Tuesday, March 21, 2023

कथाकार सुभाष पंत की रचनाएं एवम उनके पाठक

सौरभ शाण्डिल्य एवम कथाकार विद्या सिन्ह से जानकारी मिली है कि प्रगतिशील एवम जनवादी सरोकरो के स्वतंत्र संगठन 'धागा: विमर्श का मंच' ने आभासीय दुनिया के अपने पटल पर मार्च 2023 में ही कथाकार सुभाष पंत की कहानी ‘ए स्टिच इन टाइम’ सदस्यो के पढने के लिए एवम उस पर खुल कर बात करने के लिए लगाई गई थी. वहा प्राप्त हुई प्रतिक्रियाएं यहाँ पुनः सांझा की जा रही हैं. इसके साथ ही आभासीय दुनिया में इसी माह अन्य जगहो पर भी कथाकार सुभाष पंत के पाठक उनकी कहानियो को सांझा करते हुए दिखे.

कहानी ए स्टिच इन टाइम ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि इन मल्टिनैशनल कंपनियों की बढ़ती लोकप्रियता में हम भी कहीं शामिल हैं, शामिल हैं हुनर के उन काट दिए हाथों के गुनाह में,भूख और मजबूरी के चक्रव्यूह में जो हमारी रजामंदी से रचाया गया। केवल एक दर्जी नहीं जाने कितने हुनरमंदों को मालिक से नौकर बनना पड़ा है। वैश्वीकरण की नीतियों ने पूँजीपतियों की मंशा को किस कदर फलीभूत किया है, हम अपने आसपास आसानी से देख रहे हैं लेकिन महसूस नहीं कर पा रहे। इस कहानी में मुख्य पात्र ने महसूस किया और पाठक को महसूस करवाया कि एक बड़ी मछली किस तरह छोटी मछलियों का शिकार कर पूरे तालाब में अपना वर्चस्व बढ़ाती है। कहानी में दो पीढ़ियों के बीच परिवर्तन के अंतराल और मानसिकता को बाखूबी दर्शाया गया है। यह आर्थिक रूप से सक्षम लोगों का ही शगल है, जिन्हें दाम से नहीं ब्रांडेड नाम से मतलब है, अपनी शान बनाने के लिए इन कंपनियों का समर्थन करते हुए कितने लोगों को मालिक से मजदूर बनने को विवश कर दिया। हमारे बुजुर्ग और हमारी पीढ़ी के लोग भले ही आज भी दर्जी से सिलवाए कपड़े शौक से पहन भी लेते हैं किंतु हमारे बच्चों पर ब्रांडेड कंपनियों का भूत सवार है। मोबाइल पर आनलाइन शापिंग का खूब खेल चल रहा है। माॅल संस्कृति ने आमजन की जेबों पर कब्जा कर रखा है। यही तो वह आर्थिक खाई है जो बढ़ती जा रही है क्योंकि यह सर्वोन्मुखी विकास नहीं है। कहावत है कि पैसा पैसे को खींचता है लेकिन किनके पैसे को खींचता है शायद यह हम सोच नहीं पाते या सोचना नहीं चाहते। कहानीकार कहानी को अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ाते हुए पाठक को अपनी मानसिक दशा से अवगत कराते हुए कहीं न कहीं पाठक का समर्थन भी हासिल करता जाता है। किंतु मुख्य पात्र का खुल कर विरोध न कर पाना पाठक को निराश भी करता है। यहां तक कि नशे में भी वह अपना आपा नहीं खोता, एक ओर बीवी का स्टेटस तो दूसरी ओर बेटी के मनचाहे भविष्य की चिंता में वह अपने मन की करना तो दूर खुल कर कह भी नहीं पाता। कहानी का आखिरी हिस्सा बेहद मार्मिक बुना गया। जब दर्जी नज़र अहमद की बेटी अपनी आपबीती कहती है, अपने लिए दयायाचना नहीं बल्कि एक हुनरमंद पिता की बेटी से हुई ग़लती की माफ़ी माँगती है, और अपनी कुंठा से बाहर आते ही मुख्य पात्र अपनी ब्रांडेड कमीज़ में लगे अतिरिक्त बटन की जगह लगा हुआ उल्टा बटन देखता है तो दिल धक्क से रह जाता है। कहानी पूरी तरह से मस्तिष्क को मथ कर रख देती है इसकी शैली और शिल्प बेजोड़ है। एक बेहतरीन कहानी पढ़वाने के लिए धागा : विमर्श का मंच का धन्यवाद 💐🙏 रूपेंद्र राज तिवारी रायपुर/छत्तीसगढ़
