क्षमा, करुणा, संवेदनशीलता आदि गुण स्त्रियोचित माने गए।
इस सत्‍य से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि स्त्रीवाद के विभिन्न उभारों में स्त्रीत्व के उत्सव मनाने की प्रवृत्ति भी देखी गई। यह प्रतिक्रिया अब तक दबाई गई स्प्रिंग का उछाल ही प्रतीत होती है और आशंका उत्पन्न होती है कि नई तरह की अति से ग्रस्त न हो जाए। स्त्री में पुरूषोचित ‘विशिष्ट गुणों’ के अभाव की बात को चुनौती देते हुए सिद्ध करने की कोशिश भी अक्‍सर होती है कि स्त्री भी उन सब गुणों से लैस है। स्त्री में उन गुणों का अभाव नहीं है। स्त्री अनन्या नहीं है। बाज दफे तो शारीरिक, जैविक, मानसिक विशिष्टता के कारण उसे पुरुष से बेहतर भी मान लिये जाने वाली बातें सामने आती हैं। इस तरह के दावे किये जाते हैं कि स्त्रियोचित ‘उत्कृष्ट गुण’ केवल स्त्रियों में हो सकते हैं।
जबकि एक मुकम्मल मनुष्य होने के लिए दोनों तरह के गुणों का होना आवश्यक है।
एकांगी गुणों से संचालित सभ्यता ने तो घर और बाहर हिंसा और अत्याचार के अनंत सिलसिले रचे हैं। यहां तक कि जब कोई स्त्री सफल , सबल हो कर समाज में सशक्त भूमिका में आती है तो वह भी इन्हीं शक्तिशाली समझे जाने वाले गुणों को अपना लेती है और अपने सहज स्वाभाविक,वअधिक जीवंत गुणों को छोड़ती जाती है।
मानवीय गुणों को बड़े-छोटे, महान-सामान्य, भाव-अभाव की श्रेणियों में विभक्त कर देने वाली शिक्षा सिर्फ महान करार दिये गए गुणों के गुणगान का ही पाठ पढ़ाती है। सत्ता से उसका सीधा सम्बंध है। सत्‍ता का वह रूप आज बाजार के रूप में दिखता है, सूचना तंत्र के सहारे चौतरफा आक्रामक तेवर के जरिये जो सम्‍पूर्ण मानवता को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लेने को ललायित है।  सब पहचानें गला-तपा कर व्यक्ति उपभोक्ता में तब्दील होता जा रहा है।
इस्मत चुगताई ने अपनी आत्मकथा में एक ऐसी घटना का जिक्र किया जब एक पुलिस वाला उनके हस्ताक्षर लेने घर आया तो वे अपनी दस महीने की बच्ची को दूध पिला रही थी। पेन पकड़ने के लिए हाथ खाली करने उन्होंने चंद सेकंड के लिए दूध की बोतल उसे पकड़ानी चाही तो वह इतनी बुरी तरह बिदक के कई कदम पीछे हो गया जैसे कि बोतल न हो कर बंदूक हो।
आज बच्‍चे की दूध की बोतल के साथ सहज रिश्ता पुरुषों का बनने लगा है। स्‍त्री विमर्श का एक पाठ और जरूरी पाठ यह हो सकता है कि प्राणों को सींचने के काम में जब पुरुष सहभागी होंगे तो जिंदगी का मूल्य तो खुद ब खुद उन्हें समझ आने लगेगा। ऐसी प्राणशीलता जिसके भीतर कुलबुला रही हो, उसके हाथ चाकू नहीं चला सकते, उसकी वाणी आक्रामक नहीं हो सकती। कसक होती है कि हमारा परिवेश इस अकुंठ आनंद उत्सव का लुत्फ लेना क्यों नहीं सीख लेता। स्वस्थ सौंदर्य बोध, स्वस्थ आनंद बोध। जैसे कोई सूर्योदय का, प्रकृति की लीलाओं का आनंद लेता है बिना किसी अधिकार भाव के, बिना किसी अधीनस्थ बनाने की लालसा के। प्रकृति के सुंदरतम प्राणि के सौंदर्य को, चंचलता को क्यों नहीं ऐसे निहारा जा सकता जैसे चिड़िया की चहचहाहट या नदी की चंचल लहरों को। प्रकृति के साथ स्वस्थ सम्बंध के सूत्र आदिवासी साहित्य से भी सीखे जा सकते हैं।
मध्य काल की एक कवयित्री ने आपसदारी की भावना इस तरह से अभिव्यक्त की थी कि ईश्वर करे इस घर में आग लग जाए और फिर पति मेरे साथ मिल कर आग बुझाएगा।
दरअसल यह चाहना एक तरह से मानवीय गुणों की चाहना है। करुणा, संवेदनशीलता, ममता, प्रेम, स्नेह, सहिष्णुता जैसे भाव, मानवीय गुण हैं। स्त्री हो या पुरुष सभी को इन गुणों को व्यक्तित्व का प्रमुख अंश बनाना चाहिए। आवश्यकता है कि वर्तमान समाज इन्हीं गुणों से प्रधानतः संचालित हो। भारतीय परम्परा में प्रेम से लोकमंगल की धारा बहाने वाले महात्मा बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस जैसे अनेक महानुभावों का व्यक्तित्व करुणा से सम्बलित गुणों से ही संरचित था।
बहुत जरूरी है कि स्नेह, प्रेम, करुणा, मधुरभाषिता, कोमलता, संवेदनशीलता, सहिष्णुता, विश्वास, परस्परता, आपसदारी इत्यादि जीवन-ऊष्मा से भरपूर तरल गुणों को समाज में अधिक से अधिक महत्व मिले।
अर्धनारीश्वर की अवधारणा दोनों तरह के गुणों के समायोजन को उच्च मानवीयता के लिए जरूरी मानती हैं। भारतीय समाज का अवचेतन मन इन गुणों के महत्व को भली-भाँति समझता है। देवता की भूमिका में आसीन राम-कृष्ण जैसे मिथकीय चरित्र हों अथवा बुद्ध, महावीर जैन, 24 तीर्थंकर जैसे ऐतिहासिक चरित्र, उनकी छवि को हमेशा कोमल कांत किशोर ही दिखाया जाता है। दाड़ी-मूँछ नहीं। न ही बुढ़ापे के चिह्न।