Monday, January 13, 2020

समकालीन आलोचना के दायरे से बाहर

वर्ष 2019 में कवि राजेश सकलानी का कविता संग्रह ‘’पानी है तो फूटेगा’’ राहुल फाउंडेशन ने प्रकाशित किया। हिंदी आलोचना की सीमा, दयनीयता और गैर पेशेवराना रवैये के चलते हिंदी का ज्यादातर पाठक संग्रह से अपरिचित ही रहा। जबकि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि राजेश सकलानी की कविताएं न सिर्फ भविष्य की हिंदी कविता के लिए बल्कि सामाजिक, राजनैतिक संघर्षों की दिशा के लिए भी एक टर्निंग प्वा‍इंट साबित होने की संभावना से भरी हैं। क्रूर एवं मजबूत होती राज्या व्यंवस्था के विरूद्ध आवाम की जीत कैसे सुनिश्चित हो, राजेश सकलानी के कवि चिंतन की दिशा उसका प्रमाण है। ‘’पानी है तो फूटेगा’’ के प्रकाशन के बाद राजेश सकलानी की कविताओं का स्‍वर किस दिशा में आगे बढ़ता हुआ है, उसे समझने के लिए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ नयी कविताएं 
हिन्दी कविता में उदात की अवधारणा से भरे तत्वों को खोजा जाये तो बहुत ही क्षीण उपस्थिति दिखती है। वर्ग विभेद की प्रभावी अवधारणा को धारण करती कविता में भी उनकी उपस्थिति बहुत उल्ले खनीय तरह से उभर नहीं पाती है। जबकि उदात का संबंध ही शोषक विहीन, शोषण विहीन समाज की अवधारणा से है। संघर्ष के रणनीतिक पहलू से दूरी बनाकर चलने के कारण भी ऐसा हुआ हो, ऐसा माना ही जा सकता है। शत्रु की पहचान, उसके आक्रमण एवं अत्यााचारों के विरुद्ध प्रतिरोध तो भरपूर तरह से आता है लेकिन उनकी परिणति संवेदना के जागरण पर पहुंच कर विश्राम करती हुई ही बनी रहती है। शोषित वर्ग की जीत का सपना किस तरह साकार हो सकता है, हिन्दी कविता इस ओर से अपरिचित ही नजर आती है। संघर्ष को अंजाम तक पहुंचने के लिए जिस तरह से मित्र वर्गों के बीच मोर्चेबंदी होनी चाहिए, उसके प्रति कवि के लापरवाह होने के संकेत भी यहां छुपे हुए होते 
हैं। उदात का पक्ष बनती सकलानी की कविता इस दृष्टि से ज्यादा महत्‍वपूर्ण नजर आती है। सकलानी की कविताओं में सम्प्रेषण की सारी ऊर्जा उस वैचारिकी के लिए उत्सकर्जित है जिसका प्रबल गुण उदात का संचरण करना है। जनवाद के सर्वोत्तपम रूप को हासिल करने की यह कोशिश शोषक और शोषण विहीन समाज की स्पष्ट पुकार है। भाव और विचार आपस में संगुम्फित हैं, उन्हें खण्ड-खण्ड तरह से न तो चिह्नित किया जा सकता है और न ही कवि के देखने और दिखाने के तरीके में वे विगलित होकर जगह पाते हैं। काव्यात्मक चमत्काार पैदा करना भी कवि के उद्देश्य से बाहर बना रहता है। जबकि कलात्मक कसौटी पर भी वे खरी-खरी कविताएं होकर सामने हैं। अपने समकाल में विन्यशस्तय उनके कथ्य भविष्य‍ की आशवस्ति से भरे हैं और बीते हुए की वस्तुननिष्ठ आलोचना करने का अवसर प्रदान करते हैं। इस तरह से ये कविताएं एक कवि के आत्मय संघर्ष का बयान बनकर सामने आती हैं। कवि की उन चेष्टाओं का भी साक्षात कराती हैं जो षडयंत्रो के दांव पेंच से हरा दिये जा रहे सर्वहारा की क्षमताओं को निश्चित स्तर तक उठा देने का सहारा हो जाना चाहती हैं। जाहिर है ऐसा तभी संभव है जब सामूहिकता सामाजिक मूल्य के रूप में स्थानपित हो। राजेश सकलानी की कविताएं सामूहिकता का पाठ रचने की हर संभव चेष्टा करती हैं।

