Saturday, December 19, 2020

लहू बहाए बिना कत्‍ल करने की अदा

 

किंतु परन्‍तु वाले मध्‍यवर्गीय मिजाज से दूरी बनाते हुए नील कमल बेबाक तरह से अपनी समझ के हर गलत-सही पक्ष के साथ प्रस्‍तुत होने पर यकीन करते हैं। सहमति और असहमति के बिंदु उपजते हैं तो उपजे, उन्‍हें साधने की कोशिश वे कभी नहीं करते हैं।

जो कुछ जैसा दिख रहा है, या वे जैसा देख पा रहे हैं, उसे रखने में कोई गुरेज भी नहीं करते। सवाल हो सकते हैं कि उनके देखने के स्रोत क्‍या हैं, उनके देखने के मंतव्‍य क्‍या हैं और उस देखने का दुनिया से क्‍या लेना देना है ? ये तीन प्रश्‍न हैं जिन पर एक-एक कर विचार करें तो नील कमल की आलोचना पद्धति को समझने का रास्‍ता तलाशा जा सकता है। उनके देखने पर यकीन किया जा सकता है और उनकी सीमाओं को भी पहचाना जा सकता है।

नील कमल द्वारा कविताओं पर लिखी टिप्पणियों से गुजरें तो इस बात का ज्‍यादा साफ तरह से समझा जा सकता है। 

‘गद्य वद्य कुछ’ आलोचना की एक ऐसी ही पुस्‍तक है। ‘गद्य वद्य कुछ’ शीर्षक से जो कुछ ध्‍वनित हो रहा है, उसमें कोई दावा होने की बजाय यूंही कह दी गई बातों का भान होता है। निश्चित ही यह एक रचनाकार की अपने लेखन को बहुत मामुली समझने की विनम्रता से उपजा होना चाहिए। जबकि पुस्‍तक जहां एक ओर हिंदी कविता के बहुत ही महत्‍वपूर्ण कवियों मुक्तिबोध, त्रिलोचन आदि की कविताओं से संवादरत होने का मौका देती है तो वहीं दूसरी ओर हाल-हाल में कविता की दुनिया में बहुत शरूआती तौर पर दाखिल होने वाले कवियों में कवि नवनीत सिंह एवं अन्‍य की कविताओं से परिचित होने का अवसर सुलभ कराती है।  यह पुस्‍तक एक रचनाकार के बौद्धिक साहस का परिणाम है। इसी वजह से नील कमल को एक जिम्‍मेदार आलोचक के दर्जे पर बैठा देने में सक्षम है।

नीलकमल से आप सहमत भी होते हैं। और एक असहमति भी उपजती रहती है। यह बात ठीक है कि सहमति का अनुपात ज्‍यादा बनता है, पर इस कारण से असहमति पर बात न की जाए तो इसलिए भी उचित नहीं होगा, क्‍योंकि इस तरह तो गद्य वद्य का कथ्‍य ही अलक्षित रह जाने वाला है। फिर नील कमल की आलोचना का स्रोत बिन्‍दु भी तो खुद असहमति की उपज है। य‍ह सीख देता हुआ कि अपने भीतर के सच के साथ सामने आओ।

बेशक, पुस्‍तक में मौजूद आलेखों में कवियों की कमोबेश एक-एक कविता को आधार बनाया गया है लेकिन उनके विश्‍लेषण में जो दृष्टि है उसमें कवि विशेष के व्‍यापक लेखन और उसके लेखन पर विद्धानों एवं पाठकों, प्रशंसकों की राय को दरकिनार नहीं किया गया है। विश्‍लेषण के तरीके में वस्‍तुनिष्‍ठता एक अहम बिन्‍दु की तरह उभरती है। बल्कि देख सकते हैं कि आलोचक नील कमल जिस टूल का चुनाव करते हैं उसमें कविता को अभिधा के रूप में उतना ही सत्‍य होने का आग्रह प्रमुख रहता है जितना व्‍यंजना में। यह भी उतना ही सच है कि व्‍यंजना को भी अभिधा के सत्‍य में ही तलाशने की कोशिश कई बार बहुत जिद्द के साथ भी करते हैं।

यही बिन्‍दु उन्‍हें उस पारंपरिक आकदमिक आलोचना से बाहर जाकर बात करने को मजबूर करता है जिसका दायरा कवि के सम्‍पूर्ण निजी जीवन तक बेशक न जाता हो पर उसके साहित्यिक जीवन की परिधि को तो छूता ही है। कवि पर विद्धानों की राय या चुप्पियां, पुरस्‍कारों और सम्‍मानों के प्रश्‍न या फिर तय तरह फैलाई गई चुप्पियों के खेल लगभग हर आलेख की विषय वस्‍तु को निर्धारित कर रहे हैं।

