Wednesday, June 23, 2021

मेरी सार्वभौमिकता, तेरी सार्वभौमिकता

 रणनीति को राजनीति मान लेने वाली समझदारी की दिक्कत है कि वह विचारक को स्वयं ही एक ऐसे गढढे में धकेल देती है कि उससे बाहर निकलने का रास्ता ढूंढना मुश्किल हो  जाता है। बल्कि होता यह है कि गढढे से बाहर निकलने का रास्ता नजर नहीं आने पर वह विचार को ही गलत मानने लगती है, या फिर उसके उलट ही व्यवहार करने लगती है। फिर चाहे वहां रोज की तरह "कभी-कभार" लिखने वाले अशोक बाजपेयी हो और चाहे 'सार्वभौमिक' रूप से पहचाने जाने वाले मार्क्सावादी आलोचक वीरेन्द्र यादव । 

विचार की सार्वभौमिकता पर बात करते हुए यदि अशोक बाजपेयी लिखते हैं, ''यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि हमारे समय में विचार की गति शिथिल हो गयी है।'' और इस शिथिलता की क्रोनालॉजी को  इस तर्क में बांधते हैं, ''रचना आगे चलती है और अकसर आलोचना थोड़ा पीछे चलती है, विचार और विचारधाराएं आलोचना से भी पीछे चलती है, रचना जिस गति से बदलती है, आलोचना नहीं और विचार तो बहुत धीरे बदलता है,''  तो देख सकते हैं कि वे उसी गलतफहमी को तर्क बनाकर आगे बढ़ा रहे हैं जिसका बिगुल कभी कथा सम्राट प्रेमचंद ने बजाया था ओर जिसको थामते हुए ही हिदी की रचनात्महक दुनिया साहित्य् को राजनीति की मशाल मानती रही। 

वीरेनद्र यादव चाहते तो आम जन की राजनीति की कोई स्पाष्ट‍ दिशा न होने पर भाषा और शिल्प की कलाबाजी में गोते लगतो साहित्य के कारणों की पड़ताल करते हुए किसी बेहतर निष्कर्ष पर पहुंच सकते थे। लेकिन ऐसा करने के लिए तो पहले उन्हें खुद भी अपने से टकराना होता और देखना होता कि राजनैतिक दिशा के अभाव में साहित्य जन आकांक्षाओं का कोई नया विकल्पख नहीं खोज सकता है। यानी साहित्य राजनीति की मशाल नहीं हो सकता। लेकिन वे तो सार्वभौमिकता की चाहत को ही वर्चस्वतवादी करारे देने लगते हैं।

उनको पडते हुए अफसोस तो हो रहा, साथ ही यह भी सोचने को मजबूर होना पड़ रहा कि सार्वभौमिकता की अपनी उस समझ का क्या करूं जो मूल्य , व्यावहार, संस्कृति, लिंग ओर अन्य सामाजिक पहचान के साथ सभी समूहों के बीच एका के रूप में देखती रही है। सार्वभौमिकता को समझने के लिए तो मेरा यकीन नोम चॉमस्कीम के उस सिद्धांत पर भी है, जो बताता है कि कोई मातृभषी अपनी मातृभाषा के अव्यातख्यायित व्याकरण को स्वतत: ही सीख जाता है। या, फिर शिक्षा में वर्गवादी दृष्टि के विरूद्ध सार्वभौमिक शिक्षा की बात का भी मैं हिमायती हूं।

स्थानिकता को छिन्न  भिन्न करते हुए दुनिया भर के संघर्ष की सार्वभौमिकता को विभाजित करने वाली तकनीकी आंधी से इत्तिफाक कौन रखना चाहेगा। लेकिन उस आंधी की मुखालफत में यह भी कैसे भूल जायें कि सार्वभौमिकता तो हर स्थानिकता के सम्मान के साथ ही जन्म लेती है। वरना तो उसका कोई अस्तित्व ही नहीं।

2 comments:

गीता दूबे, कोलकाता said...
This comment has been removed by the author.
Onkar said...

बहुत ही सुंदर