मल्टी नेशनल ब्रांडेड कम्पनियों ने किस तरह ,दर्ज़ी , कुटीर उद्योगों को अपनी विकरालता में लील कर इन्हें असहाय और दरिद्रता के कगार पर ला दिया है। कहानी ' अ स्टिच इन टाइम' लेखक -सुभाष पंत जी ने बहुत ही मार्मिक पड़ताल करते हुए इसे लिखा है। अमन टेलर्स जैसे कई नज़र अहमदों की दुकान का बंद होना,मालिक से नौकर की स्थिति में आ जाना। लेखक इसे नफ़ीस हत्याएं कहता है जहां दोषी को कोई सज़ा नहीं होती। कहानी के कुछ वाक्यांश कविता की तरह हैं। - श्रम का कविता और संगीत हो जाना। आयशा अंसारी का एकालाप व्यथित करने वाला है। आभार: धागा विमर्श का मंच🙏🏻 ख़ुदेजा जगदलपुर/ छत्तीसगढ़
आधुनिकता कितने मुंह का निवाला छीन रही है उनके दर्द को दिखलाती संवेदन शील कहानी। एक कहानी बहुत सारे विषयों को समेटे है। परंपरा,रिश्ते,अवसरवादी, पीढ़ियों की कश्मकश में गुंथी कहानी पटल पर रखने के लिए साधुवाद सुनीता पाठक
एक जरुरी और विचारवान कहानी है यह। इसे पढ़ते हुए प्रज्ञा रोहिणी की कहानी 'मन्नत टेलर्स' या आती रही। ग़ज़ब संयोग यह कि वहां टेलर है रशीद भाई और यहां नजर अहमद। दोनों की दुकानों को रेडीमेड वस्त्रों का कारोबार निगल गया। इस कहानी में अपनी पीड़ा चरित्र खुद कहते हैं जबकि मन्नत टेलर्स में परिस्थितियों के मार्फ़त स्थिति व पीड़ा खुलती है। हालांकि दोनों कहानियों के क्लाइमेक्स और अंत अलग हैं। लेकिन पीड़ा एक ही है जोकि होना भी चाहिए। हुनरमंद और छोटे पेशे में लगे लोगों के बेरोजगार हो जाने की कथाओं में मनीष वैद्य की 'घड़ीसाज' को भी शामिल किया जाना चाहिए। ग्रामीण शिल्पकार को परेशानी में डालती कहानी हवाई जहाज सन 85 में सारिका में छपी थी। इस कहानी में उसके बृहद आकार के अनुरूप तमाम दृश्य और सम्वाद भी हैं। दर्जी की बेटी का आत्मालाप एक नए शिल्पगत प्रयोग के रूप में सामने आता है। रितु वेरी नाम का प्रयोग भी नया शिल्पगत प्रयोग है। बाजार के बहुलतावादी युग मे छोटे छोटे प्रचार प्रयोग भी कहानी को नया विस्तार देते हैं। हुनरमंद पीढ़ी को छोटा दुकानदार खा रहा है और बड़ा उसको; तो इसको भी मल्टीनेशनल कंपनी खाए जा रही है। शीर्ष पर एकाधिकार यूँ ही होता जा रहा है तभी तो दर्जी से सिलाई जाने वाली सादा शर्ट की कीमत 500₹ (कपड़ा300+सिलाई 200) की तुलना में अच्छी शर्ट ऑफ सीजन और स्टॉक क्लियरेंस में आउटलेट व शो रूम में 100/ 200 मात्र में शर्ट मिल जाती हैं, भोपाल का न्यू मार्केट बरामदाहो या दिल्ली का कनॉट प्लेस /पालिका बाजार का कैम्पस; सब जगह यही हाल। कहानी खत्म हो के भी खत्म नहीँ होती, पाठक के मन मे जारी रहती है, यह लेखक की बड़ी रचनात्मकता है। धागा: विमर्श का मंच राज बोहरे
मल्टी नेशनल ब्रांडेड कम्पनियों ने किस तरह ,दर्ज़ी , कुटीर उद्योगों को अपनी विकरालता में लील कर इन्हें असहाय और दरिद्रता के कगार पर ला दिया है। कहानी ' अ स्टिच इन टाइम' लेखक -सुभाष पंत जी ने बहुत ही मार्मिक पड़ताल करते हुए इसे लिखा है। अमन टेलर्स जैसे कई नज़र अहमदों की दुकान का बंद होना,मालिक से नौकर की स्थिति में आ जाना। लेखक इसे नफ़ीस हत्याएं कहता है जहां दोषी को कोई सज़ा नहीं होती। कहानी के कुछ वाक्यांश कविता की तरह हैं। - श्रम का कविता और संगीत हो जाना। आयशा अंसारी का एकालाप व्यथित करने वाला है। आभार: धागा विमर्श का मंच🙏🏻 ख़ुदेजा जगदलपुर/ छत्तीसगढ़