नील कमल की आलोचना की सीमाएं दरअसल तात्‍कालिक घटनाक्रमों पर अटक जाना है। वह अटकना ही उन्‍हें आग्रहों से भी भर देने वाला है। बानगी के तौर पर देख सकते हैं जब वे आशुतोष दुबे की कविता ‘धावक’ पर टिप्‍पणी कर रहे हैं तो कविता के विश्‍लेषण में वे जमाने की अंधी दौड़ को विस्‍तार देने की बजाय उसे साहित्‍य की दुनिया में व्‍याप्‍त छल छदमों तक ही ‘रिड्यूस’ कर दे रहे हैं। ऐसा इसलिए भी होता है कि आलोचना लिखने से पहले ही नील कमल अपने सामने एक ऐसी दीवार देखने लग जाते हैं जो इतनी ऊंची है कि अपनी सतह से अलग किसी भी दूसरी चीज पर निगाह पहुंचा देने का अवसर भी नहीं छोड़ना चाहती। नील कमल उस कथित दीवार को कूद कर पार जाने का प्रयास करते रहते हैं। लेकिन दीवार की ऊंचाई को पार करना आसान नहीं। जमाने का दस्‍तूर दीवार को चाहने वाले लोगों की उपस्थिति को बनाये रखने में सहायक है। यदा कदा की छील-खरोंच पर पैबंद लगाने वाले जत्‍थे के जत्‍थे के रूप में हैं। दीवार की वजह से ही नील कमल भी दूसरी जरूरी चीजों को सामने लाने में अपने को असमर्थ पाने लगते हैं और दीवार उन्‍हें उनके लक्ष्‍यों से भटका भी देती है। साहित्‍य की दुनिया के छल छदम जरूर निशाने पर होने चाहिए लेकिन विरोध का स्‍वर सिर्फ वहीं तक पहुंचे तो कुछ देर को ठहर जाना ही बेहतर विकल्‍प है। फिर ऐसी चीजों के विरोध के लिए जिस रणनीति की जरूरत होती है, मुझे लगता है, नील कमल का कौशल भी वहां सीमा बन जाता है। कई बार तो वह विरोध की बजाय आत्‍मघातक गतिविधि में भी बदल जाता है। शतरंज के खेल की स्थितियों के सहारे कहूं तो सम्‍पूर्ण योजनागत तरह से प्रहार करने में नील कमल चूक जाते हैं।

नील कमल इस बात को भली भांति जानते हैं कि विचारधारा को आत्‍मसात करना और उसे इस्‍तेमाल करने के लिए वैचारिक दिखना दो भिन्‍न एवं असंगत व्‍यवहार है। यूं तो इसको समझने के लिए उनके पास उनके आदर्श, वे सचमुच के फक्‍कड़ कवि और विचारक ही हैं, लेकिन उन फक्‍कड़ अंदाजों को आत्‍मसात करते हुए नील कमल से कहीं उनसे कुछ छूट जा रहा है। वह छूटना मनोगत भावों का हावी हो जाना ही है। आत्‍मगत हो जाना भी। बल्कि अपने ही औजार, वस्‍तुनिष्‍ठता को थोड़ा किनारे सरका देना है। जबकि यह सत्‍य है कि वस्‍तुनिष्‍ठता पर नील कमल का अतिरिक्‍त जोर है। कमलादासी के दुख को देखते और समझते हुए, पंक्तियों के बीच भी कविता का पाठ ढूंढते हुए, एक औरत के राजकीय प्रवास का प्रशनांकित करते हुए आदि अधिकतर आलेखों में वस्‍तुनिष्‍ठ हो कर विशलेषण करने वाला आलोचक भी मनोगत आग्रहों की जद में आ जाए तो आश्‍चर्य होना स्‍वाभाविक है। ऐसा खास तौर पर उन जगहों पर दिखाई देता है जहां नील कमल पहले से किसी एक निर्णय पर पहुंच चुके होते हैं और फिर अपने निर्णय को कविता में आए तथ्‍यों से मिलाते हुए कविता का विश्‍लेषण करते हुए आगे बढ़ते हैं।

शराब बनाने बनाने के लिए फरमेंटेशन आवश्‍यक प्रक्रिया है। फरमेंटेशन का पारम्‍परिक तरीका और डिस्टिलेशन के द्वारा शराब निकालने के दौरान होने वाली फरमेंटेशन की प्रक्रिया में लगने वाले समय में इतना ज्‍यादा अंतर है कि तुलना करना ही बेतुका हो जाएगा। डिस्टिलेशन शराब बनाने की तुरंता विधि है। मात्र फरमेंटेड को छानने की प्रक्रिया भर नहीं। 

ध्‍यान देने वाली बात यह है कि दोनों विधियों से प्राप्‍त होने वाले उत्‍पाद में नशा तो जरूर होता है लेकिन वे दो भिन्‍न प्रकार के उत्‍पाद होते हैं। ‘वाइन’ के नाम से बिकने वाला उत्‍पाद फरमेंटशन की पारम्‍परिक प्रक्रिया का उत्‍पाद है और आम शराब के रूप में बिकने वाला उत्‍पाद डिस्टिलेशन की तुरंता प्रक्रिया से तैयार उत्‍पाद है। नील इन दोनों ही विधियों को पदानुक्रम में रखकर शराब बना देना चाहते है। यह बारीक सा अंतर इस कारण नहीं कि नील दोनों प्रक्रियाओं से प्राप्‍त होने वाले उत्‍पादों से अनभिज्ञ है, बस इसलिए कि वांछित तथ्‍यों के दिख जाने पर वे उसके अनुसंधान में और खपने से बचकर आगे निकल चुके होते हैं।