राजेश सकलानी की कविताएं


हमें जमीन चाहिए



हमें जमीन चाहिए आसमान चाहिए
ये धरा स्वतन्त्र है हमें समान चाहिए

क्यों किसी को दर्द हो
क्यों झुके कोई नजर
क्यों डगर में शूल हो
क्यों जिन्दगी अगर मगर

हमें सुकून चाहिए
रोजगार चाहिए
ये धरा सभी की है
हमें मुकाम चाहिए

क्यों जुलम किसी पे हो
क्यों बने ख़ुदा कोई
क्यों उपज की लूट  हो
क्यों मान पर बुरी नज़र

हमें भाईजान चाहिेए
आन-बान चाहिए
ये धरा समृद्ध  है
समाजवाद चाहिए

क्यों श्रम रहे दबा दबा
क्यों जन्म से गरीब हो
क्यों उदास फूल हों
क्यों सनम रकीब हों

हमें मजूर चाहिए हमें किसान चाहिए
ये धरा लगाव है न्यायवान चाहिए 

राम सुरेश

राम और सुरेश जब पी चुके तो
राम ने कहा मुझे कह ही देना चाहिए
वास्तव में मैं जात का दलित हूं
तब सुरेश ने कहा इससे क्या फर्क पड़ता है
मेरे लिए तुम जैसे हो वैसे ही हो
राम ने स्थिर होकर देखा
इससे तुम बड़े हो जाते हो
मैं और भी दब जाता हूं, यह गलत है
तुम जो कर चुके हो वह कर चुके हो

मुझ में समुद्र से भारी आवाज उठती रहती है
तट पर हमेशा ठाठे टकराती रहती हैं
तरल उछाले लेता रहता है
मेरा रूप रोज बनता है
एक सुहावनी दृढ़ता मेरे आकार को गढ़ती है
आने वाले हजारों हजार सालों के लिए
मेरा बदन ठोस धातु में बदलने को हैं
अभी वक्त है यदि सूर्य की तरह आभावान होना है तो
मेरी भट्टी में आकर पिघल जाओ ।


विराट घर


मैं अपने घर को छोटा क्यों करुंगा
मैं एक विराट घर में रहता हूं
मेरे अजस्र हाथ है
मैं एक भी हाथ कम नहीं करूंगा
मेरे अनंत दोस्त हैं
मैं एक भी दोस्ती कम नहीं करूंगा

तुम बुद्धू हो क्या
तुम्हें एक भी खिड़की बंद नहीं करने दूंगा

मेरे आसमान के भीतर चुपचाप समा जाओ
वरना बाहर कर दूंगा, समझे।


ज्यादा


ज्यादा ज्यादा ज्यादा
हम मिलजुल कर ज्यादा
मुठिया भी ज्यादा
और बातचीत ज्यादा

अपने खेत ज्यादा ज्यादा
खलिहान ज्यादा ज्यादा
अपनी जिम्मेदारियां हैं ज्यादा
अपने काम ज्यादा ज्यादा

अपनी भूख ज्यादा ज्यादा
अपनी प्यास ज्यादा ज्यादा
आसमान ज्यादा ज्यादा
जमीन ज्यादा ज्यादा

अपने गांव ज्यादा ज्यादा
अपने पांव ज्यादा ज्यादा
ये नगर ज्यादा ज्यादा
ये डगर ज्यादा ज्यादा