अंजु शर्मा ने आपनी फेसबुक टाइमलाइन पर एक कहानी क जिक्र कुछ इस तरह किया, कल रात सुभाष पंत सर की एक बहुत शानदार कहानी पढ़ी - रतिनाथ का पलंग। बहुत ही उम्दा और मार्मिक कहानी है। मानवीय संवेदनाओं और व्यवहार की कितनी सूक्ष्म पड़ताल है इस कहानी में। ये विश्वास पुख़्ता हुआ कि वे ऐसे ही नहीं मेरे प्रिय कथाकार हैं। उनकी टाइमलाइन पर ही अन्य टिप्पणिया देखी जा सकती हैं.


राजेश सकलानी ने आपनी फेसबुक टाइमलाइन पर एक कहानी क जिक्र कुछ इस तरह किया, " मक्का के पौधे " हिन्दी के वरिष्ठ और संभवतः सबसे ज्यादा सक्रिय कथाकार सुभाष पंत की यह कहानी अपने सुघढ स्थापत्य और भाषा के अतिरिक्त सामाजिक जीवन की जटिलता और सौंदर्यबोध के कारण ध्यान आकर्षित करती है। निम्नवर्गीय परिवार का लालता और उसकी पत्नी मुश्किल स्थितियों में पड़ जाते हैं जब उनका जवान लड़का जो ट्रक ड्राइवर है, एक शादी शुदा औरत को अपने घर ले कर आ जाता है। यह उन्हें अनुचित जान पड़ता है। अंत के एक दृश्य में औरत खेत में रौंदे गए मक्की के पौधों को फिर से रोप कर सीधा खड़ा कर देती है।औरत का सलीका और व्यवहार लालता को अच्छा लगने लगता है। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि औरत का पूर्व पति यहां ज्यादती का शिकार हो रहा है। सुगनी इस पुरुष की रक्षा में अपनी बात रखती है और औरत को अपने घर लौटने को कहती है। औरत मानती है कि उसके पति में कोई दोष नहीं है।वह उसके विरुद्ध नहीं है। लेकिन वह अपने प्रेम के लिए यहीं रहना चाहती है। कथाकार शायद समाज में ऐसी ही पारदर्शिता और ईमानदारी को स्थापित करना चाहते हैं। यद्यपि ऐसी स्थितियों में लोक किसी न किसी पात्र को शत्रु बनाने पर उतारू हो जाएगा। लालता को भाग कर आई औरत स्वीकार्य नहीं है।सुगनी को सहानुभूति है पर सामाजिक मर्यादाएं उसे कटु बना रहीं हैं।उसका कहना है कि " हाथ जोड़ती हूं , तू अपने घर चली जा" वह पूछती है " उससे छूट हो गई ? " जबाव मिलता है " नहीं ।छूट तो मन की है।जब मन ही नहीं मिला । " उनकी टाइमलाइन पर ही अन्य टिप्पणिया देखी जा सकती हैं.

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