कविताओं में लोक के पक्ष को प्रमुखता देते हुए नील कमल अज्ञेय की असाध्‍य वीणा को परिभाषित करना चाहते हैं। लोक और सत्‍ता के अन्‍तरविरोध को परिभाषित तो करते हैं लेकिन मनुष्‍य और प्रकृति के सह-अवस्‍थान में वे लोक को वर्गीय चेतना से मुक्‍त स्‍तर पर ला खड़ा करते हैं। लोक के दमित स्‍वपनों का अपने तर्को के पक्ष में रखते हुए वे उस पावर डिस्‍कोर्स की बात करते हैं जो शोषणकर्ता और शोषक से विहिन दुनिया तक के सफर में एक रणनैतिक पड़ाव ही हो सकता है। लिखते हैं कि एक गरीब आदमी भी जब अपने लिए वैभव की कल्‍पना करता है तो उस कल्‍पना में वह राजा ही होता है जहां उसके नौकर-चाकर होते है, जहां उसे श्रम नहीं करना होता है।

एक सच्‍चे साधक की कल्‍पना से झंकृत हो सकने वाली वीणा के स्‍वर में वे जिस लोक को देखते हैं उसमें उन राजाश्रयी प्रलोभनों को भी थोड़ी देर के लिए गौण मान लेते हैं, जो कि खुद उनकी आलोचना का स्रोत बिन्‍दु है। असाध्‍य वीणा का वह लोकेल क्‍या उस प्रतियोगिता से भिन्‍न है जो आज की समकालीन दुनिया में विशिष्‍टताबोध को जन्‍म दे रहा है। वह विशिष्‍टताबोध जो लोक की सर्वाजनिनता को वैशिष्‍टय की अर्हता से छिन्‍न-भिन्न कर दे रहा है ?

राजपुत्रों के लिए आयोजित सीता स्‍वयंवर के धनुष भंग से किस तरह भिन्‍न है असाध्‍य वीणा को स्‍वर दे सकने की अर्हता।

लोक को विशिष्‍टता के पद से परिभाषित किया जाना संभव होता तो समाज में अफरातफरी मचा रही पूंजी के मंसूबे भी लोक की स्‍थापना में जगह पा रहे होते। महंगे से महंगे रेस्‍ट्रा, हवाई यात्राओं के अवसर, उम्‍दा से उम्‍दा गाडि़यों के मॉडल और आधुनिक तकनीक के वे उत्‍पाद जो उपयोगकर्ता को विशिष्‍टता प्रदान करने वाले आदर्श को सामने रख रहे हैं, लोक की स्‍थापना के आधार हो गए होते। उन्‍हें लपकने की चाह भी उसी तरह लोक का स्‍वर हो गई होती जिस तरह देखा जा रहा है कि लोक के दमित इच्‍छाओं के स्‍वप्‍नों में राजसी जीवन सजीव हो जाना चाहता है।

आलोकधनवा की कविता पर टिप्‍पणी करते हुए नील कमल कविता की पहली पंक्ति में दर्ज समय से जिस इंक्‍लाबी राजनीति का खाका सामने रखते हैं, अपने आग्रहों के तहत वहां माओवाद को चस्‍पा कर दे रहे हैं।

इतिहास साक्षी है कि चीनी इंक्‍लाब के मॉडल- गांवों से शहर को घेरने की रणनीति पर पैदा हुई वह राजनैतिक धारा उस वक्‍त माओवाद के नाम से नहीं जानी गई। माओवाद एक राजनैतिक पद है और जिसको इसी सदी के शुरुआत में ही सुना गया। यह बात इसलिए कि पूरी कविता का विश्‍लेषण इस आधार पर करते हुए नील कमल कविता की व्‍यवाहारिक सफलता को संदिग्‍ध ठहरा रहे हैं। हालांकि कविता की व्‍यवहारिक सफलता जैसा कुछ होता हो, यह अपने में ही विचारणीय है।     

आलोचना भी दुनियावी बदलाव की गतिविधियों को गति देने में प्रभावी विधा है, बशर्ते कि आग्रह मुक्‍त हो। खास तौर पर नील जिस सकारात्‍मक तरह से आलोचना विधा का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। बदलावों के संघर्ष में कविता की अहमियत पर बात करते हुए और एक कवि की भूमिका को रेखांकित करते हुए नील कमल उस पक्ष को अपना पक्ष मानते हैं जो कवि ऋतुराज के संबंध में वे खुद ही उर्द्धत करते हैं, ‘’जब तक कोई कवि आम आदमी की निर्बाध जीवन शक्ति और संघर्ष में सक्रियता से शामिल नहीं होता तब तक कवियों के प्रति अविश्‍वास और उपेक्षा बनी रहेगी। वे निर्वासित, विस्‍थापित और नि:संग अपराधियों की तरह रहेंगे।‘’