पत्ते पत्ते पत्ते
और फूल ज्यादा ज्यादा
धूप ज्यादा ज्यादा
मानसून ज्यादा ज्यादा

अपने काम ज्यादा ज्यादा
अपनी जिम्मेदारियां हैं ज्यादा ।



तंग घरों का मोहल्ला


आप जिस तरफ से आते हो
सरसरी तौर पर पता नहीं कर सकते
कौन आदमी क्या है
सारे के सारे जन किसी मोड़ पर मददगार हैं
जब मौसम खुशगवार हो तो वे बहुत भारी पड़ने वाले हैं
गांधी भी यही हैं और अंबेडकर भी
पैदल चलने वालों को भारी कठिनाई है
बांझ गाय और उपजाऊ कुत्ते खराब सेहत के बावजूद
छोड़कर नहीं जाते हैं
आप जोर से बोलो तभी सुने जाओगे
यहां आओगे तो दोबारा जरूर आओगे
एक दो मूर्ति यहां और लगेंगी
बुरी होंगी तो भी बोलती हुई अच्छी लगेगी
यहां से कुछ सारगर्भित आवाजें लेकर जाओगे
लापरवाही करोगे तो अधूरे रह जाओगे ।


हमसे दशहरा बन पड़ा



जब हम सच्चे थे तो दशहरा बन पड़ा
मेघनाथ कुंभकरण और रावण लुभावने बने
अपने चेहरे हमने मैदान में रुला मिला दिए
कोई बामण बनिया क्षत्रिय नहीं रह गया
ऊपर आसमान दलित जैसा सुंदर हुआ
मुसलमान रावण के मुकुट पर काम करता था
आंख नाक कान जाने हमारी कल्पना से ऊंचा बनाता था
हथियार खुश होकर गत्ते और मांस की खप
 चियों के बन पड़े


सारे रचनाकार गुमनाम हुए
न वो राजा हुए न पुरोहित हुए न मालदार हुए
हतप्रभ पुतले महाकाय हुए
इतने मासूम की अनुकरणीय हुए
पूरे इलाके में दिलों का मेला बन पड़ा ।


कैमरा


माफ करना मैंने चुपके से तुम्हारी सुंदर चीजें
अपने पास रख ली है
मैं उन्हें कभी लौटा नहीं पाऊंगा
तुम्हें मेरी चोरी का पता नहीं चलेगा
मेरा वक्त अच्छा निकल जाएगा
किसी को इसकी भनक नहीं होगी 
यह मेरे साथ चली जाएंगी

सुंदरता के संरक्षण के नियम के अंतर्गत
कहीं दूर देश में बल्ब जगमगा उठेंगे
बहुत जनों के होठों पर तुम्हारी जितनी
अबोध मुस्कान आएगी

अगर तुमने मेरी चोरी पकड़ ली हो
तो 100 गुना ज्यादा रोशनी प्रकाशित होगी
तुम मुझे बता दो तो
मैं खुशी से बर्बाद हो जाऊंगा ।


घोड़े

हरे मैदान में चढ़ते घोड़े
अनूठा भाव जगाते हैं


सुंदर हैं कसे हुए हैं
जाने कैसी याद जगाते हैं

जाने क्या सोचते है
कि हमें अकुलाते है

जिन्हें वास्ता है घोड़े को खूब प्यार करते हैं
चौकड़ी भरते हैं
गिरते हैं


जब तक हम जिंदा है
ज़िन्दा घोड़ों से अपना प्यारा रिश्ता है
यह दिलकश है
विधि सम्मत है
अनुभव सम्मत है

यू घोड़े भी जान गवाते हैं
पर दंगे नहीं कराते हैं ।  


लहसुन का सपना


लहसुन की प्रतिबद्धता पूर्ण है
उसमें नहीं दुराव की गुंजाइश
विनम्र है आवरण बनावट सुगठित
उसकी अंतर्वस्तु दृढ़ता से अर्जित है

कशी बंदी हैं कलियां युक्ति से
हमारे हक के लिए फूटने को तैयार
सुगंधी विस्तारित होने को तत्पर है

हमारे बचपन जैसी खिली हुई है कलियां
सही इरादों से जैसे प्रफुलता खुल जाने को है ।