इस तरह से वे कविता को ‘’एक सांस्‍कृतिक संवाद कायम करना’’ कहते हैं।

सिर्फ इस जिम्‍मेदारी को एक कवि पर आयद ही नहीं कर देना चाहते, बल्कि इसी पर खुद  भी यकीन भी कर रहे हैं। कविता से उनकी ये अपेक्षाएं इसलिए अतिरिक्‍त नहीं, क्‍योंकि चमकीले स्‍वप्‍नों की बजाय वे स्‍वप्‍न भंग की किरचों को भी कविता में यथोचित स्‍थान देने के हिमायती दिख रहे हैं। कविता को उम्‍मीद और निराशा के खांचों में बांटकर नहीं देखना चाहते हैं। इतिहास की अंधी गलियों से गुजरते हुए वर्तमान के पार निकल जाने को कविता का एक गुण मानते हैं। मितकथन भी कविता का एक गुण है, उनके आलेखों में यह बात बार-बार उभर कर आती है। दुख के अभिनय को निशाने पर रखते हैं। कविता की आलोचना को ही आलोचकीय फर्ज नहीं समझते, अपितु, कवि को भी सचेत करते रहते हैं कि प्रलोभनों के मायावी संसार के भ्रम जाल में न फंसे।     



नील कमल के ही शब्‍दों में कहूं तो लहू बहाए बिना ही कत्‍ल करने की अदा को वे लगातार निशाना बनाते चले जाते हैं, और इस तरह से जहां एक ओर तथाकथित रूप से सम्‍मानित कविता की कमजोरियों का उदघाटित करते हैं तो वहीं उम्‍मीदों का वितान रचती, किंतु अलक्षित रह गई और रह जा रही कविता से परिचित कराने को बेचैन बने रहते हैं।

नीलकमल मूलत: कवि हैं। अभी तक उनके दो महत्‍वपूर्ण कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

 

 

Wednesday, December 16, 2020

शास्त्रीय कला और अमूर्तता

 

वर्ष 2019 में पहली बार बिभूति दास के चित्रों की एकल प्रदर्शनी देखने का अवसर मिला था।  ऑल इण्डिया फाइन आर्टस एवं क्राफ्ट सोसाइटी, नई दिल्‍ली में आयोजित  बिभूति दास के चित्रों उस प्रदर्शनी की याद दैनिक जीवन की गतिविधियों के अहसास से भरे चित्रों के रूप में बनी रही। लगातार के उनके काम से इधर गुजरना होता रहा। 

जीवन के खुरदरे यथार्थ को करीब से व्‍यक्‍त करते उनके रंगों में अमूर्तता का वह भाव जो किसी बहुआयामी कविता को पढ़ते हुए होता है, शास्त्रीय कला का संग साथ होते उनके चित्रों में नजर आता रहा। उनके इधर के चित्रों से भी यह स्‍पष्‍ट दिखता है कि ऑब्जेक्ट के बाहरी रूप को हूबहू रचते हुए भी उनके ब्रश, रंगों को उस खुरदरपन की तरह फैलाते चल रह हैं, जो सिर्फ चाक्षुश अहसास नहीं छोड़ना चाहते। बल्कि दृश्‍य को घटनाक्रम के स्‍तर पर जाकर देखने को उकसाते हैं। फिर चाहे कोविड के दौरान दुनिया में छाया लॉक डाउन हो, एक पिता के भीतर अपनी बच्‍ची के प्रति अगाध स्‍नेह हो और चाहे किसी भूगोल विशेष का जनजीवन हो।   

रंगों के संयोग से उभरती यह ऐसी अमूर्तता है जो चित्रों को एक रेखीय नहीं रहने देती है। बिभूति दास की यह रचनात्मक यात्रा उत्सुकता पैदा करती है यहां प्रस्‍तुत हैं उनके कुछ चित्र।  











Wednesday, December 9, 2020

राजनीति का काव्यात्मक लहजा- सीता हसीना से एक संवाद

 

पूंजीवादी संस्‍कृति की मुख्‍य प्रवृत्ति है कि नैतिकता और आदर्श का झूठ वहां बहुत जोर-जोर से गाया जाता है। विज्ञापनी जोश ओ खरोश के साथ। तानाकसी के चलन में पूंजीवादी चालाकियों का झूठा आदर्शीकरण किया जाता है। इतने जोर से कि कोई सच स्‍वयं को ही झूठ मानने के विभ्रम में जा फंसे। यही वजह है कि व्‍यापक अर्थ ध्‍वनि से भरे शब्‍द भी वहां अपने रूण अर्थों तक ही सीमित हो जाते हैं। देख सकते हैं कि राजनीति की लोकप्रिय शब्‍दावली में राजनैतिक शुद्धता को अक्‍सर कटटरता के रूप में परिभाषित किया जाने लगताहै। हालांकि शुद्धतावाद की राजनीति की आड़ में विवेक हीनता को छुपा लेने की चालें भी दिककतें पैदा करने वाली ही होती हैं।

अतिवाद के इन दो छोरों के बीच आदर्शों का झूला मध्‍यवर्गीय मिजाज वाला हो ही जाता है। हिंदी साहित्‍य की दुनिया में व्‍याप्‍त राजनैतिक चेतना इसी मध्‍यवर्गीय मिजाज की गिरफ्त में रही है। सिद्धांतत: स्‍वीकारोक्ति के इस माहौल में ही यथार्थोन्‍मुखी आदर्शवाद को महत्‍वपूर्ण मान लिया गया है। प्रतिफल में आधुनिकता की विकास प्रक्रिया का बाधित हो जाना और गंवई ढंग का बना रहना सामाजिकी में वास करता रहा है। सामाजिक संयोग के व्‍याप्‍त वातावरण में की जाती रही कदमताल को झूठे रचनात्‍मक आंदोलन से परिभाषित करते रहने की चाल ही गंवई आधुनिकता का पर्याय भी हुई है। जबकि आदर्शोंन्‍मुखी गंवईपन की सरलता का उठान यदि वस्‍तुनिष्‍ठ यथार्थ के साथ सिलसिलेवार बना रहता तो निश्चित ही आधुनिकता की विकासमान रेखा स्‍पष्‍ट होती चली जाती। उसके लिए जरूरी था, राजनैतिक आंदोलन न सिर्फ जारी रहें बल्कि रचनात्‍मक दायरों तक अटते चले जाएं। लेकिन मुक्‍कमिल रूप से ऐसा न हो पाने के कारण रचनात्मक गतिविधियों में मौलिक होने की कोशिशें इस कदर कुचेष्‍टाएं हुई कि गंवई आधुनिकता की सरलता भी भ्रष्‍ट होने लगी और कुतर्कों को सहारा पकड़ते हुए आधुनिकता की ओर भी पेंग बढ़ाती गईं। मध्‍यवर्गीय झूलों की आवृतियों के आयाम इन दो छोरों पर ही दोलन करते नतर आते हैं। मनोगत तरह से समाज का विशलेषण करते हुए यथार्थोन्‍मुखी आदर्शवाद की गति अपने मध्‍यमान पर स्थिर रह भी नहीं सकती थी। संतुलन की स्थिति को हांसिल करने के लिए भाषायी जतन नाकाफी होते हैं। शिल्‍पगत प्रयोगों के जरिये और अन्‍य तरह से रूपाकार गढ़ने में वह बनावटीपन का शिकार हो जाते हैं। रचनाकार के भीतर की हताशा और निराशा भी उस छुपे न रह गए को स्‍वयं दिख जाने में ही जन्‍म लेती है।

 

साहित्‍य और कला की दुनिया में 'प्रतिबद्धता' और 'स्‍वतंत्रता' का शोर बहुत ज्‍यादा रहा है। प्रतिबद्धता का स्‍वांग भरते हुए सांगठनिक दायरों के भीतर भी गिरोह बनाने वाले, प्रगतिशील कहलाना चाहते रहे। प्रगतिशीलता को मूल्‍य मानते हुए भी बौद्धिक स्‍वतंत्रता का राग अलापने वाले एवं स्‍वतंत्रता को ब्‍यूरोक्रेटिक अंदाज में बरतने वाले कलावादी खेमे में पहचाने जाते रहे हैं। राजनीति को नकारने की प्रवृत्ति दोनों ही खेमों में अपने-अपने तरह से प्रभावी है। भाषा और शिल्‍प के अतार्किक प्रयोग के नाम पर 'प्रगतिशील' भी 'बौद्धिक स्वतंत्रता' का पक्षधर हो जाने में ही ज्‍यादा गंभीर रचनाकार हो जाना चाहता है। साहित्‍य एवं कला की दुनिया की इस प्रवृत्ति पर चर्चा करने लगें तो यह टिप्‍पणीकार भी मध्‍यवर्गीय दायरे के उस व्‍यवहार से शायद ही पूरी तरह मुक्‍त दिखाई दे जिसकी व्‍याप्ति के असर से विघटनकारी शक्तियां समाज में खुद को स्‍थापित करने में प्रभावी रही हैं। स्‍पष्‍ट जानिये कि मुक्तिबोध की शब्‍दावली में कहा जाने वाला मुहावरा 'पार्टनर तेरी पॉलिटिक्‍स क्‍या है' का आशय सिद्धांत को व्‍यवहार में ढालने और अनुरूप जीवनमय होने के आह्वान की पुकार बनकर हर वक्‍त गूंजता रहने वाला ऐसा राजनैतिक बोध है जिसकी संगति आधुनिकता को ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण रूप से परिभाषित करती रहने वाली है।

 

रचनात्‍मक सक्रियता और ऊर्जा से भरी कथाकार सुभाष पंत की कहानी ''सीता हसीना से एक संवाद'' को पढ़ते हुए ऐसे कितने ही सवाल जेहन में उठते हैं जो खुद के भीतर व्‍याप्‍त अन्‍तर्विरोधों से टकराने का अवसर प्रदान करते हैं। यूं तो 'पॉलीटिकली करेक्‍ट' होने की कोशिश सुभाष पंत कभी नहीं करते। उनका ध्‍येय एक ऐसी राजनीति के पक्ष को रखना होता है जिसमें आम जन के दुख दर्दों का शमन किया जा सके। 'मुन्‍नीबाई की प्रार्थना' से लेकर पहल 122 में प्रकाशित कहानी इसका साक्ष्‍य है। पहल 122 की कहानी से पहले की कहानियों में कथाकार सुभाष पंत की यह रचनात्‍मक विकास यात्रा कदम दर कदम आगे बढ़ते हुए नजर आती है। यानी पहले की कहानियों में संवेदना के स्‍तर पर पाठक को छूने की कोशिशें अक्‍सर हुई हैं। जबकि उल्‍लेखित कहानी के आशय उससे आगे बढकर बात करते हुए हैं।

वर्तमान दौर की सामाजिक चिंताओं को रखने के लिए कथाकार ने कहानी की बुनावट को विभाजन की पृष्‍ठभूमि और उस त्रासदी में की मार को झेलने वाले पात्र की मदद से बहुत से ऐसे इशारें भी किये हैं जिनका वास्‍ता दुनिया में अमन चैन कायम करने की ओर बढ़ता है। उसके लिए जिन औजारों का प्रयोग होना है, कथाकार के यहां वे औजार साहित्‍य के रूप में दिखायी देते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना का यह कहना यूंही नहीं, ''कृपया बताइए कि बिशन सिंह पागल है या सियासत पागल है जिसने एक लाख बीस हजार लोगों को बेघरबार किया, दस लाख्‍ लोगों को मौत के मुंह में धकेला और पिचहतर हजार औरतों को ज्‍या‍दतियों का शिकार किए जाने को मजबूर किया और यह भी कि टोबाटेक सिह कहानी बड़ी है या उसका लेखक बड़ा है ?''

घटनाओं के संयोग से बुनी जाने वाली रचनाओं पर लेखक का भरोसा हमेशा से है। साहित्‍य के प्रति लेखक के भीतर अतिशय विश्‍वास की यह उपज हिंदी की रचनात्‍मक दुनिया के बीच से ही है। लेकिन बिगड़ते सामाजिक हालातों ने शायद लेखक के भीतर के इस विश्‍वास पर सेंधमारी सी कर दी है। ऐसे में अपने भरोसे पर टिके रहना लाजिमी है। यह कहानी उस द्वंद को उभारने में भी सक्षम है। कथा पात्र सीता हसीना का सवाल इस विश्‍वास का चुनौती देता है और कथाकार के भीतर के द्वंद ही सीता हसीना के सवालों में जगह पा जाते हैं।     

  

 

पंत जी की यह कहानी समाज और साहित्‍य के जरूरी रिश्‍तों पर एक बहस शुरू करते हुए जिस तरह से अपने कथानक में प्रवेश करती है, उससे गुजरते हुए यह देखा जा सकता है कि यह कहानी आलोचना की उस शाखा से परहेज कर रही है जिसने बदलावों के झूठ में रचे गये की अनुशंसा या उसको सही दिशा मान लेने को ही सर्वोपरी माना है। ऐसी रचनाओं के कथानक सत्‍य घटनाओं वाले यथार्थ की गारंटी करते हुए भी हो सकते हैं। 'सीता हसीना' का लेखक संवेदना के धरातल पर भीतर तक हिला देने वाली रचनाओं से रिश्‍ता बनाना चाहता है। मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह' का जिक्र अनायास नहीं है, लेखकीय मंशा को जाहिर करता है।

मनुष्‍य की पहचान को धर्म के साथ देखने का आग्रह, उस वैचारिकता से मुक्‍त नहीं जिसने धर्मनिरपेक्षता को 'सर्वधर्म सम्‍भाव' की तरह से परिभाषित किया है। लेकिन कहानी में लेखकीय वैचारिकी का यह तत्‍व इसलिए अनूठा होकर उभर रहा है कि यहां लेखक समाज के शत्रुओं से निपटने के लिए निहत्‍था होकर उनके घर में प्रवेश करते हुए भी उनके ही हथियारों से लड़ने की कला का नमूना पेश करता है। दुश्‍मन के खेमे में घुसकर लड़ना, निहत्‍थे होकर घुसना और दुश्‍मन के हथियारों से ही उस पर वार करना, इस कला को सीखना हो तो कथाकार सुभाष की इस कहानी को विशेष तौर पर पढ़ा जाना चाहिए। कोई रचनाकार अपने समय काल से जब पूरी तरह संवादरत रहता है, तो ही ऐसी रचनाएं सामने आती हैं।

 

समाज के विकास में राष्‍ट्रवाद एक चरण है, लेकिन अन्तिम नहीं। यह कहानी भी कुछ इसी तरह की अनुगंजों में घटित होती है। स्‍थानिकता से वैश्विक होती यह एक अन्‍तराष्‍ट्रीय फ्रेम को बनाती रचना है। यथार्थ की पृष्‍ठभूमि से उपजी और अवधारणा के स्‍तर पर जददो जहद करने को मजबूर करती यह एक राजनैतिक कहानी है। जिसकी रेंज राष्‍ट्रवाद तक सीमित नहीं है। झूठे राष्‍ट्रवाद की प्रतीक 'माता' की स्‍थापना में धर्मों की विभिन्‍नता भरे समाज की कल्‍पना करता है, बल्कि इतिहास में मौजूद इस सच को ही प्रमुख बना देता है। अपने माता-पिता के धर्मो का खुलासा करती सीता हसीना दरअसल भारत माता की उस छवि को देखने का इशारा बार-बार कर रही है जिसकी संगति में 'विशेष धर्म ही राष्‍ट्र है', मध्‍यवर्ग के बीच इधर काफी ही तक स्‍वीकार्य होता हुआ है। आपसी भाईचारे में आकार लेता समाज संरचित करने का यह तरीका उस राजनीति का पर्याय है जिसका वास्‍ता सर्वधर्म सम्‍भाव से रहा है। राष्‍ट्रवादी झूठ को फैलाने वाले भी जिसके सहारे ही जब चाहे तब प्रेममय दिख सकते हैं और जब चाहे तब 'लव-जेहाद' के फतवे जारी करते रहते हैं। पंत जी कहानी कुछ-कुछ उस ध्‍वनि को ही अपना बनाती है जिसने 'लव-जेहाद' के शाब्दिक अर्थ को विग्रहित करके उसकी नकारात्‍मक अर्थ-ध्‍वनि को चुनौती देनी शुरू की है। हालांकि अपने निहित अर्थ में यह चुनौती भी कोई ऐसा फलसफा लेकर साने नहीं आती जिसमें आर्मिक आग्रहों से जकड़ा समाज मुक्ति की राह पर बढ़ सके।     

ठीक इसी तरह पंत जी भी अपनी उल्‍लेखनी कहानी में झूठे राष्‍ट्रवादी से मुक्‍त नहीं हो पाते हैं और उसकी जद में ही बने रहते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना के मार्फत विभाजन के कारणों पर टिप्‍पणी करते हुए सीता हसीना का संवाद सुनाई पड़ता है- दरअसल यह ऐसा जंक्‍चर है जहां से खड़े होकर एक लेखक के भीतर परम्‍परा की गहरी जड़ों और उससे मुक्ति की चाह भरी छटपटाहट को समझा जा सकता है। उसकी गति को पहचाना जा सकता है। उसके उपजने के सामाजिक, नैतिक कारणें की पड़ताल की जा सकती है।   

      

अध्‍यात्‍म की गरिमा और कलाओं का माधुर्य कहते वक्‍त पंत जी के जेहन में क्‍या रहा होगा, यह विचारणीय है। सीता हसीना का परिचय देते हुए कथा का नैरेटर ऐसा वर्णन करता करता है। निश्चित ही यह बिन्‍दू गंवई आधुनिकता से पूरी तरह मुक्‍त न हो पाए रचनाकार का परिचय देता है। अलबत्‍ता यह कहानी अपनी बुनावट में आधुनिकता के झूठ को रचने वाली कहानियों की रफ्तार में एक हद तक शामिल होते हुए भी खुद को उससे बाहर ले आने की कोशिश भी लगती है। मेरा मानना है कि इस कहानी का महत्‍व कहानी के बीच आए इस संवाद में तलाशा जा सकता, ''मैंने एक अनिश्वरवादी धर्म के बारे में भी जाना, जिसकी मान्यता है कि सृष्टि का संचालन करनेवाला कोई नहीं है, वह स्वयं संचालित और स्वयं शासित।'' वैसे कहानी में यह संवाद एक विशेष धर्म की बात करते हुए कहा गया है लेकिन इसका अर्थ विस्‍तार करें तो धर्म विलुप्‍त हो सकता है और एक ऐसी राजनीति का चेहरा आकार ले सकता है जो सामाजिक व्‍यवस्‍था के संचालन में स्‍वय्रं को ही विलोपित कर लेने का आदर्श हो सकती है। यहीं उनकी गद्य भाषा का मिजाज भी काव्यात्मक लहजे की बानगी बनता है। हालांकि यदा-कदा की अपनी बातचीत में सुभाष पंत कविता के मामले में खुद की समझ पर संदेह से भरे रहते हैं। उनके पाठक भी उन्‍हें कहानीकार के रूप में ही जानते हैं। यूं भी उन्‍होंने कभी कोई कविता नहीं लिखी, अपने लेखन के शुरूआती दौर में भी नहीं।

Saturday, December 5, 2020

कहां हो साहेबराव फडतरे?


चाहता तो था कि यादवेन्‍द्र जी की इधर की गतिविधियों पर बात करूं। हमेशा के घुमडकड़ इस जिंदादिल व्‍यक्ति ने पिछले कुछ वर्षों से फोटोग्राफी को लगातार अपने फेसबुक वॉल पर शेयर किया है। उन छवियों में 'अभी अभी' का होना इतना प्रभावी हुआ है कि शाम और सुबह की रोशनी में वर्तमान राजनीति के षडयंत्रों पर भी लगातार टिप्‍पणी की छायाएं बहुत साफ होकर उभरती हुई हैं। लेकिन अपने अनुवादों के लिए प्रसिद्ध यादवेन्‍द्र जी के मेल से प्राप्‍त एक महत्‍वपूर्ण पत्र को प्रकाशित कर रहा हूं। अनुवादों में यादवेन्‍द्र जी के विषय चयन उनके भीतर के उस व्‍यक्ति से भी परिचय रहे हैं, जिसकी काफी स्‍पष्‍ट झलक प्रस्‍तुत पत्र के प्रभाव में भी दिखती है।

सभी चित्र यादवेन्‍द्र जी के ही हैं।

 

वि गौ   

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कहां हो साहेबराव फडतरे? कैसे हो? उम्मीद नहीं पक्का भरोसा है कि अब तक बंदीगृह से मुक्त हो गए होगे और लगभग पचपन साल का प्रौढ़ जीवन एक बार फिर से  पटरी  पर लौट आया होगा - चाहे अध्यात्म के रास्ते पर...या गृहस्थी के रास्ते पर।भारत भ्रमण के अपने सपने को पूरा करते हुए यदि कभी इधर पटना या बिहार का कार्यक्रम बनाओ तो तुम्हें अपने घर आमंत्रित करना मुझे बहुत अच्छा लगेगा।

(पच्चीस साल पुरानी बात है मैंने किसी अंग्रेजी अखबार या पत्रिका में(अब नाम याद नहीं) पुणे के येरवडा जेल के कैदी कवियों की कविताएं अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ी थीं। उस पढ़ कर मैंने जेल के प्रमुख को उन कवियों की कविताओं के हिंदी अनुवाद करने की इच्छा के साथ एक अनुरोध पत्र लिखा था जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।कुछ कवियों के साथ मेरा सीधा पत्र व्यवहार भी हुआ और उनमें से कुछ ने काम चलाऊ हिंदी में और कुछ ने मराठी में कविताएं मुझे भेजीं। कविताओं के साथ साथ उन्होंने अपने जीवन अनुभव और सजा के कारणों के बारे में भी मुझे बताया। इस सामग्री का उपयोग कर मैंने अपनी मित्र क वि सीमा शफक के साथ मिलकर "अमर उजाला" की रविवारी पत्रिका के मुखपृष्ठ के लिए एक विस्तृत आलेख तैयार किया - दुर्भाग्य से वह प्रकाशित सामग्री मेरे पास अब नहीं है पर एक कवि साहेबराव फड तरे की यह चिट्ठी आज हाथ लगी।इस चिट्ठी के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं:)
यादवेन्द्र yapandey@gmail.com
09411100294






 । श्री।
।। ओम, नमो गणेशाय।।

पुणे -येरवडा
दिनांक 27- 11- 1995

प्यारे भाई साहब यादवेंद्र जी, अनोखा साथी साहेबराव का प्यार भरा सलाम

खत लिखने का वजह आपका अंतर्देशी कार्ड मिला। पढ़कर आपके दिल की बात मालुम हो गयी। मेरे यहां के साथी (कवि) उनको आपका अड्रेस देता हुं। और कविताये भेजना या नही भेजना यह उन्ही के ऊपर छोड़ देना। क्योंकि हरेकी पसंती अलग-अलग होती है। मैं और एक बात आपसे पुछना चाहता हुं। की जो कभी हिंदी में ही कविताये लिख रहे हैं। उनकी कविता भेज दिया तो चलेगा क्या? अगर आपने लिखा चलेगा, तो उन्ही को भी आपका अड्रेस दे 
दुंगा।
 आपने और चार पांच कविताये मांगी है। मैं जरूर भेज दुंगा।
 लेकीन पहले कवि तों का अनुवाद पसंत आया तो।
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आपको मैंने पहले "आक्रोश" नाम की कविता भेजी थी। उसमें दुःख से रोने वाला मैं अब बोल रहा है - "अब रोना छोड़ दे"। इतना फर्क मुझ में क्यु हो गया। इसकी वजह मेरी जन्मठेप सजा है। मैंने दुःख को ही गुरु बनाया। और दुःख का वजह भी ढुंडा। अब मुझे ऐसा लग रहा है। मुझे सजा हो गई यही अच्छा हुआ। मैंने अपने बिवी को खत लिखा की तुम मेरी जिंदगी में आयी, इसलिए मुझे खुदा मिला। अब छुटने के बाद अगर तुम मेरे जिंदगी में आने की कोशीस की तो मैं तेरे पैर छु लेगा। मैं तुझे मां कहुंगा। तुझे दुसरी शादी बनाना है तो बना डाल।
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भाई साब, अपनी दोस्ती कितने दिनों की है। यह मुझे भी मालुम नहीं। खुदा ने चाहा तो, आप से बाहर भी मुलाकात होगी। आप अपनी एड्रेस मराठी दोस्तों से लॉन्ग फॉर्म में लिखवा के भेजना (अच्छी अक्षर में) ।अब मेरी उम्र 39 साल की चालु है। अब मेरे पास लिखने के लिए कुछ नहीं है। इसलिए कविता भी लिखना बंद कर दीया है। आप मेरी नजर बाहर की दुनिया में लगी है। सन्यास ले के मैं पैदल से भारत भ्रमन  कर दुंगा। और क्या लिखुं। आपको लिखने के वजह से मैं अपनी बिती हुयी जिंदगी में घूम के आया। जो भुल गया था, उसको याद करना पड़ा। अच्छा कोयी बात नहीं। आपके आने वाले लेटर की राह देखुंगा। आपके दोस्त यार, घर वालों को सलाम।
आपका अनोखा दोस्त 
साहेबराव फडतरे

(यहां मैंने वर्तनी की अशुद्धियां प्रामाणिकता को बरकरार रखने के उद्देश्य से छोड़ दी हैं, मेरी कोई और मंशा नहीं है। यादवेन्द्र  )